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महासमर - निर्बन्ध

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :528
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3230
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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आठ खंडों में प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास का यह आठवां और अंतिम खंड है।

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पाठक पूछता है कि यदि उसे महाभारत की कथा पढ़नी है तो वह व्यासकृत मूल महाभारत ही क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का उपन्यास क्यों पढ़े ? वह यह भी पूछता है कि उसे उपन्यास ही पढ़ना है, तो वह समसामयिक सामाजिक उपन्यास क्यों न पढ़े, नरेन्द्र कोहली का ‘महासागर’ ही क्यों पढे़ ?

‘महासागर’ हमारा काव्य भी है, इतिहास भी और अध्यात्म भी। हमारे प्राचीन ग्रंथ शाश्वत सत्य की चर्चा करते हैं। वे किसी कालखंड के सीमित सत्य में आबद्ध नहीं हैं, जैसा कि यूरोपीय अथवा यूरोपीयकृत मस्तिष्क अपने अज्ञान अथवा बाहरी प्रभाव में मान बैठा है। नरेंन्द्र कोहली ने न महाभारत को नए संदर्भो में लिखा है, न उसमें संशोधन करने का कोई दावा है। न वे पाठको को महाभारत समझाने के लिए, उसकी व्याख्या कर रहे हैं। नरेन्द्र कोहली यह नहीं मानते कि महाकाल की यात्रा, खंडों में विभाजित है, इसलिए जो घटनाए घटित हो चुकी हैं, उनमें अब हमारा कोई संबन्ध नहीं है, उनकी मान्यता है कि न तो प्रकृति के नियम बदले हैं, न मनुष्य का मनोविज्ञान। मनुष्य की अखंड कालयात्रा को इतिहास खंड़ों में बाँटे तो बाँटे, साहित्य उन्हें विभाजित नहीं करता, यद्यपि ऊपरी आवरण सदा ही बदलते रहते हैं।

महाभारत की कथा भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की अमूल्य थाती है। नरेन्द्र कोहली ने उसे ही अपने उपन्यास का आधार बनाया है, जो उसे अपने बाहरी कथा मनुष्य के उस अनवरत युद्ध की कथा है, जो उसे अपने बाहरी भीतरी शत्रुओं के साथ निरंतर करना पड़ता है। वह उस संसार में रहता है, जिसमें चारों ओर लोभ, मोह, सत्ता और स्वार्थ संघर्षरत हैं। बाहर से अधिक, उसे अपनों से लड़ना पड़ता है। और यदि वह अपने धर्म पर टिका रहता है, तो वह इसी देह में स्वर्ग भी जा सकता है- इसका आश्वासन ‘महाभरत’ देता है। लोभ, त्रास और स्वार्थ के विरुद्ध मनुष्य के इस सात्विक उपन्यास के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।..और वह है ‘महासागर’। आठ खंडो में प्रकाशित होने वाले इस उपन्यास का यह आठवा और अंतिम खंड है। इस खंड के साथ यह उपन्यास श्रंखला पूर्ण हुई, जिसके लेखन में लेखक को पंद्रह वर्ष लगे हैं। कदाचित् यह हिंदी की सबसे बृहदाकार उपन्यास है, जो रोचकता, पठनीयता और इस देश की परंपरा के गंभीर चिंतन को एक साथ समेटे हुए है।

आप इसे पढ़े और स्वयं अपने आप से पूछें, आपने इतिहास पढ़ा ? पुराण पढ़ा ? धर्मग्रंथ पढ़ा अथवा एक रोचक उपन्यास पढ़ा ? इसे पढ़कर आपका मनोरंजन हुआ है ? आपका ज्ञान बढ़ा ? आपका अनुभूति-संसार समृद्ध हुआ ? अथवा आपका विकास हुआ ? क्या आपने इससे पहले कभी ऐसा कुछ पढ़ा था ?

