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उत्तमी की माँ

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :85
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3215
आईएसबीएन :00000

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‘उत्तमी की माँ’ शीर्षक कहानियों का बारहवाँ संग्रह...

Utami Ki maa

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इन संकलनों का प्रकाशन उस युग में हुआ था जब हिन्दी साहित्य का प्रगतिशील साहित्य को लेकर एक विवाद छिड़ा हुआ था। लोग सामाजिक यथार्थ और मार्क्सवादी विचारधारा तथा साहित्य पर आक्रमण कर रहे थे। वे क्योंकि स्वातंत्रय की बात उठाकर यह सिद्ध कर रहे थे कि प्रगतिशील लेखक अधिनायकवाद के सामर्थक हैं और सोवियत रूस में इसे रेखांकित करते हुए लिखा, ‘एक लेखक के नाते सौम्य साहित्कारों से मेरा अनुरोध है कि समाजवादी अदिनायकत्व में क्या हो रहा है अथवा क्या हो जायेगा, इन कल्पनाओं में उलझने की अपेक्षा हम अपने देशा और समाज की परिस्तियों में कलाकार और साहित्य पर अनुभव होने वाले दमन और अंकुश की ही चिन्ता क्यों न करे। कलाकार और अभिव्यक्ति के लिए उस स्वतंत्रता की ही बात क्यों न सोचें जिसका अभाव हम स्वयं अनुभव कर रहे है।’ यही कारण है कि यशपाल की इस समय लिखी गयी कहानियों में समकालीनता का बोध सर्वाधिक है और वे सामाजिक संदर्भों के यथार्थ से गहराई से जुड़ी हुई है।
हिन्दी कहानी की विकास परम्परा में यशपाल अकेले लेखक हैं, जिनमें यथार्थवादी रचनादृष्टि के अनेक स्तर और अनेक रुप विद्यामान हैं। कथा-वस्तु ही नहीं, शिल्प के स्तर पर भी उनका अवदान हिन्दी कहानी में ऐसा है जिसे रेखांकित किया जाना बाकी है। परम्परागत कथा-रुप से लेकर आख्यान के सिल्प तक उनके प्रयोगों का विस्तार है। कथा-वस्तु के क्षेत्र में कल्पना से लेकर वस्तुगत यथार्थ और फिर सामाजिक यथार्थ की सहज भूमि पर उतर कर अन्वेषण और उद्घाटन तक उनका कथा-सृजन फैला हुआ है। इस तरह देखें तो वे हिन्दी कहानी के एक मात्र ऐसे स्पष्टा हैं जिन्होंने कल्पना प्रसूत, भावात्मक सृजन से शुरू करके कथा वाचन तक की लम्बी कथा-यात्रा इन कहानियों में पूरी की है। आख्यायिका के शिल्प तक पहुँचते-पहुँचते यशपाल कहानी को सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानने लगते हैं।
1939 से 1979 के बीच प्रकाशित सत्रह कथा-संकलनों में फैला हुआ उनका विशाल कहानी लेकन हिन्दी साहित्य की गैरवपूर्ण उपलब्धि है जिसे अब लोकभारती चार भागों मे प्रकाशित कर ऐसे पाठक वर्ग तथा पुस्तकालयों की माँग को पूरा कर रहा है जो एक लम्बे अरसे से यशपाल की कहानियों के ग्रंथवली-रुप की माँग कर रहा था।

