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तोड़ो, कारा तोड़ो - 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :430
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3341
आईएसबीएन :81-7016-94-4

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प्रथम खंड ‘निर्माण’, स्वामी जी के व्यक्तित्व के निर्माण के विभिन्न आयामों तथा चरणों की कथा....

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Toro Kara Toro-1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पिछले दस वर्षों में लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली रचना तोड़ो, कारा तोड़ो नरेन्द्र कोहली की नवीनतम उपन्यास-श्रृंखला है। यह शीर्षक रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत की एक पंक्ति का अनुवाद है। किंतु उपन्यास का संबंध स्वामी विवेकानन्द की गाथा से है। स्वामी विवेकानन्द का जीवन बंधनों तथा सीमाओं के अतिक्रमण के लिए सार्थक संघर्ष थाः बंधन चाहे प्रकृति के हों, समाज के हों, राजनीति के हों, धर्म के हों, अध्यात्म के हों। नरेन्द्र कोहली के ही शब्दों में, ‘‘स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व का आकर्षण...आकर्षण नहीं, जादू....जादू जो सिर चढ़कर बोलता है। कोई संवेदनशील व्यक्ति उनके निकट नहीं रह सकता।...और युवा मन तो उत्साह से पागल ही हो जाता है। कौन-सा गुण था, जो स्वामी जी में नहीं था। मानव के चरम विकास की साक्षात् मूर्ति किसी एक युग, प्रदेश संप्रदाय अथवा संगठन के साथ बाँध देना अज्ञान भी है और अन्याय भी।’’ ऐसे स्वामी विवेकानन्द के साथ तादात्म्य किया है नरेन्द्र कोहली ने। उनका यह उपन्यास ऐसा ही तादात्म्य करा देता है, पाठक का उस विभूति से।

इस बृहत् उपन्यास का प्रथम खंड ‘निर्माण’ स्वामी जी के व्यक्तित्व के निर्माण के विभिन्न आयामों तथा चरणों की कथा कहता है। इसका क्षेत्र उनके जन्म से लेकर श्री रामकृष्ण परमहंस तथा जगन्माता भवतरिणी के समुख निर्द्वन्द्व आत्मसमर्पण तक की घटनाओं पर आधृत है।

दूसरा खंड ‘साधना’ में अपने गुरु के चरणों में बैठकर की गई साधना और गुरु के देह-त्याग के पश्चात् उनके आदेशानुसार अपने, गुरुभाइयों को एक मठ में संगठित करने की कथा है।

तीसरे खंड ‘परिव्राजक’ में उनके एक अज्ञात संन्यासी के रुप में कलकत्ता से द्वारका तक के भ्रमण की कथा है।
‘निर्देश’, ‘तोड़ो, कारा तोड़ो’ का चौथा खंड है।
द्वारका में सागर-तट पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने भारत-माता की दुर्दशा पर अश्रु बहाए थे। वे एक नया संकल्प लेकर उठे और वडोदरा के महाराज गायकवाड़ से मिलने के लिए आए। वे अनुभव कर रहे थे कि उन्हें अलौकिक निर्देश मिल रहे हैं कि वे एक विशेष लक्ष्य से इस संसार में आए हैं।

विभिन्न देशी राज्यों और रजवाड़ों में होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपनी तीन दिनों की समाधि में जगदंबा का भारत माता के दर्शन एक साथ किए। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उन्हें अपने मोक्ष के लिए तपस्या करने के स्थान पर भारतमाता और उनकी संतानों की सेवा करनी है।

