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जड़ें

अचला शर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3257
आईएसबीएन :81-267-0658-9

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बीबीसी प्रसारित नाटक

Jaden

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

बीबीसी विश्व सेवा यूँ तो समाचारों और सामयिक विषयों की चर्चा के लिए प्रसिद्ध है, मगर रेडियो नाटकों की परम्परा वहाँ भी रही है। अंग्रेज़ी तथा कई अन्य भाषाओं में समय-समय पर रेडियो नाटक प्रसारित होते रहे हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा में भी रेडियो नाटक की पुष्ट परम्परा रही है। और क्यों न रहती ? किसी जमाने में सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी जुड़े थे।

अचला जी ने एक रेडियो-प्रोड्यूसर के रुप में रेडियो नाटक को नजदीक से देखा है, और लेखिका की हैसियत से रेडियो तकनीक को आत्मसात् करने की कोशिश की है। नाटक के मूल तत्त्व ‘तनाव’ के ‘अलावा, रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थिति रहती हैं, उनमें एक है, अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव और दूसरी ध्वनि परिप्रेक्ष्य।

कहानी और उपन्यास, दोनों भिन्न विधाएँ हैं। लेकिन उन्हें एक दूसरे माध्यम में ढालने के लिए एक अलग तकनीक की, समझ की जरुरत है। टेलीविजन या फिल्म के लिए दो तकनीक अलग है और रेडियो के लिए अलग। रेडियो नाटक के संवाद लिखते समय लेखक को इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आ जाए।

‘जड़े’ में बीबीसी से प्रसारित उन नाटकों को संकलित किया गया है जिनकी केन्द्रीय समस्याओं का सम्बन्ध भारत से है।
जिन नाटकों ने बीबीसी हिन्दी सेवा के करोड़ों श्रोताओं ने सुना और सराहा है, वे नाटक अब पुस्तक रुप में आपके हाथ में हैं।


भूमिका



भारत में रेडियो का पुनर्जन्म हो रहा है। इन दिनों मीडिया से जुड़े बहुत से लोग यही बात कहते पाए जाते हैं। वे भी, जिनका रेडियो में कोई रचनात्मक योगदान रहा है, और वो भी जिसका पैसा लगा है। बेशक, पहली बार रेडियो सरकारी सीमाओं से बाहर क़दम रख रहा है। ग़ैरसरकारी FM रेडियो चैनल भले ही तकली़फ़देह सुस्ती के साथ एक-एक कर उभर रहे हैं लेकिन कम से कम इस बहाने रेडियो एक बार फिर चर्चा में है। सैटलाइट केबल टेलीविज़न और इंटरनेट जैसे माध्यमों की इस बेहद रोचक दुनिया में रेडियो का भावी रूप क्या होगा, क्या वह संगीत के अलावा भी कुछ दे पाएगा, क्या रोडियो पत्रकारिता जैसी कोई विधा भारत के मीडिया परिदृश्य पर भी पनप पाएगी-इन सवालों के जवाब फ़िलहाल मुश्किल हैं। लेकिन यह निश्चित है कि रेडियो या ध्वनि माध्यम की सम्भावनाएँ अपार हैं। मैं 1977 से लेकर आज तक रेडियो से जुड़ी हूँ। आकाशवाणी से लेकर बीबीसी तक के अपने कामकाजी जीवन के पच्चीस वर्षों में मैंने रेडियो प्रसारण के विभिन्न रूप और आयाम समझने की कोशिश की है।

