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गीतावली

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :282
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3202
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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रामकथा पर आधारित पुस्तक

Tulsidas Krat Gitawali

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘गीतावली’ को ध्यान से पढ़ने पर ‘रामचरित मानस’ और ‘विनयपत्रिका’ की अनेक पंक्तियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। रामचरित मानस के मार्मिक स्थल ‘गीतावली’ में भी कथा विधान के तर्क से हैं और वर्णन की दृष्टि से भी उतने की मार्मिक बन पड़े हैं। लक्ष्मण की शक्ति का प्रसंग भातृभक्ति का उदाहरण ही नहीं है किसी को भी विचलित करने के लिए काफी है। भाव संचरण और संक्रमण की यह क्षमता काव्य विशेषकर महाकाव्य का गुण माना जाता है। ‘गीतावली’ में भी कथा का क्रम मुक्तक के साथ मिलकर भाव संक्रमण का कारण बनता है। कथा का विधान लोक सामान्य चित्त को संस्कारवशीभूतता और मानव सम्बन्धमूलकता के तर्क से द्रवित करने की क्षमता रखता है। ‘मो पै तो कछु न ह्वै आई’ और ‘मरो सब पुरुषारथ थाको’ जैसे राम के कथन सबको द्रवित करते हैं यह प्रकरण वक्रता मात्र नहीं है बल्कि प्रबंधवक्रता के तर्क से ही प्रकरण में वक्रता उत्पन्न होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यंगध्वनि के द्वारा ही यहाँ रस की प्रतीति होती है। राग-द्वेष, भाव-अभाव मूलक पाठक या श्रोता जब निवद्धभाव के वशीभूत होकर भावमय हो जाते हैं तो वे नितांत मनुष्य होते हैं और काव्य की यही शक्ति ‘गीतावली’ को भी महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति बना देती है।

प्राक्कथन

अपने समय की सभी महत्वपूर्ण शैलियों में रचना करने वाले हिन्दी जनता के सर्वप्रिय कवि तुलसीदास से सूरदास द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा ही काव्यभाषा थी, अवधी को सूफियों और तुलसीदास ने प्रतिष्ठित किया। ‘गीतावली’ तुलसी की प्रमाणित रचनाओं में मानी जाती है। कथ्य अनेक माध्यमों से लोकहृदय में व्याप्त हो मुख्यतः तो तुलसी को यही अभिप्रेत था। कृष्ण काव्य के प्रभाव से तुलसी में भी रुपवर्णन, प्रेमाभक्ति और मधुरोपासना के प्रभाव मिलने लगते हैं। गीतावली उसका प्रमाण है। गीतावली नामकरण वैसे भी जयदेव के गीतगोविन्द, विद्यापति, पदावली की परम्परा में ही है जो नामकरण मात्र से अपने विषयवस्तु को प्रकट करती है। गीतावली में संस्कृतवत तत्सम पदावली का प्रयोग सूरदास की लोकोन्मुखी ब्रजभाषा की तुलना में न केवल अधिक है बल्कि तुलसी के भावावेगों के व्यक्त करने में वह सहायक सिद्ध हुई है। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हृदय के त्रिविध भावों की व्यंजना गीतावाली के मधुर पदों में देखने में आती है। अर्थान्तर न्यास का जैसा कुशल प्रयोग ‘महिमा मृगी कौन सुकृति की खल बच विसिखन्ह बाँची’ में है वह अन्यत्र दुर्लभ है। राम भरत आदि के मार्मिक स्थलों पर तुलसीदास ‘गीतावली’ में वैसे ही सफल हैं जैसे ‘रामचरितमानस’ में। रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है ‘गीतावली’ की रचना गोस्वामी जी ने सूरदास के अनुकरण पर ही की है। बाललीला के कई पद ज्यों के त्यों सूरसागर में भी मिलते हैं, केवल ‘राम’ ‘श्याम’ का अन्तर है। लंकाकाण्ड तक तो कथा की अनेकरूपता के अनुसार मार्मिक स्थलों का जो चुनाव हुआ है वह तुलसी के सर्वथाअनुरूप है। पर उत्तरकाण्ड में जाकर सूर पद्धति के अतिशय अनुकरण के कारण उनका गंभीर व्यक्तित्व तिरोहित सा हो गया है, जिस रूप में राम को उन्होंने सर्वत्र लिया है, उनका भी ध्यान उन्हें नहीं रह गया। सूरदास में जिस प्रकार गोपियों के साथ श्रीकृष्ण हिंडोला झूलते हैं, होली खेलते हैं, वही करते राम भी दिखाये गये हैं। इतना अवश्य है कि सीता की सखियों और पुरनारियों का राम की ओर पूज्य भाव ही प्रकट होता है। राम की नखशिख शोभा का अलंकृत वर्णन भी सूर की शैली में बहुत से पदों में लगातार चला गया है।

