लोगों की राय

इतिहास और राजनीति >> आर्थिक एवं विदेश नीति ( सरदार पटेल)

आर्थिक एवं विदेश नीति ( सरदार पटेल)

पी. एन. चोपड़ा, प्रभा चोपड़ा

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3303
आईएसबीएन :81-7315-592-5

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

95 पाठक हैं

अधिक उत्पादन एवं समान वितरण एवं आर्थिक मूल तत्त्व की आपूर्ति हेतु पुस्तक

Aarthik Evam Videsh Neeti a hindi book by P. N. Chopra, Prabha Chopra - आर्थिक एवं विदेश नीति ( सरदार पटेल) पी. एन. चोपड़ा, प्रभा चोपड़ा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आर्थिक एवं विदेशी नीति से संबंधित सरदार पटेल का सोच और दृष्टिकोण अत्यंत व्यावहारिक थे। अधिक उत्पादन एवं समान वितरण उनकी आर्थिक नीति के मूल तत्त्व थे। आम जनता को उपयोगी वस्तुओं की आपूर्ती हेतु भरपूर उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने सरकार पर अपना प्रभाव दिखाते हुए श्रम और पूँजी निर्माण पर जोर दिया। मंत्रिमंडल की बैठकों में समय-समय पर उन्होंने आर्थिक एवं विदेशी नीति से संबंधित अपने विचार और दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
विदेशी नीति पर भी उनका दृष्टिकोण काफी स्पष्ट व व्यावहारिक रहा है। राष्ट्रमण्डल की सदस्यता प्राप्त करने और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा हेतु उन्होंने जोरदार प्रयास किए थे। उनके सुझाव के आधार पर एक ऐसी नीति तैयार की गई, जिससे भारत को एक सार्वभौम एवं स्वतंत्र गणराज्य के रुप में राष्ट्रमण्डल का सदस्य बने रहने में मदद मिली। सरदार पटेल को चीन की ओर से किए गए मित्रता-प्रदर्शन तथा ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ में विश्वास नहीं था। उन्होंने चीन की तिब्बत नीति पर एक लंबा-चौड़ा नोट तैयार किया था, जिसमें इसके परिणामों के प्रति देश को चेताया भी था।
प्रस्तुत सरदार पटेल के व्यावहारिक एवं विशद चिंतन की यात्रा करवाती है।

प्रस्तावना

बहुत दिनों से यह आवश्यकता अनुभव हो रही थी कि कुछ ऐसे ग्रंथ सुलभ होने चाहिए, जिनमें सरदार पटेल से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दों पर विस्तारपूर्वक चर्चा की गई हो, जो उनके जीवन-काल में विवाद का विषय बने रहे तथा सन् 1950 में उनके निधन के पश्चात् भी विवादों में घिरे रहे। उदाहरण के लिए, यह अनुभव किया गया कि यदि सरदार पटेल को कश्मीर समस्या सुलझाने की अनुमति दी जाती, जैसा कि उन्होंने स्वयं भी अनुभव किया था, तो हैदराबाद की तरह यह समस्या भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से सुलझ जाती। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी. कामत को बताया था कि ‘‘यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृहमंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।’’
हैदराबाद के मामले में भी जवाहरलालनेहरू सैनिक काररवाई के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने सरदार पटेल को यह परामर्श दिया-‘‘इस प्रकार इस मसले को सुलझाने में पूरा खतरा और अनिश्चितता है।’’ वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जानेवाली सैनिक कार्रवाई को स्थगित कर दिया जाए। इससे राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन.जी. रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई कार्रवाई के लिए नेहरू, मौलाना और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता; कमोबेश वैसी ही सलाहें मौलाना आजाद एवं लॉर्ड माउंटबेटन की भी थीं। सरदार पटेल हैदराबाद के भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू इससे सहमत नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन की कूटनीति भी ऐसी थी कि सरदार पटेल के विचार और प्रयासों को साकार रूप देने में विलंब हो गया।

सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुसलिम वर्ग के विरोधी के रूप में वर्णित किया; लेकिन वास्तव में सरदार पटेल हिंदू-मुसलिम एकता के लिए संघर्षरत रहे। इस धारणा की पुष्टि उनके विचारों एवं कार्यों से होती है। यहाँ तक कि गाँधीजी ने भी स्पष्ट किया था कि ‘‘सरदार पटेल को मुसलिम-विरोधी बताना सत्य को झुठलाना है। यह बहुत बड़ी विडंबना है।’’ वस्तुतः स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में दिए गए उनके व्याख्यान में हिंदू-मुसलिम प्रश्न पर उनके विचारों की पुष्टि होती है।
इसी प्रकार, निहित स्वार्थ के वशीभूत होकर लोगों ने नेहरू और पटेल के बीच विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया तथा जान-बूझकर पटेल व नेहरू के बीच परस्पर मान-सम्मान और स्नेह की उपेक्षा की। इन दोनों दिग्गज नेताओं के बीच एक-दूसरे के आदर और स्नेह के भाव उन पत्रों से झलकते हैं, जो उन्होंने गाँधीजी की हत्या के बाद एक-दूसरे को लिखे थे। निस्संदेह, सरदार पटेल की कांग्रेस संगठन पर मजबूत पकड़ थी और नेहरूजी को वे आसानी से (वोटों से) पराजित कर सकते थे। लेकिन वे गाँधीजी की इच्छा का सम्मान रखते हुए दूसरे नंबर पर रहकर संतुष्ट थे। उन्होंने राष्ट्र के कल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया।
विदेश नीति के संबंध में सरदार पटेल के विचारों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है, जो उन्होंने मंत्रिमण्डल की बैठकों में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए थे तथा पं. नेहरू पर लगातार दबाव डाला कि राष्ट्रीय हित में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने से भारत को मदद मिलेगी। जबकि नेहरू पूर्ण स्वराज्य पर अड़े रहे, जिसका अर्थ था—राष्ट्रमंडल से किसी भी प्रकार का नाता न जोड़ना। किंतु फिर भी, सरदार पटेल के व्यावहारिक एवं दृढ़ विचार के कारण नेहरू राष्ट्रमण्डल का सदस्य बनने के लिए प्रेरित हुए। तदनुसार समझौता किया गया, जिसके अंतर्गत भारत गणतंत्रात्मक सरकार अपनाने के बाद राष्ट्रमंडल का सदस्य रहा।