फिट आने की मजबूरी

‘उत्तमी की माँ’ शीर्षक कहानियों का बारहवाँ संग्रह पाठकों को सौंपते समय याद आता है कि सोलह वर्ष पूर्व अपनी कहानियों का पहला संग्रह ‘पिंजरे की उड़ान’ का प्रकाशन करते समय मन में एक संकोच और आशंका थी। अभिप्राय यह नहीं है कि अब मैं पारखियों अथवा आलोचकों से त्रस्त नहीं हूँ अथवा प्रशंसकों ने मेरा उत्साह बढ़ा दिया है। उस समय आशंका यह थी कि मेरा रचनाओं में प्रयोजन और उद्देश्य की छिप न सकने वाली गंध पाकर उन्हें कला की तुला पर कैसे तोला जाएगा ?
आज सोलह वर्ष बाद साहित्य को सामाजिक समस्याओं के समाधान का साधन बनाने वाले या सामाजिक प्रयोजन से साहित्य का प्रयोग करने वाले साहित्यिक के गले में प्रगतिशीलता का तौंक लटका कर उसकी खिल्ली उड़ा दिये जाने का भय नहीं रहा। साहित्य को ‘स्वान्तःसुखाय’ कह कर अशोभन वास्तविकता से भरे कठोर सामाजिक धरातल को छोड़कर भावना के ऊँचे सूक्ष्म जगत में उठ जाने का अभिमान आज कोई विचारवान साहित्यिक नहीं करता है। आज साहित्य के प्रगतिशील कहलाने वाले पक्ष से दूसरे कारणों से असंतुष्ट सौम्य, आदर्शवादी और भाववादी साहित्यिक भी साहित्य को सोद्देश्य और समाज के प्रति दायित्व के रूप में ही स्वीकार करते हैं। प्रयाग के अतिसौम्य साहित्यिकों को गोष्ठी ‘परिमल’ ने हिन्दी जगत के गण्यमान्य कलाकारों की उपस्थिति में यह मन्तव्य निश्चय किया है कि ‘रचनात्मक दृष्टि और स्वतंत्र मानस से सम्पन्न कोई भी कलाकार यह नहीं मान सकता है कि साहित्य रचना उद्देश्यहीन या निरर्थक सृष्टि है। ऐसे कलाकार के लिए वह एक गम्भीर दायित्व से समन्वित प्रक्रिया है। यह दायित्व, वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर साहित्य को मर्यादित करता है।’

परिमल के मन्तव्य में साहित्य और कला के सामाजिक उद्देश्य और दायित्व को स्वीकार करके भी इस विषय में जागरुक रहने के लिए उद्बोधन किया गया है कि साहित्य और कला के मानवीय लक्ष्यों की पूर्ति के लिए कलाकार का संयम और स्वातंत्र्य ही मूल स्रोत और आधार है।....आज के युग में जब कि वैज्ञानिक आविष्कार की तीव्र गति के साथ मानव का आन्तरिक और आत्मिक उन्मेश नहीं हो पाया है, कलाकार की आत्मा का विवेक और स्वातंत्र्य आक्रान्त हो सकता है। ऐसी अवस्था में कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन हो सकता है। परिमल का कहना है कि कलाकार का दायित्व उसके कर्म से ही उद्भूत होता है। वह किसी बाहरी संगठन या सत्ता द्वारा उस पर आरोपित नहीं किया जा सकता।...व्यक्ति का विवेक व्यक्ति का दायित्व है, जिसे किसी दूसरे में न्यस्त नहीं किया जा सकता।
कलाकार की दृष्टि में अपने विवेक, भावना और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य सबसे अधिक है। कलाकार के लिए यह स्वतंत्रता उसके अस्तित्व के समान ही महत्वपूर्ण है। जब कलाकार यह स्वतंत्रता खो बैठता है, वह जीवित रहते हुए भी शायद भौतिक सुविधाएँ पाकर भी कलाकार नहीं रह जाता। वह किराये का लठैत बेशक बना रहे, वह योद्धा नहीं रह जाता। पिछले सोलह वर्ष में मैंने स्वयं अनेक उदीयमान कलाकारों में यह परिवर्तन देखा है और मानना पड़ा है कि अपनी कलात्मक स्वतंत्रता की रक्षा के संघर्ष में वे परास्त हो गये। कलाकार यदि कलाकार बना रहना चाहता है तो उसे अपने विवेक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए जागरुक और प्रयत्नशील रहना ही होगा।

