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श्रंगार - प्रेम >> दो एकान्त

दो एकान्त

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1985
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3278
आईएसबीएन :0000

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इस उपन्यास में वानीरा और विवेक के माध्यम से इस आधुनिक तनाव वाली घटना-हीन वास्तविकता को अत्यन्त सूक्ष्म शैली, चित्रों और मन: स्थितियों के द्वारा श्रीनरेश मेहता ने प्रस्तुत किया है।

Do Ekant

आधुनिकता सामाजिक ढाँचा ही नहीं है बल्कि हमारी व्यक्तिगत मानसिक स्थिति और स्वत्व बन गयी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि प्रेम जैसी निजी अनुभूति पर भी इसका तनाव अनुभव होता है। इसलिए कभी-कभी जो आजीवन प्रेम के स्थान पर हम प्रेम के तनाव में ही रहते होते हैं।
इस उपन्यास में वानीरा और विवेक के माध्यम से इस आधुनिक तनाव वाली घटना-हीन वास्तविकता को अत्यन्त सूक्ष्म शैली, चित्रों और मन: स्थितियों के द्वारा श्रीनरेश मेहता ने प्रस्तुत किया है।

इस उपन्यास की कथावस्तु बिल्कुल भी नवीन नहीं है बल्कि इसमें प्रेमकथाओं वाला वह त्रिकोण तक है जिसका प्रयोग सस्ते उपन्यासों से लेकर महान रचनाओं तक में लिखा जा चुका है। तब, ऐसी स्थिति में लेखक का प्रयोजन क्या है ? सम्भवत: यही प्रश्न मेरे सामने भी रहा है, इसे लिखने के पूर्व भी एवं बाद भी। इस उपन्यास के चरित्र घटनाओं में नहीं, स्थितियों में खड़े है तथा अन्त में पहुँचते भी हैं।

आज के जीवन में सामान्यत: घटनाएँ नहीं घटतीं बल्कि स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। सम्भवत: इसी अर्थ में नायक विवेक और नायिका वानीरा अगत्या उस स्थिति में खड़े होते हैं जहाँ घटना घटनी चाहिए थी पर केवल स्थिति ही उत्पन्न होती है। इसका कारण हमारा आज का आधुनिक ढांचा है। वैसे यह प्रेम का नहीं वरन् प्रेम का तनाव का उपन्यास है, सभी अर्थों में। साथ ही आज के उपन्यास को आज का ही होना है अतएव उसे आगामी कल की दृष्टि से तो पढ़ा जा सकता है लेकिन विगत की दृष्टि से तो नहीं ही।
और अन्त में यह कि प्रेम-उपन्यास लिखना जितना आसान है उतना ही संकटपूर्ण भी, कारण कि ‘सेंटीमेंटल’ तथा ‘इमोशनल’ के बीच जितनी क्षीण रेखा इस क्षेत्र में होती है, अन्यत्र नहीं। इस अर्थ में लेखक के लिए यह परीक्षा-क्षेत्र है। अस्तु, इति नमस्कारान्ते।

4 मार्च, 1964
99 ए, लूकरगंज
इलाहाबाद

दो एकान्त


जैसे ही स्टीमर का साइरन बोला तो लगा कि चारों ओर कैसी अनायास स्तब्धता अब तक थी। पाण्डू के सूने घाट तथा आस-पास के पहाड़ी कगारों पर साइरन की भरी-भरी आवाज का थक्का क्रमश: घुलने लगा। हरी लम्बी घास हवा में असम्पृक्त हो लहराते हुये दृष्टि को फैलाव दे रही थी। इस हठात उद्घोष ने स्टीमर को सायास प्रमुखता दी थी, इसलिए तीसरे पहर के इस शान्त विपुल व्यापार में स्टीमर, एक भद्दी आवाज वाला आदिम जीव सा लगने लगा। स्टीमर से सटा बाँस का लंबा पुल न केवल नगण्य ही बल्कि विमन भी लगने लगा। इक्के-दुक्के लोगों ने उस पर से लौटते हुए पुल को उदास तक बना डाला। जिधर से ब्रह्मपुत्र आ रहा था उधर की विशाल घाटी में साइरन की बड़ी भीगी-भीगी सी अनुगूँज का आभास हो रहा था। किनारे पर यात्रियों वाले शेड में खड़े हुये लोगों के विदाई देते हाथ तथा हिलते रूमाल करुणा उत्पन्न कर रहे थे। किनारे पर औंधी पड़ी नाव का पेंदा तारकोल सुखाता, बालू के भूरेपन में उभर आया था। और स्टीमर के बड़े पहिए ने अथाह नील लोहित जल को बड़े ही औत्सविक ढंग से काटना शुरू किया।