सरदार पटेल चीन के साथ मैत्री तथा ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के विचार से सहमत नहीं थे। इस विचार के कारण गुमराह होकर नेहरू जी यह मानने लगे थे कि यदि भारत तिब्बत मुद्दे पर पीछे हट जाता तो चीन और भारत के बीच स्थायी मैत्री स्थापित हो जाएगी। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन महासचिव श्री गिरिजाशंकर वाजपेयी भी सरदार पटेल के विचारों से सहमत थे। उन्होंने चीन की तिब्बत नीति पर एक लंबा नोट लिखकर उसके दुष्परिणामों से नेहरू को आगाह किया था। सरदार पटेल की आशंका थी कि भारत की मार्क्सवादी पार्टी की देश से बाहर साम्यवादियों तक पहुँच होगी, खासतौर से चीन तक। अन्य साम्यवादी देशों से उन्हें हथियाने एवं साहित्य आदि की आपूर्ति भी अवश्य होती होगी। वे चाहते थे कि सरकार द्वारा भारत के साम्यवादी दल तथा चीन के बारे में स्पष्ट नीति बनाई जाए।
इसी प्रकार, भारत की आर्थिक नीति के संबंध में सरदार पटेल के स्पष्ट विचार थे। मंत्रिमंडल की बैठकों में उन्होंने नेहरूजी के समक्ष अपने विचार बार-बार रखे; लेकिन किसी-न-किसी कारणवश उनके विचारों पर अमल नहीं किया गया। उदाहरण के लिए, उनका विचार था कि समुचित योजना तैयार करके उदारीकरण नीति अपनाई जानी चाहिए। आज सोवियत संघ पर आधारित नेहरूवादी आर्थिक नीतियों के स्थान पर जोर-शोर से उदारीकरण की नीति ही अपनाई जा रही है।
खेद की बात है कि सरदार पटेल को सही रूप से नहीं समझा गया। उनके ऐसे राजनीतिक विरोधियों के हम शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने निरंतर उनके विरुद्ध अभियान चलाया तथा तथ्यों को तोड़-मरोड़ पेश किया, जिससे पटेल को अप्रत्यक्ष रूप से सम्मान मिला। समाजवादी विचारधारा के लोग नेहरू को अपना अग्रणी नेता मानते थे। उन्होंने पटेल की छवि पूँजीवाद के समर्थक के रूप में प्रस्तुत की। लेकिन सौभाग्यवश, सबसे पहले समाजवादियों ने ही यह महसूस किया था कि उन्होंने पटेल के बारे में गलत निर्णय लिया है।
प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे महत्त्वपूर्ण तथा संवेदनशील मुद्दों पर विचार करने का प्रयास किया गया है, जो आज भी विवादग्रस्त हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1959 में लिखा था-‘‘सरदार पटेल की नेतृत्व शक्ति तथा सुदृढ़ प्रशासन के कारण ही आज भारत की चर्चा हो रही है तथा विचार किया जा रहा है।’’ आगे राजेन्द्र प्रसाद ने यह जोड़ा--‘‘अभी तक हम इस महान् व्यक्ति की उपेक्षा करते रहे हैं।’’ उथल-पुथल की घड़ियों में भारत में होनेवाली गतिविधियों पर उनकी मजबूत पकड़ थी। यह ‘पकड़’ उनमें कैसे आई ? यह प्रश्न पटेल की गाथा का एक हिस्सा है।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद चक्रवर्ती राज-गोपालचारी ने लिखा-‘‘निस्संदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ दिन और जीवित रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुँचते, जिसके लिए संभवतः वे योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अमान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।’’
लेकिन निराशाजनक स्थिति यह रही कि उनके निधन के बाद सत्तासीन राजनीतिज्ञों ने उनकी उपेक्षा की और उन्हें वह सम्मान नहीं दिया गया, जो एक राष्ट्र-निर्माता को दिया जाना चाहिए था। प्रस्तुत पुस्तक अपने विषय को लेकर सरदार पटेल के लौह व्यक्तित्व, उनके दृढ़ विचारों और राष्ट्र-निर्माण में उनके अभूतपूर्व योगदानों का लेखा-जोखा है।
और अन्ततः डॉ. प्रभा चोपड़ा ने विषय के संकलन और संपादन में मेरी बहुत सहायता की। मैं श्री एम.पी. चावला, लेखाधिकारी श्री अरुण कुमार यादव तथा श्री रवींद्र कुमार का आभारी हूँ, जिन्होंने तत्परतापूर्वक पांडुलिपि तैयार की।

