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हास्य-व्यंग्य >> राष्ट्रीय नाक

राष्ट्रीय नाक

विष्णु नागर

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3226
आईएसबीएन :81-7178-726-6

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हास्य व्यंग्य पर आधारित पुस्तक...

Rashtriy Nak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विष्णु नागर का व्यंग्य सबसे पहला हमला हमारी आदतों और ‘कंडीशनिंग्स’ पर करता हैं- वे आदतें जो हमारी ‘सामान्य नागरिक’ होने के अहं का निर्माण और पोषण करती हैं और जिनके आधार पर हमारी सुविधा और हमारा यथास्थितिवाद खड़ा होता है। यह व्यंग्य हमारे मुहावरों को विचलित कर देता है और हम यकायक, विकल होकर देखते हैं कि हमारे दैनिक जीवन की जो चीजें हमें तकरीबन ‘परम’ प्रतीत होती हैं, सवाल उन पर भी उठाया जा सकता है, और सबसे बड़ी बात कि, उन पर हँसा भी जा सकता है।

स्थितियों के भीतर व्यंग्य की इस उपस्थिति को पकड़ने के लिए कई बार विष्णु नागर का व्यंग्यकार कल्पना और तिरंजना का सहारा भी लेता है, लेकिन यह उनका यथार्थ से हटना या कटना नहीं है, बल्कि यह यथार्थ की एक सुलभ परत से आगे जाकर उसकी कुछ दुर्लभ और दुरूह छवियों तक पहुँचने की कोशिश करना है इसलिए कई बार ‘चोर की दाढ़ी में तिनका’ ‘भैंस के आगे बीन बजाना’ जैसे मुहावरे भी उनकी व्यंग्य-रचना के प्रस्थान बिन्दु हो सकते हैं जो किसी व्यंग्य का निशाना होने के लिए इतने निरीह, निर्दोष और निष्पक्ष दिखाई देते हैं, लेकिन विष्णु नागर उनसे भी अपना लक्ष्य साध लेते हैं।
ईश्वर एक बार फिर उनके यहाँ हमारे सांसारिक यथार्थ का ‘लिटमस टेस्ट’ लेता दिखाई देता है। इस संग्रह में शामिल अट्ठाईस-लघु-रचनाओं में हम उसे ‘चुनावकालीन भारत’ का दौरा करते हुए देख सकते हैं।


संपादक का ऊँट



वह ऊँट था और खड़ा था।
मेरा दोस्त खड़ा होकर खड़े हुए ऊँट को देखने लगा। हमें बैंक पहुँचना था और बैंक बंद होने में सिर्फ दस मिनट बाकी थे।
मैंने उससे कहा, ‘‘चल यार। ऊँट क्या तूने कभी देखा नहीं ?’’
उसने जवाब दिया, ‘‘बस, अभी चलते हैं। मुझे यह देखना है कि यह किस करवट बैठेगा।’’
मैंने झुँझलाते हुए कहा, ‘‘मूर्ख, यह कभी नहीं बैठेगा। तू चल।’’ उसने कहा ‘‘नहीं यह बैठेगा।’’
मैंने कहा ‘‘यह हिंदी अखबार का संपादकीय ऊँट है। यह कभी नहीं बैठेगा। हमेशा से खड़ा है और खड़ा रहेगा।’’
लेकिन मेरा दोस्त अड़ा रहा। उसने कहा, ‘‘आज ही एक नामी अखबार के नामी संपादक ने लिखा है कि अब देखना यह है कि ऊँट किस करवट बैठता है, इसलिए यह बैठेगा। संपादक को सिर्फ यह नहीं मालूम है कि किस करवट बैठेगा। हम जाकर उसे बताएँगे कि यह इस करवट बैठ गया है।’’