 एक रेडियो पत्रकार के रूप में यह जाना कि ‘रेडियो पत्रकारिता’ पत्रकारिता की एक विशिष्ट और चुनौतीपूर्ण विधा है। एक रेडियो प्रोड्यूसर की हैसियत से ध्वनि माध्यम की क्षमता और उसके भविष्य में मेरी अटूट आस्था रही है। रेडियो की पहुँच टेलीविज़न और इंटरनेट से कहीं व्यापक है, रेडियो घर-दफ्तर की सीमाओं को पार करने में सक्षम है। आप दुनिया के किसी ऐसे सुदूर छोर में चले जाएँ जहाँ टेलिफ़ोन टेलीविजन, या कम्प्यूटर की सुविधाएँ न हों, वहाँ भी एक नन्हा-सा ट्रांज़िस्टर रेडियो आपको सारी दुनिया से जोड़ सकता है। मैंने जब रेडियो सुनना शुरू किया था, तब रेडियो की इस ताक़त से पूरी तरह परिचित नहीं थी। मैंने जब रेडियो सुनना शुरू किया था, तब घर में एक डिब्बे के आकार का बिजली से चलने वाला मर्फी रेडियो था। नाटक की विधा से मेरा पहला परिचय भी उसी रेडियो सैट के माध्यम से हुआ। रंगमंच को तो बहुत बाद में जाना। टेलीविज़न सीरियल या सोप की शुरुआत तो भारत में अभी हाल के वर्षों में हुई है, मगर रेडियो नाटकों की परम्परा बहुत पुरानी और मज़बूत है। इसीलिए ‘रेडियो ड्रामे’ की जो मेरी समझ है उसमें ऑल इंडिया रेडियो का बहुत बड़ा योगदान है। जब छोटी थी तो एक श्रोता के रूप में आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र से प्रसारित होनेवाले नाटकों से कान लगाकर सुनती थी। लगता था जैसे नाटकों के सारे पात्र रेडियो के बक्से में मिनियेचर के रूप में बन्द हों और उन्हें महसूस किया जा सकता हो।

उन दिनों नाटकों का अखिल भारतीय कार्यक्रम प्रसारित हुआ करता था। हर शुक्रवार की रात, घर के एकमात्र रेडियो सैट से चिपककर मैंने न जाने कितने ही बेहतरीन नाटक सुने हैं। पिछले पन्द्रह वर्षों में मुझे आकाशवाणी के नाटक सुनने का अवसर नहीं मिला। लेकिन मेरे बचपन या बड़े होने की प्रक्रिया में कई रेडियो नाटकों ने अहम रोल अदा किया है।...कैसे-कैसे लेखक, कैसे-कैसे अभिनेता और कैसी-कैसी आवाजें। बड़े-बड़े और नए से नए लेखकों की रचनाओं को आकाशवाणी ने सशक्त रूप में लोगों तक पहुँचाया। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि सभी जाने-माने लेखक रेडियो के लिए लिखने और विशेष रूप से नाटक लिखने में गर्व का अनुभव करते थे। रेडियो नाटकों के आरम्भिक दौर से भले ही मेरा सीधा परिचय नहीं रहा, लेकिन साठ-सत्तर के दशक में हर सप्ताह नाटक का इंतज़ार मुझे कुछ इस तरह रहता था, जिस तरह उसी ज़माने में बहुत से लोगों को अमीन सयानी की ‘बिनाका गीतमाला’ का या फिर आज के ज़माने में टेलीविज़न सीरियलों का।

उन बहुत से श्रेष्ठ नाटकों में से कुछ के नाम मुझे आज भी याद हैं, जैसे, फिर उसी वीराने की तलाश में’, लाओ ज़हर पिला दो’, रीढ़ की हड्डी’, तौलिए’, ‘आपका बंटी’, नींद क्यों रात भर नहीं आती’, ‘बेगम का तकिया’, ‘निज़ाम सक़्क़ा’, ‘गँवार’ इत्यादि। उन दिनों नाटक सिर्फ़ सुने नहीं जाते थे बल्कि अगले दिन अपनी दोस्त और सह-श्रोता सुषमा भटनागर के साथ हर नाटक के कथ्य और पात्रों पर गम्भीर चर्चा भी होती थी। तब कभी कल्पना भी नहीं की थी कि एक दिन मैं खुद रेडियो के लिए नाटक लिखूँगी। लेकिन जब मैंने आकाशवाणी में काम करना शुरू किया तो मेरी सहयोगी ममता गुप्ता ने मेरी दो कहानियों के रेडियो के लिए नाट्य रूपान्तर किए। कई वर्षों बाद ममता बीबीसी हिन्दी सेवा में मेरी सहयोगी बनीं और उन्होंने मेरे लिखे कुछ नाटकों का निर्देशन किया।