भूमिका

सरदार पटेल के आलोचकों ने अकसर उनकी इस आधार पर आलोचना की है कि आर्थिक नीति पर उनके कोई निश्चित विचार नहीं हैं। उन्होंने देश की योजना और आर्थिक नीति पर गंभीर रूप से विचार-मनन किया था। वस्तुतः उन्होंने मंत्रिमंडल में अपने सहयोगियों को देश में फैली आर्थिक रुग्णता से संबंधित एक विस्तृत पत्र भी वितरित करवाया था और उसमें विशेष तौर पर यह उल्लेख किया था कि सरकार के द्वारा समय-समय पर निर्धारित नीतियों को प्रभावी ढंग से कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। उन्होंने विशेष रूप से इस बात का उल्लेख किया था कि इसमें तीन पक्ष शामिल हैं—सरदार, उद्योगपति और मजदूर। सरदार दृढ़ता से इस बात को मानते थे कि उद्योग और मजदूरों को सहर्ष सहयोग देना चाहिए। वह नियंत्रण के उन्मूलन के दृढ़ समर्थक थे और उन्होंने खाद्य एवं वस्त्र के ऊपर से नियंत्रण हटाने तथा औद्योगिक राहत देने की योजना का प्रतिपादन करने के लिए जोरदार ढंग से सरकार का समर्थन किया था। उन्होंने इस बात का असंतोष प्रकट किया कि औद्योगिक उद्यम गतिशील नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन पर असर पड़ता है। वह चाहते थे कि जनता में दोबारा विश्वास उत्पन्न किया जाए। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि एक बार नीतियाँ बनने के बाद उन्हें कार्यान्वित किया जाना चाहिए और सरकार को इससे पीछे नहीं हटना चाहिए।
सरदार पटेल योजना की रूपरेखा के विरुद्ध थे, जो देश की क्षमता और संसाधनों से परे चली गई थी। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि ‘हमें उपलब्ध संसाधनों के अनुसार ही अपना काम करना चाहिए।’ वह देश की अर्थव्यवस्था को गाँवों को आधार बनाकर संघटित करना चाहते थे। उनका यह दृढ़ विश्वास था कि एक बार अगर हम गाँववासियों को सुविधाएँ प्रदान कर देंगे, जैसे—जहाँ भी संभव हो वहाँ लघुमान सिंचाई योजनाएँ चलाना या अनुपयोगी तालाबों और कुओं को देबारा प्रयोग में लाना, मलेरिया और अन्य बीमारियों से गाँववालों की रक्षा करना, तो वे अपनी स्वयं देखभाल कर पाएँगे और फिर उनके अनाज का उत्पादन हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा। सरदार पटेल लोगों में ऐसी उम्मीदें जगाने के विरुद्ध थे, जो कभी पूरी ही न हों। वह जरूरत पड़ने पर ‘विदेशी’ ऋण लेने के विरुद्ध नहीं थे, जिसको उत्पादन संबंधी योजनाओं और देश के औद्योगिकीकरण पर खर्च किया जा सके।

एन.जी. रंगा के अनुसार
‘सन् 1936 में राजाजी और सरदार को पहले से ही यह पूर्वाभास हो गया था कि जवाहरलालजी का समाजवाद भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था के लिए समस्या उत्पन्न करेगा, इसीलिए उन्होंने कांग्रेस की अध्यक्षता की अनुकूल—अवस्थिति से किए समाजवाद के उनके अभियान का सख्ती से विरोध किया। इसके विरोधस्वरूप उनके और उनके सहयोगियों द्वारा लिखे गए उस ऐतिहासिक पत्र की वजह से ही जवाहरलाल को भारतीय किसानों की अर्थव्यवस्था और उसके लोगों के उद्यम के विरोध में अपने अभियान को आरंभ करने से पहले वर्ष 1951 तक का इंतजार करना पड़ा था।’
रंगा आगे कहते हैं—
‘फिर जब हममें से कई लोग कांग्रेस सरकार पर योजनात्मक ढंग से हमारी अर्थव्यवस्था को विकसित करने का दवाब डाल रहे थे, सरदार ने इससे होनेवाले दुष्परिणामों पर शंका व्यक्त की थी। जब मैंने स्वयं को अग्रेरियन सुधार कमेटी में अल्पसंख्यक वर्ग में पाया तो उन्होंने मुझे बताया कि इसी वजह से उन्हें भय लगता है कि स्व-रोजगार अर्थव्यवस्था के लिए बनी तथाकथित योजना हमारे प्रजातांत्रिक खेतिहरों और लोगों की अर्थव्यवस्था की नींव खतरे में डाल सकती है। उन्हें समाजवादी योजनाओं के प्रति झिझक महसूस हुई। दुर्भाग्यवश उस समय तक उनका दिल कमजोर हो चुका था और वह प्रभावी रूप से प्रयत्न करने में असमर्थ थे। इसलिए जवाहरलाल और योजना आयोग की बढ़ती ताकत के सामने हम खेतिहरों और कलाकारों की स्व-रोजगार अर्थव्यवस्था का विरोध करने में स्वयं को असहाय महसूस कर रहे थे।’
मुख्यमंत्रियों और प्रांतीय कांग्रेस समिति के प्रमुखों के अधिवेशन में सरदार पटेल ने योजना की अपनी अवधारणा को विस्तृत रूप से समझाया। उन्होंने कहा, ‘इस देश में योजना औद्योगिक देशों की योजनाओं से भिन्न होगी, जो या तो विस्तार में छोटी हैं या अत्यधिक विकसित हैं।’ उन्होंने यह कहते हुए गांधीजी का उल्लेख किया--‘मशीन हमारे देश में समस्या को नहीं सुलझा सकती। करोड़ों बेकार हाथों को मशीनों से काम नहीं मिल सकता है, क्योंकि मशीनें तो स्वयं मनुष्य को विस्थापित करती हैं।’