रामेश्वरम के दर्शन कर वे मद्रास पहुँच गए। मद्रास में नव युवकों के एक संगठित दल ने उन्हें शिकागो में होने वाली धर्मसंसद में भेजने का निश्चय किया और उसके लिए तैयारी आरंभ कर दी। किंतु स्वामी जी इस बात पर अड़े हुए थे कि वे अपनी इच्छा से नहीं, माँ के आदेश से शिकागो जाएँगे। अतः माँ अपनी इच्छा फ्रकट करे। अंततः माँ ने अपनी इच्छा का ‘निर्देश’ किया। स्वामी जी ने शिकागो तक की यात्रा की। स्वामी जी और उनको भेजने वाले शिष्य-दोनों ही अनुभवहीन थे। अतः स्वामी जी अनेक प्रकार की कठिनाइयों में फँस गए, किंतु जगदंबा ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था कर दी कि वे संसद में भाग ले सके और विदेशियों तथा विद्यार्थियों द्वारा भारतमाता की छवि पर पोते गए अपमान के कीचड़ को धोकर उसके सौंदर्य को संसार के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। इस सफलता ने स्वामी जी को अनेक मित्र और अनेक शक्तिशाली शत्रु दिए। उन्हें परेशान किया गया, कलंकित किया गया और अंततः उनकी हत्या का प्रयत्न किया गया। स्वामी जी ने जगदंबा के निर्देश, अपने गुरु के संरक्षण और अपने संकल्प से उन सब कठिनाइयों का सामना किया और संसार को भारत का संदेश देने में जुट गए।

स्वामी विवेकानन्द का जीवन निकट अतीत की घटना है। उनके जीवन में प्रायः घटनाएँ सप्रमाण इतिहासांकित हैं। यहाँ उपन्यासकार के लिए अपनी कल्पना अथवा अपने चितंन को आरोपित करने की सुविधा नहीं है। उपन्यासकार को वही कहना होगा, जो स्वामी जी ने कहा था। अपने नायक के व्यक्तित्व और चिंतन से तादाम्त्य ही उसके लिए एक मात्र मार्ग है।

नरेन्द्र कोहली ने अपने नायक को उनकी परंपरा तथा उनके परिवेश से पृथक कर नहीं देखा। स्वामी विवेकानन्द ऐसे नायक हैं भी नहीं, जिन्हें अपने परिवेश से अलग-थलग किया जा सके। वे तो जैसे महासागर के किसी असाधारण ज्वार के उद्दामतम चरम अंश थे। तोड़ो, कारा तोड़ो उस ज्वार को पूर्ण रुप से जीवंत करने का औपन्यासिक प्रयत्न है, जो स्वामी जी को उनके पूर्वापर के मध्य रखकर ही देखना चाहता है। अतः इस उपन्यास के लिए श्री रामकृष्ण पराए हैं, न स्वामीजी के सहयोगी, गुरुभाई और न ही उनकी शिष्य-परंपरा की प्रतीक भगिनी निवेदिता।

निर्माण


तोड़ो, कारा तोड़ो
‘‘बधाई हो विश्वनाथ ! पुत्र हुआ है।’’
विश्वनाथ ने प्रसन्न दृष्टि से बुआ को देखा, ‘‘आपको भी बधाई हो पीशी माँ ! मुझे दासी कुछ आभास तो दे गई थी।’’
‘‘चुडै़ल अटकल लगाकर बता गई। मैंने तो किसी से एक शब्द भी नहीं कहा।’’
‘‘कोई बात नहीं पीशी माँ ! निर्धन स्त्री है। पारितोषिक की जुगाड़ में दुस्साहस कर गई।’’
बुआ बैठ गई, ‘‘यहाँ बैठो, विश्वनाथ !’’
विश्वनाथ आकर बुआ के पास बैठ गए। मन अत्यंत उल्लासित था, किंतु समझ नहीं पा रहे थे कि इस उल्लास को प्रकट कैसे करें। बुआ ने तो उन्हें अपने पास शायद इसीलिए बैठाया था कि यदि वे कुछ पूछना चाहें, तो पूछ लें। प्रसूति-कक्ष से बुआ अभी-अभी निकल कर आई थीं, और वे ही उनके नवजात पुत्र के विषय में सबसे अधिक प्रमाणिक जानकारी दे सकती थीं। किंतु विश्वनाथ का उल्लास उन्हें यह सोचने ही नहीं दे रहा था कि उन्हें क्या और कैसी जानकारी चाहिए।
आज कृष्ण सप्तमी थी। पौष का अंतिम दिन। मकर संक्रांति का त्योहार। सोमवार, 12 जनवरी, 1863 ई.। प्रातः के लगभग सात बज रहे थे। नगर कोहरे से ढका हुआ था। शीत से ठिठुरते हुए नर-नारियों के दल स्नान के लिए भागीरथी की ओर जा रहे थे; किंतु उनसे भी कहीं बड़ा पर्व आज विश्वनाथ दत्त के मन में आकर बैठ गया था। चार-चार बेटियों के पश्चात यह पुत्र हुआ था। पहला पुत्र आठ महीनों का होकर दिवंगत हो गया था। दो पुत्रियाँ भी जीवित नहीं रही थीं। हरमोहनी और स्वर्णमयी के पश्चात् अब यह...भगवान् इसे सुदीर्घ जीवन दे।...
सहसा उन्होंने बुआ की ओर देखा, ‘‘बालक स्वस्थ तो है न, पीशी माँ ?’’