निर्बन्ध


‘‘पिताजी !’’
द्रोण ने अपनी पलकें उठाकर अश्वत्थामा की ओर देखा तो लगा कि उन्हें उस प्रकार पलकें उठाना भी जैसे भारी पड़ रहा है। कदाचित् अश्वत्थामा ने इस प्रकार सहसा आकर उनकी एकाग्रता भंग कर दी थी।

‘‘क्या बात है पिताजी !’’ अश्वात्थामा ने पूछा, ‘‘आप सहज प्रसन्न नहीं दीखते ?’’ द्रोण की दृष्टि में अश्वात्थामा के लिए भर्सना थी। क्या वह इतनी-सी भी बात नहीं समझता ? पर अपनी उस दृष्टि का अश्वात्थमा पर कोई प्रभाव न देखकर बोले, ‘‘भीष्म धराशायी हो चुके हैं।’’
‘‘तो चिंता किस बात की ?’’ अश्वत्थामा के स्वर में उल्लास था, ‘‘सेनापति वीरगति प्राप्त करता है तो उसका सहयोगी उपसेनापति, प्रधान सेनापति बन जाता है। सेनापति कभी नहीं मरता।’’
इस बार द्रोण ने कुछ मुस्कराकर उसकी ओर देखा, ‘‘तो मुझे प्रसन्न होना चाहिए कि भीष्म के धराशायी होने से मेरी उन्नति का द्वार खुल गया है ?’’
‘‘मैं तो यही समझता हूँ; और यह भी मानता हूँ कि भीष्म के पश्चात् आपका भी प्रधान सेनापति चुना जाना स्वाभाविक, न्यायोचित तथा निश्चित है।’’

‘‘शिक्षा के समय जो कुछ तुमने अपने उपाध्याय से सुना, उसे सुग्गे के समान रट रहे हो।’’ द्रोण का स्वर कठोर हो गया, ‘‘अपनी स्थिति पर भी कुछ विचार किया है तुमने ?’’
‘‘अपनी स्थिति पर ?’’ अश्वात्थामा उनका अभिप्राय नहीं समझ पाया।
‘‘किसी समय मैंने द्रुपद को अपना मित्र माना था। उससे मन खट्टा हुआ तो उसके सबसे समर्थ विरोधी का अवलंब ग्रहण करने मैं हस्तिनापुर आया था।...’’ द्रोण ने उनकी ओर देखा, ‘‘पर तुमने कभी इस पर विचार किया है कि मैं हस्तिनापुर क्या करने आया था ?’’
अश्त्थामा अपने पिता की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखता रहा।
‘‘तुमने कभी सोचा कि मुझे युद्ध करना था तो मैंने स्वयं द्रुपद से युद्ध क्यों किया ?’’ द्रोण बोले, ‘‘कौरव राजकुमारों का गुरु बनने के लिए क्यों चला आया ? द्रुपद से तत्काल प्रतिशोध न लेकर उसे कौरव राजकुमारों की शिक्षा समाप्त होने तक टाल क्यों दिया ?’’

अश्वत्थामा अपनें पिता का एक सर्वथा नवीन रूप देख रहा था। हाँ ! यह प्रश्न उसके मन में तो कभी नहीं उठा। पिता तब भी धनुर्वेदाचार्य थे। व्यूहों का ज्ञान तो उनको तब भी था। तो उन्होंने युद्ध की बात क्यों नहीं सोची ?
‘‘तुम कह सकते हो कि तब मेरे पास सेना नहीं थी।’’ द्रोण बोले, ‘‘किंतु जिस समय मैं कौरव राजकुमारों को साथ लेकर द्रुपद से युद्ध करने गया था, तब सेना भी थी मेरे पास। फिर भी युद्ध मैंने नहीं किया। कौरवों ने भी नहीं किया। दुर्योधन और कर्ण तो पराजित होकर भाग ही आए थे। युद्ध पांडवों ने किया था।’’ द्रोण ने अपने पुत्र को देखा, ‘‘यदि पांडव भी द्रुपद को जय न कर सकते तो क्या मैं युद्ध करता ?’’
‘‘आप युद्ध नहीं करते ?’’ अश्वत्थामा चकित था।
‘‘मैं द्रुपद की पराजय चाहता था, उसका अपमान चाहता था, उससे प्रतिशोध करना चाहता था, पर मैं उससे स्वयं युद्ध नहीं करना चाहता था। मैं उससे युद्ध करने नहीं गया था, उसे अपमानित करने गया था।’’

‘‘यदि अर्जुन और भीम पांचालों को पराजय नहीं कर पाते तो आप चुपचाप हस्तिनापुर लौट आते ? युद्ध नहीं करते ?’’
‘‘नहीं !’’ द्रोण जैसे अपने आपसे कह रहे थे, ‘‘कौरव राजकुमार पराजित होकर लौटते तो उनके अपमान और परायज का प्रतिकार करने के लिए, भीष्म स्वयं युद्ध करने जाते। मैं तो द्रुपद और भीष्म को युद्धक्षेत्र में आमने-सामने कर देना भर चाहता था।’’