‘अपनी स्वतंत्रता के लिए सचेत रहकर और उसकी रक्षा का यत्न करने के लिए कलाकार को यह भी देखना होगा कि उसकी स्वतंत्रता की विरोधी शक्तियाँ कौन हैं ? उसकी स्वतंत्रता पर किस दिशा से अंकुश पड़ रहा है ? परिमल के मन्तव्य में वैज्ञानिक विकास की तीव्र गति के साथ मानव के आत्मा और आन्तरिक उन्मेश का समन्वय न हो सकने की जो कठिनाई बतायी गयी है वही वास्तविक मूल प्रश्न है। विज्ञान या भौतिक विकास के कारण मानव समाज के जीवन निर्वाह के ढंग में आ गये परिवर्तनों के कारण समाज की व्यवस्था, विचारधारा और नौतिक भावनाओं में आवश्यक परिवर्तनों की मांग करने की उपेक्षा करने पर या परम्परागत के मोह के कारण ही बौद्धिक कुण्ठा उत्पन्न होती है। ऐसी अवस्था में स्वतंत्रता की कमी या अंकुश उन्हीं लोगों को अनुभव होता है जो समाज को विकास के लिए आगे ले जाना चाहते हैं। परिमल ने वर्तमान स्थिति में पूँजीवादी और अधिनायकवादी पद्धति के दमन की जो बात कही है, वह इसी संघर्ष का प्रकट रूप है। पूँजीवादी पद्धति में होने वाला दमन एक अनुभूत सत्य है। हमारा समाज पूँजीवादी व्यवस्था से नियंत्रित है। इस नियंत्रण और दमन को परिमल के सौम्य साहित्यिक अपने देश में अनुभव करते हैं या नहीं; करते हैं तो इस दमन के विरोध में उनकी पुकार क्या है ?

अधिनायकवादी या समाजवादी पद्धति हमारे देश या समाज से अभी कोसों दूर है। यदि उसके दमन की आशंका कुछ साहित्यिकों को अनुभव होती है तो यह केवल काल्पनिक अनुभूति है, जिसका कारण परम्परागत का मोह और नवीन का भय ही हो सकता है। वर्तमान व्यवस्था या शक्ति का समर्थन करने वालों को या उस शक्ति और व्यवस्था की गोद में पलने वालों को तो स्वतंत्रता के प्रति आशंका या अंकुश कभी अनुभव नहीं होता। स्वतंत्रता, अवसर की कमी या अंकुश तो उन्हीं को अनुभव होता है जो वर्तमान व्यवस्था का समर्थन करने वाले संस्कारों और विश्वासों को बदलने के लिए जूझते हैं।
‘उत्तमी की माँ’ संग्रह पाठकों को सौंपते समय अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अपने जैसे लेखकों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता की बात वर्तमान स्थिति को देखकर कह रहा हूँ। आज मुझे प्रायः ही पत्र-पत्रिकाओं से कहानी भेजने के लिए अनुरोध आते रहते हैं परन्तु ‘इस संग्रह की कहानियाँ ‘भगवान् का खेल’ ‘न कहने की बात’ ‘भगवान् के पिता के दर्शन’ ‘नकली माल’ कहानियों को प्रकाशित कराने में बाधा भी अनुभव हुई। आग्रह के उत्तर में कहानी भेजने पर प्रायः दूसरा अनुरोध मिला—कहानी तो बहुत ही अच्छी है परन्तु यह चीज संचालकों को न पचेगी या यह कहानी प्रकाशित कर झंझट में नहीं फँसना चाहते या व्यक्तिगत रूप से कहानी पर मोहित हूँ परन्तु पत्र की नीति के आधीन हूँ। आदि आदि।