बुआ ने एक प्रसन्न दृष्टि डाली, ‘‘स्वस्थ है। हष्ट-पुष्ट। सुंदर है। गोरा चिट्टा। काला टीका लगाकर आई हूँ। उसका कंठ फूटा तो कैसा प्रबल चीत्कार किया उसने। नवजात शिशु की वाणी में इतनी शक्ति। मैं तो चमत्कृत रह गई, विश्वनाथ ! बड़ा होगा, तो जाने उसकी वाणी क्या करेगी !’’
विश्वनाथ प्रफुल्ल होकर कहना चाहते थे, ‘अपनी वाणी से विश्व को हिलाएगा। संसार का सबसे बड़ा बैरिस्टर बनेगा।’ किंतु अपने सद्यःजात पुत्र के विषय में ऐसा कुछ कहना उन्हें उचित नहीं जान पड़ा। ‘‘पूछा, किस पर पड़ा है ?’’
बुआ ने तत्काल उत्तर नहीं दिया। कुछ क्षण दूसरी ओर मुँह किए, शून्य में देखती रहीं, जैसे कुछ सोच रही हों; और फिर निश्चय कर, साहसपूर्वक बोलीं, ‘‘अपने दादा पर ! एकदम अपने दादा पर ! मुझे तो लगा विश्वनाथ ! जैसे भैया ही पुनः जन्म लेकर, अपने घर लौट आए हैं।’’ बुआ ने दृष्टि उठाकर विश्वनाथ को देख : विश्वनाथ का चेहरा गंभीर ही नहीं, कुछ चिंतित लगा। बुआ भाँप गई कि विश्वनाथ के मन में क्या है। सांत्वना देने के विचार से बोलीं, ‘‘तुम चिंता मत करो। आवश्यक तो नहीं कि भैया की आकृति ली है, तो चरित्र भी उन्हीं का लेगा, भाग्य भी वही लेगा।’’

