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10 प्रतिनिधि कहानियाँ (कमलेश्वर)

कमलेश्वर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3297
आईएसबीएन :81-7016-216-5

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10 प्रमुख कहानियों का संकलन

10 Pratinidhi Kahaniyan a Hindi Book by Kamleshwar - 10 प्रतिनिधि कहानियाँ - कमलेश्वर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ सीरीज़ ‘किताबघर प्रकाशन’ की एक महत्वाकांक्षी कथा-योजना है, जिसमें हिन्दी कथा-जगत के सभी शीर्षस्थ कथाकारों को प्रस्तुत किया जा रहा है। इस सीरीज़ में सम्मिलित कहानीकारों से यह अपेक्षा की गई है कि वे अपने सम्पूर्ण कथा-दौर से उन दस कहानियों का चयन करें जो पाठकों, समीक्षकों तथा संपादकों के लिए मील का पत्थर रही हों तथा ये ऐसी कहानियाँ भी हों जिनकी वजह से उन्हें स्वयं को भी कथाकार होने का अहसास बना रहा हो।

भूमिका-स्वरूप लेखक का एक वक्तव्य भी इस सीरीज़ के लिए आमंत्रित किया गया जिसमें प्रस्तुत कहानियों को प्रतिनिधित्व सौंपने की बात पर चर्चा करना अपेक्षित रहा है। ‘किताबघर प्रकाशन’ गौरवान्वित है कि इस सीरीज़ के लिए सभी कथाकारों का उसे सहज सहयोग मिला है। इस सीरीज़ के अत्यन्त महत्वपूर्ण कथाकार कमलेश्वर ने प्रस्तुत संकलन में अपनी जिन दस कहानियों को प्रस्तुत किया है, वे हैं कोहरा’, राजा निरबंसिया’, चप्पल’, ‘गर्मियों के दिन’, ‘खोई हुई दिशाएँ’, ‘नीली झील’, ‘इंतजार’, ‘दिल्ली में एक मौत’, ‘मांस का दरिया’, तथा ‘बयान’।
हमें विश्वास है कि इस सीरीज़ के माध्यम से पाठक सुविख्यात कथाकार कमलेश्वर की प्रतिनिधि कहानियों को एक ही जिल्द में पाकर सुखद पाठकीय संतोष का अनुभव करेंगे।

अपनी कहानियों के बहाने !


कहानी लिखना जितना कठिन है, उससे ज़्यादा कठिन है, कहानियों की भूमिका लिखना। कहानी तो एक जीवंत अस्तित्व है, जो अपना जन्म अपने आप लेती है। भूमिकाएँ उसकी जन्मपत्रियाँ बन जाती हैं और साहित्य के ज्योतिषी-आलोचक तब अपने अधकचरे ज्ञान-शास्त्र के सहारे कहानियों का भविष्यफल लिखते हैं।
हिंदी में ऐसे एक ज्योतिषी आलोचक रहे हैं जो कहानीकारों और कहानी का भविष्यफल लिखने और घोषित करने में विशेष दक्षता रखते रहे हैं। अपने आलोचकीय धंधे में उन्होंने अन्य आलोचकों के ज्योतिष केंद्र बंद करवा दिये, क्योंकि वे व्यवस्था और सत्ता के संस्थानों में साहित्य की और साहित्य में संस्थानों की कृपाशक्ति और नक्षत्रों की गति-गणना में बराबर लगे रहे। हिंदी कहानी की दुर्गति में इस कर्मकाण्डीय आलोचना का बहुत बड़ा हाथ है।

इसी के साथ साहित्यिक परिसर में संस्थानों के अनगिनत अवैध निर्माण हुए और उनकी पत्रिकाओं ने कविता और कहानी को ‘पान पराग’ और ‘रजनीगंधा पान मसाला’ की तर्ज़ पर तैयार करवाया और अपने ब्राण्ड के कवि-कथाकारों का पंजीकरण करने की परिपाटी स्थापित की। पंजीकरण की इस पद्धति ने रचना को नहीं, पालतू लेखकों को होटलीय संस्कृति में भोजन की फहरिस्त की तरह परोसा और उनके स्वादिष्ट होने के प्रमाणपत्रों के सहारे संस्थानीय स्पर्धा में नाम कमाया। साहित्य की पाठक विहीनता में इस संस्थानीय अप-संस्कृति का हाथ है।