अस्सी के दशक में लन्दन जाकर, बीबीसी हिन्दी सेवा से जुड़ने के बाद पहली बार मुझे रेडियो की अस्ल ताक़त और पहुँच का अन्दाज़ा हुआ। करोड़ों श्रोता किस तरह नन्हा-सा रेडियो कान से सटाए, बीबीसी हिन्दी सेवा से प्रसारित होने वाले हर शब्द को सुनते और ग्रहण करते हैं, यह जानकर अचम्भा भी हुआ और सन्तोष भी। बीबीसी विश्व सेवा यूँ तो समाचारों और सामयिक विषयों की चर्चा के लिए प्रसिद्ध है, मगर रेडियो नाटकों की परम्परा वहाँ भी रही। अंग्रेज़ी तथा कई अन्य भाषाओं में समय समय पर रेडियो नाटक प्रसारित होते रहे हैं। बीबीसी से जुड़ने के बाद मुझे तमिल सेवा के अपने सहयोगी शंकरमूर्ति की प्रतिभा को देखने और सराहने का अवसर मिला। अंग्रेज़ी के कई दिग्गज नाटककारों, और विशेष रूप से शेक्सपियर के कई नाटकों का, शंकरमूर्ति ने तमिल में रुपान्तर किया। अद्भुत प्रतिभा के मालिक हैं शंकरमूर्ति। बीबीसी की हिन्दी सेवा में भी रेडियो नाटक की पुष्ट परम्परा रही है। और क्यों न रहती ? किसी ज़माने में सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी उससे जुड़े थे। हिन्दी सेवा के पुराने फ़ोटो एलबम और उनमें लगीं अनगिनत तस्वीरें, कई रेडियो नाटकों की रिकॉर्डिंग का इतिहास समेटे हैं।

मैंने जब बीबीसी हिन्दी सेवा में क़दम रखा तो उस समय अध्यक्ष कैलाश बुधवार थे जिन्होंने अपनी यात्रा कभी पृथ्वी थियेटर्स से आरम्भ की थी। नाट्य-कला का पोषण सहज और स्वाभाविक था। मेरे दो अन्य सहयोगी, नीलाभ अश्क और मनोज भटनागर भी नाटकों में गहरी रुचि रखते थे। नीलाभ ने बच्चों के कार्यक्रम के लिए ‘पिनोकियो’ का रुपान्तर किया जो अत्यन्त सफल रहा। कुछ वर्ष बाद राजनारायण बिसारिया ने जॉर्ज ऑर्वेल के उपन्यास ‘एनिमल फ़ार्म’ का रेडियो नाट्य-रूपान्तर किया जिसका प्रस्तुतिकरण जटिल और चुनौतीपूर्ण था लेकिन digital sound technology ने काफी कुछ आसान कर दिया। नब्बे के दशक में, मधुकर उपाध्याय ने शेक्सपियर के ‘कॉमेडी आफ़ एरर्स’ का रूपान्तर किया और फिर नाइजीरिया के कवि और एक्टिविस्ट ‘कैन सारो वीवा’ की जीवनी पर आधारित एक नाटक लिखा।