विश्वनाथ सायास मुस्कराए, ‘‘आपने ही तो कहा पीशी माँ ! कि आपको लगा है कि जैसे पिता जी ही नया जन्म लेकर पुनः अपने घर लौट आए हैं।’’
‘‘आकृति से तो यही लगा पुत्र !’’ बुआ बोलीं, ‘‘किंतु मेरा मन कहता है कि इस बार वे संन्यासी बनने के लिए नहीं आए हैं। घर को त्याग संन्यासी ही बनना होता तो उसी घर में पुनः जन्म लेने की क्या आवश्यकता थी ? मेरा मन तो कहता है...’’
विश्वनाथ का मन जैसे दो भागों में बँट गया था—एक वह जो अपनी चिंताओं से जूझ रहा था, और दूसरा वह जो बुआ से बातें कर रहा था। अन्यमनस्क-से बोले, ‘‘आपका मन क्या कहता है ?’’
‘‘मेरा मन कहता है कि अपनी अभक्त वासनाओं को लेकर पुनः इसी घर में वे इसलिए आए हैं कि जो भोग पिछले जन्म में भोग नहीं सके उनका भोग पूर्ण कर लें।’’
विश्वनाथ चुप बैठे रहे, जैसे बुआ की बात पर विचार कर रहे हो; और फिर धीरे से बोले, ‘‘मेरे मन में संन्यासियों के लिए बहुत सम्मान है पीशी माँ ! संसार त्यागना बहुत कठिन होता है; अर्जन से भी कठिन। अर्जन तो सब कर सकते हैं; किंतु विसर्जन तो कोई बिरला ही कर सकता है।’’ उन्होंने बुआ पर एक भरपूर दृष्टि डाली, ‘‘जब कभी किसी संन्यासी को अपने द्वार पर खड़ा देखता हूँ तो मेरे मन में आता है कि मेरे पिता भी इसी प्रकार किसी के द्वार पर खड़े हुए होंगे। उनका सत्कार हुआ होगा, तो वे सुखी हुए होंगे। दुत्कारा गया होगा, तो उन्हें क्लेश हुआ होगा...किंतु फिर भी...’’
वे चुप हो गए। बुआ प्रतीक्षा करती रही कि शायद वे अपनी बात पूरी करेंगे; किंतु जब विश्वनाथ कुछ नही बोले तो बुआ ने पूछ ही लिया, ‘‘फिर भी क्या विश्वनाथ ?’’

‘‘मैं नहीं चाहूँगा कि अब कभी इस परिवार में से कोई संन्यासी बने।...मैं जानता हूँ कि मेरी माँ, पिताजी की खोज में कहाँ-कहाँ भटकी थीं।’’ वे शून्य में देखते हुए पुनः बोले, ‘‘यदि एक व्यक्ति हो ही नहीं, तो उसका अभाव कष्ट देता है; किंतु वह होते हुए भी न हो, तो उसकी यातना कहीं अधिक होती है।’’
‘‘कौन नहीं जानता विश्वनाथ।’’ बुआ कुछ भावुक स्वर में बोलीं, कि वे तुम्हारा मुख देखकर ही, घर त्यागकर चले गए थे। उस समय तो बोऊदी उन्हें खोजने नहीं जा सकती थीं; किंतु तुम जब तीन वर्षों के हुए, तो बोऊदी ने तुम्हारे साथ, नाव से काशी तक की यात्रा की थी। कितना भटकी थीं वे, काशी के मंदिरों में और घाटों पर ! शायद ही काशी की कोई ऐसी वीथि हो, जो उन्होंने न छान मारी हो, और अंततः वे अचेत होकर गिर पड़ी थीं। उनके माथे पर चोट आ गई थी...’’
‘‘मैं जानता हूँ पीशी माँ ! एक संन्यासी ने ही उनकी सेवाकर, उनकी चेतना लौटाई थी।...किंतु मेरे मन में आज भी यह संशय है कि वे संन्यासी क्या सचमुच पिता जी ही थे ? कहीं वह माँ के अचेत मस्तिष्क की कल्पना ही तो नहीं थी ?’’
‘‘नहीं विश्वनाथ ! वे तुम्हारे पिता ही थे। बोऊदी की चेतना लौटी और उन्होंने आँखें खोलकर देखा तो भैया के मुख से निकला, ‘माया ! ओ माया !’ और वे बोऊदी को वहीं छोड़कर काशी की भीड़ में कहीं विलुप्त हो गए। यदि वे तुम्हारे पिता न होते तो उन्हें इस प्रकार अकस्मात् ही भाग जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी।’’

‘‘जो भी हो !’’ विश्वनाथ मन का संकल्प अपनी जिह्वा पर ले आए, ‘‘मैं नहीं चाहूँगा कि मेरा यह पुत्र, जो अपने दादा का रंग-रूप लेकर आया है, अपने दादा का आचरण भी ले; और हम सब उसे वैसे ही खोजते फिरें, जैसे पिता जी को खोजा गया था; या उसे भी वैसे ही ताला लगाकर कमरे में बंद रखना पड़े, जैसे पिता जी को रखा गया था।’’
‘‘तभी तो मैं कहती हूँ विश्वनाथ ! कि यह बालक संन्यास के लिए नहीं आया है। जो व्यक्ति ताले में बंद, तीन दिनों तक इसलिए भूखा बैठा रहा कि वह इस घर से मुक्त हो सके, वह स्वयं अपनी इच्छा से उसी घर में पुनः जन्म ले ले—तो इसका क्या अर्थ ?’’