तीसरा आयाम पुरस्कारों का है। आज हिंदी के क्षेत्र में छोटे-बड़े इतने पुरस्कार मौजूद हैं कि उनकी गणना कर सकना संभव नहीं है। साहित्यकार को संगीत का पुरस्कार मिला है या संगीतकार को साहित्य का, यह फर्क़ भी आज का पाठक नहीं कर पाता। कौन किसको बुलाकर क्यों पुरस्कृत कर देता है, इसका अनुमान भी नहीं होता। पुरस्कारों के बाज़ार में नाम की महिमा अपरम्पार है। शायद ही कोई ऐसा दिवंगत साहित्यकार बचा हो, जिसके नाम का पुरस्कार प्रसाद खाकर पुरस्कार प्राप्तकर्ता विषाक्त महिमा से प्राणरहित न हुआ हो। अकादमियों और सेठाश्रित पुरस्कारों ने अधकचरे और अधमरे व्यक्तियों को शाश्वत साहित्य प्रणेता और अपने रचनाकाल में रचनाहीनता के कारण असंगत रहे लिक्खाड़ों की खोज और शोध का जिम्मा उठा लिया है। इससे एक ओर साहित्यहीनता का शून्य विकसित हुआ है और दूसरी ओर काले धन का मुँह उजला करते दानवीरों की कालिख पूरे लेखक वर्ग का मुँह काला करने का काम करने लगी है। इसने शिखण्डी लेखकों की जमात को खड़ा किया है।

और, राजनीतिक पार्टियों ने धारदार लेखकों को खुद उन्हीं की मूल धारा से काटकर अपनी हिंदुत्ववादी या अतिक्रांतिवादी नहरें निकालकर उन्हें लेखकों के विचार और रचना के अजस्त्र स्रोत को सुखा देने और असंगत बना देने की दुरभिसंधि की है। उन धारदार लेखकों के लेखन और विचारों में पैदा हुए इस अन्तर्विरोध ने व्यक्तित्वों और सोच को सीमित तथा छोटा किया है और इसी से रचना का अवमूल्यन हुआ है।

साथ ही कुछ यशलोलुप सम्पादकनुमा लोगों ने साहित्य के नाम पर चाट, चाटुकरिता और चटखारे के लिए चटकलें चला रखी हैं, जो साहित्यकार-कहानीकार होने के फर्ज़ी सर्टिफिकेट जारी करने में महारत हासिल कर रही हैं, जिसके कारण कविता- कहानी के रचनागार में नकली प्रमाणपत्रों वाले आवेदकों की भीड़ बढ़ गई है और रचना की पहचान खो गई है। कहानी का तथाकथित अवसान कथा आंदोलनों से नहीं, ज्योतिषीय आलोचनाओं और जाली सर्टिफिकेट जारी करने वाले, पुरस्कार और प्रशंसापोषित उन घटिया संस्थानों और पत्रिकाओं से हुआ है जो रचनाहीनता की स्थिति को प्रचारित करके एक बनावटी रचना-शून्य को स्थापित करने में संलग्न हैं।

