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चिदंबरा

सुमित्रानंदन पंत

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :354
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3211
आईएसबीएन :81-267-0491-8

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चिदंबरा मेरी काव्यचेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायिका है, उसमें युगवाणी से लेकर अतिमा तक की रचनाओं का संचयन है-सन् ’37 से 57 तक प्रायः बीस वर्षों की विकास-श्रेणी का विस्तार।

Chidambara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘चिदंबरा मेरी काव्यचेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायिका है, उसमें युगवाणी से लेकर अतिमा तक की रचनाओं का संचयन है-सन् ’37 से 57 तक प्रायः बीस वर्षों की विकास-श्रेणी का विस्तार।
‘‘चिदंबरा की पृथु-आकृति में मेरी भौतिक, सामाजिक, मानसिक, आध्यात्मिक संचरणों से प्रेरित कृतियों को एक स्थान पर एकत्रित देखकर पाठकों को उनके भीतर व्याप्त एकता के सूत्रों को समझने में अधिक सहायता मिल सकेगी।

 इसमें मैंने अपनी सीमाओं के भीतर, अपने युग के बहिरंतर के जीवन तथा चैतन्य को, नवीन मानवता की कल्पना से मण्डित कर, वाणी देने का प्रयत्न किया है। मेरी दृष्टि में युगवाणी से लेकर वाणी तक मेरी काव्य-चेतना का एक ही संचरण है, जिसके भीतर भौतिक और आध्यात्मिक चरणों की सार्थकता, द्विपद मानव की प्रकृति के लिए सदैव ही अनिवार्य रुप से रहेगी।
‘‘पाठक देखेंगे कि (इन रचनाओं में)  मैंने भौतिक-आध्यात्मिक, दोनों दर्शनों से जीवनोपयोगी तत्वों को लेकर, जड़-चेतन सम्बन्धी एकांगी दृष्टिकोण का परित्याग कर, व्यापक सक्रिय सामंजस्य के धरातल पर, नवीन लोक जीवन के रूप में, भरे-पूरे मनुष्यत्व अथवा मानवता का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जो इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता है?

चरण चिह्न


‘चिदंबरा’ को पाठकों के सम्मुख रखने से पहले उस पर एक विहंगम दृष्टि डाल लेने की इच्छा होती है। इस परिदर्शन में, अपने विगत कृतित्व को, आलोचक की दृष्टि से देखने की अनाधिकार चेष्टा नहीं करना चाहता ; युग की मुख्य प्रवृत्तियों से मेरा काव्य किस प्रकार संबद्ध रहा, उस ओर, संक्षेप में, ध्यान भर प्राकृष्ट कर देना पर्याप्त समझता हूँ।
‘पल्लविनी’ मेरी प्रथम उत्थान की रचनाओं की चयनिका थी, जिसमें ‘वीणा’, ग्रंथि’, ‘पल्लव’, ‘गुंजन’, ‘ज्योत्स्ना’ तथा ‘युगांत’ की विशिष्ट कविताएँ संकलित हैं। इस संचरण के कृतित्व ने छायावाद के बहिरंग को सँवारने तथा उसे कोमल कांत कलेवर की शोभा प्रदान करने के प्रयत्न में हाथ बँटाया है।