शोर इतना था कि जैसे कोई विकराल मच्छ एकबारगी ही ऊपर आ जाना चाहता हो। चूँकि फैलाव और विस्तार अधिक था अतएव इस व्यापार की स्तब्धता अकाट्य लग रही थी। धूप और आकाश दोनों ही दिसम्बर के तीसरे पहर के थे। हवा का तेज, तीखा ठण्ढापन धूप के कोमल सूनेपन को झुलसाए दे रहा था। ब्रह्मपुत्र के गम्भीर प्रवाह के साथ बडे़ ही निश्चिन्त भाव से मस्तूल और पाल वाली बड़ी नौकाएँ अपनी लम्बी यात्राओं पर नीचे की ओर चली जा रही थीं। किसी मल्लाह का एकान्त भटियाली स्वर ब्रह्मपुत्र पर लकीर-सा खिंचा बह रहा था। उत्तर ओर की पहाड़ियों में कामाख्या का मंदिर लुका-छिपा धूप में दीपित था। कुहरा शुरू होने में देरी थी पर कहीं वह है, यह पहाड़ियों और खुली घाटियों को देखने पर स्पष्ट हो जाता था। बडे़ ही नाटकीय भाव से कुहरे की एक पतली, नीली चिंदी एक शिखर पर नि:शब्द लिपटी हुई थी। जिसके ठीक ऊपर गरुड़ के आकार वाला बादल का एक सफेद टुकड़ा झुका हुआ था। ये दोनों बिल्कुल भी अनायास नहीं कहे जा सकते थे। पूरब ओर उतरती पहाड़ियों के साथ आकाश खुलता चला गया था।

साइरन की तेज भेएँएँ एकबार फिर गूँजी। स्टीमर के नीचे के तल्ले में पहली आवाज के बाद जो शोर बिखर गया था, इस बार वह अधिक हो उठा। बड़े पहिए के पास लोहे का जो बड़ा सा जँगला था वहाँ थरथराती आँखों वाले कई चेहरे बिना समझे-बूझे चिल्ला रहे थे, संभवत: किसी चीज की जयकार थी वह। सेना और सिविल लोगों की वह सम्मिलित भीड़ थी। सहसा कहीं से लोकगीतों वाला एक आलाप उठा और छूटते किनारे तक लोगों की विह्वलता पहुँच गयी। इससे अधिक की अभिव्यक्ति किसी के पास नहीं थी इसलिये शोर हठात् पानी की तरह एक साथ ही चू पड़ा और आलाप उभर आया।

नीचे के तल्ले में बदबूदार अँधेरा, विभिन्न पसीनों की तेज दुर्गन्ध, भापीला वातावरण, लोकगीत का आलाप तथा बड़े पहिये का विकराल शोर था लेकिन डैक पर एकदम खुलापन था। यात्रियों में शोर न सही तो इतनी हलचल तो थी ही कि हर दूसरा समझ रहा था। डैक की ताजी पुती छत और फर्श धूप में न केवल चमक ही रहे थे बल्कि उनसे वार्निश की ताजी गन्ध भी आ रही थी। और तो और डैक की नीली छत पर ब्रह्मपुत्र के हिलते जल के धूपित वर्तुल तक दिख रहे थे। बड़े से जीने के दोनों तरफ सिरे की रेलिंगों पर झुका हुआ यहाँ का यह भद्र समुदाय किनारे वाले लोगों के प्रत्युत्तर में अपने हाथ व रुमाल हिला रहा था। कुछ अपनी दूरबीनों में उलझे हुए थे। शेष पाण्डू के रेलवे स्टेशन को, असम की छूटती हुई पहाड़ियों को तथा नील लोहित विराट नद को आश्चर्य से देख रहे थे। इनका शोर तक संयमित के साथ मित भी था। रेलिंगों से हटकर लोग डैक पर पड़ी कुर्सियों, कोचों, मोढ़ों आदि पर बैठने लगे थे।