विश्वनाथ बुआ की ओर देखते रहे और फिर जैसे निःश्वास छोड़ते हुए बोले, ‘‘तुम्हारी ही वाणी सत्य हो पीशी माँ !’’
भुवनेश्वरी के मन की विचित्र स्थिति थी। वह स्वयं समझ नहीं पा रही थी कि ऐसा क्यों है। वह अपने नवजात शिशु की ओर देखती थी, तो उसके मन में वे सारे दिन घूम जाते थे, जब वह आशुतोष महादेव शिव के मन्दिरों में मस्तक टेककर उनसे एक पुत्र की याचना करने जाया करती थी। वर्ष भर तक वह सोमवार के व्रत करती रही थी। रिश्ते की एक चाची के माध्यम से काशी के वीरेश्वर महादेव के मन्दिर में अनुष्ठान करवाती रही थी।...क्या उसका यह पुत्र उसी सारी तपस्या का वरदान था ? क्या उसकी वह याचना और उसका यह पुत्र परस्पर बिंब-प्रतिबिंब थे ? क्या उन दोनों में कोई कार्य-कारण संबंध था ? क्या साधना सचमुच सिद्ध होती है ? क्या तपस्या का वरदान मिलता है ?...

उसने भी अपने चारों ओर होने वाली गुप्त चर्चा सुन ली थी कि उसका पुत्र अपने दादा का रूप-रंग लेकर आया है। अपने पति के चिंतित चेहरे से भी उसने बहुत कुछ पढ़ा और समझा था। कभी वह अपने मन में एक खीझ का-सा अनुभव करती थी कि उसके पति, पुत्र-जन्म से प्रसन्न नहीं हैं; और कभी उनकी चिंता और आशंका की गंध मात्र से ही उसका मन काँप जाता था।...फिर भी नवजात शिशु के कारण, वह बहुत व्यस्त थी और बहुत मग्न भी। जब कभी कोई आशंका उसके निकट फटकती, तो वह उसे फटकारकर अपने पुत्र संबंधी ढेर सारे कार्यों में व्यस्त हो जाती। वह नहीं चाहती थी कि किसी संभावित अनहोनी के विचार से त्रस्त होकर, वह पुत्र-सुख का अनुभव ही न करे, जबकि उसका पुत्र, उसकी गोद में था। उसे वर्तमान के यथार्थ को ही स्वीकार करना था, भावी की आशंकाओं को नहीं।...

विश्वनाथ कमरे में आए तो भुवनेश्वरी बोली, ‘‘सुनो ! तुमने अपने पुत्र के लिए नाम क्या सोचा है ?’’
विश्वनाथ ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, ‘‘क्यों ? नामकरण का समय आ गया क्या ?’’ ‘‘आ ही जाएगा।’’ भुवनेश्वरी बोली, ‘‘पीशी माँ कह रही थीं कि इसका नाम पिता जी के नाम पर ही रखा जाए।’’
‘‘पिताजी के नाम पर।’’ विश्वनाथ ने जैसे स्तब्ध होकर पूछा, ‘‘पिताजी का नाम तो दुर्गाप्रसाद था। वे इसका नाम क्या रखना चाहती हैं ?’’
‘‘वे कह रही थीं कि इसका नाम दुर्गाप्रसाद रखा जाए। क्या आप भी यही चाहते हैं ?’’