‘‘आप अर्जुन की क्षमता पर विश्वास कर नहीं गए थे ?’’
मुझे अर्जुन से अपेक्षाएँ तो बहुत थीं; किंतु इतना विश्वास नहीं था कि वह द्रुपद को पराजित कर इस प्रकार बाँध लाएगा।’’
‘‘तो आपने अर्जुन को उस युद्ध के लिए तैयार नहीं किया था ?’’
‘‘युद्ध के लिए तो तैयार किया था, किंतु यह विश्वास नहीं था कि वह विजयी होगा ?’’ द्रोण बोले, ‘‘निश्चित विश्वास नहीं था।’’
‘‘तो आप उसे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी नहीं मानते थे ?’’
‘‘नहीं ! मैं उसे श्रेष्ठ धनुर्धारी ही मानता था, उसके सर्वश्रेष्ठ होने का विश्वास तो मुझे विराटनगर के गोहरण वाले युद्ध में हुआ है।’’ द्रोण बोले।
‘‘तो आपने एकलव्य का अँगूठा क्यों लिया ? अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बनाए रखने के लिए नहीं ?’’
द्रोण की आँखों में खीज जन्मी, ‘‘तुम अर्जुन के संसार में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होने की बात बार-बार क्यों कहते हो ? उससे अधिक तो मैंने तुमको सिखाया है। उसे पानी भरने के लिए भेज कर भी तुम्हें शिक्षा देता रहा। उसके वारणावत चले जाने के पश्चात् भी तुम्हें सिखाता रहा। तुम मेरे प्रिय पुत्र हो। एक मात्र पुत्र हो। तो फिर मैं तुमसे अधिक और किसे सिखा सकता था।’’

‘‘तो फिर एकलव्य का अँगूठा... ?’’ अश्वत्थामा कुछ झपटकर बोला, ‘‘यदि आपको उसके अर्जुन पर भारी पड़ने का भय नहीं था, तो उसको इस प्रकार अपंग करने का प्रयोजन ?’’
अश्वत्थामा ने अपने पिता की ओर देखा तो चकित रह गया। उनकी आँखों में जैसे क्रोधाग्नि धधक रही थी।
‘‘क्या बात है पिताजी ?’’ अश्वत्थामा कुछ शांत होकर बोला, ‘‘मैंने ऐसा तो कुछ नहीं कहा।’’ और फिर जैसे वह सँभल गया, ‘‘यदि मेरी किसी बात ने आपका मन दुखाया हो तो मैं क्षमाप्रर्थी हूँ।’’
‘‘मैंने एकलव्य का अगूठा लिया था, क्योंकि वह मेरा अपमान कर रहा था।’’ द्रोण की शिराओं में जैसे घृणा का विष धधक रहा था।
अपमान ?...अश्वत्थामा सोचता रह गया....जिस एकलव्य ने गुरुदक्षिणा में अपने अँगूठे के रूप में उन्हें अपना सारा धनुर्ज्ञान दे दिया, अपना सारा सामर्थ्य उनकी झोली में डाल कर स्वयं पूर्णतः अकिंचन हो गया, उसके विषय में उसके पिता कह रहे हैं कि वह उनका अपमान कर रहा था ?.....
पिता की मनःस्थिति इस समय विवाद करने की नहीं थी। वे तो उसकी जिज्ञासा से ही क्षुब्ध हो रहे थे, उसके विरोध को कैसे सहन करते।....

‘‘अपमान ?’’ न चाहते हुए भी अश्वत्थामा के मुख से अनायास ही निकल गया।
‘‘हाँ अपमान।’’ द्रोण के अधर जैसे क्रोध से फड़फड़ा रहे थे, ‘‘वह यह सिद्ध कर रहा था कि द्रोण के सिखाए बिना भी कोई संसार का श्रेष्ठ धनुर्धानी हो सकता है। जिसका मैंने तिरस्कार किया, जिसे मैंने शिक्षा नहीं दी, वह मेरे शिष्य से अच्छा धनुर्धर प्रमाणित हो जाए तो फिर मेरे चयन और प्रशिक्षण का अर्थ ही क्या रह गया ?’’