छायावाद की सार्थकता, मेरी दृष्टि में, उस युग के विशिष्ट भावनात्मक दृष्टिकोण तक ही सीमित है, जो भारतीय जागरण की चेतना का सर्वात्मवादमूलक कैशोर समारंभ भर था ; उस युग की कविता में और भी अनेक प्रकार के अभिव्यंजना के तत्व, तथा रूप-शिल्प की विशेषताओं के व्यापक उपकरण हैं, जो खड़ी बोली के गद्य-पद्य के लिए स्थायी देन के रूप में रहेंगे। मेरी रचनाओं में वह भावनात्मक दृष्टिकोण, अधिकतर, ‘वीणा’ में तथा ‘पल्लव’ की कुछ रचनाओं में मिलता है ; मेरा तब का काव्य मुख्यतः प्रकृति काव्य है। ‘ग्रंथि’, ‘गुंजन’ और ‘ज्योत्स्ना’ में छायावादी दृष्टिकोण प्रायः उनके रूपविधान तक ही सीमित है ; ‘युगांत’ में विधान-शिल्प में भी मौलिक रूपांतर के चिह्न प्रकट होते हैं। कुछ आलोचकों का कहना है कि ‘युगवाणी-ग्राम्या’ के बाद, ‘स्वर्ण-किरण’, ‘उत्तरा’ की रचनाओं में, मैं फिर छायावादी शैली में लौट आया हूँ, जिससे मैं सहमत नहीं। छायावादी शैली में भाव और रूप अन्योन्याश्रित होकर शब्द की चित्रात्मकता में प्रस्फुटित होते हैं। मेरे उत्तर काव्य में स्वतः चेतना या प्रेरणा अपनी अतिशयता में रूपविधान को अतिक्रम करती रही है, जो मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। ‘स्वर्ण-किरण’, ‘उत्तरा’ तथा ‘अतिमा’ के शब्द योजना में प्रस्फुटन से अधिक परिणति है।

‘चिदंबरा’ मेरी काव्य-चेतना के द्वितीय उत्थान की परिचायिका है, उसमें ‘युगवाणी’ से लेकर ‘अतिमा’ तक की रचनाओं का संचयन है, जिसमें ‘युगवाणी, ‘ग्राम्या’ तथा ‘स्वर्ण-किरण’, ‘स्वर्ण धूलि’, ‘युग पथ’ के अन्तर्गत ‘युगांतर’, ‘उत्तरा’, ‘रजत शिखर’, ‘शिल्पी’, ‘सौवर्ण अथच ‘अतिमा’ की चुनी हुई कृतियों के साथ ‘वाणी’ की अंतिम रचना ‘आत्मिका’ भी सम्मिलित है। ‘पल्लविनी’ में, सन् 18 से लेकर’ 36 तक, मेरे उन्नीस वर्षों को कृतित्व के पदचिह्न हैं, और ‘चिदंबरा’ में, सन्’ 37 से’ 57 तक, प्रायः बीस वर्षों की विकास श्रेणी का विस्तार। मेरी द्वितीय उत्थान की रचनाएँ, जिनमें युग की, भौतिक आध्यात्मिक दोनों चरणों की, प्रगति की चापें ध्वनित हैं, समय-समय पर विशेष रूप से, कटु आलोचनाओं एवं आक्षेपों की लक्ष्य रही हैं। ये आलोचनाएँ, प्रकारांतर से, उस युग के साहित्यिक मूल्यों तथा रूप-शिल्प संबंधी संघर्षों तथा द्वन्द्वों की निदर्शन हैं, और स्वयं अपने आपमें एक मनोरंजक अध्ययन भी। आने वाली पीढ़ियाँ निश्चयपूर्वक देख सकेंगी कि उस युग का साहित्य, विशेषकर, आलोचना क्षेत्र, किस प्रकार संकीर्ण, एकांगी, पक्षधर तथा वादग्रस्त रहा है और उसमें तब की राजनीतिक दलबंदियों के प्रतिफल स्वरूप किस प्रकार मान्यताओं तथा कला-रुचि संबंधी साहित्यिक गुटबंदियाँ रही हैं। भविष्य, निश्चय ही, इस युग के कृतित्व पर अधिक निष्पक्ष निर्णय दे सकेगा, काल ही वह राज-मराल है जो नीर-क्षीर विवेक की क्षमता रखता है।

मुझे स्मरण है, ‘पल्लव’ की प्रमुख रचना ‘‘परिवर्तन’’ लिखने के बाद मेरा काव्य-बोध का क्षितिज बदलने लगा था, जिसका आभास ‘‘छायाकाल’’ शीर्षक ‘पल्लव’ की अंतिम रचना में मिलता है, जिसमें मैंने अपने किशोर मन से प्रकट रूप से बिदा ली है।


स्वस्ति, जीवन के छाया काल,
मूक मानस के मुखर मराल,
स्वस्ति,  मेरे  कवि  बाल !
.....    .....   .....  ......
दिव्य  हो  भोला  बालापन
नव्य जीवन, पर, परिवर्तन !
स्वस्ति,  मेरे  अनंग  नूतन,
पुरातन   मदन   दहन !