इस छद्म महाशून्य और पाठकहीनता के बावजूद प्रखर रचनाएँ लगातार आती रही हैं, क्योंकि रचना का शून्य रचना से इतर कारणों, जिनका मैंने उल्लेख किया है, उन्होंने पैदा किया है जिससे ऊबकर पाठक विमुख हुआ है...अन्यथा तमाम पैनी और जीवंत कहानियाँ आज के नये रचनाकारों द्वारा लिखी जा रही हैं, पर उन पर ध्यान और चर्चा केंद्रित नहीं है, क्योंकि हिंदी आलोचना ने कहानी को कभी ‘एक सम्पूर्ण कृति’ के रूप में लिया ही नहीं। कथा- आलोचना कहानी के सहारे अपने मानदण्डों का शास्त्र रचती रही, उसने कभी कहानी को उसकी इयत्ता में परखा ही नहीं। वे यही बताते रहे कि विध्याचल, सतपुड़ा, हिमालय, अरावली के पहाड़ों को कैसा होना चाहिए था, या इन पहाड़ों और चट्टानों से उनकी अपेक्षाएँ क्या हैं-उन्होंने कभी किसी कथा रूपी पहाड़ को उसकी प्राकृतिक संरचना के रूप में विश्लेषित नहीं किया। हमारी आलोचना फतवों की परम्परा निबाहती रही है। इसीलिए हमारे ज्योतिषी-आलोचक कहानी में सामान्य जन की समांतर उपस्थिति से और सम्पूर्ण क्रांति नहीं, सम्यक क्रांति और परिवर्तन की अवधारणा से त्रस्त होकर रचना और कथालोचना का क्षेत्र सैक्सवादियों को सौंपकर संन्यासग्रस्त हो गए। ‘जनवादी सैक्स’ के इस दौर में हमें उस जनवाद को फिर व्याख्यायित करना होगा जो सामान्य जन और हमारे दौर के मामूली आदमी का सत्य और तथ्य है। जो कहानी का नैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक यथार्थ है। सैक्स-कुंठाओं की पूजा- अर्चनावादी-कर्मकाण्डी दृष्टि से अलग, दलितों की मात्र जातिवादी पहचान से पृथक, हमें आज की कहानी में मौजूद उस सतत परिवर्तन कामी मानवीय यातना के स्वर को पहचानना और रेखांकित करना पड़ेगा, जो इस दौर की कथा रचना का मूल स्वर है।
और यदि शलभ श्रीरामसिंह के शब्दों में कहूँ तो-‘यह बीतती हुई सदी बीत जाएगी, पर अगली सदी किसी महामानव और महान रचना की प्रतीक्षा में अपनी बाँहें खोले खड़ी रहेगी !’
.....

मेरी कहानियाँ उसी प्रतीक्षा की कहानियाँ हैं।
शायद कुछ परिवर्तन होने की प्रतीक्षा ही मेरी कहानियों की आधारभूमि है। शाश्वत और निरपेक्ष सत्य औरों के पास होगा, मेरे पास नहीं है, यदि कुछ है तो शायद समयगत सापेक्ष यथार्थ, जो इकहरा नहीं बहुत उलझा हुआ है।
कहानियाँ लिखते हुए हमेशा मुझे अपनी अधीरता और अक्षमता का एहसास हुआ है। मेरी कहानियों में कोई एक बात पूरी ही नहीं पड़ती। कई-कई बातें मिलकर एक बात बनती है। कई घटनाएँ मिलकर एक घटना बनती है। कई दुःख मिलकर एक दुःख बनता है...कई प्रतीक्षाएँ मिलकर एक प्रतीक्षा बनती है। कई शब्द मिलकर एक शब्द बनता है। इसीलिए कहानी लिखना मुझे बहुत कठिन लगता है।
और अंत में एक बात-मैं हिन्दी नहीं लिखता, मैं हिन्दी में कहानी लिखता हूँ।

5/116, इरोज़ गार्डन
सूरजकुण्ड रोड, नई दिल्ली-110044


कोहरा



पियरे की बात मुझे बार-बार याद आ रही थी-पैसे से उजाला नहीं होता ! अगर होता, तो हमारा देश सूरज को खरीद लेता ! लेकिन तुम सूरज नहीं खरीद सकते !
उस वक्त हम एक छोटी-सी घाटी में खड़े हुए थे। रीथ भी साथ थी। तभी उस घाटी में एकाएक सूरज ऐसे निकला, जैसे किसी ने आसमान से तेज रोशनी जलाकर हमें देखा हो....फिर वह रोशनी एक मिनट में ही धीरे-धीरे बुझने लगी थी। मौसम फिर धुँधला और उदास हो गया था।