एक यथार्थवादी के रूप में सरदार पटेल ने इस बात पर जोर दिया कि भारत मुख्य रूप से कृषि-प्रधान देश है और इतनी अधिक जनसंख्यावाले देश में बेकारी सबसे बड़ी बीमारी है। आज राष्ट्र के सामने यही सबसे बड़ी समस्या है कि इस बीमारी को कैसे समाप्त किया जाए। उन्होंने इस संदर्भ में गाँधीजी की योजना का जिक्र किया जो अपने आप में एक आदर्श थी—करोड़ों बेकार लोगों को कातने, बुनने और अन्य कुटीर उद्योगों में रोजगार दिया जाए। पर सरदार पटेल को लगता था कि यह व्यवहारिक नहीं है, क्योंकि इससे सेना के बढ़ते व्यय की पूर्ति करने के लिए, जो कुल आय के आधे से भी अधिक है, पर्याप्त संसाधन उत्पन्न नहीं कर सकेंगे। इसलिए एक व्यवहारिक व्यक्ति के रूप में सरदार पटेल ने देश के तीव्र औद्योगिकीकरण का समर्थन किया। इसके अभाव में देश को गंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है।
नियंत्रण विषय पर किए गए एक प्रश्न का हवाला देते हुए उन्होंने कहा--‘‘बहुत सावधानीक पूर्वक सोचने के बाद ही खाद्य और कपड़े पर नियंत्रण लगाने के निर्णय तक पहुँचा गया है। यह तभी महसूस किया गया कि मूल्य बढ़ना अनिवार्य है, पर इसके साथ ही यह भी महसूस किया गया कि व्यापार और उद्योगों के सहयोग से एक संतुलन भी कायम हो जाएगा।’ सरदार पटेल को इस बात की खुशी थी कि लोगों ने नियंत्रण हटाने के फैसले का स्वागत किया है, जिसकी वजह से किसी तरह का खतरा उत्पन्न होने की स्थिति तक मूल्य में वृद्धि नहीं हुई है। जहाँ तक कपड़ों की तस्करी का सवाल है, तो सरदार पटेल ने कहा कि उद्योगों और व्यापार के कालाबाजारियों, भ्रष्टाचारी व अयोग्य कर्मचारी और तस्करी को जाँचने या रोकनेवाले किसी भी तंत्र में कमी का होना इसके लिए सामान्य रूप से दोषी है।