इसके अतिरिक्त कि ‘‘बालापन’’, ‘‘ परिवर्तन’’ तथा ‘‘अनंग’’ ‘पल्लव’ की रचनाओं के शीर्षक हैं, इस प्रगीत में अन्य बातों की ओर भी संकेत है। मैंने अपने मानस को मूक कहा है : ; मेरे विचार से मन तब जाग्रत नहीं था, केवल भावों का मराल मुखर था। मैंने अनंग नूतन के रूप में अनागत अरूप नूतन का स्वागत किया है साथ ही पुरातन-रूढ़ि-रीतियों में बद्ध जीवन का मदन-दहन करने की इच्छा प्रकट की है, जो युगांत में मुखरित हो सकी है। यह सम्पूर्ण कविता मेरी उस काल की मनोवृत्ति की सच्ची दर्पण है ; उसे मैंने ‘पल्लव’ के अंत में विशेष रूप से स्थान दिया है।

‘‘परिवर्तन’’ में अंकित मानव-जीवन के दुःख-दैन्य के कारण-बीज अधिकतर हमारी पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा मध्ययुगीन सामाजिक व्यवस्था में हैं, इसका बोध मुझे तब होने लगा था। ‘पल्लव’ सन्’ 26 में प्रकाशित हुआ है, तब से सन्’ 32 तक—जब ‘गुंजन’ प्रकाशित हुआ—मेरे मानस मंथन का युग रहा है, जिसमें मुझे एक सूक्ष्म दृष्टि भी प्राप्त हुई है, जिसके प्रारम्भिक स्फुरण ‘जग के उर्वर आँगन मे’’ तथा ‘‘लाई हूँ फूलों का हास’’ आदि सन्’ 30 की रचनाओं में, और व्यापक स्वरूप के दर्शन ‘ज्योत्स्ना’ के नवीन युग प्रभात में मिलते हैं, जो सन्’ 34 में प्रकाशित हुई है। ‘गुंजन’ मेरी नवीन साधना के प्रगीत हैं। अवश्य ही ‘पल्लव’ कालीन किशोर मानस तब अपना सहज संतुलन खो चुका था, जो प्रकृतिगत जीवन-सिद्ध संस्कारों तथा संसार के प्रति जन्मजात विश्वासों का बना होता है। ‘गुंजन’ काल में मुझे अपने प्रति पुनः नवीन आत्म-विश्वास जाग्रत करने की आवश्यकता थी।

पारिवारिक अवलंब छूट जाने के कारण, जिसकी चर्चा ‘आत्मिक’ में है, व्यक्तिगत सुख-दुःखों एवं मानसिक ऊहापोहों को नवीन बोध के धरातल पर उठाने के साथ ही जग जीवन से भी नवीन रूप से सम्बन्ध स्थापित करने की जीवनाकांक्षा मुझे प्रेरित करने लगी थी। ‘‘जग जीवन में है सुख दुख’’ अथवा ‘स्थापित कर जग में अपनापन’’ आदि, अनेक रचनाएँ इस इच्छा की द्योतक हैं। ‘‘तप रे मधुर मधुर मन’’ में—जो ‘गुंजन’ की प्रथम रचना है—मैं अनुभवों की आँच में तपकर अपने मन को नवीन रूप से नवीन विश्वासों में ढालना चाहता हूँ। ‘‘सुन्दर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय जीवन’’ भी इसी मानस-रचना के प्रयत्न का परिचायक है। वह जिज्ञासाओं के संघर्ष का युग था ; ‘गुंजन’ की ‘अप्सरा’’ जब पीछे ‘ज्योत्स्ना’ के रूप में प्रस्फुटित होकर मेरे मन में अवतीर्ण हुई तब तक मुझे अनेक नवीन विश्वासों, आदर्शों तथा विचारों की उपलब्धियाँ हो चुकी थीं।

मानव समाज के रूपान्तर की भावना का उदय मेरे मन में ‘ज्योत्स्ना’ काल ही में हो गया था। ‘ज्योत्स्ना’ में मनः स्वर्ग अनेक नवीन सृजन शक्तियाँ भू-मानस पर अवतरित होती हैं। उनका गीत इस प्रकार है :


हम मनःस्वर्ग के अधिवासी,
     जग जीवन के शुभ अभिलाषी,
    नित विकसित, नित वर्धित अर्चित,
    युग युग के सुरगण अविनाशी !
    हम नामहीन, अस्फुट नवीन,
    नव युग अधिनायक, उद्भासी !