विश्वनाथ मौन रहे। थोड़ी देर पश्चात बोले तो उनकी वाणी में क्षोभ भरा था, ‘‘मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस शिशु के भाग्य को हर क्षण पिताजी के भाग्य के साथ जोड़ने का प्रयत्न क्यों किया जा रहा है ? क्या प्रत्येक बालक को देखकर उसके दादा को ही याद किया जाता है ?’’ उन्होंने मुड़कर भुवनेश्वरी को देखा, ‘‘क्या तुम भी यही चाहती हो?’’
भुवनेश्वरी का स्वर तनिक भी उद्धेलित नहीं था, ‘‘मैंने तो अपने पुत्र को वीरेश्वर महादेव से माँगकर लिया है। इसका नाम तो वीरेश्वर ही होना चाहिए।’’ और वह जैसे एक छोटी बच्ची बनकर चंचलता भरे तुतलाते स्वर में बोली, ‘‘है न मेरे बीलेश्वर ! मेरा बिलेह...छोटा-सा बिलेह।’’ उसने दृष्टि उठाकर अपने पति को देखा, ‘‘आपका क्या विचार है ?’’
विश्वनाथ जैसे किसी असमंजस में थे और असमंजस से निकलने के लिए ही उन्होंने कहा, ‘‘मैं ! मेरा क्या। तुमने ठीक ही सोचा है—वीरेश्वर...बिलेह ! वीरेश्वर महादेव से माँगकर पाया है, तो वीरेश्वर तो उसे होना ही चाहिए। हम कृतघ्न तो नहीं हो सकते न ?’’

किंतु भुवनेश्वरी अपने पति के असमंजस को भाँप चुकी थी। वे उसका विरोध नहीं कर रहे थे; किंतु कदाचित् यह नाम उनकी अपनी इच्छा के अनुकूल नहीं था। भुवनेश्वरी को पति पर अपनी इच्छा का बलात् आरोपण प्रिय नहीं था। संभव है, विश्वनाथ के मन में कोई और अच्छा नाम हो। संभव है, वे इस समस्या को किसी और दृष्टि से देखते हों। आग्रहपूर्वक बोली, ‘‘किंतु आपके मन में भी तो कोई नाम होगा। यह कैसे संभव है कि आपके मन में अपने पुत्र के नाम की कोई कल्पना ही न जागी हो।’’
विश्वनाथ उसकी ओर मुड़े, ‘‘हाँ ! कुछ हलका-सा सोचा तो था, पर अब रहने दो। तुमने अच्छा, उपयुक्त और सार्थक नाम सोचा है।’’
‘‘नहीं ! आप बताएँ कि आपने क्या सोचा है।’’
विश्वनाथ का संकोच हट गया। बोले, ‘‘मैं सोच रहा था कि हमारा पुत्र श्रेष्ठ मनुष्य बने। श्रेष्ठतम ! मनुष्यों के राजा सा। नरों में इंद्र। नरेन्द्र ! घर में हम इसको नरेन कहकर पुकारा करेंगे।’’

भुवनेश्वरी ने मुग्ध दृष्टि से अपने पति को देखा, ‘‘इतना सुंदर नाम सोचकर भी आप इसे छुपा रहे थे। अर्थ भी बहुत अच्छा है; और कितनी नवीनता लिए हुए है...।’’
‘‘किंतु वीरेश्वर महादेव के प्रति क्या यह कृतघ्नता नहीं होगी ?’’
‘‘कृतघ्नता क्यों होगी।’’ भुवनेश्वरी बोली, ‘‘वीरेश्वर महादेव की कृपा से ही तो हमारा पुत्र नरों का इंद्र होगा। वैसे मैं इसे घर में बिहेल ही पुकारा करूँगी।’’
विश्वनाथ लेटे तो उन्हें तत्काल नींद नहीं आई। लगता था, आज नींद आएगी भी नहीं।...आज कितनी सारी पुरानी घटनाएँ और कितने ही विचार उनके मस्तिष्क में बवंडर मचाए हुए थे। लगता था, पिता संबंधी उनकी सारी स्मृतियाँ न केवल जाग उठी थीं, वरन् उनके संबंध में अनेक प्रश्न आज तांडव करने लगे थे : पिता ने क्यों संन्यास ग्रहण किया ? क्यों बनता है कोई संन्यासी ? उनके मन में ईश्वर का अनुराग इतना अधिक प्रबल था कि वे संसार में रह नहीं सकते थे; या संसार ने उन्हें इतनी प्रताड़ित किया था कि वे इससे इतनी घृणा करने लगे थे कि ईश्वर की शरण में जाने के सिवाय, उनके पास और कोई विकल्प ही नहीं था ? वह ईश्वर-प्रेम था या संसार-विरोध ? ईश्वर-प्रेम के कारण, संसार छोड़ने की क्या आवश्यकता है, यह विश्वनाथ कभी समझ नहीं पाए।