सरदार पटेल ने एक अन्य सभा में कहा कि ‘उन पर पूँजीवादियों का दोस्त होने का आरोप लगाया गया है। मैं सिर्फ यही कहना चाहता हूँ कि मैंने गांधीजी से यह सीखा है कि निजी संपत्ति नहीं होनी चाहिए, और मेरे विचार से इससे बेहतर और कोई समाजवाद हो ही नहीं सकता।’ उन्होंने एक अन्य सीख का भी उल्लेख किया, जिसे उन्होंने गांधीजी से ही सीखा था कि ‘सबसे पहले मित्रता करो, चाहे वह गरीब हो या अमीर, महान हो या विनम्र। इसलिए मैं मजदूरों, उद्योगपतियों, राजकुमारों, किसानों और जमींदारों के साथ समान भाव से मित्रता रख सकता हूँ और उन्हें प्यार से सही काम करने के लिए राजी कर सकता हूँ।’ सरदार पटेल राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे देश का विनाश होने के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है। राष्ट्रीयकरण होने से पहले उद्योग को स्थापित करना जरूरी है। इस संदर्भ में उन्होंने इंग्लैण्ड के उदाहरण का उल्लेख किया, जहाँ समाजवाद इंग्लैण्ड के सही ढंग से औद्योगिकीकरण, के रास्ते पर चलने से आया था। सरदार पटेल ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ‘सही मायनों में समाजवाद कुटीर उद्योगों के विकास में निहित है, जो करोड़ों लोगों को रोजगार प्रदान कर सकता है।’ वह इस बात पर अडिग थे कि चरखे को ज्यादा सर्वव्यापी बनाकर हाथ से बने धागे को कातने के लिए अधिक करघे स्थापित कर हाथ से बनी खादी के द्वारा स्वदेशी की अवधारणा को विकसित किया जा सकता है। उन्होंने व्यापारियों से विदेशी वस्त्रों का आयात न करने का अनुरोध किया और औरतों को विदेशी कपड़े न पहनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा, ‘‘विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करना सिद्धांत की बात है, जिसके लिए कांग्रेस कभी भी समझौता नहीं करेगी।’
सरदार पटेल उद्योग और मजदूर के बीच एक संधि कराना चाहते थे, क्योंकि उस समय उत्पन्न होनेवाले मतभेद भारत के औद्योगिक भविष्य के लिए भयंकर आघात के रूप में सामने आ सकते थे। उन्होंने उद्योग और मजदूर के बीच व्याप्त समस्या को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की नीति को अपनाने का जोरदार समर्थन किया, जैसा कि वह पहले अहमदाबाद में भी कर चुके थे। औद्योगिकीकरण के क्षेत्र में कहीं ज्यादा आगे थे, पर वे राष्ट्रीयकरण की ओर बहुत ही धीमी गति से बढ़ रहे थे। इससे औद्योगिक शांति और उत्पादन की अच्छी स्थिति रहने की संभावना थी।

सरदार पटेल हड़ताल के बिलकुल खिलाफ थे। वे बार-बार मजदूरों को मध्यस्थता के द्वारा अपनी समस्याएँ सुलझाने की सलाह देते थे। उन्होंने उन संयोजकों की आलोचना की जो अपने नेतृत्व को महत्त्व देने के लिए ऐसी हड़तालों को प्रश्रय देते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने अमेरिका का उदाहरण दिया, विशेषकर ब्रिटेन का उल्लेख किया, जहाँ समाजवादी सरकार थी, पर वह मजदूरों पर नियंत्रण करने के लिए हिंसा का सहारा नहीं ले पा रही थी।
सरदार पटेल ने राष्ट्रीयकरण के संदर्भ में उद्योगपतियों की आशंकाओं को दूर करने की कोशिश की। उन्होंने यह बात स्पष्ट कर दी कि हालाँकि इस मुद्दे पर भारत सरकार की नीति अभी बननी है, फिर भी उन्हें आश्वस्त हो जाना चाहिए और यह समझना चाहिए कि उद्योग को अभी स्थापित होना है, इसलिए राष्ट्रीयकरण का सवाल ही पैदा नहीं होता। उन्होंने इंग्लैड का उल्लेख किया, जो औद्योगिक दृष्टि से कहीं आगे था और जहाँ मजदूर सरकार थी, वह राष्ट्रीयकरण के बावजूद तीव्र गति से आगे नहीं बढ़ा पा रहा था। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इंग्लैड में समाजवाद उसके औद्योगिकीकरण में बहुत ज्यादा उन्नति करने के बाद ही आया था।
परंतु यह कहा जाता है कि सरदार पटेल की सरकार का उनकी मृत्यु के बाद पालन नहीं किया गया। भारत ने समाजवादी ढाँचे को अपनाया, जिसकी वजह से भयंकर दुष्परिणाम सामने आए। इसके लिए देश को काफी भारी कीमत चुकानी पड़ी थी, क्योंकि रूस, जो उनका आदर्श राज्य था, को स्वयं अकल्पनीय कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी थीं, आखिरकार विघटन हो जाने की वजह से उसे मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर लौटना पड़ा था। अगर हमने सरदार पटेल की सलाह पर अमल किया होता तो शायद भारत इस दुःस्वप्न से बच गया होता।
पूर्ण विघटन और सोवियत रूस की समाजवादी व्यवस्था के आर्थिक रूप से बरबाद हो जाने के परिणामस्वरूप कुछ वर्षों पहले नरसिम्हा राव सरकार द्वारा उदारवादी कदम उठाना पटेल के पूर्वकथित बयान और उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण की पुष्टि करता है। नेहरू के समाजवाद ने देश को ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया था कि केंद्र में स्थित कांग्रेस सरकार को अभी तक चल रही नीतियों को उलटना पड़ा और साथ ही अर्थव्यवस्था का भी उदारीकऱण करना पड़ा, जिसके बारे में चालीस साल पहले नहीं सोचा गया था।