‘गीतावली’ मूलतः कृष्ण काव्य परम्परा की गीत पद्धति पर लिखी गयी रामायन ही है। गीता परम्परा और गीत की प्रकृति के कारण कथा और वर्णन में लीलापरकता के कारण थोड़े बहुत परिवर्तन अवश्य हुए हैं और कुछ प्रसंगों को गीत के ही कारण छोड़ना पड़ा है। परंतु प्रसंगोद्भावना की शक्ति में ह्रास भी नहीं हुआ है। तुलसीदास और सूरदास में मूलभूत अंतर उस सामाजिक दृष्टि का भी रहा है, जो दोनों में भक्ति के स्वरूप के ही कारण नहीं मूल्यबोध के स्तर पर भी भिन्न थी। तुलसीदास केवल रामगुनगाथा या नामस्मरण के लिए ही रचना नहीं कर रहे थे उनका उद्देश्य कांडों में विभाजन की पद्धति के तर्क से काव्य रचना और सामाजिक मूल्यों की स्थापना का भी था। जहाँ कहीं तत्कालीन प्रभावों और रचनात्मक विचलन के तर्क से लोक मर्यादा में कुछ व्यवधान दिखायी पड़ता भी है दिव्यता बोध के तर्क से लौकिक से अलौकिक में बदल जाता है। गीतावली का निम्नलिखित पद आचार्य शुक्ल की दृष्टि में कृष्ण काव्य की माधुर्योपासना से प्रभावित है। यद्यपि तुलसी ने इसे लोकसामान्य लीला के रूप में ही वर्णित किया है और प्रारंभ से ही वह देवत्वकरण के तर्क से मंडित है।

खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।।
सोहैं सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलन्हि अबीर पिचकारि हाथ।।
बाजहिं मृदंग डफ ताल बेनु। छिरकै सुगंध-भरे-मलय रेनु।।
उत जुवति जूथ जानकी संग। पहिरे तट भूषन सरस रंग।।
लिए छरी बेंत सोधे बिभाग। चाँचरि झूमक कहैं सरस राग।।
नूपुर किंकनि धुनि अति सोहाइ। ललनागन जब जेहि धरइँ धाइ।।
लोचन आँजन्हि फगुआ मनाई। छाँड़हिं नचाइ हाहा कराइ।।
चढ़े खरनि विदूषक स्वांग साजि। करैं कटि निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परसपर गारि देत। सुन हँसत राम भइन समेत।।
बरबस प्रसून बर बिबुध बृंद। जय जय दिनकर-कुल-कुमुद-चंद।।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध बास। गावत कल कीरति तुलसिदास।।

‘गीतावली’ को ध्यान से पढ़ने पर ‘रामचरितमानस’ और ‘विनयपत्रिका’ की अनेक पंक्तियों की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। रामचरित मानस के मार्मिक स्थल ‘गीतावली’ में भी कथा विधान के तर्क से हैं और वर्णन की दृष्टि से भी उतने ही मार्मिक बन पड़े हैं। लक्ष्मण की शक्ति का प्रसंग भातृभक्ति का उदाहरण ही नहीं है किसी को भी विचलित करने के लिए काफी है। भाव संचरण और संक्रमण की यह क्षमता काव्य विशेषकर महाकाव्य का गुण माना जाता है। ‘गीतावली’ में भी कथा का क्रम मुक्तक के साथ मिलकर भाव संक्रमण का कारण बनता है। कथा का विधान लोक सामान्य चित्त को संस्कारवशीभूतता और मानव सम्बन्धमूलकता के तर्क से द्रवित करने की क्षमता रखता है। ‘मो पै तो कछु न ह्वै आई’’ और ‘मेरो सब पुरुषारथ थाको’ जैसे राम के कथन सबको द्रवित करते हैं यह प्रकरण वक्रता मात्र नहीं है बल्कि प्रबंधवक्रता के तर्क से ही प्रकरण में वक्रता उत्पन्न होती है। असंलक्ष्यक्रमव्यंगध्वनि के द्वारा ही यहाँ रस की प्रतीति होती है। राग-द्वेष, भाव-अभाव मूलक पाठक या श्रोता जब निवद्धभाव के वशीभूत होकर भावमय हो जाते हैं तो वे नितांत मनुष्य होते हैं और काव्य की यही शक्ति ‘गीतावली’ को भी महत्वपूर्ण साहित्यिक कृति बना देती है।