अश्वत्थामा स्तब्ध रह गया। उसने आज तक एकलव्य की ओर से ही सोचा था। अपने पिता के मन को भी जानना चाहा तो उसके उदात्त रूप के विषय में ही सोचा। उनके इस रूप को तो उसने जाना ही नहीं था। किसी अबोध की श्रद्धा और निष्ठा से भी किसी ज्ञानी का अहंकार आहत होता है, यह उसके लिए नया ही अनुभव था। तभी तो अर्जुन की प्रत्येक उपलब्धि के साथ कर्ण का रक्त खौलने लगता है।....तो यह अहंकार उसके पिता में भी है। हाँ ! अहंकार तो है ही, अन्यथा वे द्रुपद से इतने रुष्ट क्यों होते। उसके एक वाक्य से पिता अपना संतुलन क्यों खो देते ? वह उनका स्वाभिमान मात्र होता तो वे द्रुपद के अतिथ्य तिरस्कार कर कांपिल्य छोड़ देते....किंतु यह प्रतिशोध...फिर प्रतिशोध की भी कितनी लंबी योजना। कौरव राजकुमार द्रुपत को अपमानित न कर सकें तो भीष्म जाएँ द्रुपद का अपमान करने।...यह मात्र अहंकार ही था अथवा...? क्या-क्या छिपा है मनुष्य के मन में...

‘‘तो फिर आप हस्तिनापुर ही क्यों आए ?’’ अश्वत्थामा ने पिता की उत्तेजना देखते हुए विषय बदल दिया।
‘‘मैं भीष्म के बल के भरोसे हस्तिनापुर आया था, भीष्म के धर्म पर विश्वास कर।’’
‘‘अपने बल के भरोसे क्यों नहीं ?’’
‘‘मैं युद्धाचार्य था, योद्धा नहीं।’’ द्रोण बोले, ‘‘शास्त्रों के विषय में जानना और समरभूमि में अपने शरीर पर आघात झेलना, अपने शरीर को चिरवाना और दूसरे जीवित शरीर को चीरना दो भिन्न बातें हैं। सैद्धांतिक पक्ष का मैं ज्ञाता था; किंतु युद्ध कभी न किया था, न देखा था। मनुष्य का रक्त बहाने के साधनों का मुझे ज्ञान था; किंतु किसी का रक्त मैंने बहाया नहीं था। अपने शरीर से रक्त बहाने की कल्पना भी नहीं की थी।,....और पुत्र ! जो केवल सिद्धांत की बात करता है, आवश्यक नहीं कि वह वीर भी हो, वह प्रायः भीरु होता है। वह किसी का संरक्षण पाकर सुरक्षित ढंग से अपना कार्य करना चाहता है। मैं भी भीष्म की छाया में सुरक्षित रहकर द्रुपद से प्रतिशोध लेना चाहता था।....मैं उसे अपमानित और वंचित करना चाहता था; किन्तु अपना कुछ भी दाँव पर लगाना नहीं चाहता था..’’

‘‘पर पिछले दस दिनों से हो रहे इस युद्ध में तो आप कहीं दुर्बल नहीं पड़े।’’
‘‘हस्तिनापुर में रहते हुए, युद्धों का पूर्वाभ्यास भी हुआ है और कुछ-कुछ अभ्यास भी।’’ द्रोण बोले, ‘‘विराटनगर में पहली बार मैंने वास्तविक युद्ध का अभ्यास किया, किंतु वह युद्ध अकेले योद्धा अर्जुन के विरुद्ध था और यह मैं तब भी जानता था कि अर्जुन मेरा वध करने नहीं आया है, वह केवल विराट का गोधन लौटा ले जाने आया है। इसलिए वस्तुतः वह भी प्राणांतक युद्ध नहीं था।’’

‘‘पर यह युद्ध ?’’
‘‘यह युद्ध भी तो मैंने, तुमने, हमने भीष्म की छाया में ही लड़ा है।...’’ द्रोण अपने स्थान से उठे हुए। उनका चेहरा अवसाद में डूबा हुआ था। इस बार बोले तो उनके स्वर में भी विषाद था, ‘‘अब भीष्म ही नहीं रहे।...’’
‘‘तो ?’’
‘‘तो हम अब असुरक्षित हैं। अब हमें किसी दृढ़ कवच की सुरक्षा से वंचित अपने बल पर युद्ध करना होगा।’’
‘‘तो भय का क्या कारण है पिताजी ! हम समर्थ हैं।’’
द्रोण कुछ नहीं बोले। वे सिर झुकाए चुपचाप बैठे हुए कुछ सोचते रहे।
‘‘आप भयभीत हैं पिताजी ?’’