सरदार पटेल यह भी मानते थे कि कपड़े की कमी यातायात की सुविधाओं में कमी होने और भ्रष्टाचार के कारण हुई है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया था कि विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया जाना चाहिए, जिसमें उद्योगपति, अर्थशास्त्री और सरकार के प्रतिनिधि शामिल हों, जिन्हें ढाँचे व सरकार द्वारा निर्धारित नीतियों को कार्यान्वित करने का काम सौंपा जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने पहले सामाजिक व आर्थिक मामलों के लिए एक पृथक् मंत्रालय बनाने का निर्णय लिया था, ने सरदार पटेल का सुझाव सुनने के बाद अपना विचार बदल दिया और इस बात पर सहमत हो गए कि सरदार पटेल द्वारा निर्धारित आधारों पर एक बोर्ड विशेष सलाहकारों की एक समिति होनी चाहिए, जो हर कदम पर आर्थिक स्थिति की निगरानी रखेगी और अपने सुझावों को सरकार के पास विचारार्थ भेजेगी।
सरदार पटेल ने अमीर व्यापारियों को आगे बढ़कर गरीबों की स्थिति सुधारने में सरकार की मदद करने को कहा। उन्होंने कहा, ‘उन्हें यह समझना चाहिए कि जब उन्हें यह पता है कि ऐसे करोड़ों लोग हैं जो भूखे रहते हैं, तब प्रतिदिन दो बार आराम से खाना उनके लिए पाप है।’ उन्होंने प्रांतीय मंत्री या लोकसभा के अध्यक्ष (स्पीकर) का वेतन 500 रुपए महीना निश्चित कर दिया और उन लोगों की प्रशंसा की जिन्होंने एक मंत्री या स्पीकर के रूप में देश की सेवा करने के लिए अपनी विलासिताओं का त्याग कर दिया था। उन्होंने अपने 23 जुलाई, 1937 को लिखे पत्र में 500 रुपए वेतन पानेवाले मंत्री को 600 रुपए का भत्ता देने पर डॉ. खरे की आलोचना भी की। इसे उन्होंने दोगलापन बताया।

यद्यपि केंद्रीय मंत्री के सामने सरदार पटेल ने ये निर्देश दिए कि उन्हें हर माह सभी प्रकार के कर से मुक्त 2000 रुपए वेतन दिया जाए और साथ ही मुफ्त में रहने को तमाम सुविधाओं के साथ एक घर दिया जाए, जिसमें बिजली और पानी का खर्च भी शामिल हो। जहाँ तक मनोरंजन भत्ते की बात है, तो एक मंत्री को आतिथ्य कोष से कुछ दिया जा सकता है, जो समस्त मंत्रियों के लिए सामूहिक कोष होगा और जिसकी अनुमति विधानमंडल द्वारा दी गई होगी। उन्होंने प्रधानमंत्री के लिए इस बात को ध्यान में रखते हुए कि उनसे मिलने के लिए बड़ी संख्या में विदेशी आते हैं, मनोरंजन भत्ते के लिए मेहमानदारी भत्ते के अतिरिक्त 1000 रुपए प्रतिमाह का और भत्ता तय किया था। नेहरू सरदार पटेल के सारे सुझावों से सहमत थे, पर उन्हें प्रधानमंत्री के मनोरंजन भत्ते के लिए खास प्रावधान रखना अनिवार्य नहीं लगा। हालाँकि उन्होंने यह सुझाव दिया कि कुछ हवाई जहाज, जैसे—डकोटा और दो-तीन अन्य छोटे हवाई जहाजों को जरूरत पड़ने पर मंत्रियों के इस्तेमाल के लिए रखा गया जाए। यद्यपि किसी भी मंत्री को सैलून के इस्तेमाल की इजाजत नहीं होगी। अगर वह रेल द्वारा यात्रा करेगा तो उसके लिए प्रथम श्रेणी के डिब्बे को आरक्षित किया जाएगा। जहाँ तक स्थानीय वाहन की बात है, तो मंत्री को कार खरीदने के लिए अग्रिम राशि दी जाएगी और उसे उचित किस्तों में वापस लिया जाएगा। जब तक किस्तों का भुगतान नहीं हो जाएगा, कार सरकार के पास गिरवी रहेगी। सरदार पटेल तो दौरे पर गए किसी मंत्री के लिए दैनिक भत्ते के रूप में 30 रुपए को बहुत अधिक मानते थे। उन्होंने उसे कम करने का सुझाव दिया था। एक बार तो वह राजकुमारी अमृत कौर के सुझाव पर केंद्रीय मंत्री को 500 रुपए मनोरंजन भत्ता देने के लिए राजी हो गए थे।