इस गीत में नित विकसित, नित वर्धित तथा हम नामहीन, अस्फुट नवीन, नवयुग अधिनायक—विशेषण विशेष ध्यान देने योग्य हैं। स्वप्न और कल्पना ज्योत्स्ना से कहते हैं : ‘‘इन मानवीय भावनाओं के वस्त्र पहनाकर एवं मानवीय रूप रंग आकार ग्रहण कराकर हमें आपने उन्मुक्त निःसीम से किस दिव्य प्रयोजन के लिए अवतीर्ण करवाया, सम्राज्ञि।’’ उसी दृश्य में वेदव्रत कहता है : ‘‘जिस प्रकार की पूर्व प्राचीन सभ्यता अपने एकांगी तत्वावलोचन के दुष्परिणामस्वरूप काल्पनिक मुक्ति के फेर में पड़कर...जन समाज की ऐहिक उन्नति के लिए बाधक हुई उसी प्रकार पश्चिमी सभ्यता एकांगी जड़वाद के दुष्परिणामस्वरूप...विनाश के दलदल में डूब गई।’’

और भी, ‘‘पाश्चात्य जड़वाद के मांसल प्रतिभा में पूर्व के अध्यात्म प्रकाश की आत्मा भर एवं अध्यात्मवाद के अस्थि-पंजर में जड़विज्ञान के रूप रंग भरकर हमने नवयुग की सापेक्षतः परिपूर्ण मूर्ति का निर्माण किया है। उसी पूर्ण मूर्ति के विविध अंग स्वरूप पिछले युगों के अनेक वादविवाद यथोचित रूप ग्रहण कर सके हैं।’’ भौतिक आध्यात्मिक समन्वय तथा रूपांत रित-भू-जीवन के मूल्यों की नींव—जिन्हें मेरी आगे की रचनाओं में अधिक पूर्ण अभिव्यक्ति मिल सकी है—मेरे मन में इसी काल में पड़ गई थी। ‘ज्योत्स्ना’ की सूक्ष्म दृष्टि मेरी आँखों के सामने एक गहरी वर्णमैत्री के विराट् इन्द्रधनुष की तरह खुली थी। मेरे मन को एक सूक्ष्म आनन्द—जो आस्था भी था—स्पर्श कर चुका था। ‘ज्योत्स्ना’ का ज्योति अंधकार का युद्ध मेरे ही मन का युद्ध था, जिसकी चर्चा मैंने ‘आत्मिका’ में की है :


    मानस तल में ऊपर नीचे चलता तब संघर्षण अविरत.
तम पर्वत, सागर प्रकाश का मंथित रहते शिखरों में शत !’
....                    ....                ....
करवट लेता भावी नव युग, गत भू मन को कर क्षत विक्षत,
....                    ....                ....
मुँह तक तम से भर जाता मन उपचेतन आवेशों से पोषित,
....                    ....                ....
अविदित भय से काँपता अंतर स्वर्गिक संक्तों से पोषित,
....                    ....                .,..
तम प्रकाश की युग संध्या में होता मन में मौन अवतरित,
‘ज्योत्स्ना’ का जीवन प्रभात नव, भू पर श्री सुख शोभा कल्पित !