आये दिन मुझे ऐसे नये लेखकों की आत्म-कहानी सुननी पड़ती है जो लिखने के लिए सामर्थ्य और प्रेरणा होते हुए भी अवसर नहीं पा रहे हैं क्योंकि उनका विवेक और प्रेरणा समाज की मौजूदा शासक-शक्ति और पद्धति के पक्ष में नहीं है। ऐसे भी कई नवयुवक लेखकों और कवियों की करुण कहानी सुनी है जिनकी कलम की जीविका इसलिए छीन ली गयी है कि वे मौजूदा व्यवस्था में अन्तर्विरोध और अन्याय देखकर अपनी पुकार दबा नहीं सके। परिमल के मन्तव्य में अपने समाज में प्रतिदिन प्रत्यक्ष अनुभव होने वाले कलाकार के दमन और उनकी परवशता का कोई उल्लेख नहीं दिखायी दिया। परिमल को शायद मालूम नहीं है कि हमारे समाज में लेखकों या लेखक बनना चाहने वालों के लिए ऐसे सरकारी अनुशासन हैं कि वे अमुक साहित्यिक समाज में जायें और अमुक में न जायें। हमारी व्यवस्था में कुछ ही दिन पहले तक ऐसे लेखकों की सरकारी सूचियाँ बनती रही हैं, जिन्हें सरकार से प्रश्रय पाये पत्रों में और रेडियो में अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने से तो क्या, इन माध्यमों से रोटी का टुकड़ा पा लेने के अवसर से भी वंचित कर दिया जाता रहा है। कौन नहीं जानता कि लेखकों और साहित्यकों के योग्य सरकारी नौकरियाँ या विधान-सभाओं और लोक-सभाओं में कला और साहित्य का प्रतिनिधित्व केवल उनके लिए ही सुरक्षित है जो सरकार की आलोचना न करने का संयम निबाह सकते हों। लोकसभा के एक स्पष्टवादी का ध्यान इस तथ्य की ओर दिलाने पर उचित ही उत्तर मिला था-‘‘तुम वही जूता खरीदोगे जो फिट आए।’’ फिट आने की यह मजबूरी क्या लेखक की स्वतंत्रता है ?
परिमल भी जानता है कि इस देश के अधिकांश प्रकाशन-आयोजन कुछ एक पूँजीपतियों की सम्पत्ति है, जिनमें विचार स्वातंत्र्य के लिए अवसर नहीं है। क्या परिमल की दृष्टि में यह सब बातें लेखक के व्यक्तिगत स्वातंत्र्य पर अंकुश और बाधाएँ नहीं हैं ?

अपने समाज की वर्तमान स्थिति से निरपेक्ष परिमल के सौम्य साहित्यिकों को इस बात की आशंका है कि मानव-समाज के भौतिक कल्याण की और भौतिक सुविधाओं को ही अधिक महत्व देने वाली व्यवस्था में, भौतिक जनहित को लक्ष्य मानकर व्यक्ति के कलात्मक कृतित्व और वैयक्तिक स्वातंत्र्य का दमन हो जाएगा या ऐसी व्यवस्थाओं में आज भी हो रहा होगा। मुझे ऐसी आशंका नहीं जान पड़ती। स्वयं परिमल का ही कहना है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य और जनहित दो अलग-अलग प्रतिमान नहीं हैं, न हो सकते हैं। जनहित की दृष्टि से कलाकार को दिये जाने वाले आदेश में मुझे कलाकार के कृतित्व का दमन नहीं दिखाई पड़ता बल्कि उसे पूर्णतः की ओर ले जाने वाली सद्भावना ही दिखाई देती है।
कलाकार मानव पहले है और कला उसकी मानवता का विकास और स्फुरण मात्र है। जो भावना और व्यवस्था मानवता के विकास और समृद्धि में सहायक हैं वह कला के विकास की शत्रु नहीं हो सकतीं। मानवता की पूर्णता और उपलब्धि के लिए संयम को स्वीकार करना कला का विनाश नहीं, विकास है। साहित्य रचना का उद्देश्य मानवता की पूर्णता स्वीकार करना और उद्देश्य की पूर्ति के लिए आदेश और प्रेरणा को कलाकार का दमन बताना परस्पर विरोधी बातें हैं। यदि कलाकार इस उद्देश्य के लिए प्रेरणा और संयम के आदेश से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की माँग करता है तो उसका एक ही अभिप्राय होगा कि वह आत्म-विस्मृति और सामाजिक दायित्व की उपेक्षा की तन्द्रा में निष्क्रिय रहना चाहता है या साहित्य को स्वान्तः सुखाय ही समझता है।
एक लेखक के नाते सौम्य साहित्यिकों से मेरा अनुरोध है कि समाजवादी अधिनायकत्व में क्या हो रहा है अथवा क्या हो जाएगा, इन कल्पनाओं में उलझने की अपेक्षा हम अपने देश और समाज की परिस्थितियों में कलाकार और साहित्य पर अनुभव होने वाले दमन और अंकुश की ही चिन्ता क्यों न करें ?
कलाकार की अभिव्यक्ति के लिए उस स्वंतत्रता की ही बात क्यों न सोचें जिसका अभाव हम स्वयं अनुभव कर रहे हैं ?
15 मई, 1959