यात्रियों की इस भीड़ में डैक के दक्षिणी सिरे पर, जिधर की ब्रह्मपुत्र, आक्षितिज प्रवाहित था, श्री विवेक विश्वास अपनी सुन्दर पत्नी श्रीमती वानीरा विश्वास के साथ, एकान्त मन हो मस्तूलों और पालों को मात्र देख रहा था। उसमें कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। वह निरभ्र आकाश कहा जा सकता था। उसका मौन, अकेले पक्षी की विवशता-सा था। विवेक की उदासी का यही ढंग होता है, इसे वानीरा जानती थी लेकिन चूँकि वानीरा, असम छोड़कर इस प्रकार जाने के बारे में प्रसन्न है इसलिये विवेक, उदास होते हुए भी अपनी नितान्तता को मौन से ढँके हुए था। जैसे किनारों को देखकर ही स्टीमर की गति का बोध होता था, अन्यथा नहीं, वैसे ही वानीरा को देखकर ही विवेक को बूझा जा सकता था, अन्यथा नहीं।

विवेक बाँस के सेतु को देख रहा था जिसके कारण वह अब तक अपने को किनारे से संबंधित किये था। जब वही क्रमश: दूर होने लगा तो विवेक विह्वल हो आया। वह सोच ले गया कि यह सेतु थोड़ी ही देर में क्षीणतर होते हुए मात्र एक अस्पष्ट बिन्दु हो जायेगा। पूरा सेतु खोजकर अपने सामने फैलाना चाहेगा ताकि वह संबंधित होना अनुभव कर सके..लेकिन उसका यह प्रयास तब कितना व्यर्थ होगा। अनवरत यह सालेगा कि वह एक बार फिर सेतुहीन कर दिया गया है। डाक्टर विवेक विश्वास को सदा यह लगा कि वानीरा अपनी सितार का तार इतना कस देती है कि वह झनझनाकर टूट जाता है। पर अपना-अपना ढंग ही तो है।

रेलिंग से सटी कुर्सी पर बैठी वानीरा इस यात्रा के बारे में क्या सोच रही थी यह विवेक नहीं जानता पर स्वयं बहुत स्पष्ट नहीं था। संभवत: होना भी नहीं चाहता था, कारण कि जब वानीरा इस बारे में न केवल स्पष्ट ही थी बल्कि पूर्ण आश्ववस्त थी तब विवेक के लिये केवल निरापद होने के और क्या शेष रह जाता था ? आज मेजर आनन्द का वैसा ही विश्वासी आमंत्रण न था जैसा कि पाँच वर्ष पूर्व मिस्टर क्लाइड का था ? तब भी तो वानीरा ने दुराग्रह ही किया था कि पुरी छोड़कर डिब्रूगढ़ में प्रैक्टिस की जाए और आज वानीरा सुदूर उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में जाकर बसने का हठ किये कैसी आत्मविश्वासी बनी बैठी है। जब सब वानीरा के द्वारा ही सम्पन्न होना है तब भला इसमें विवेक कहाँ आता है ? ठीक है, न तब, न अब, उसे अच्छा नहीं लगा था पर अच्छा न लगने भर से ही क्या हो जाता है ?