ब्रजभाषा यहाँ काव्यभाषा के रूप में ही प्रयुक्त है बल्कि यह कहा जा सकता है कि गीतावली की भाषा सर्वनाम और क्रियापदों को छोड़कर प्रायः अवधी ही है। वैसे भी काव्यभाषा अनेक भाषाओं के क्रियापदों और संज्ञाशब्दों के समाहार से ही विकसित और स्वीकृत होती है। ‘गीतावली’ का महत्व रामायण को ‘गीत पद्धति’ या शैली में अवतरित करने के कारण नहीं बल्कि उस पद्धति में और उसके द्वारा ही सोचने और रचने के कारण है। राम के जन्म से लेकर लवकुश की उत्पत्ति तक का यह पारिवारिक वृत्त वर्णाश्रम व्यवस्था की सम्पुष्टि की दृष्टि से नहीं बल्कि पारिवारिकता के मूल्य की दृष्टि से अत्यन्त मूल्यवान है। यह टीका इस कृति को तो समझने में सहायता करेगी ही विश्वास है कि तुलसीदास की अन्य रचनाओं को समझने के लिए भूमिका का कार्य करेगी। मध्यकालीन काव्य, मुख्यतः कृष्णभक्ति और रामभक्त संगीत, नृत्य आदि कलाओं की पारस्परिक रंजकता का काव्य है। गीतावली स्वयं इसका प्रमाण है।

सुधाकर पाण्डेय

राग असावरी


आजु सुदिन सुभ घरी सुहाई।
रूप-सील-गुन-धाम राम नृप-भवन प्रगट भए आई।। 1।।

अति पुनीत मधुमास, लगन ग्रह बार जोग समुदाई।
हरषवंत चर अचर भूमिसुर तनरुह पुलक जनाई।।2।।

बरषहिं बिबुध-निकर कुसुमावलि नभ दुंदुभी बजाई।
कौसल्यादि मातु मन हरषित, यह सुख बरनि न जाई।।3।।

सुनि दसरथ सुत जन्म लिए सब गुरु जन बिप्र बोलाई।
बेद-बिहित करि क्रिया परम सुचि, आनँद उर न समाई।।4।।

सदन बेद-धुनि करत मधुर मुनि, बहु बिधि बाज बधाई।
पुरबासिन्ह प्रिय नाथ हेतु निज निज संपदा लुटाई।।5।।

मनि, तोरन, बहु केतु पताकनि पुरी रुचिर करि छाई।
मागध सूत द्वार बंदीजन जहँ तहँ करत बड़ाई।।6।।

सहज सिंगार किए बनिता चलीं मंगल बिपुल बनाई।
गावहिँ देहिँ असीस मुदित चिरजिवौ तनय सुखदाई।।7।।

बीथिन्ह कुंकुम कीच, अरगजा अगर अबीर उड़ाई।
नाचहिँ पुर-नर-नारि प्रेम भरि देहदसा बिसराई।।8।।

अमित धेनु गज तुरग बसन मनि जातरूप अधिकाई।
देत भूप अनुरूप जाहिं जोइ, सकल सिद्धि गृह आई।।9।।

सुखी भए सुर, संत, भूमिसुर, खलगन मन मलिनाई।
सबई सुमन बिकसत रबि निकसत, कुमुद-बिपिन बिलखाई।।10।।

जो सुख सिंधु-सकृत-सीकर तें सिव बिरंचि प्रभुताई।
सोई सुख अवधि उमँगि रह्यो दस दिसि कौन जतन कहौं गाई।।11।।

जे रघुबीर चरन चिंतक तिन्हकी गति प्रगट दिखाई।
अविरल अमल अनूप भगति दृढ़ तुलसीदास तब पाई।।12।।