‘युगांत तक मेरी भावना में नवीन के प्रति एक आग्रह उत्पन्न हो चुका था, जिसे ‘‘द्रुत भरो जगत के जीर्ण पत्र’’ अथवा ‘‘गा, कोकिल, बरसा पावक कण’’-‘‘रच मानव के हित नूतन मन’’—आदि रचनाओं में मैंने वाणी दी है। इस नवीन भाव-बोध के सम्मुख मेरा ‘पल्लव’ युग का कलात्मक रूप मोह (पल्लव’ की भूमिका जिसका निदर्शन है) पीछे हटने लगा। मेरा मन युग के आन्दोलनों, विचारों, भावों तथा मूल्यों के नवीन प्रकाश से ऐसा आंदोलित रहा कि ‘पल्लव’ ‘गुंजन’ की सूक्ष्म कला-रुचिकों में अपनी रचनाओं में बहुत बाद को, परिवर्तित एवं परिणत रूप में, संभवतः ‘अतिमा-वाणी’ के छंदों में, पुनः प्रतिष्ठित कर सका हूँ, जिनमें उसका विकास तथा परिष्कार भी हुआ है और उसमें कला वैभव के साथ भाव वैभव भी उसी अनुपात में अनुस्यूत हो सका है, जो ‘पल्लव-गुजंन’ काल का रचनाओं में संभव न था।

कुछ आलोचकों को ‘युगवाणी’ से ‘उत्तरा’ तक की मेरी रचनाओं में कला-ह्रस के चिन्ह दृष्टिगोचर होते हैं, जिसे मैं दृष्टि-भेद की विडंबना कहूँगा। ‘उत्तरा’ को सौंदर्यबोध तथा भाव ऐश्वर्य की दृष्टि से, मैं अब तक की अपनी सर्वोत्कृष्ट कृति मानता हूँ। उसके अनेक गीत, जो ‘चिदंबरा’ में सम्मिलित हैं, अपने काव्यतत्व तथा भाव चैतन्य की ओर, समय आने पर, पाठकों का ध्यान आकर्षित कर सकेंगे। ‘उत्तरा’ के पद नव मानवता के मानसिक आरोहण की सक्रिय चेतना आकांक्षा से झंकृत हैं। चेतना की ऐसी क्रियाशीलता मेरी अन्य रचनाओं में नहीं मिलती है।


स्वप्नज्वाल धरणी का अंचल,
अंधकार उर आज रहा जल !
....        ....        ....
तुम रजत वाष्प के अम्बर से,
बरसाती शुभ्र सुनहली झर से !
....        ....        ....
स्वप्नों की शोभा बरस रही,
रिम झिम झिम अंबर से गोपन !
....        ....        ....
लो, आज झरोखों से उड़ कर
फिर देवदूत आते भीतर !
....        ....        ....
कैसी दी स्वर्ग विभा उडेल
तुमने भू मानस में मोहन !

इत्यादि।
ऐसे अनेक उदाहरण ‘उत्तरा’ से दिए जा सकते हैं जो युग मानव के भीतर नवीन जीवन आकांक्षा के उदय की सूचना देते हैं, जिस नवीन भावबोध की पृष्ठ-भूमि (मनोभूमि) के कारण ही आज बहिर्जीवन का दैन्य मनुष्य को इतना कुत्सित तथा कुरूप प्रतीत होने लगा है। ‘उत्तरा’ में मैंने पृथ्वी पर स्वर्गिक शिखरों का वैभव लुटाने का दावा किया है :

मैं स्वर्गिक शिखरों का वेभव,
हूँ लुटा रहा जन धरणी पर !
....        ....        ....
देवों को पहना रहा पुनः
मैं स्वप्न-मांस के मर्त्य वसन !

‘ग्राम्या’ में भी, मेरी दृष्टि में, ग्राम जीवन के भाव क्षेत्र के अनुरूप कला शिल्प वर्तमान है। ‘ग्राम्या’ की भाषा गाँवों के वातावरण की उपज है :    

गंजी को मार गया पाला
अरहर को फूलों को झुलसा,
हाँका करती दिन भर बंदर
अब मालिन की लड़की तुलसा !
....        ....        ....    
बैठी छाती की हड्डी अब
    झुकी पीठ कमठ सी टेढ़ी,
    पिचका पेट, गढ़े कंधों पर,
    फटी बिवाई से हैं एड़ी !
    ....        ....        ....
खैर, पैर की जूती, जोरू
एक न सही, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लोटते, फटती छाती।