रीथ ने बड़ी कोमलता से पियरे को देखते हुए पूछा था-तुम अपने ही देश से इतने नाराज़ क्यों हो ?
हर नौजवान अपने देश से नाराज़ है ! पियरे ने तीखा-सा जवाब दिया तो रीथ उसी तरह चुप हो गई जैसे हिंदुस्तानी लड़कियाँ लगभग चुप हो जाती हैं....प्रश्न उसी तरह से आधे-अधूरे लटके रह जाते हैं।
हवा तीखी थी। खुली घाटी में उस तीखी हवा को सहना अब मुश्किल हो रहा था। रीथ के खुले बाल उड़ रहे थे। उनसे हल्की-हल्की गरमाहट और महक की छोटी-छोटी लहरें आतीं और सर्द हवा की बड़ी लहरों में खो जातीं। चारों तरफ कोहरा गिरने लगा था।...हमें पतझड़ से भरे जंगलों में से होते हुए वापस लौटना था। आखिर खुली घाटी में कोई कब तक रुक सकता है...कुछ ऐसी ही बात पियरे ने भी कही थी जो मेरे अवचेतन में ठहरी हुई थी। रीथ के पास से कभी- कभी ओस भीगी घास की गंध फूटती थी, कभी पतझड़ के सूखे पत्तों की कोसी-कोसी महक। मुझे लगता था कि उसकी इस गंध का कुछ हिस्सा मेरा भी था, पर वह बात वहीं रुकी थी...महाबलेश्वर की उस चट्टान पर जहाँ खडे़ होकर दोनों ने सूर्यास्त देखा था। कोयना घाटी में पूरे दिन घूमकर और थककर हम दोनों लौटे थे। बात तो कुछ भी नहीं थी, पर जितनी थी, उसी से रीथ ने समझ लिया था और बिना किसी बहाने के बता दिया था। तब बिलकुल एक हिंदुस्तानी की तरह, प्रकृति और उसके मोहक मिथक को रोमानी विश्वास में बाँधते हुए उसने कहा था-मुझे लगता है कि किसी चट्टान पर खड़े होकर जो कुछ कहा जाता है....उसका कुछ अर्थ होता है...

-मैं समझा नहीं !
-यही कि मैं तुम्हें कोई वचन नहीं दे सकती।
-मैंने तो कोई वचन नहीं माँगा ! मैंने उसे आश्चर्य से देखा था।
-माँगा तो नहीं, पर तुम्हारा मन माँगने के लिए तैयार है...तो अच्छा है न कि मैंने तुम्हें पहले ही आगाह कर दिया, ताकि तुम्हें बुरा न लगे...देखो ‘डी’ ! जब मैं भारत चली थी, तो लूजान में पियरे ने कहा था...मेरा इंतजार करना। मैं...मैं उसका इंतजार करने के लिए मजबूर हूँ, क्योंकि मैंने उससे कहा था-अच्छा।
और तब से मुझे मालूम है कि रीथ और मेरे बीच कुछ भी घटित नहीं हुआ था और वह किसी का इंतजार करती रही और मेरे किसी का....महाबलेश्वर की कोयना घाटी में हम दोनों फिर आदिवासियों के बीच काम करने लौट गए थे....जीप में बैठ-बैठे रीथ ने कहा था-पता है, ऑस्कर वाइल्ड ने क्या लिखा है ?
-किस संबंध में ?
-उसी के बारे में जिसके बारे में तुम सोच रहे थे।

मैं फिर आश्चर्य में पड़ गया। रीथ हमेशा मन की बातों को रहस्यमय बना देती थी। वह खुद ही बोली-यही लिखा है कि शादी वह रोमांस है जिसमें कोई एक मुख्य पात्र पहले ही अध्याय में मर जाता है...
मैं रीथ के मन में उठ रहे ज्वार भाटे को पहचान रहा था। हालाँकि हमारे बीच इस तरह की बातों के लिए कोई बहुत गहरी इच्छा या आकांक्षा नहीं थी-पर दोस्तों की तरह हम यह बातें भी कर सकते थे।
-एक बात है न ?
-क्या ?