वानीरा जानती है कि पुरी छोड़ते समय विवेक केवल उदास हुआ था जब कि इस बार डिब्रूगढ़ से चलते समय बल्कि इस समय तक भी, विवेक न केवल उदास ही है बल्कि इस बार कहीं अन्तर में आहत भी हुआ है। इसकी प्रतीति चाहे अब हुई हो पर इस आहत होने की सत्यता तो डिब्रूगढ़ के पाँच वर्ष के जीवन में थी ही। तो क्या वानीरा निश्चिन्तता से बैठे भी नहीं ? दोनों जिस अकाम भाव से बैठे थे उसमें कहना कठिन था कि निरभ्र कौन है। शायद निरभ्र कोई होता भी नहीं, आकाश भी नहीं।
सत्य यही था कि कुर्सी पर बैठी वानीरा के सामने न केवल दूसरों के आश्वासन वाला भविष्य ही था परन्तु अपना आत्मविश्वास भी था। जब कि विवेक अपने दाम्पत्य जीवन के गत आठ वर्षों को कोमल गंध वाले फूलों के एक स्तबक की भाँति सहेजे अपने में लौटा हुआ था। इस गंध के प्रति यह कितना सहज रहा है। रात-रात भर पुरी वाली अपनी काटेज की खिड़की के पास अनिर्वचनीय हो केवल खड़ा रहा है। नक्षत्रों के नीचे वाले अँधेरे में प्राय: इस गंध की पदचाप तक सुनी है। अस्फुट प्रार्थना वाले थरथराते ओठों से अपने भीतर के दर्द को अपने लिए भी अनभिव्यक्त ही रह जाने दिया है। वानीरा को सदा उसने नये फूल की भाँति प्रत्येक दिन ग्रहण किया है। उसकी इस एकान्त निष्ठा के साक्षी सिन्धु, समुद्री हवा, हरहराते नारियल, शहतीरों में दुबके बैठे कबूतर आदि हैं कि वह कैसे क्रमश: टूटता चला गया-जैसे कि रेतघड़ी में बालू का एक-एक कण रिसकर पूरा समय बीत जाता है और इतने बड़े बीत जाने की क्या प्रतीति होती है ? और उसके इस टूटने में एक क्षण को भी, भूले से भी वानीरा का न तो उसके कंधे पर झुका, माथ ही था और न आश्वसित करता हुआ कोई चूड़ियों भरा हाथ। दाम्पत्य जीवन के सम्बन्ध में विवेक किसी भी विगन्ध को नहीं देख सकता था, पर.....

रेलिंग का डण्डा कुहनी में चुभने लगा था। हवा के तेज ठण्ढे सपाटे उसका मफलर बार-बार गिराये दे रहे थे। वानीरा ने इस बीच कान और सिर पर बाँधने वाला काला रूनी रुमाल बाँध लिया था। चैकवाले ओवरकोट की बड़ी कालर ने वानीरा के मुख को साध रखा था। अनायास धूप का एक लम्बा तिरछा टुकड़ा कहीं से भटककर आ गया था और वानीरा को सम्पूर्ण दीपित करता हुआ डैक की फर्श पर लंबा बिछलकर, रेलिंग के पार कूदकर अदृश्य हो गया था। कुर्सी पर बैठी वानीरा के साथ-साथ विवेक की रेलिंग पर झुकी छाया लंबी होकर फर्श पर उतर आयी थी। विवेक उस अपराह्न श्री में स्नात एवं तृप्त अपनी पत्नी वानीरा के धूपित मुख को वैसे ही मंत्रमुग्ध होकर देख रहा था जैसा कि वह उन दिनों पुरी में किया करता था जिन दिनों मिस्टर क्लाइड से विश्वास दम्पत्ति का परिचय हुआ था।

क्लाइड के कहने पर ही वानीरा ने विवेक को डिब्रूगढ़ में चलकर प्रैक्टिस करने के लिए बाध्य किया था। कैसे वह रातों नहीं सोया करता था और एक रात बड़ी ही अस्तव्यस्तता में लालटेन हाथ में लेकर सोने वाले कमरे में पहुंचा था और तब इसी मुख को मात्र सोते हुए देखा था। कितना निस्पन्द लगा था यही मुख, जैसे आकाश के नील विश्वास के नीचे कोई पोखर निस्पन्द सो रहा हो...इस समय, इतने अन्तराल बाद भी यह मुख जागते में वैसा ही निस्पन्द निरभ्र है। कोई भी तो व्यतिपात नहीं। धूप को कैसे शांत हो भोग रही है जैसे आकाश भोगता है।..क्या यह आद्यन्त ऐसी ही है ! दिखता स्वयं विवेक भी ऐसा ही है। तब, दिखना, होने से क्या पृथक है ? क्या बिना हुए, दिखा जा सकता है ?