खुद मैंने प्रेमचन्द की कहानी जुलूस’, सआदत हसन मंटो की कहानी टोबा टेकसिंह और चेखव के नाटक दि प्रापोज़ल के रेडियो के लिए नाट्य रूपान्तर किए। लेकिन रूपान्तरों से हटकर, मौलिक रेडियो नाटकों की मेरी लेखन-यात्रा पिनोकियो के बाद और एनिमल फ़ार्म की प्रस्तुति से पहले कहीं बीच में शुरू हो चुकी थी। मैंने एक रेडियो प्रोड्यूसर के रूप में रेडियो नाटक को नजदीक से देखा, और लेखिका की हैसियत से रेडियो तकनीक को आत्मसात् करने की कोशिश की। नाटक के मूल तत्त्व तनाव के अलावा रेडियो नाटकों के रास्ते में जो और दो बड़ी चुनौतियाँ उपस्थिति रहती हैं, उनमें एक है, अदृश्य पात्रों को श्रोताओं के सामने सजीव करना और दूसरी, sound perspective यानी ध्वनि परिप्रेक्ष्य।

मेरा मानना है कि भारत में आज भी बहुत से ऐसे लेखक हैं जो रेडियो के लिए सशक्त रूप से लिख सकते हैं लेकिन शायद रेडियो नाटक के क्राफ़्ट से परिचित नहीं हैं। दुःख है कि बहुत से अच्छे लेखक इसी झिझक के कारण रेडियो से दूर रह जाते हैं। मुझे लगता है कि रेडियो से जुड़े लोगों को ही इस दशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है। शुरूआत रेडियो (और टेलीविज़न) नाटकों के लिए कुछ वर्कशॉप्स आयोजित करके की जा सकती है। बात ये है कि कहानी और उपन्यास लिखना अलग विधाएँ हैं। लेकिन उन्हें, एक दूसरे माध्यम में ढालने के लिए एक अलग तकनीक की, समझ की जरूरत है। टेलीविजन या फिल्म के लिए भी तकनीक अलग है और रेडियो के लिए अलग। रेडियो नाटक में संवाद लिखते समय आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि कहानी का एक-एक पहलू और पात्रों का चरित्र शब्दों के माध्यम से पूरी तरह समझ में आए। ‘‘सविता ने रमेश को कनखियों से देखते हुए उसे इशारे से ‘ना’ कर दी। साथ ही उसने अम्मा से नज़र बचाकर, नीचे का होंठ भींचते हुए अपने जूड़े से बेले का एक फूल तोड़ा, और रमेश की ओर फेंक दिया।’’

 रेडियो नाटक के लिए इस दृश्य को रूपान्तरित करने में किसी भी लेखक को पसीने आ जाएँगे। इसलिए मैं तो फ़िलहाल कोशिश भी नहीं करूँगी। कुछ इसलिए भी कि यह दृश्य मैंने ही गढ़ा है। रेडियो नाटक लिखते समय, दृश्य के घटित होनेवाले स्थान के हिसाब से, ध्वनि प्ररिप्रेक्ष्य (sound perspective) और ध्वनि प्रभाव (sound effects) का ख़ास ख़याल रखना पड़ता है। मसलन, पात्र उस समय कहाँ हैं, घर के अन्दर या किसी भीड़ भरे स्थान पर, एक दूसरे के नज़दीक बैठे हैं या कुछ दूरी पर, सिचुएशन रोमांटिक है या तनावपूर्ण। अपने अनुभव से मैंने ये भी समझा कि पृष्ठभूमि में संगीत की ज़रूरत हर दृश्य में कतई ज़रूरी नहीं। उसका प्रयोग समय, स्थान और कहानी की सिचुएशन पर निर्भर है। आमतौर पर रेडियो के लिए नाटक लिखनेवाला लेखक इन तमाम बातों का ध्यान रखता है लेकिन अगर कुछ छूट जाए तो वह एक कुशल प्रोड्यूसर सँभाल लेता है। मगर जिसे प्रोड्यूसर नहीं सँभाल सकता और शायद उसे सँभालना भी नहीं चाहिए, वह है-कहानी और संवाद।