इत्यादि।
‘ग्राम्या’ के भाव पक्ष में—जिसे मैंने कोरी भावुकता से बचा कर, सहानुभूति-पूर्वक, मान्यताओं के प्रकाश में सँवारा है—लोक जीवन के कलुष पंक को धोने के लिए, नये मानव की अंतर-पुकार है।’’ युगवाणी’ और ‘स्वर्ण धूलि’ में भाव ऐश्वर्य की तुलना में, कलापक्ष, संभवतः ‘युगवाणी’ और ‘स्वर्ण धूलि’ में भाव ऐश्वर्य की तुलना में, कलापक्ष, संभवतः गौण हो गया है, जो मेरी दृष्टि में स्वाभाविक है। इनमें मेरी कल्पना ने अनुद्घाटित नवीन भूमियों तथा क्षितिजों में प्रवेश किया है। वह केवल मेरे भाव प्रवण हृदय का आवेग ज्वार था, जो विगत युगों की भौतिक, सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक मान्यताओं से ऊब-खीझकर अपनी अबाध जिज्ञासा के प्रवाह में, अंध-रूढ़ियों के बंधनों तथा निषेध-वर्जनों के अवरोधों को लाँघता हुआ, पार्थिव-अपार्थिव नवीन चैतन्य के धरातलों तथा शिखरों की ओर बढ़ता एवं आरोहण करता गया। वास्तव में वह आरोहण मेरे लिए स्वयं एक कलात्मक अनुभव एवं सांस्कृतिक अनुष्ठान रहा है। कविता और कला-शिल्प मेरी दृष्टि में फूल और उसके रूप मार्दन की तरह अभिन्न हैं। रूप-मार्दव ?—हाँ, किन्तु रंग गंध मधु फल ही फूल का वास्तविक दान है। अन्न भरी सुनहली बाल, नाल पर खड़ी रहने के बदले, यदि अपने ऐश्वर्य भार से झुक जाती है तो, इसे विधाता की कला की परिणति ही समझना चाहिए। कुछ ऐसा ही कलात्मक संबंध मेरे मन का, ‘युगवाणी’, ‘स्वर्णकिरण’ तथा ‘स्वर्णधूलि’ की रचनाओं से रहा है। ‘स्वर्णधूलि’ में आर्षवाणी के अन्तर्गत वैदिक साहित्य के अध्ययन से प्रभावित जो मेरी रचनाएँ हैं, वे अक्षरश: वैदिक छन्दों के अनुवाद नहीं हैं। मेरे भाव-बोध ने उस मंत्रों को जिस प्रकार ग्रहण किया है वह उनकी मुख्य तत्व और स्वर है। कहीं-कहीं तो मैंने तो उन मंत्रों की वाख्या कर दी है।

‘पल्लव’ के सौंदर्यबोध के क्षितिज से बाहर निकलते-निकलते जब मैं अपने तथा बाहर के जगत् के प्रति प्रबुद्ध हुआ तो मुझे जीवन की भीतरी बाहरी परिस्थितियों का बोध पीड़ित करना पड़ेगा। ‘पल्लव’ काल में मैं परमहंस देव के वचनामृत तथा स्वामी विवेकानन्द और रामतीर्थ के विचारों के संपर्क में आ गया था। अपने देश में स्वतन्त्रता-युद्ध के स्वरूप तथा गांधीजी के व्यक्तित्व ने मेरा ध्यान भारत के मानस-महत्व तथा जीवन-दैन्य की ओर आकृष्ट किया। सन्’ 21 के असहयोग में अपने छात्र-जीवन से बिदा ले चुका था। गांधीजी का तपःपूठ, कर्मठ व्यक्तित्व, जो धीरे-धीरे गंधीवाद का रूप ग्रहण करने लगा था, मन को अधिकाधिक आकर्षित करता था। ‘गुंजन’ के आत्म संस्कार के स्वर में, अप्रत्यक्ष रूप से गांधी जी का भी प्रभाव हो सकता है। उनके सांस्कृतिक चैतन्य को, मैंने, उस युग की अनेकानेक छोटी बड़ी रचनाओं में, श्रद्धांजलि अर्पित की है।
देश के जीवन-दर्शन से बाहर मेरा ध्यान सर्वाधिक तब जिन वस्तुओं की ओर आकृष्ट हुआ था वे थे मार्क्सवाद तथा रूसी क्रांति। गांधीवाद के साथ तब प्रायः समाजवाद-साम्यवाद के विचारों, आदर्शों तथा कार्यप्रणायों की प्रतिध्वनियाँ कानों में पड़ती थीं।