फर्श पर गिरती उनकी छायाओं को धूप ने बड़े ही हास्यास्पद रूप से अब लम्बा कर दिया था। शायद उनके सिर रेलिंगों तक पहुँच रहे थे। परन्तु ये छायाएँ भीषण रूप से, बल्कि हाहाकार की सीमा तक केवल विवेक में खूब लंबी हो गयी थीं। उन गत आठ वर्षों के उन सारे कोनों-अँतरों के भर उठे जालों में, जो कि वानीरा के कारण हो गये थे, ये छायाएँ टहलने लगी थीं। वे विगत वर्ष, जिनकी सुगंध में विवेक एकान्तचारी था। वे दाम्पत्य जीवन के जाले जिनमें विवेक भटक रहा था।

पुरी के ‘सी-बीच’ के किनारे-किनारे अर्धवृत्ताकार में बँगलों की एक लम्बीसी कतार यहाँ से वहाँ तक चली गयी है। मार्च और अक्तूबर में कलकत्ता-कटक से प्राय: लोग आकर अपने-अपने इन बँगलों में कुछ दिनों के लिये टिकते हैं वर्ना पूरे साल ये लगभग खाली-से पड़े रहते हैं। अँधड़ के दिनों में बालुओं के बगूले इन बँगलों की खिड़कियों-दरवाजों के सूने पल्लों-शीशों पर चटाख-चटाख बोलते रहते हैं। विशेष कर रात में हरहराते नारियल और साँय-साँय करती समुद्री हवा आदि अजीब वातावरण उत्पन्न करते हैं। इस सी-बीच को विकसित नहीं कहा जा सकता यद्यपि बंगाल की खाड़ी का यह नैसर्गिक रूप से बड़ा अच्छा तट है। अन्य यात्रियों के लिए साधारण सुविधाओं वाला एक बी.एन.आर. होटल है, जो अपने खुले कमरों तथा स्वस्थ वायु के लिए पूर्व में प्रसिद्ध है।

पहाड़ के लिए बंगाली जिस प्रकार दार्जिलिंग जाता है उसी प्रकार समुद्र के लिए वह यहाँ आता है। इसी अर्धवृत्ताकार के लगभग आखीर में पूर्वी सिरे पर जो कि ढूह जैसा है, वहां ‘निर्जन सिकता’ नामक एक छोटी सी काटेज है। काटेज श्री प्रमथ मुखर्जी की है। प्रमथ बाबू स्थानीय कालेज में बँगला के अध्यापक थे। वानीरा इन्हीं विधुर प्रमथ बाबू की एक मात्र संतान थी। वैसे प्रमथ बाबू है तो आज भी पर, लौकिक अर्थ में ‘थे’ ही कहा जाएगा। वानीरा को विवेक जैसे सुपात्र के हाथों सौंप कर बिना अधिक प्रतीक्षा किये वह एक दिन स्थानीय चैतन्य-मठ में जाकर श्री-श्री महाप्रभु की सेवामें समर्पित होकर श्री प्रमथचन्द्र मुखर्जी से वीतरागी ‘नित्यानन्द’ हो गये। विवेक ने तब अपनी डिस्पेन्सरी खोली ही थी। उसे प्रमथ बाबू की न केवल कन्या और काटेज ही प्राप्त हुई बल्कि प्रमथ बाबू का यश अपने जमाई बाबू के लिए कीर्ति सिद्ध हुआ जिसे विवेक ने अपने शील और सौम्यता से और भी स्वरूपित किया।