मैंने तर्क किया, ‘‘देख, तू मेरी बात मान और चल। संपादक की इसमें दिलचस्पी नहीं कि यह किस करवट बैठ गया। उनकी दिलचस्पी तो यह बताने में है कि ऊँट खड़ा है।’’
उसने जिद की। वह नहीं माना। वहीं अड़ा रहा। वहीं खड़ा रहा। मैंने फिर उसे समझाया, ‘‘देख, तूने कभी किसी हिंदी अखबार के किसी संपादकीय में कभी यह पढ़ा है कि ऊँट दाईं करवट बैठ गया या बाईं करवट बैठ गया। नहीं पढ़ा होगा। तूने संपादकीयों में ऊँट को हमेशा खड़ा पाया होगा। तो यह संपादकीय ऊँट है। यह कभी नहीं बैठेगा। यह कल भी इसी तरह खड़ा हुआ मिलेगा। परसों भी। नरसों भी। बरसों भी। यह खड़े-खड़े ममी बन जाएगा मगर बैठेगा नहीं।’’
उसने पूछा, ‘तू शर्त लगाने को तैयार है ?’’
मैंने कहा, ‘हूँ, मगर शर्त मैं ही जीतूँगा। मैं तीस साल से अखबार पढ़ रहा हूँ, तू पिछले दोसाल से पढ़ रहा है। यह संपादक का ऊँट है। खड़ा रहेगा।’’

उसने झुँझलाकर कहा,‘‘अरे बेवकूफ यह असली ऊँट है। उँट है तो कभी तो बैठेगा। यह सही है कि संपादकीय के अनुसार यह भी करवट लेकर बैठेगा। मगर यह बैठेगा। इसके बैठते ही हम संपादक के पास पहुँच जाएँगे। कहेंगे-भगवन् ऊँट आज बैठ गया है। आप उसे बैठा रहने देना। सुस्ताने देना। तुरंत खड़ा मत कर देना। वरना मैं मेनका गाँधी के पास जाकर आपकी शिकायत करूँगा। उनसे कहूँगा कि ये हिंदी के संपादक दशकों से ऊँट जैसे सीधे-सादे जानवर को खड़ा रखे हुए हैं। यह पशु के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार की घटना है। ये उसे न बैठने दे रहे हैं, न चलने दे रहे हैं, न कुछ खाने दे रहे हैं, न पीने दे रहे हैं। मेरा खयाल है कि कितना ही नामी हो, संपादक इस धमकी से डरेगा। मेनका की धमकी से बड़े डर जाते हैं, फिर यह तो गरीब संपादक है।’’
मैंने फिर अपने नादान दोस्त को नेक सलाह दी कि वह इस पचड़े में न पड़े। ‘‘मेनका गाँधी भी संपादकों से डरती हैं। उनका मूक प्राणियों पर अत्याचार के विरूद्ध अभियान भी तो आखिर अखबारों के दम पर ही चलता है। वे तेरी एक न सुनेंगी। वे ऊँट को खड़ा रहने देंगी।’’

वह गुस्से में आ गया, ‘‘तो मैं अदालत का दरवाजा खटखटाऊँगा।’’
मैंने ठंडे दिमाग से सलाह दी, ‘‘देख, मत जा। आजकल जिसको गुस्सा आता है, अदालत में चला जाता है। तू मत जा। अदालत प्रमाण माँगेगी। कहेगी, ऊँट को हाजिर करो। ऊँट से पूछेगी। ऊँट जवाब नहीं देगा। वह गवाही माँगेगी। तू संपादक के विरुद्ध किसकी गवाही लाएगा ?’’
वह भी हिम्मत हारनेवाला नहीं था। उसने जवाब दिया, ‘‘मैं पिछले पचास साल के सारे संपादकीय अदालत में पेश करूँगा। उससे साबित हो जाएगा कि यह गरीब प्राणी न जाने कब से खड़ा है। इन हिंदी संपादकों की वजह से खड़ा है। हिंदी संपादकों को समुचित सजा दी जाए। ऊँट को बैठाया जाए।’’
मैंने तर्क किया, ‘‘संपादक तो कहेंगे कि हमने तो हमेशा ऊँट के किसी-न-किसी रवट बैठने की प्रतीक्षा की है। यह नहीं बैठता तो हम क्या करें। हो सकता है, यह रात में बैठता हो। लेकिन 11 से 6 के बीच तो यह हमेशा हमें खड़ा मिला। इसलिए हमने लिखा कि देखते हैं कि यह किस करवट बैठता है।’’