शब्दार्थ—सुदिन-मंगलमय दिन। सुभ घरी-शुभ घड़ी। मधुमास-चैत। बार-वार (दिन)। जोग-योग (ज्योतिष का शब्द है) भूमिसुर-ब्राह्मण। तनरूह-रोम। पुलक-रोमांच। बिबुध-निकर-देवताओं के समूह। बिहित-अनुसार। सदन-घर। मागध-चारण। बीथिन्ह-गलियों-में। जातरूप-स्वर्ण। कुमुद-बिपिन-कुमुदिनी का जंगल। सकृत-एक बार। सीकर-बूँद।।

भावार्थ-आज का दिन मंगलमय है एवं घड़ी भी अत्यंत शुभ है। (क्योंकि) आज सौंदर्य, शील और गुण के आगार भगवान् राम (राजा) दशरथ के घर में पैदा हुए हैं। इस समय अत्यंत पवित्र चैत का महीना है एवं लग्न, नक्षत्र, वार और योग का एकत्रित होना भी परम पवित्र है। ब्राह्मणों के शरीर में रोमांच हो आया है। यहाँ तक कि जड़-चेतन भी प्रसन्न हैं। देवताओं का समूह आकाश में दुन्दुभी बजाते हुए पुष्पों की वर्षा कर रहा है। कौसल्या आदि माताओं का मन भी बड़ा हर्षित है। इस प्रकार का सुख वर्णन नहीं किया जा सकता है। पुत्र के जन्म का समाचार सुनकर राजा दशरथ ने समस्त गुरुओं और ब्राह्मणों को बुलाया। वेद-शास्त्रानुसार क्रियाएँ सम्पन्न कीं। उनके हृदय में आनंद समा नहीं रहा है। महलों में मुनि मधुर ध्वनियाँ (वेदोच्चारण के कारण) कर रहे हैं और अनेक प्रकार की बधाइयाँ बज रही हैं। अयोध्यावासियों ने अपने प्रिय स्वामी के लिए अपनी-अपनी सम्पत्तियाँ प्रसन्नता के कारण लुटा दी हैं। मणियों के तोरण और बहुत-सी ध्वजाओं और पताकाओं से नगर को छा दिया गया है। द्वार पर मागध, सूत और बन्दीजन प्रशंसा कर रहे हैं। नगर की सौभाग्यवती स्त्रियाँ सहज वृंगार से सुसज्जित तरह-तरह की मंगल सामग्री लिये हुए चली आ रही हैं। सौभाग्यवती स्त्रियाँ गाती हैं और प्रसन्नचित्त से आशीर्वाद देती हैं कि यह सुखदायक बालक शाश्वत आयु को प्राप्त करे। प्रसन्नता के कारण गली-गली में अरगजा, अगर और अबीर उड़ रहा है। नगर के स्त्री-पुरुष प्रेम विह्वल होकर अपने शरीर के होश-हवास भूलकर नाच रहे हैं। महाराज दशरथ अधिकाधिक परिमाण में वस्त्र, हाथी, घोड़े, गाय, मणियाँ और सुवर्ण दान में बाँट रहे हैं, परन्तु उचित-अनुचित पात्रता का ध्यान रखे हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि सारी सिद्धियाँ उनके घर आ गयी हैं। जिस प्रकार सूर्योदय होने पर फूल खिल जाते हैं उसी प्रकार देवताओं, संतों और ब्राह्मणों का मन प्रसन्न हो गया है परन्तु दुष्टों के मुरझा जानेवाली कुमुदिनी की भाँति मन उदास हो गये हैं। जिस आनन्द-समुद्र की एक बूँद से ही शिव जी और ब्रह्मा जी का जगत् में प्रभुत्व बना हुआ है वही सुखसागर इस समय अवधपुरी में दसों दिशाओं में उमड़ रहा है। इसका वर्णन मैं किस प्रकार करूँ अर्थात् नहीं किया जा सकता। जो रामचन्द्र जी के चरणों का चिन्तन करने-वाले हैं वे यहाँ निश्चय ही प्रसन्न हैं उनकी गति प्रत्यक्ष है। यहाँ तक कि तुलसीदास ने भी अपनी अविरल, निर्मल, अनुपम और निश्च भक्ति प्राप्त कर ली है।।1।।
अलंकार—रूपक और उपमा। 9वें में रूपक है।