-यही कि एक-दूसरे को चाहने से ज़्यादा उन चीज़ों और बातों की ज़रूरत होती हैं, जिन्हें दोनों मिलकर चाह सकें !
-या कुछ बातों और हालातों से एक-सी नफरत कर सकें ! मैंने बात का रुख बदल दिया था।
-यह तुम्हारी सोच नहीं है !
-तुम मुझे कितना जानती हो ?
-तुम्हें ज़्यादा नहीं, पर तुमसे ज़्यादा भारत को जान सकी हूँ...

उसी के कुछ दिनों बात मैं कोयना से लौट आया था। रीथ का कुछ काम बाकी था, वह तीन महीने बाद लौटी, बंबई में मिली। उसने पियरे से फोन पर बात की और चौथे दिन अपने देश स्विट्जरलैंड लौट गई।
यह तो आकस्मिक ही था कि लूज़ान के जिस कम्यून में मुझे ठहरना था, रीथ और पियरे भी उसी कम्यून में रह रहे थे। हम विश्वास ही नहीं कर सके थे कि हम इस तरह, एक-दूसरे को कभी याद किए बिना, यों मिल जाएँगे। यह तो मुझे मालूम था कि रीथ लूज़ान में रहती है, उसका पता भी मेरे पास था, पर नए वर्ष का एक कार्ड उस पते से लौट आया था। बस, मेरे और रीथ के बीच का ही वही अंतिम एहसास था। मैंने तो फिर भी कार्ड भेजा था, रीथ ने अपने देश पहुँचकर एक लाइन का पत्र तक नहीं लिखा था। मन में न कोई नाराजगी थी न उदासी। पर इस तरह एक घटना के रूप में मिलकर मुझे ख़ुशी बहुत हुई थी...यह तो कभी सोचा ही नहीं था। इतना नाटकीय था यह मिलना कि हम अवाक्-से रह गए। फिर रीथ ने पियरे से मेरा परिचय करवाया था। मुझे अच्छा यह भी लगा था कि रीथ अब पियरे के साथ थी। यानी महाबलेश्वर की उस चट्टान पर खड़ी रीथ ने जो कुछ कहा था, उसमें सचमुच कुछ अर्थ था शादी उन्होंने अभी नहीं की थी...पर वे इस कम्यून के दो सदस्यों की तरह अलग-अलग कमरों में रह रहे थे...साथ होने का यह नितांत निःसंग सुख था।
रीथ मुझे चाय पिलाने अपने कमरे में ले गई थी। बाहर शुरू सर्दी की पैनी हवा चल रही थी। खिड़की से दिखाई देती पहाड़ियाँ कोहरे में डूबी हुई थीं। लगता था वे सफेद मफलर लपेटे थीं।

-यह कितना अजीब है !
-क्या ?
-इस तरह मिलना। कहते हुए रीथ मेंथल की चाय बनाती रही।
-हाँ ! कहकर मैं दीवार पर चिपके एक पोस्टर को देखता रहा-वह एक व्यंग्य पोस्टर था। तमाम भेड़ें सिर झुकाए एक साथ चली जा रही थीं, झुंड की झुंड !
-हम सेठों के सेठ हैं। चाय रखते हुए रीथ बोली।
-मतलब ?
-यानी हम स्विट्जरलैंड वाले....हम सेठ मुल्कों का पैसा अपने यहाँ रखते हैं...हम पैसे से पैसा उगाते हैं।
-और गरीब मुल्कों को तुम्हारा देश हथियारों के स्पेयर पार्ट्स बेचता है।
-ताकि गरीब देशों में उन्नति न हो ! यह पियरे की आवाज़ थी। वह दरवाज़े पर दस्तक देकर अंदर आ गया था। रीथ ने चाय तीन हिस्सों में बाँट दी। हम चाय पीने लगे।
-यह व्यंग्य पोस्टर क्या है ?
-यह स्विस मज़दूरों की विफल हड़ताल पर एक टिप्पणी है। सारी भेड़ें सिर झुकाए वापस लौट रही हैं...
-यह लिखा क्या है...रेतो अला नारमेल...
-यानी सब सामान्य हो गया है। रीथ ने अंग्रेज़ी में बताया। चाय के घूँट से उसके होंठ भीगकर बड़े मोहक हो गए थे। पर इस भारतीय मन में यही बात बार-बार उठती थी-यह मेरे लिए नहीं....यह मेरे लिए नहीं...अनासक्ति का भारतीय महामंत्र।