‘‘मैं आरम्भ से ही भीरू रहा हूँ।’’ द्रोण बोले, ‘‘मैं अपने ज्ञान के सामर्थ्य से तो अवगत था किंतु अपने योद्धा रूप को नहीं जानता था। पिछले दस दिनों में मैंने अपना योद्धा रूप भी देखा है। मन-ही-मन कहीं यह भी जानता हूँ कि अर्जुन मुझसे प्रेम करता है, मेरा सम्मान करता है। मेरे सम्मुख वह अपना परम शौर्य प्रकट नहीं करेगा। वह मेरा वध नहीं करेगा, जैसे वह भीष्म का वध करना नहीं चाहता था। किंतु अर्जुन न राजा है, न प्रधान सेनापति। फिर उधर कृष्ण भी हैं। इसका अर्थ है कि.....’’
‘‘पिताजी ! भय का कोई कारण नहीं है।’’ अश्वत्थामा कुछ व्यग्र रूप में बोला, ‘‘हम क्षत्रिय नहीं हैं; किंतु योद्धा तो हैं। आपके प्राणों को कोई भय नहीं है। महाराज दुर्योधन आपकी सुरक्षा का पूर्ण प्रबँध करेंगे। अब भीष्म के पश्चात् दूसरा योद्धा ही कौन है।’’

‘‘तुम्हें अपनी क्षमता का ज्ञान है, अपने शत्रुओं की क्षमता का नहीं। हमें बहुत सतर्क रहने की आवश्यकता है। पलक झपकने भर का समय धृष्द्युम्न को दे दो और देखो, वह मेरा मस्तक काट कर ले जाएगा।’’ द्रोण रुके, और फिर तमककर बोले, ‘‘वैसे मुझे भय अपने प्राणों का नहीं है। पिता बन जाने के पश्चात् सारी चिंता पुत्र की होती है। मैं अपनी भूख से पीड़ित होकर द्रुपद के पास नहीं गया था। तुम्हें ही दूध के स्थान पर आटे का घोल पी कर प्रसन्न होते देख मेरा मन रक्त वमन करने लगा था और मैंने द्रुपद के पास जाने की योजना बनाई थी।.....’’
‘‘तो अब भी आपको मेरे ही प्राणों का भय है ?’’

‘‘पुत्र पिता की आत्मा होता है। वह उसका आत्मज है। वह उसका भविष्य है, उसका विकास और विस्तार है। मैं तुम्हारे लिए चिंतित नहीं हूँगा तो और किसके लिए हूँगा।...’’
‘‘मैं तो आज तक यही समझता रहा कि आप मुझसे भी कहीं अधिक अर्जुन से प्रेम करते हैं।...’’ अश्वत्थामा ने हँसने का प्रयत्न किया।
‘‘अर्जुन का भी मोह है मुझको। वह मेरा मानसपुत्र है।...किंतु देह के संबंधों का मोह बड़ा होता है। किसी गुरु को अपना शिष्य अपने औरस पुत्र से अधिक प्रिय नहीं होता।... और मेरे तो तुम एकमात्र पुत्र हो। तुम्हें कुछ हो गया तो मेरे जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा।....’’
‘‘पिताजी !’’
अश्वत्थामा को रोमांच हो गया। उसने अपने पिता का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था।... और इस प्रकार.... इतने मुखर रूप में उन्होंने अपने प्रेम को अभिव्यक्ति पहले कभी नहीं दी थी।
‘‘वह तो ठीक है पिताजी ! किंतु अपने शस्त्रों और अपने युद्ध-कौशल के साथ हम इतने असुरक्षित भी नहीं हैं।’’ अश्वत्थामा धीरे से बोला, ‘‘और युद्ध करने पर क्षत तो लगते ही हैं। हम अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि हम तो शत्रु पर प्रहार करेंगे; किंतु वह हम पर प्राहार नहीं करेगा।...’’