राग जैतश्री


सहेली, सुनु सोहिलो रे !
सोहिलो, सोहिलो, सोहिलो, सोहिलो सब जग आज।
पूत सपूत कौसिला जायो, अचल भयो कुलराज ।।1।।

चैत चारु नौमी तिथि, सितपख मध्य-गगन-गत भानु।
नखत जोग ग्रह लगन भले दिन मंगल मोद निधानु।।2।।

ब्योम पवन पावक जल थल दिसि दसहू सुमंगल मूल।
सुर दुंदुभी बजावहिँ, गावहिँ, हरषहिँ बरषहिँ फूल ।।3।।

भूपति सदन सोहिलो सुनि बाजैं गहगहे निसान।
जहँ तहँ सजहिँ कलस धुज चामर तोरन केतु बितान।।4।।

साँचि सुगंध रचैं चौके गृह आँगन गली बाजार।
दल फल फूल दुब दधि रोचन, घर घर मंगलाचार।।5।।

सुनि सानंद गुरु सचिव भूमिसुर प्रमुदित चले निकेत।।6।।

जातकर्म करि, पूजि पितर सुर, दिए महिदेवन दान।
तेहि औसर सुत तीन प्रगट भए मंगल, मुद, कल्यान ।।7।।

आनँद महँ आनंद अवध, आनंद बधावन होई।
उपमा कहाँ चारि फल की, मोहिँ भलो न कहै कबि कोई।।8।।

सजि आरती बिचित्र थार कर जूथ जूथ बरनारि।
गावत चलीं बधावन लै लै निज निज कुल अनुहारि।।9।।

असही दुसही मरहु मनहिँ मन, बैरिन बढ़हु बिषाद।
नृपसुत चारि चारु चिरजीवहु संकर-गौरि प्रसाद ।।10।।

लै लै ढोब प्रजा प्रमुदित चले भाँति भाँति भरि भार।
करहिँ गान करि आन राय की, नाचहिँ राजदुवार।।11।।

गज, रथ, बाजि, बाहिनी, बाहन सबनि सँवारे साज।
जनु रतिपति रितुपति कोसलपुर बिहरत सहित समाज।।12।।

घंखा घंटि पखाउज आउज झाँझ बेनु डफ तार।
नूपुर धुनि, मंजीर मनोहर, कर कंकन-झनकार।।13।।

नृत्य करहिँ नट, नारि नर अपने अपने रंग।
मनहुँ मदन-रति बिबिध बेष धरि नटत सुदेस सुढंग।।14।।

उघटहिँ छंद प्रबंध गीत पद राग तान बंधान।
सुनि किन्नर गंधर्ब सराहत बिथके हैं बिबुध-बिमान।।15।।

कुंकुम अगर अरगजा छिरकहिँ भरहिँ गुलाल अबीर।
नभ प्रसुन झरि, पूरी कोलाइल, भइ मनभावति भीर।।16।।

बड़ी बयस बिधि भयो दाहिनो सुर-गुरु-आसिरबाद।
दसरथ सुकृत-सुधासागर सब उमगे हैं तजि मरजाद।।17।।

ब्राह्मण बेद, बंदि बिरदावलि, जय धुनि मंगल गान।
निकसत पैठत लोग परसपर बोलत लगि लगि कान।।18।।

वारहिँ मुकुता रतन राजमहिषी पुर-सुमुखि समान।
बगरे नगर निछावरि मनिगन जनु जवारि जव-धान।।19।।

कीन्हि बेदबिधि लोकरीति नृप, मंदिर परम हुलास।
कौसल्या कैकयी सुमित्रा, रहस-बिबस रनिवास।।20।।

रानिन दिए बसन मनि भूषन, राजा सहन-भँडार।
मागध सूत भाट नट जाचक जहँ तहँ करहिँ कबार।।21।।

बिप्रबधु सनमानि सुआसिनि, जन पुरजन पहिराइ।
सनमाने अवनीस, असीसत ईसरमेस मनाइ।।22।।

अष्टासिद्धि नवनिद्धि भूति सब भूपति भवन कमाहिं।
समउ समाज राज दसरथ को लोकप सकल सिहाहिँ।।23।।

को कहि सकै अवधबासिन को प्रेम प्रमोद उछाह।
सारद सेस गनेस गिरीसहिँ अगम, निगम अवगाह।।24।।