 मेरे किशोर सखा पूरन (जो पी.सी. जोशी के नाम से प्रसिद्ध हैं) तब प्रयाग विश्वविद्यालय के इतिहास के छात्र थे। उनसे प्रायः ही नये राजनीतिक आर्थिक सिद्धान्तों की चर्चा और उन पर वाद-विवाद होता था। उनका व्यक्तित्व एवं मानस, उन तीन-चार वर्षों के भीतर, मेरी आँखों के सामने ही,. धीरे-धीरे डल्हिया के भरे-पूरे फूल की तरह, पूर्ण साम्यवादी के रूप में प्रस्फुटित हुआ था। ऐतिहासिकत चेतना से प्रभावित होने के कारण उनको जीवन के समस्त क्रिया-कलापों, अभावों तथा दैन्यों का निदान और समाधान बाह्य जगत् में ही दिखाई देता था। उनकी मानसिक परिणति ने मार्क्सवाद तथा साम्यवाद के अनेक दुर्बल-सशक्त पक्षों को मेरी आँखों के सामने अपने-आप खोल दिया और उनकी निष्कपट मैत्री के स्पर्ष ने उन उग्र सिद्धान्तों को ममता तथा सहानुभूति की दृष्टि से देखना सिखला दिया। मार्क्सवाद का जटिल आर्थिक पक्ष मुझे मेरे भाई स्व. देवीदत्त पंत ने समझाया था। वह तब प्रयाग विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. कर चुके थे और कुशाग्र बुद्धि होने के कारण अपने विषय के मर्मज्ञ थे।

 अपने मित्र तथा भाई के सम्पर्क में आकर मार्क्सवाद के गहन कांतार को, अपने ढीठ कल्पना पंखों से, साहसपूर्वक, अत्यन्त उत्साह तथा हर्षानुभूति के साथ पार कर सका, ‘‘तब, जब हिन्दी में, संभवतः, इस प्रकार की कविता का जन्म भी नहीं हुआ था, जो पीछे प्रगतिशील कविता कहलाई) और कालाकाँकर के गाँवों का वातावरण पाकर ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ की में अपनी उस नवीन जीवन-दृष्टि की प्रक्रियाओं को उन्मुक्त रूप से वाणी दे सका। ‘‘युगवाणी’ की रचनाएँ सन्’ 37-’38 में लिखी गई थीं। उनमें से अधिकांश सन्’ 38 में ‘रूपाभ’ के अंकों में प्रकाशित हो चुकी थीं। ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में (‘ग्राम्या’ में सन्’ 39-40 की रचनाएँ हैं) अनेक नवीन-सामाजिक, सास्कृतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टिकोण मेरे मन में उदय हुए हैं। आज भी, जब नव मानवतावाद की दृष्टि से, मैं विश्व जीवन के बाह्य पक्ष की समस्याओं पर विचार करता हूँ तो मार्क्सवाद की उपयोगिता मुझे स्वयं-सिद्ध प्रतीत होती है।  

आज की राजनीतिक दलबंदी में खोये हुए, पूर्वग्रह पीड़ित आलोचकों को जब छायावाद त्रयी या चतुष्टय में, केवल मैं ही अप्रगतिशील लगता हूँ और वे सब प्रगतिशील लगते हैं, जो संभवतः, तब युग-दायित्व के प्रति पूर्णतः प्रबुद्ध भी न थे, तो मैं उनका प्रतिवाद नहीं करता। मानव-जीवन के व्यापक सत्यों को, चाहे वे आर्थिक हों या आध्यात्मिक, पूर्वग्रह और विद्वेष की टेढी-मेढ़ी सँकरी गलियों में भटकाकर झुठलाया नहीं जा सकता ; समय पर वे लोक मानस में अपना अधिकार अवश्य स्थापित करेंगे। संभवतः जिस संकीर्ण अर्थ में अब प्रगतिवाद का प्रयोग किया जाता है, उस अर्थ में मैं प्रगतिवादी हूँ भी नहीं।

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