...यह संसार भी तो ईश्वर का ही बनाया हुआ है। इसका ऐश्वर्य और इसका भोग भी तो उसी की विभूति है। विश्वनाथ ने तो आज तक सांसारिक ऐश्वर्य को ईश्वर की दया के रूप में ही ग्रहण किया है। सांसारिक सुख-भोग को उसकी इच्छा और उसकी करुणा मानकर ही स्वीकार किया है। इसीलिए तो धन कमाने में उन्हें किसी प्रकार का संकोच नहीं है; किंतु उस धन का दान करने में भी उन्हें कोई असुविधा नहीं होती। वह उनका नहीं, ईश्वर का है। उसका भोग वही व्यक्ति करेगा, जिसके भाग्य में, ईश्वर ने उसे अंकित कर दिया है।...संसार में रहकर भी मनुष्य, ईश्वर का होकर जी सकता है।...ईश्वर प्रेम के कारण उनके पिता ने संसार का त्याग नहीं किया होगा।...संसार के त्याग का संबंध जीवन की सफलता तथा संसार की प्रवंचना से है, ईश्वर प्रेम-से नहीं!...

दादा के असामयिक और आकस्मिक निधन के कारण, पिता सर्वथा असहाय हो गए थे। उनके तरुण होने तक दादी को कितने ही लोगों ने ठगा था।...स्वयं उनकी अपनी पुत्री और दामाद ने।...और ये बुआ, विधवा होकर, उस घर में आ आधिपत्य जमाकर बैठ गई थीं; और तब से आज तक यहीं हैं।
विश्वनाथ ने सुना था कि एक बार उनकी माता पालकी में मायके से लौट रही थीं, तो इन्हीं बुआ ने ननद के अधिकार से उन्हें अपमानित कर, वापस उनेक मायके भेज दिया था। पिता ने यह सब अपनी आँखों से देखा। उनके सम्मुख उनकी निर्दोष पत्नी का अपमान और तिरस्कार हुआ था। उसे केवल दंडित होना पड़ा था, क्यों कि उसके पालकी में बैठ कर आने से उसकी ननद को ईष्या हुई थी।...क्या अपने ही परिवार की घटनाओं ने पिता के मन में अधिकार, धन तथा भोग के प्रति वितृष्णा उत्पन्न कर दी थी ? क्या उनके अपने परिवार ने उन्हें संन्यास की ओर नहीं धकेला था ?...