इस बीच ऊँट में कुछ हलचल हुई। उसने घोषणा की, ‘‘अब यह जरूर बैठेगा।’’
लेकिन जैसाकि मैंने कहा है, मेरे दोस्त में अनुभव की कमी है। ऊँट खड़ा रहा।
अंततः उसने निराश होकर पूछा, ‘‘यार यह बताओ कि क्या हिंदी संपादकों के कैबिन में इतनी जगह रहती है कि वे एक ऊँट को हमेशा वहाँ खड़ा रखें और क्या उनके पास इतना समय होता है कि हमेशा ऊँट की तरफ देखते रहें ? ये माजरा क्या है ? इससे तो बेहतर है कि ऊँट का एक वीडियो गेम बनवा लें। चल अपना सुझाव देने चलते हैं।’’
फिर खुद ही उसके पैर थम गए। उसने कहा, ‘‘छोड़ यार। मैं शहरी आदमी हूँ। मुझसे गौशाला की गंदगी तो बरदाश्त होती नहीं। ऊँटशाला की गंदगी क्या बरदाश्त होगी। अपन तो बैंक चलते हैं।’’


आदमी की पूँछ



आज के बंदर भले न मानें, मगर आज का आदमी जरूर मानता है कि आदमी बंदर की औलाद है। चिंपाजी की प्रागैतिहासिक नानी हमारी भी नानी थी। पहले हम भी चिंपाजी की तरह पेड़ पर रहते थे और जमीन पर आने से घबराते थे। यह अलग बात है कि चिंपाजी जो था, वही बना रहा। हम जो थे, वह नहीं रहे। और तो और हम ने अपनी ऐतिहासिक पूँछ तक त्याग दी।

मान लो, आज जो हम हैं, वह रहते, लेकिन साथ ही हमारी पूँछ भी रहती। यानी हम पूँछवान मनुष्य होते, तो क्या होता !
एक संभावना यह थी कि हम पूँछ को शरीर का एक फालतू अंग मानकर कटवा डालते। लेकिन क्या हम सचमुच ऐसा करते ? क्या अपने शरीर के किसी अंग को कटवा डालना आसान होता है। नहीं होता, तो इसका मतलब यह है कि हनुमानजी की तरह हमारी भी पूँछ होती। यह फालतू सी चीज हमेशा पीछे लटकी रहती, तो क्या हम अपने को अपनी ही नजर में हास्यास्पद लगते ? क्या जिंदगी भर, पीढ़ी-दर- पीढ़ी हम इस हास्यास्पदता को ढो पाते ?
दूसरी संभावना यह है कि अगर गाय, भैंस, कुत्ता, गधा और खुद बंदर अपनी पूँछ के कारण हमें हास्यास्पद नहीं लगता है तो हम अपनी ही नजर में खुद को हास्यास्पद क्यों लगते ?

तो एक समस्या तो हल हो गई कि न हम अपनी पूँछ कटवाते, न खुद को हास्यास्पद लगते। मगर अब सवाल सामने यह आता है कि हम अपनी पूँछ का क्या करते ? सिर से पैर तक हमारे शरीर का हर अंग काम का है। पूँछ भी शायद किसी न किसी तरह जरूरी होती। गुस्से में हम उसे जमीन पर फटकारते। शायद मक्खी-मच्छर से अपने को बचाने के लिए गाय भैंस की तरह हम भी अपनी पूँछ का इस्तेमाल करते। मालिक को खुश करने के लिए उसके सामने कुत्ते की तरह हम भी दुम हिलाते। शायद पाँच दस किलो का वजन उठाने के लिए हम पूँछ का इस्तेमाल करते।
अगर कोई बिन पूँछ का हमें दिखता, तो हम उसे विकलांग मानते। बच्चों के हाथ-पैर तोड़कर उन्हें विकलांग बनाकर भीख मँगवाने वाले, तब शायद बच्चों की पूँछ भी काट डालते।

लेकिन पूँछ का बड़ा होना श्रेष्ठता का प्रतीक माना जाता या छोटा होना ? छोटी पूँछ इसलिए श्रेष्ठ मानी जा सकती थी वह जमीन पर नहीं घिसटती। लेकिन छोटा कद, छोटी नाक, छोटी आँख, छोटे हाथ वगैरह को सौंदर्य का प्रतीक तो नहीं माना जाता। इसलिए संभव था कि लंबी पूँछ मनुष्य के सौंदर्य उपमानों में से एक मानी जाती। और सब तो ठीक है लेकिन लड़की की पूँछ छोटी है’, और सब तो ठीक है लेकिन लड़के की पूँछ टेढ़ी है’ जैसी टिप्पणियाँ होतीं।