उत्तमी की माँ


उत्तमी के पिता बाबू दीनानाथ खन्ना की मृत्यु चालीस वर्ष की अवस्था में हो गयी थी। परिवार-बिरादरी और गली-मुहल्ले के सभी लोगों ने उनकी भरी जवानी में, असमय मृत्यु पर शोक किया और उत्तमी की माँ के प्रति सहानुभूति प्रकट की परन्तु विधवा हो जाने के कारण गरीब स्त्री पर विपत्ति का कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा था, इसे तो आहिस्ता-आहिस्ता उसी ने जाना।
बाबू दीनानाथ का लड़का बिशन उस समय एफ.एस.-सी. में पढ़ रहा था। उत्तमी की सगाई एक वर्ष पहले, तेरह वर्ष की आयु में, करमचंद सर्राफ के लड़के जयकिशन से हो चुकी थी। करमचंद सेठ की पत्नी केवल अच्छी जात और उत्तमी का खिलती कली जैसा रूप देखकर ही संतुष्ट हो गयी थी। बाबू दीनानाथ खन्ना के यहाँ से बड़े भारी दान-दहेज की आशा तो नहीं थी परन्तु उनके घराने की प्रतिष्ठा अच्छी थी। उनके दादा और पिता दोनों के समय ‘उच्ची-गली’ के खन्ना लोगों का बड़ा नाम था। उत्तमी की सगाई के समय लड़के वालों ने कहा था—ब्याह की कोई जल्दी नहीं है। हमारा लड़का अभी पढ़ रहा है। कम-से-कम बी.ए. तो पास कर ही ले...।’’
विधाता ने उत्तमी की माँ के लिए घटनाओं का न जाने कैसा व्यूह रचा था। उसके पति की मृत्यु के नौ मास वाद लाहौर में शीतला का भयंकर प्रकोप हुआ। शीतला माता कई घरों से बोलते खिलौने झपट ले गयीं। उत्तमी पर भी उनकी कृपा-दृष्टि पड़ी। वे उसे छोड़ तो गयीं परन्तु उसके चेहरे पर अपनी कृपा के चिह्न छोड़ गयीं। उत्तमी के गोरे रंग पर शीतला के हल्के-हल्के दाग ऐसे लगते थे मानो बरसी हुई चाँदनी की बूँदों के चिह्न बन गये हों। गली-मुहल्ले के ताक-झाँक करने वाले लड़के आपस में कहते—‘‘यार, यह तो दगे हुए पीतल की तरह और दमक गयी....!’’