विश्वनाथ अपने विषय में सोचते हैं तो वे और भी उलझ जाते हैं। पिता संसार त्याग कर संन्यासी हो गए थे और माता ने लंबी आयु नहीं पाई थी। अनाथ विश्वनाथ का पालन-पोषण उन्हीं काका ने किया था, जिन्होंने उनके पिता को बलात् तीन दिनों तक एक कमरे में बंद रखा था। तब उन्हें माता का स्नेह भी इन्हीं बुआ से मिला था, जिन्होंने उनकी माता को अपमानित और तिरस्कृत कर, घर से बाहर निकाल दिया था। इन लोगों के प्रति कैसा भाव हो सकता है, विश्वनाथ के मन में ?...विश्वनाथ जितना सोचते हैं, उतना ही उलझते जाते है।...एक दृष्टि से उन्हें अपने काका काकी बुआ...सब लोग अत्यन्त वात्सल्यमय और अपने हितू दिखाई देते हैं, जिन्होंने अनाथ विश्वनाथ का पालन-पोषण किया; और जैसे भी हुआ, उन्हें माता पिता का स्नेह दिया।...और दूसरी ओर ये ही लोग हैं, जिन्होंने उनके माता पिता को प्रताड़ित किया, उन्हें वंचित और पीड़ित किया....विश्वनाथ को लगता था कि उनकी स्थिति बहुत कुछ युधिष्ठिर के समान है, जिसे मालूम था कि धृतराष्ट्र ने उसके पिता को पीड़ित किया था। पांडु भी तो राज्य त्यागकर साधना करने के लिए शतश्रृंग पर चला गया था।...फिर भी युधिष्ठिर कभी धृतराष्ट्र से घृणा नहीं कर सका।...भीम को विष दिया गया था, पांडवों को वारणावत में जलाने का प्रयत्न किया गया था...फिर भी युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र की आज्ञा मानकर जुआ खेला और अपना सब कुछ स्वाहा कर दिया।...इतना रक्तपात कर जब युधिष्ठिर को राज्य मिला, तो उसने धृतराष्ट्र और गांधारी की अपने माता-पिता के समान सेवा की। वे वनवास के लिए गए तो कुंती अपने पुत्रों का राज्य त्यागकर उनकी सेवा के लिए, उनके साथ वन चली गई...तो विश्वनाथ को अपने काका कालीप्रसाद से, काकी माँ से, अपनी बुआ से घृणा कैसे कर सकते थे...कभी-कभी तो उन्हें लगता है कि उनके बचपन में उनके साथ जो कुछ हुआ, उसके लिए काका तनिक भी दोषी नहीं हैं। वे तो जैसे स्वयं ही काकी के हाथों पीड़ित और प्रताड़ित हैं। काकी जैसी कर्कशा स्त्री के साथ जीवन-निर्वाह करना उन्हीं का काम है। काका संन्यासी नहीं हुए, यह उनका ही साहस है। काकी और बुआ तो अपने व्यवहार से, किसी के भी मन में वैराग्य उत्पन्न कर सकती हैं...।

वे अपने पुत्र के मन में संसार-विरोध को कभी अंकुरित नहीं होने देंगे...वे उसे राजकुमारों के समान पालेंगे। उसे संसार का इतना ऐश्वर्य देंगे कि वह किसी अन्य दिशा में देख ही नहीं पायेगा।...वे इतना धन आर्जित करेंगे कि कोई कितना भी माँगे, उन्हें उसे मना नहीं करना पड़े। उनके पुत्र को कभी सांसारिक अभाव पीड़ित नहीं करेंगे। उनके मन में कभी संसार विरोध नहीं जागेगा। वह ईश्वर से कितना भी प्रेम क्यों न करे, उसे अपने दादा के समान घर, परिवार, समाज और संसार त्यागना नहीं पड़ेगा। वे उस संसार का भोग करना भी सिखाएँगे और ईश्वर के श्रेष्ठ मानव के रूप में जीना भी। वह सांसारिक ऐश्वर्य को ईश्वर की अनुकंपा के रूप में ही ग्रहण करेगा।

2


तीन वर्षो का नरेन्द्र आँगन मे दौड़ रहा था।
उसके हाथ में सब्जी काटने वाला चाकू था। उसकी मुद्रा से स्पष्ट था कि वह उस चाकू को अपने पास बनाए रखने के लिए ही इस प्रकार बचकर भाग रहा था। उसके पीछे-पीछे दो नौकरानियाँ उसे पकड़ने के लिए दौड़ रही थीं, किंतु उनकी अवस्था, स्थूल काया तथा अनभ्यास उन्हें इतना तेज दौड़ने ही नहीं दे रहा था कि वे नरेन्द्र को पकड़ पातीं। पैरों में गति नहीं होने के कारण उनकी वाणी में कुछ अधिक बल आ गया था। वे लगातार चिल्ला रही थीं, ‘‘बिलेह ! छुरी दे दे। अरे, लग जाएगी तुझे। देख, कहीं तेरा हाथ न कट जाए।’’



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