लन्दन में रहकर भारतीय परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में रेडियो नाटक करने की अपनी अलग चुनौतियाँ हैं। फ़र्ज़ कीजिए आपने मथुरा के एक मुहल्ले का दृश्य लिखा और सुबह का समय दिखाया। बीबीसी विश्व सेवा के मुख्यालय बुश हाउस की साउंड लाइब्रेरी में भला मथुरा की सुबह कहाँ से मिलेगी। किसी ने सुझाव दिया, ‘चिड़ियों की आवाज़ ले लो और उसमें मन्दिर की घंटियों और सड़क का शोर मिक्स कर दो।’ यह इतना आसान नहीं है। इसलिए कि ये देखना भी ज़रूरी है कि अगर चिड़ियाँ विलायती हों, ट्रेफ़िक लन्दन का और मन्दिर की घंटियाँ लन्दन के नीज़डन स्थित स्वामीनारायण मन्दिर से, तो क्या यह मथुरा की सुबह के साथ ज़्यादती नहीं ? ऐसी हालत में बहुत बार हमें अपने दिल्ली ब्यूरो से हाथ जोड़कर अनुरोध करना पड़ा कि वह हमारी मदद करे। यहाँ दिक्कत पेश यह आई कि बीबीसी के पत्रकार के लिए, विदेश मन्त्रालय द्वारा आयोजित संवाददाता सम्मेलन रिकॉर्ड करना आसान है, मथुरा की सुबह रिकॉर्ड करना मुश्किल।

लन्दन में हिन्दी बोलनेवाले अच्छे ड्रामा आर्टिस्टों की भी ख़ासी कमी है। इसलिए बहुत मौक़ों पर, बीबीसी के पत्रकारों को चुनौती देनी पड़ी कि वो अपनी अभिनय प्रतिभा का नमूना पेश करें। आमतौर पर बुश हाउस में स्टूडियो मैनेजर अंग्रेज़ीभाषी होते हैं। इसलिए, हर रिकॉर्डिंग से पहले उन्हें नाटक की कहानी और हर दृश्य समझाना भी कोई आसान काम नहीं होता कुल मिलाकर, जब साल में एक बार बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटक की रिकॉर्डिंग का समय नजदीक आता है तो स्टूडियो मैनेजर से लेकर हर हिन्दी बोलनेवाले ड्रामा आर्टिस्ट को इंतज़ार रहता है कि किसे चांस मिलेगा। सब जी-जान लगा देते हैं। सुबह से शाम तक, और कभी-कभी देर रात तक रिकॉर्डिंग चलती है।...मुझे इस बात का सन्तोष है कि बीबीसी हिन्दी सेवा के नाटकों ने न केवल विदेश में रेडियो नाटकों की परम्परा को जीवित रखा है बल्कि कई संवेदनशील और ज्वलन्त विषयों पर नाटक प्रसारित करके करोड़ों हिन्दी श्रोताओं का दिल भी जीता है।

हर वर्ष नवम्बर का महीना आते आते श्रोताओं के पत्र आने लगते हैं, इस आशा के साथ कि इस बार भी हिन्दी सेवा कोई विचारोत्तेजक नाटक सुनवाएगी। नाटकों के कथानक ढूँढ़ने के लिए कभी दूर नहीं जाना पड़ा। प्रवासी भारतीयों का जीवन और भार के राजनीतिक हालात अक्सर प्रेरक का काम करते रहे।...पिछले पन्द्रह बीस वर्षों में विदेश में रहते हुए मैंने प्रवास की समस्याओं को नज़दीक से देखा, समझा और भोगा है। भारत से यहाँ आनेवालों के शुरुआती culture shock से लेकर ‘बसने’ तक की प्रक्रिया कई तरह के द्वन्दों और अन्तर्द्वन्द्वों की यात्रा है। पश्चिमी समाज में रहकर अपनी पहचान को कायम रखने की जद्दोजहद एक बड़ी चुनौती रही है। हालाँकि पिछले पन्द्रह वर्षों में इस पहचान के बहुत से चिह्न इतने आम हो गए हैं कि कुछ शहरों के एशियाई इलाक़ों में जाकर यह भेद कर पाना मुश्किल  हो जाता है कि आप भारत में हैं या ब्रिटन में। भारतीय भोजन, भारतीय पहनावा, सैटलाइट पर कई भारतीय टेलीविज़न चैनल, भारतीय संगीत भारतीय फ़िल्में, भारतीय उत्सव मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे-भारतीय संस्कृति के नाम पर सारे icons मौजूद हैं। लेकिन मेरी नज़र में जो समस्या आज भी ज़्यादातर भारतीय प्रवासियों की मूल समस्या है, वो है उनकी अपनी सोच, जिसे वे संस्कारों के नाम पर नई पीढ़ी पर थोपना चाहते हैं। समस्या अब उस पीढ़ी की है, जो खुद को प्रवासी नहीं समझती।