सिव बिरंचि मुनि सिद्ध प्रसंसत बड़े भूप से भाग।
तुलसिदास प्रभु सोहिलो गावत उमगि उमगि अनुराग ।।125।।2।।

शब्दार्थ-सोहिलो-सोहर। सितपख-शुक्ल पक्ष। ब्योम-आकाश। पावक-अग्नि। गहगहे-तीव्र ध्वनि से। निसान-वाद्ययंत्र। धुज-ध्वजा चामर-चँवर। रोचन-गोरोचन। दसस्यंदन-दशरथ। भूमिसुर-ब्राह्मण। महिदेवन-ब्राह्मण। बरनारि-सौभाग्यवती स्त्री। असही दुसही-द्वेषी, वैरी। ढोब-भेंट की वस्तु। आउज-तासा। तार-ताल। बेनु-वंशी। उघटहिं-उद्घाटन, उच्चारण करना। बिथके-रुक गये हैं। बिबुध-देवता। बड़ी बयस-वृद्धावस्था। लमि लगिकान-कानाफूसी। बगरे-छितर गये हैं।

भावार्थ-हे सखी ! सोहर (बधाई के गीत) तो सुन ! (ऐसा प्रतीत होता है) कि आज सारे संसार में सोहर-ही-सोहर हो रहा है। कौसल्या ने आज ऐसे सपूत बालक को जन्म दिया है जिससे उसका कुल और राज्य दोनों अविचल हो गया है। चैत्र शुक्ल पक्ष नवमी दोपहर का समय ग्रह, नक्षत्र, योग और लग्न आदि की दृष्टि से सर्वोत्तम है। आज का दिन वस्तुतः आनंद और प्रसन्नता का आगार है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, स्थान और दसों दिशाएँ आदि सभी आज मंगल का हेतु बन गयी है। देवता लोग दुन्दुभी बजाकर, गाकर, प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा कर रहे हैं। पृथ्वीपति दशरथ के घर सोहर की ध्वनि सुनकर सब और प्रसन्नता के कारण नक्कारों की गम्भीर ध्वनि होने लगी और लोग जहाँ-तहाँ कलश ध्वजा चँवर तोरण पताका और मण्डप सजाने लगे। घर, आँगन, गली और बाजारों को सुगन्धित जल से सींचकर उनमें चौके पूरे जा रहे हैं। पत्र-पुष्प, फल, दूब, दही और रोली (गोरोचन) आदि सामग्रियों से घर-प्रति-घर शुभ कार्य (पूजादि) हो रहे हैं। पुत्र-जन्म का समाचार सुनकर राजा दशरथ अपने सभासदों के साथ उठकर खड़े हो गये एवं गुरु, ब्राह्मण और देवताओं की पूजा की और (वहीं) ब्राह्मणों को दान दिया। इसी समय मंगल, आनंद और कल्याणस्वरूप तीन और पुत्र हुए। हे सखी ! आज अयोध्या में इसके कारण आनन्द-ही-आनन्द है और चारों ओर आनन्द के कारण बधावा (सोहर, मंगलाचार आदि) हो रहा है। (तुलसीदास कहते हैं) कि यदि मैं अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष आदि फलों की उपमा दूँ तो कोई कवि भला नहीं कहेगा क्योंकि मोक्ष के रूप में राम का अवतार हो गया है और मोक्ष के बाद अन्य फलों की आवश्यकता ही क्या है। यह सब समाचार सुनकर झुंड-की-झुंड सौभाग्यवती स्त्रियाँ विचित्र थालों में आरती सजाकर कुलानुकूल बधावा गाती हुई चल पड़ी हैं। बालकों को ऐसा आशीर्वाद देने लगीं कि इनके शत्रु और द्वेषी शत्रुओं के मन में विषाद न बढ़े। भगवान् शंकर और पार्वती कृपा करके इन राजकुमारों को दीर्घायु प्रदान करें। प्रजा जन प्रसन्न होकर भाँति-भाँति के उपहारों का भार लेकर निकल पड़े एवं राजभवन के द्वार पर आकर महाराज दशरथ की दुहाई देते हुए प्रसन्नता के कारण नाचने-गाने लगे। हस्ति, अश्व और रथों की सेना ने अपने-अपने वाहन और साज को इस प्रकार सजाया है मानो इस समय कामदेव और वसन्त अपने समाज सहित अयोध्या में विहार कर रहे हों। एक