चेहरे पर शीतला के दाग हो जाने से उत्तमी इतनी दुखी और लज्जित थी की उसने गली में निकलना ही छोड़ दिया। इसके पहले माँ कभी किसी काम के लिए या दो-चार पैसे की चीज बाजार से ले आने के लिए कहती थी तो उत्तमी छँलागें लगाती हुई जाती और गली में लड़के-लड़कियों से कोई न कोई शरारत या चुहल जरूर कर आती। पर अब वह बाहर जाने के नाम से ही कोई न कोई बहाना बना देती। कई बार माँ चिढ़ भी जाती—‘‘हाँ, सारी दुनिया तुझे ही देखने की बैठी है।’’ उत्तमी ने स्कूल जाना भी छोड़ दिया था। मिडिल की परीक्षा देने को थी सो वह भी न दे पायी।
उत्तमी के साथ तो शीतला ने जो कुछ किया तो किया ही; सबसे अधिक संताप था उत्तमी के मँगेतर जयकिशन की माँ को। उत्तमी देखने में अब भी चाहे जैसी लगती हो कहने को तो चेहरे पर ऐब आ ही गया था। जयकिशन की माँ ने गहरी साँस लेकर कहा—‘‘हमें क्या मालूम था कि इस उम्र में भी इसे शीतला निकल आएगी और फिर ऐसी...?’’
कई दिन सोच-विचार करने के बाद जयकिशन की माँ ने लड़के का ब्याह तुरन्त कर देने की बात उठा दी।
उस समय उत्तमी की माँ के लिये लड़की का ब्याह तुरन्त कर देना कैसे सम्भव होता ? पति की मृत्यु को अभी दो बरस भी नहीं हुए थे। दीनानाथ रेलवे में दो-सौ रुपये मासिक कमाते थे। माना, उस जमाने में दो सौ रुपये बड़ी बात थी पर उनका खर्च भी खुला था। मकान घर का जरूर था परन्तु रहने भर को ही था; कोई हवेली तो थी नहीं। लड़की के ब्याह के लिए कम-से-कम आधा मकान रेहन रखकर कर्ज लिए बिना चारा नहीं था। पति की मृत्यु के बाद उत्तमी की माँ घर के एक तिहाई भाग में सिमिट कर शेष स्थान के किराये से ही गुजारा चला रही थी। उसके भविष्य का एक मात्र सहारा लड़का अब बी.एस.सी में पढ़ रहा था। लड़के का भविष्य कैसे बिगाड़ देती ?   
बहुत सोचकर उत्तमी की माँ ने कहा—‘‘अभी लड़की की उम्र ही क्या है, चौदह की ही तो है—बरस-दो-बरस ठहर जायें। उनका स्वर्गवास हुए तीन बरस तो हो जाएँ।’’

कुमारी लड़कियों की माताएँ प्रायः ही बेटी के चौदह की हो जाने पर बेटियों की आयु में दिन और मास नहीं छोड़तीं।
जयकिशन की माँ को नाराज हो जाने का कारण मिल गया। उसने बिरादरी में घूम-घूम कर कहना शुरू किया—‘‘इतना ही मिजाज है तो बैठें अपने घर। बाद में उसे कोई दोष न दे। हमें अपनी लड़की की भी तो शादी करनी है...।’’ और उसने जयकिशन के सगुन में आये एक सौ रुपये और नारियल लौटा दिया।
उत्तमी की माँ ने सिर पीट कर कहा—‘‘अगर ऐसा ही था तो, हमें छः महीने का समय तो दिया होता। मैं मकान गिरवी रखकर ही लड़की का ब्याह कर देती।’’ अब वह बिरादरी की दुहाई देती तो इस बात की डोंडी और पिटती कि लड़की में तो कोई ऐब होगा तभी तो सगाई छूट गयी।
उत्तमी ने जयकिशन को कभी देखा नहीं था परंतु उसने भयंकर अपमान महसूस किया कि कुरूप हो जाने के कारण उसकी सगायी टूट गयी। उसके भविष्य का फैसला हो गया। उसका मन चाहा की मर जायें। पहले वह बुनने या बीनने के लिए बैठती थी तो मकान की गली में खुलने वाली खिड़की में। यदि कोई लड़का संकेत से शरारत करता तो वह धमाकाने के लिए भौंहें चढ़ा लेती या मुँह चिढ़ाकर अँगूठा दिखा देती थी। इन खेलों में उसे भी मजा आता था। अब वह हवा या रोशनी के लिए बैठती तो आँगन में खुलने वाली खिड़की में। केशों में फूल और चिड़िया बनाना, दंदासे में दाँत उजले और होंठ लाल करना और कलफ लगी रंगीन चुन्नियों का शौक भी उसने छोड़ दिया था।