यह पीढ़ी यहीं जन्मी है, यहीं पली-बढ़ी है, यहीं शिक्षित हुई है। इसलिए पूर्व और पश्चिम के संस्कारों की रस्साकशी में तनाव और द्वन्द्व उसके हिस्से में आते हैं। 1998 से लेकर 2001 तक के अर्से में एक बड़ा बदलाव यह भी आया कि अपने-अपने घरों के अन्दर बीस-तीस साल पुराने ‘भारत’ को जीनेवाले उन प्रवासियों के जीवन पर मौजूदा राजनीति के छींटे भी पड़ने लगे हैं।

मैंने इस अर्से में लिखे अपने रेडियो नाटकों में से दस को चुना है। पहले भाग ‘पासपोर्ट’ में उन नाटकों को संकलित किया है जिनमें ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के प्रवासी अपनी पहचान को लेकर confused दिखाई देते हैं, दोहरी या कहूँ, चितकबरी संस्कृति जीने पर विवश दिखाई देते हैं। बहुत सम्भव है, इन नाटकों को पढ़ने के बाद कुछ पाठकों को लगे कि ये तो बहुत से भारतीय परिवारों की जानी-समझी समस्याएँ हैं। लेकिन गौर करने की बात यह है कि ये नाटक विदेशी परिवेश में घटित होते हैं, इसलिए वहाँ द्वन्द्व का रूप कुछ अलग हो जाता है। ‘कहानी का अन्त’ (1989) यूँ तो समय के साथ पारिवारिक इकाई में अनुपयोगी होते जा रहे वृद्धों की कहानी है, लेकिन यह कहानी उस समाज में घटित हो रही है जहाँ बहुत से वृद्ध एक बड़ी हद तक आत्मनिर्भर होना पसन्द करते हैं।

1992 में मैंने ‘अपना सच’ लिखा। यह वो समय था जब भारत में अयोध्या विवाद अपने चरम पर था। यह पहला अवसर था जब मैं देश की राजनीति को प्रवासी एशियाइयों के आपसी रिश्तों में कडुवाहट घोलते देखा। जात पात और धर्म के मुद्दों ने प्रवासी एशियाइयों के जीवन में ऐसी सेंध लगाई कि उसके बाद से बहुत से लोग उनकी आड़ में अपना व्यापार करने लगे ! ‘सपनों की सरहदें’ (1993) एक बेहतर जीवन की तलाश में विदेश जाकर बसने के युवा सपनों के रास्ते में आनेवाले नियम क़ानूनों के टकराव की कहानी है। बेहतर जीवन का सपना पंजाब की पढ़ी-लिखी युवती ‘प्रीत’ (1995) ने भी देखा था लेकिन विवाह के बाद लन्दन पहुँचकर उसके सपने उन्हीं कारणों से चूर होते हैं जिन कारणों से भारत में किसी युवती के हो सकते हैं। ‘परिन्दे’ (2000) तक आते-आते मैंने प्रवासी मन की बहुत सी गुत्थियों को समझना शुरू कर दिया। ‘नॉस्टेल्जिया’, अपराधबोध संस्कारों के नाम पर अतीत में फ्रीज हो जाने की मजबूरी आदि कई पहलुओं को मैंने एक मनोविश्लेषक के माध्यम से समझने-समझाने की कोशिश की है। साथ ही यह जानने की भी कोशिश की, कि आज की दुनिया में जहाँ एक देश से दूसरे देश जाना और आना कहीं आसान है, वहाँ मानवीय सम्बन्ध किस तरह बनने से पहले ही बिखरने को आतुर दिखाई देते हैं।