‘‘ठीक कहते हो पुत्र !’’ द्रोण बोले, ‘‘इस बात को मैं भी समझता हूँ। सिद्धांत रूप में ही चर्चा करनी हो अथवा किसी को समझना हो तो ये सारी बातें मैं कह सकता हूँ... किंतु अपनी प्रकृति को मैं जानता हूँ। यह देखते हुए भी कि यहाँ असंख्य योद्धाओं ने स्वेच्छा से अपने साथ अपने पुत्रों को भी रणसज्जित किया है, मैं अपना मोह दूर नहीं कर पा रहा। मैंने देखा कि विराट के चक्षुओं के सम्मुख उनके तीन-तीन पुत्रों का वध हुआ है। अर्जुन के सारे सामर्थ्य और पांडव सेना की सारी शक्ति के होते हुए भी इरावान मारा गया...और फिर भी वे पिता योद्धाओं के रूप में सहज भाव से युद्ध कर रहे हैं। मैं सोचता हूँ कि अपने पुत्र के हताहत होने का समाचार पाकर कोई पिता जीवित कैसे रह सकता है।....’’
‘‘राजा दुर्योधन ने भी तो अपने पुत्रों को रणभूमि में उतारा है पिताजी !’’
‘‘जानता हूँ।’’ द्रोण ने धीरे से कहा, ‘‘उसने तो राज्य के मोह में बहुत कुछ किया है, पर प्रश्न यह है कि मैं इस रणभूमि मे क्या कर रहा हूँ ? अपने पुत्र और मानस पुत्रों की मृत्यु देखने के लिए क्यों खड़ा हूँ यहाँ ? मुझे क्या लेना है इस रण से ?’’
‘‘आप भूलते हैं कि हमने इसी राजा से बहुत धन-धान्य पाया है। उसी के कारण हमारे पास अहिछत्र का राज्य सुरक्षित है। उसी के कारण...’’

‘‘भ्रांति है तुम्हारी।’’ द्रोण एक विचित्र प्रकार की उत्तेजना में बोले, ‘‘हमने जो कुछ पाया, भीष्म से पाया। मैंने तुमसे कहा था कि मैं भीष्म के संरक्षण में आया था। उनके शौर्य पर भी विश्वास था मुझको और उनके धर्म पर भी।....दुर्योंधन के न तो शौर्य में मेरी आस्था है और न उसके धर्म में। अधर्मी है वह। अपने स्वार्थ के कारण वह तो घुटनों के बल गिरा भी सकता है और किसी के तलुवे भी चाट सकता है।...किंतु धर्म का लेश भी नहीं है उसमें।’’
‘‘हम भी धर्म की रक्षा के लिए युद्ध नहीं कर रहे हैं।’’ अश्वत्थामा के स्वर में हल्की-सी उत्तेजना उभरी, ‘‘ हम हस्तिनापुर के साम्राज्य और उसके राजा की रक्षा के लिए रणस्थली में आए हैं।’’

‘‘इसी का तो संताप है मुझे।’’ द्रोण जैसे अपने आपसे कह रहे थे, मैंने धर्म की रक्षा के लिए धनुष क्यों नहीं उठाया, स्वार्थ की रक्षा के लिए शस्त्रग्रहण क्यों किया।’’
अश्वत्थामा हतप्रभ-सा अपने पिता को देखता रहा और फिर कुछ उत्तेजना में बोला, ‘‘आज युद्ध का पहला दिन नहीं है पिताजी ! ग्यारहवाँ दिन है। यह सब सोचना था तो आपको युद्ध आरम्भ होने से पहले सोचना चाहिए था। मन में द्वंद्व ही उठने थे तो युद्ध के पहले दिन उठने चाहिए थे। बीच युद्ध में आज ग्यारहवें दिन यह सब सोचने का क्या तर्क है। ....’’

‘‘एक ही कारण है पुत्र ! और वही इसका तर्क भी है। भीष्म अब नहीं हैं। वे असमर्थ होकर शर-शैया पर पड़े हैं और उनके प्राण अपने प्रयाण के लिए जाने किस अनुकूल क्षण की प्रतिक्षा में हैं।’’ द्रोण ने प्रयत्नपूर्वक अश्वत्थामा की ओर देखा, ‘‘और इधर दुर्योधन स्वयं को हमारा स्वामी माने बैठा है।

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