इस संदर्भ में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि सरदार पटेल ने प्रधानमंत्री को यह सुझाव दिया था कि सुरक्षा की दृष्टि से मंत्रियों के घरों में कुछ पुलिसकर्मियों के अलावा दो से ज्यादा सुरक्षाकर्मियों को तैनात करने की आवश्यकता नहीं है। कुछ राज्यपालों की ओर से भी यह प्रस्ताव आया था, खासकर उड़ीसा के राज्यपाल की तरफ से, कि उनके भत्ते में वृद्धि की जाए; पर सरकार ने उसे भी नकार दिया था। असम के मुख्यमंत्री गोपीनाथ बारदोलोई की मृत्यु के बाद यह बात सामने आई कि सरदार पटेल ने अपने पीछे न कोई धन और न ही संपत्ति छोड़ी। उनकी पत्नी और बच्चों के पास कोई भी वित्तीय सहारा नहीं है। विचार-विमर्श करने के बाद बारदोलोई ने बच्चों को स्कॉलरशिप और उनकी विधवा को कुछ पेंशन देने का निर्णय लिया।
सरदार पटेल इस बात को लेकर बहुत स्पष्ट थे कि भारत में दवाई बनानेवाले उद्योग को उन्नति करनी चाहिए। उन्होंने अंतरप्रांतीय व्यापार पर लागू उत्पाद शुल्क की आलोचना की। उन्होंने देश में पशुधन को सुधारने और कृषि उत्पाद को बढ़ाने की महत्ता पर भी बल दिया।
देश के आर्थिक मामलों के प्रति सरदार की सोच बहुत ही व्यावहारिक थी। वह मानवता और समय की जरूरत से सराबोर थी। अधिक उत्पादन, समान वितरण और उत्पादन के तमाम साधनों के साथ सही व्यवहार उनकी आर्थिक नीति के मुख्य आधार थे। 5 जनवरी, 1948 को कलकत्ता में दिए अपने महत्त्वपूर्ण भाषण में उन्होंने यह बात स्पष्ट कर दी कि उद्योग का राष्ट्रीयकरण करने से पहले उसको स्थापित करना जरूरी है। उन्होंने उन लोगों की निंदा की, जो इस बात में यकीन रखते हैं कि मजदूर उत्पादन तो कम करें, किंतु उन्हें ज्यादा धन मिले। इसका परिणाम यह हुआ कि हड़ताल हो गई, जिससे उत्पादन रुक गया। कम उत्पादन का अर्थ था गरीबी को और बढ़ाना। उन्होंने उन लोगों को प्रेरित किया, जो इस अंतहीन चक्र को तोड़ना चाहते थे। उत्पादन किया जाए या सबकुछ नष्ट हो जाए—इस संकट की स्थिति में देश के सामने यही जटिल प्रश्न खड़ा है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book