-हम दवाएँ बनाते हैं। यह पियरे का स्वर था-पूरी दुनिया को दवाएँ देते हैं, पर हमारे पास अपने रोगों की दवा नहीं है...
रीथ ने बड़ी कातर दृष्टि से पियरे को देखा था-डी ! हर वक्त अपने देश से नाराज़ रहना कोई बहुत अच्छी बात नहीं है...
और यह ‘डी’ सुनकर मेरे मन में कुछ झनकार सी उठी थी। शायद रीथ भूल गई थी। उसने भारत में कई बार इसी ‘डी’ से मुझे पुकारा था। लेकिन पियरे ने रीथ की बात की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया था, वह बोला था-हमारे देश की दवाई कंपनियों में सभी पड़ोसी देशों के मज़दूर रोजाना आते हैं और शाम को इंटरनेशनल ट्रेनों से अपने देशों-घरों को लौट जाते हैं...दूसरी सुबह फिर आते हैं-फिर लौट जाते हैं, फिर आते हैं...इसी में दिन पर दिन बीतते जाते हैं आजकल थोड़ी क्राइसिस है, योगोस्लाविया देश ही दुनिया के नक्शे से मिट गया, सोवियत यूनियन की तरह अब योगोस्लाव मज़दूर नहीं आते..वे दवाएँ बनाने की जगह हाथों में गिन लिए अपने ही सर्बियन या क्रोशियन या बोसनियन लोगों को मार रहे हैं।
-यह अच्छा है क्या ?

-अच्छा हो या न हो...हम हत्याओं का विरोध तब करते हैं, जब उनका असर हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ता है, नहीं तो हम खुद हत्याओं के लिए हथियारों का सौदा करते और मुनाफा कमाते हैं।
-डी, तुम बहुत नाराज़ हो। कहते हुए रीथ ने उसके बालों को लहरा दिया।
-चलो ! इन्हें घुमा लाएँ। पियरे ने चाय के प्याले उठाते हुए प्रस्ताव रखा था।

और हम तीनों लेमॉन के तट से होते हुए, चिनार के दरख्तों के झड़ते पीले और लाल पत्तों के कालीन पर से गुज़रकर इस खूबसूरत छोटी सी घाटी में आ गए थे। पठार पर बसा है लूज़ान पठार भी समतल नहीं, ऊँचा नीचा।
पियरे का मन, लगता था कि कभी-कभी एकदम उचट जाता था। वह बातें करते-करते अपने भीतर समा जाता था। बहुत खूबसूरत आदमी था पियरे....पर उसके भीतर क्या चटका हुआ था, यह मुझे तब तक पता नहीं था। मन में ज़रा-सी देर के लिए यह भी आया था कि पियरे कहीं मुझसे ही तो खीझा हुआ नहीं था ? रीथ ने उसे कुछ बताया होगा...उन थोड़े से भारतीय दिनों के बारे में, तो कहीं उसके मन में मैं तो नहीं खटक रहा था। यों बताने के लिए था भी क्या, वह तो एक नाटक भर था, जो हमने खुद लिखा और खुद ही खेला था...पर जिसके पात्रों को हमने जिया नहीं था। यूँ भी रीथ और पियरे के सघन संबंधों में कोई वर्जना या हिचक भी दिखाई नहीं दी थी।

धीरे-धीरे हम पठार और उस घाटी में उतर आए थे। पियरे रीथ का हाथ थामे हुए था।
नीचे उतरते हुए रीथ ने पियरे से पूछा था-अब तुम्हारा मन क्या कहता है ?
मैं संदर्भ नहीं समझा पाया। वह बात मेरे लिए थी भी नहीं।
पियरे ने उसे ही उत्तर दिया-सुबह तब सोचूँगा।