दूसरे भाग ‘जड़े’ में मैंने उन नाटकों को एक साथ रखा है जिनमें उठाए गए विषय भले ही अलग अलग हों, लेकिन मूल प्रश्न शायद एक ही है। ‘सुबह होने तक’ (1991) मैंने जिन दिनों लिखा, उन दिनों बीबीसी हिन्दी सेवा की पत्रकारिता जहाँ अंग्रेज़ी से अनुवाद की मजबूरी से मुक्त हो रही थी, वहाँ भारत में बहुत सी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं पर अंग्रेजी सोच थोपी जा रही थी। ‘सुबह होने तक’ इसी पृष्ठभूमि में एक हिन्दी अख़बार की सम्पादक की मजबूरहियों को समझने का प्रयास है। और सम्पादक अगर एक महिला है तो फिर समस्याओं का स्वरूप भी बदल जाता है।

‘एक घर की कहानी’ (1994) के प्रसारित होने के बाद सैकड़ों श्रोताओं ने लिखा कि नाटक का शीर्षक घर-घर की कहानी होना चाहिए था। मथुरा में एक संयुक्त परिवार मीडिया के असर, ग्लोबालाइजेशन और छोटे शहरों में अवसरों की कमी के बोझ तले किस तरह बिखर रहा है-यही वो बात थी जो हर छोटे शहरवाले को अपनी सी लगी।

यूँ तो पिछले कई वर्षों से आतंकवाद बहुत से देशों की चिन्ता का विषय रहा है। लेकिन सितम्बर में अमरीका में हुए हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई ने एक निर्णायक मोड़ इख्तियार कर लिया है। ग़ौर करने की बात यह है कि जिसे दुनिया आतंकवाद कहती है, उसे उसके समर्थक जंगे आज़ादी जिहाद या संघर्ष का नाम देते हैं। हथियारबंद संघर्ष के भी, कश्मीर, श्रीलंका अफ़गानिस्तान और फ़िलीस्तीन तक अनेकों रूप हैं लेकिन कुछ हथियारबन्द गिरोह क्षेत्रीय स्तर पर भी सक्रिय हैं। कुछ लोग यह बात स्वीकार करने लगे हैं कि आतंकवाद का उन्मूलन उसकी जड़ तक पहुँचे बिना सम्भव नहीं। ‘क्या चाहती है शिवानी’ (2001) प्रयास है एक ‘आतंकवादी’ तक पहुँचने का उसे ‘सुनने’ का। नाटक के प्रसारण के बाद कुछ आलोचकों ने सवाल उठाया कि क्या एक आतंकवादी को मंच प्रदान करना उचित है’। मेरा सवाल है कि क्या उसका पक्ष जाने और समझे बिना सज़ा देना उचित है ?’

‘रिश्ता’ (1998) को इस संकलन में शामिल करते समय मेरे मन में थोड़ा सा संकोच था। कारण यह है कि ‘रिश्ता’ मैंने चेख़व के दि प्रपोज़ल की ज़मीन पर लिखा है। इस तरह वह सौ प्रतिशत मौलिक नहीं विषय, कहानी और पात्र सब देसी हैं। नाटक के पात्र भले ही लन्दन में बैठे हैं, मगर बहस और उसके बहस के मुद्दे वही हैं। जो भारत और पाकिस्तान के बीच वर्षों से रहे हैं। बात आमों की हो, क्रिकेट की हो या आणविक अस्त्रों की, आजमगढ़ की नाज़िया और कराची के लियाक़त के बीच हर विषय जंग की वजह बन सकता है।



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