ओर यदि घण्टा, घण्टी, पखावज और तासे बज रहे हैं तो दूसरी ओर झाँझ, बाँसुरी, डफ और करताल बज रहे हैं, यदि एक ओर से नूपुर मंजीरों की ध्वनि सुनायी पड़ती है तो दूसरी ओर से हाथों के कंकड़ों की झंकार आ रही है। नट-नटी, स्त्री-पुरुष सभी अपने में मस्त होकर इस प्रकार नत्य कर रहे हैं मानो कामदेव और रति ही अनेक रूप धारण करके सुन्दर ढंग से आकर्षक नाच नाच रहे हैं। अनेक प्रकार के छंद, प्रबन्ध, गीत, पद, राग और तीनों के क्रमों का उद्घाटन (नवीन प्रयोग) हो रहा है जिसे सुनकर किन्नर और गंधर्व प्रशंसा करते हैं और देवता आकाश में विमान रोककर सुनने लगते हें। नगर में आज इतना कोलाहल और अत्यन्त आकर्षक भीड़ है। लोक केसर, अगर और अरगजा छिड़क रहे हैं और गुलाल और अबीर लगा रहे हैं। महाराज दशरथ को (आज) गुरु और ब्राह्मणों के आशीर्वाद से वृद्धावस्था में पुत्र प्राप्त हुआ है—इस अवस्था में विधाता अनुकूल हुआ है। (इसलिए) इस समय दशरथ के सम्पूर्ण पुण्य फल रूप अमृत समुद्र अपनी मर्यादा छोड़कर उमड़ आये हैं। अर्थात् उन्हें सीमातीत पुण्य फल प्राप्त हो रहा है। ब्राह्मण लोग वेद ध्वनि, वंदीजन विरुदावली (प्रशस्तिपाठ) जयघोष एवं मंगलगान कर रहे हैं। इसलिए कामकाजी व्यक्ति कोलाहल के कारण एक-दूसरे की बात न सुन पाने के कारण बाहर-भीतर आते-जाते समय आपस में कान से कान लगाकर बातचीत कर रहे हैं। राजमहिषी और नगर सुन्दरियाँ समान भाव से रत्न और मणियाँ न्यौछावर कर रही हैं या लुटा रही हैं। सारे नगर में निछावर किये हुए रत्न और मणियाँ इस प्रकार बिखरी हैं मानो ज्वार, जौ और धान बिखरे हुए हों। महाराज ने भी परम आनन्दित होकर राजमहल में ही सब प्रकार की वैदिक और लौकिक रीतियों को सम्पन्न किया। रनिवास में कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा आदि सभी परम प्रसन्न हैं। रानियों ने वस्त्र, मणि और आभूषण आदि दिया है और राजा ने (मुद्रा आदि) बाहरी कोष दान में दिया है जिन्हें ले-लेकर मागध, सूत, भाट, नट और याचक लोग आपस में जहाँ-तहाँ लेन-देन कर रहे हैं। महाराज दशरथ ने विप्रवधू और पितृगृह में रहनेवाली विवाहित लड़कियों का सम्मान करके अपने आश्रित और पुरवासियों को भी वस्त्रादि पहनाकर सम्मानित किया। फलतः ये सभी महादेव और विष्णु का स्मरण करते हुए उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं। इस समय आठो सिद्धियाँ (अणिमा, गरिमा, लघिमा आदि) तथा नवों निधिया तथा सभी प्रकार की विभूतियाँ राजा दशरथ के महल में टहल रही हैं। अयोध्यावासियों के इस समय के प्रेम, आनंद और उत्साह का कोई वर्णन नहीं कर सकता। शारदा, शेष, गणेश एवं भगवान् शंकर की भी पहुँच के परे है, वेद उसका पार नहीं पा सकते हैं तो मुझ जैसे साधारण कवि की क्या बिसात। महाराज दशरथ के सौभाग्य की प्रशंसा शिव, ब्रह्मा, मुनि और सिद्धगण भी कर रहे हैं। इस समय तो मैं (तुलसीदास) भी प्रभु का सोहर गा रहा हूँ।।2।।
अलंकार-रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा और व्यतिरेक।
 

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