एक सवाल यह भी है कि आदमी अपनी पूँछ उठाकर चलता या गिराकर चलता या सीधी रखकर चलता ? पूँछ उठाकर चलता, तो वह शर्ट पैंट या साड़ी ब्लाउज के बाहर होती या अंदर ? और अगर पूँछ शर्ट- पैंट या साड़ी- ब्लाउज के बाहर होती, तो क्या उसे ठंड, गरमी, बरसात से बचाने के लिए कपड़े से ढँका जाता ?
तब पूँछ ढँकने की भी डेस होती और उसके ड्रेस डिजाइनर होते। फैशन हमेशा बदलते रहते। गरमी में पुरुष अपनी पूँछ आधी या पूरी खुली रखते, मगर औरतों को अपनी पूँछ ढँकनी पड़ती। केवल शहरी आधुनिकाएँ ही अपनी पूँछ को अधनंगा रखतीं और बुढ़ऊ कहते कि देखा-देखा, आजकल की लड़कियाँ कितनी बेशरम हैं, अपनी पूँछ दिखाती रहती हैं। लड़के टेढ़ी या सीधी नजरों से लड़कियों की पूँछ को देखते और कहते, यार क्या बला की पूँछ है। हाय ! हम तो मर गए।’’

पूँछ के बालों के बारे में तो हमने सोचा ही नहीं। पूँछ के बाल धोए जाते और उनमें कंघी की जाती। तब ब्यूटी पार्लवाले पूँछ के बालों को ‘सुन्दर’ बनाने के भी उपाय करते। उधर नाइयों को भी काम मिलता। हो सकता है कुछ पुरुष दाढ़ी-मूँछ की तरह पूँछ के बाल भी शेव कराते। कुछ इन बालों को बड़ा रखते। लड़कियाँ हो सकता है, इन बालों में रिबन बाँधतीं, रबड़ लगातीं या क्लिप लगातीं। पूँछ के बालों को नरम, मुलायम और स्वस्थ रखने के लिए हो सकता है कुछ साबुन शैंपू और क्रीमें होतीं।

बहुत कुछ होता, गर पूँछ होती। तब आँख, दाँत कान विशेषज्ञ की तरह शायद पूँछ विशेषज्ञ भी होते। लोग पूँछ में दर्द की शिकायत लेकर डॉक्टर के पास जाते। डॉक्टर पूछता कि पूँछ को ऊँचा रखने से दर्द होता है या नीचा रखने से। पूँछ को फटकारने से दर्द होता है या हिलाने से। वह दवा के साथ-साथ पूँछ के तरह- तरह के व्यायाम भी बताता। मालिश के लिए तेल या लोशन बताता। पूँछ के बारे में कुछ नए मुहावरे भी बनते। हो सकता है, तब लोग पूँछ का सवाल बनाने की बजाए पूँछ का सवाल बनाते। व्यवस्था को लूँली-लँगड़ी के साथ ही लोग पूँछ कटी भी बताते। किसी को गरियाने के लिए लोग तब कहते कि साले को पूँछ हिलाना तो आता नहीं है, नेतागिरी करने चला है।

और भी अनंत संभावनाएँ हैं। हिंदुओं में शादी के समय वर-वधू की गाँठ बाँधने की बजाए पूँछ बाँछने की परंपरा होती। हो सकता है, आदमी को पूँछ होती तो उसे कुर्सी की जरूरत न पड़ती। जमीन पर दो पैर रखे, पूँछ गोल-गोल मोड़कर रखी और बैठ गए।
हो सकता है, हम भारतीय अपनी पूँछों के बल पर गर्व करते और सबसे बड़ी बात, सिर्फ हनुमान की ही नहीं राम-लक्ष्मण-सीता, कृष्ण-राधा वगैरह की जितनी तसवीरें और मूर्तियाँ मिलतीं, सब में उनकी पूँछ होती।

 

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