-तुम अपनी आत्मा को इतना मत झकझोरो।
मुझे लगा कि यह उनकी व्यक्तिगत बात थी, पर पियरे के उत्तर ने मेरे कयाम को तोड़ दिया। वह तल्खी से बोला। इन लोगों ने किसी की आत्मा को छोड़ा है क्या ?...आत्मा है कहाँ ?
रीथ फिर हिंदुस्तानी लड़की की तरह चुप हो गई थी और हम रास्ते भर लगभग चुपचाप चलते हुए कम्यून में लौट आए थे। शाम हो रही थी।

खाने का बड़ा कमरा। वहीं सूचनावाला बड़ा बोर्ड लगा था। पता चला कि एक साथ खाने के लिए सब यहीं जमा होते थे। पर कुछेक उस बोर्ड पर अपनी अनुपस्थिति का संदेश लिखकर चले गए थे। मुझे भी दस्तक देकर बुला लिया गया था।
बड़े कमरे में ग्रीक गायक थियोडोराकिस और मेक्सिकन गायिका जॉन बायेज के बड़े-बड़े चित्र लगे हुए थे। वही अमेरिकन और मेक्सिकन गायिका जॉन बायेज़ जो नीग्रो लोगों की आज़ादी के लिए गाती रही है। थियोडोराकिस को तो ग्रीस से देश निकाला मिला हुआ था...
हाँ क्योंकि यह ग्रीस के फौजी शासन से आज़ादी माँगता। गाता था और आज़ादी माँगता था। यह आवाज़ पियरे की थी। पता नहीं उसने मेरे मन का सवाल कैसे जान लिया था ? उसने जैसे छाया को पकड़ लिया था...यही तो रीथ की भी खूबी है ! वह भी मन की छायाओं को पकड़ लेती है।...

बाहर कोहरा घना होता जा रहा था। पहाड़ियाँ कालिख और कोहरे में छिपती जा रही थीं...कमरा जैसे सिकुड़ता जा रहा था...अँधेरा बड़ी चीजों को भी छोटा कर देता है।
मेज़ पर बड़ी काही रंग की बोतलों में अल्जीरिया की तबूरका वाइन रखी थी। रीथ ने मिट्टी के प्यालों में थोड़ी-थोड़ी वाइन हमें दी। हम चार ही थे। मैं रीथ, पियरे और माइकेल किसी और का इंतज़ार शायद नहीं था। रीथ ने ही बताया था कि मारियाने जिनीवा चली गई थी, अपनी किताब के प्रूफ देखने, नहीं तो वह होती। डेनिश जार्ज प़ॉप म्यूजिक कन्सर्ट के लिए यूथ सेंटर चला गया था। मैं इधर-उधर देख ही रहा था कि तब तक रीथ ने मिट्टी के बड़े प्याले में उबले आड्डुओं के कतरों पर सफेद रम डालकर मोमबत्ती से उसे जला दिया था। आड्डुओं से निकलती लौ से कमरे में हल्का-हल्का नीला उजाला सा भर गया था। उजाले में मैंने वह पोस्टर देखा एक बच्चा मुँह चिढ़ाता और बड़ी शान से जिप खोले सूसू कर रहा था।

यह ठीक कर रहा है न ! फिर पियरे ने मेरे मन की छाया को पकड़ लिया था।
कोहराम मचा दिया। मैंने कुछ समझ नहीं पाया। रीथ ने मोमबत्तियाँ बुझा दीं, फिर रीथ, पियरे और माइकेल काँच की खिड़कियों के पार देखने की कोशिश करने लगे...
तुम्हें कब जाना था ? माइकेल ने कुछ घबराए स्वर में पियरे से पूछा था-कहीं वे...
नहीं ! मुझे कल सुबह-सुबह रिपोर्ट करना है। पियरे ने उसे उत्तर दिया था।
ओह, क्राइस्ट तब ठीक है। माइकेल ने राहत की साँस ली। साइरन की कोहराम मचाती आवाजें अब दूर चली गई थीं।
रीथ ने तीनों मोमबत्तियाँ फिर जला दी थीं। आड़ू के प्याले की लपटें शांत हो चुकी थीं।
किसी को रिपोर्ट करना होगा। वे उसे पकड़ने निकले हैं...बड़ी गहरी साँश लेकर पियरे बोला था और मेरे मन की छाया के सवाल को फौरन समझकर उसने मुझे बताया था-


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