प्रमथ बाबू वीतरागी हो गये थे पर कन्या और जमाई तो नहीं न ? अतएव रोज डिस्पेन्सरी से विवेक जल्द लौट आता और तब वानीरा और विवेक समुद्र के किनारे बालू में चलते हुए मंदिर जाने वाले रास्ते पर आ जाते। मंदिर के सामने से होते हुए रथ-यात्रा वाले रास्ते में बाँये घूमकर पगदंडी पकड़कर चैतन्य मठ की ओर बढ़ जाते। कच्ची हरी काजू का दूध दाँतों में अनुभव करते मठ पहुंचते। वहाँ से संकीर्तन-प्रवचन सुन लौटने में मन्दिर के सामने की गली से शार्ट कट कर कालेज की बगल से निकल ‘सी-बीच’ वाली सड़क पर आ जाते। कालेज के आस-पास रहने वाले वानीरा के सभी परिचित थे। कभी कोई मिल जाता अन्यथा प्राय: सब सुनसान होता। यह कालोनी ‘सी बीच’ का पश्चिमी सिरा थी। यहीं से समुद्र गर्जन तथा तेज हवा के सपाटे उन्हें मिलने शुरू हो जाते। कभी-कभी तो घर पहुँचते-पहुँचते तक बालू बालों, हाथ-मुँह सब पर छायी होती। उनका नौकर कालीपद जानता था कि बिना नहाये सोना नहीं हो सकेगा इसलिए मौसम के हिसाब से गरम, गुनगुना, ताजा सभी तरह का पानी तैयार रखता था।

पुरी में प्राय: लोग ‘जगन्नाथ का भात’ ही खाते हैं। वह उनके लिए मात्र प्रसाद ही नहीं बल्कि उनका संस्कार भी है। जिस दिन भात-मछली न खाना होता उस दिन मठ से जल्दी लौटकर बी.एन.आर. होटल में कटलेट-चाप खा लिया जाता है।...और विवेक-वानीरा अपनी ‘निर्जन-सिकता’ पर पहुँचते।

‘काटेज, काटेज ही थी। पता नहीं क्या सोचकर प्रमथ बाबू ने इसे बनवाया था। क्योंकि चार कमरों के अलावा दो कोठरियों, एक रान्नाघर सहन, आँगन तथा थोड़ी सी जगह वाली इस काटेज की विशेषता यह थी कि एक तो इसके चारों कमरों से सागर का पूरा दृश्य दिखता था तथा दूसरे इसका बाहर की ओर निकला गोल बारजा, जहाँ कभी प्रमथ बाबू एक आराम-कुर्सी पर बैठकर जोर-जोर से रवीन्द्र-काव्य पढ़ते या किसी वैष्णव पद की पंक्ति गुनगुनाते हुए ज्वार का आना देखा करते। अब इस बारजे में किसी दिन जल्दी जाग जाने पर विवेक और वानीरा जलभीगा विशाल सूर्योदय देखते हैं या कभी किसी पूर्णिमा को समुद्र का एकान्त अभिसार देखते हैं। वैसे वानीरा प्राय: तीसरे पहर की चाय यहीं बैठकर पीती है। यहाँ से पूरा अर्धवृत्त खिंचा दिखता है। होटल की बालकनी, हरी खिड़कियाँ उसके सामने की बैंचें जिन पर बैठे हुए लोग...बहुत कुछ देखना यहीं से बैठे-बैठे वह कर लिया करती है। यदि और कुछ न हुआ तो सामने फैली अगाध जलराशि में सनातन आकर्षण तो था ही। बारंबार देखने पर समुद्र स्वयं मोह बन जाता है।

प्रसन्न घर पहुँच दोनों देर तक ग्रामोफोन सुनते रहते। बड़े से कमरे के एक कोने में जलती चार मोमबत्तियों का प्रकाश ही कितना होता ? बड़ा बारीक प्रकाश वाला अँधेरा-अँधेरा कमरा। खुली खिड़की में सागर आकर टँक जाता है। चारों ओर गर्जन और हवा के अतिरिक्त कोई शब्द नहीं। किसी दिन वानीरा की सितार सुनी जाती अथवा कलकत्ते से मँगाई गयी नई पुस्तकों का अवलोकन ही किया जाता। और अगर कुछ नहीं करने को मन होता तो वानीरा स्थानीय बंग समाज के प्रवादों को ही सुनाती होती। वानीरा बातें करती होती और विवेक दवाइयों के पैम्फलेट्स पलटते हुए सुनता होता। और जिस समय दोनों सोने की तैयारी करते तब कैसी गहरी परितृप्ति उन्हें घेरे होती। कहीं कोई व्यतिपात नहीं था। जो था, वह अगाध ही था।



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