विधवा हो जाने के बाद से ही उत्तमी का माँ ने धर्म-कर्म का नियम आरम्भ कर लिया था। मुँह अंधेरे ही रावी पर स्नान करने चली जाती थी। लौटते समय ग्वाले के यहाँ से दूध और चौक से सब्जी भी लेती आती थी। बिशनदास नौ बजे कालिज चला जाता था इसलिए झटपट चूल्हा जलाकर लड़के के लिए खाना बना देती थी। अब उत्तमी भी सयानी हो गई थी। भाई के लिए खाना बना कर उसे खिला देने का काम लड़की पर छोड़कर उत्तमी की माँ पति के शोक में काला लहँगा पहने और राख से रँगी चादर ओढ़ लड़की के लिए वर की तलाश में बाहर निकल जाती। लाहौर, अमृतसर में विवाह के सम्बन्ध प्रायः स्त्रियाँ ही आपस में तय कर लेती थीं। पुरुषों को स्वीकृति भर देनी होती थी। उत्तमी की माँ ने सूरतमंडी, पापड़मंडी, मच्छीहट्टा, सैदमिट्ठा, गुमटी-बाजार, लुहारीमंडी, मोहलों के मुहल्ले में ऊँची जाति वालों का एक घर न छोड़ा। वह सबको समझाया करती—‘‘लड़की के बाप को मरे अभी दो बरस नहीं हुए, लड़की का ब्याह मैं कैसे कर दूँ ? लड़की को शीतला जरूर निकली थी पर अब भी कोई चल कर देख ले उनका रूप-रंग। हजारों में एक है...।’’
लड़कों की माताएँ अपना पीछा छुड़ाने के लिए सहानुभूति से बेबसी प्रकट कर कह देतीं—‘‘तुम तो जानती ही हो बहिन, आजकल के लड़के सुनते कहाँ हैं। कह देते हैं, पढ़ाई कर लें तो ब्याह करेंगे।’’ कोई लड़के की पढ़ाई का भारी खर्चा बताकर बहुत बड़े दहेज के लिए चेतावनी दे देती। उत्तमी की माँ गाल पर उंगली रखे सुनती और सिर झुकाकर गहरी साँस से लौट आती।

उत्तमी की माँ ने मकान की निचली मंजिल तो रेलवे में काम करने वाले एक बुजुर्ग सिक्ख बाबू को किराये पर दे दी थी और ऊपर की आधी मंजिल का भीतरी भाग, समीप ही लड़कियों के स्कूल में पढ़ाने वाली एक ब्राह्मणी विधवा अध्यापिका को दे दिया था। अध्यापिका का लड़का शिवराम भी लगभग बिशन की ही आयु का था और डी.ए.वी. कालिज में, बी.ए. में पढ़ रहा था। बिशन और शिवराम में जल्दी ही मेल हो गया। जैसा की लाहौर में कायदा था, दोनों के यहाँ बनी दाल-सब्जी इधर-उधर दी-ली जाने लगी। शिवराम अंग्रजी में तेज था। बिशन को मदद भी देता रहता था। शिवराम कभी कोई भी चीज माँगने के लिए बिशन को पुकार लेता और चीज लेन-देन के लिए उस के हिस्से की ओर भी चला जाता। उत्तमी की माँ को वह ‘मासीजी’ पुकारने लगा था।
पहले तो उत्तमी सामना होने पर भी कोई उत्तर न देती; या सामने से हट कर भाई को पुकार देती या चुप ही रह जाती कि उत्तर न मिलने पर अपने आप समझ जाएगा कि बिशन नहीं है। एक दिन एकान्त देखकर शिवराम ने इतना कह दिया—‘‘मुँह का बोल इतना मँहगा है कि पुकारने पर जवाब भी नहीं मिलता; ना-हाँ ही कह दिया करो।’’
उत्तमी मुस्कराये बिना न रह सकी और फिर शिवराम के पुकारने पर जवाब दे देने लगी।
कुछ दिन बाद फिर एक दिन उत्तमी नीचे आँगन में नल से पानी भर रही थी। शिवराम भी अपनी गागर लेकर पहुँच गया। एकान्त देखकर उसने कहा—‘‘ओहो, इतना घमण्ड है ?’’
‘‘घमण्ड काहे का ?’’ उत्तमी ने सिर झुकाए पूछ लिया।
‘‘हुस्न का और काहे का !’’ शिवराम बोला।

उत्तमी के हृदय के सीप में मानों स्वाति की बूँद पड़ गयी, जिसके अभाव में वह जीवन से ही निराश हो रही थी; पुराना गर्व जाग उठा।
‘‘तुम्हें होगा। हम तो बदसूरत हैं।’’ सिर झुकाए उत्तमी बोली परन्तु कनखी से उसने भी शिवराम की ओर देख लिया।
‘‘हम तो तुझ पर मर गये !’’ शिवराम ने कहा।
उत्तमी अँगूठा दिखाकर ऊपर भाग गयी।
उस दिन से दोनों में ताक-झाँक होने लगी। एकांत मिल जाता तो बातें भी करने लगते। अवसर भी मिल ही जाता था।
उत्तमी की माँ तो लड़की के लिए वर की खोज में बावली हो रही थी। लाहौर में सफलता न पाकर वह अमृतसर के भी चक्कर लगाने लगी। सुबह आठ-नौ बजे की गाड़ी से चली जाती और सूर्यास्त के समय ही लौटती। बिशन को चार-पाँच बजे तक कालेज में रहना पड़ता था। शिवराम की माँ भी साढ़े चार बजे से पहले न आ पाती थी। वह कभी-कभी ढाई-तीन बजे ही लौट आता।
उत्तमी दोपहर में नल खाली रहते घर का पानी भर लेती थी या आँगन में ही बैठकर कपड़े धो लेती थी। एक दिन शिवराम कालिज से ढाई बजे लौट आया। आँगन से जीने की ओर जा रहा था तो देखा कि उत्तमी नल पर गागर भर रही थी। शिवराम ने शरारत से इशारा किया।
उत्तमी ने मुँह चिढ़ा दिया।
उत्तमी गागर कमर पर लिये ऊपर चढ़ रही थी। जीने का मोड़ पार किया तो गागर कमर से उठ गयी।
उत्तमी के मुँह से निकल गया—‘‘हाय !’’
शिवराम ने मुँह पर उँगली रखकर संकेत किया—‘‘चुप !’’ और होठों से संकेत कर कहा, ‘‘एक बार !’’
उत्तमी ने दुपट्टे के आँचल से मुँह ढक कर सिर हिला दिया।
शिवराम ने गागर ऊपर की सीढ़ी पर रख कर उत्तमी को बाँहों में भींच लिया तो उत्तमी स्वयं ही उससे चिपट गयी।
इसके बाद शिवराम और उत्तमी दूसरों की निगाहें बचा कर अपना खेल खेलते रहे। ज्यों-ज्यों उत्तमी को प्यार का रस आता गया, वह दिलेर होती गयी। जब भी मौका मिलता, एक चुम्बन चुरा लेती या शिवराम के शरीर से रगड़कर ही निकल जाती। उसने अपने लिये नयी सलवार सी तो नये फैशन की, खूब खुले पौंचे की; और कमीज कमर से खूब चुस्त; इतनी फिट कि माँ को डाँटना पड़ा—‘‘मरी, इतने तंग कपड़े सिएगी तो कितने दिन चलेंगे ?’’
  

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