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निचले फ्लैट में

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : क्रिएटिव बुक कम्पनी प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3343
आईएसबीएन :81-86798-11-0

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नरेन्द्र कोहली के द्वारा चुनी हुई कुछ कहानियाँ....

Nichle Flait Main

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

1969 ई. में कहानियों से अधिक मैं व्यंग्य लिख रहा था। बीच-बीच में कहानियाँ भी लिखी जा रही थीं; पर क्रमशः कहानियों का स्रोत सूख रहा था। वैसे तो व्यंग्य में भी कथा का उपयोग होता ही है; किंतु व्यंग्य कथानक-विहीन विधा है। तो मेरे भीतर का कथा-तत्त्व कहाँ जा रहा था ? 1970 ई. में जब उपन्यास लेखन आरंभ हुआ तो कहानियों का लिखना प्रायः बंद ही हो गया । शायद तब छोटी घटनाओं का स्वतंत्र महत्त्व कम लगने लगा था। वे घटनाएँ तो एक व्यवस्था की कड़ियां थीं और व्यवस्था का चित्रण उपन्यास लिखे बिना नहीं हो सकता। संभवतः मेरा आक्रोश व्यंग्य बन रहा था और कथानक उपन्यास में ढल रहा था।

नालायक

‘‘तेरे पुत्तर बड़े बीबे हैं, भाई ! भागांवाले। रब्ब इनकी उमर लंबी करे ! मैं तो कहती हूं कि ऐसे पुत्तर रब्ब सबको दे। तो फिर बुढ़ा़पे में हम सरीखा कोई क्यों रोए।’’ भुआजी की आवाज भर्रा आई और साथ ही उनकी आंखें डबडबा गईं।
माँ के लिए ऐसी स्थिति असह्य हो उठती थी। उनकी एकमात्र ननद, उनके सामने इस प्रकार बैठ-बैठकर रोए और वे कुछ न कर सकें। ठीक है, भुआ जी उनके बेटों की प्रशंसा करती हैं, पर अभी उन्होंने माँ के बेटों को देखा ही कहां है। सब अपनी मर्जी के मालिक हैं। उनकी कोई मानता है क्या। इच्छा होगी तो माँ-बाप के लिए कपड़े ला रहे हैं, जूते ला रहे हैं। उनको सैर करा रहे हैं। उनके खाने को अंडे-मीट से कम की बात ही नहीं। दूध पीओ, दही खाओ, मक्खन खाओ। न खाओ तो नाराज हो जाएंगे। इस महंगे जमाने में भी चार-चार आने का संतरा ला रहे हैं। ‘मां, फल खाओ ! बाबूजी, फल खाओ ! अच्छा चलो मेवे खा लो।’’ कितना मना करो, पर कोई नहीं मानता। सच कहती हैं बहनजी ! बड़े बुर्खुरदार हैं। भगवान इनको लंबी उमर दे और बड़े भाग दे। मां की उसांसों के साथ आशीष निकलती है। इस जमाने में ऐसे बेटे किसके हैं। कोई रोटी-कपड़ा दे देता है तो अहसान करता है। और उनके बेटे...

पर मां यदि कह दे बेटा किसी रिश्ते-नातेदार को कुछ दे दे, तो देगा कोई ! अभी परसों ही विपुल से कहा था कि कमला आएगी उसके पास तो कितना खुश हुआ था। भाग-भागकर सारा प्रबंध कर रखा था अभी से। मना भी किया, अभी से इतना मत कर तो बोला, ‘‘पहली बार तो बहनजी आएंगी मेरे घर।’’ ठीक ही तो कहता था। मां और बाबूजी भी तो पहली ही बार आए हैं उसके घर, परदेस में बीवी-बच्चे के साथ अकेला पड़ा है। इतनी दूर उसके पास आए भी कौन ? यदि विपुल का बच्चा बीमार न हो तो शायद वे लोग भी नहीं आते।
बहन के प्रति उसका इतना उत्साह देखकर ही तो मां ने उससे कह दिया था, ‘‘बेटा ! अब हम शहर में आए बैठे हैं। ऐसे अच्छा नहीं लगता। तू कमला के ससुराल वालों को खाने पर बुला ले और सबको कपड़े़ और पांच-पांच रुपए देकर हम कुछ हल्के हो जाएं।’’

विपुल एकदम बदल गया था, बोला, ‘‘किस युग की बातें करती हो, मां ! कोई अपना पेट ही भर ले, आजकल इतना ही बहुत होता है और तुम बातें कर रही हो बहन के सारे ससुराल को कपड़े और रुपए देने की। उस दिन तुम और बाबूजी मिल तो आए उनसे और पंद्रह रुपए के फल भी दे आए। मैं तो वह भी नहीं चाहता था। पर चलो दे आए। अब कहोगी तो उनको खाने पर निमंत्रित भी कर आऊंगा, पर कपड़े और रूपए देनेवाली बात गलत है।’’
मां को विपुल से ऐसी आशा नहीं थी। इतना तो वह खर्च कर ही रहा था। बहन पर खर्च करने को तैयार भी था। अब क्या वह उनका यह अनुरोध नहीं मानेगा।

मां ने अपनी बात को और भी वजनी बनाया, ‘‘कमला ने ही कहा था कि विपुल से कहना, वह कर देगा।’’
पर विपुल पर इसका भी प्रभाव नहीं पड़ा, ‘‘बहन ने कहा है तो गलत कहा है। मुझसे मिलेगी तो समझा दूंगा।’’
और तभी से मां विपुल की ओर से किसी को कोई वचन देने से हिचक रही थी। कौन जाने, माने न माने। न मानेगा तो कोई उसका क्या कर लेगा।
बाबूजी को आया सुन अब भुआजी और फूफाजी भी उनके पास रहने आए थे। भुआजी ने कोई दस वर्षों बाद बाबूजी को देखा था। जब से मरा पाकिस्तान बना था, घर उजड़ गए थे, बिरादरियां बिखर गई थीं। कोई कहां जा बसा था, कोई कहां। बहन-भाई भी दस-दस वर्ष बाद मिलते थे।
भुआजी और फूफाजी का बहुत सत्कार किया था विपुल ने। बाबूजी ने जो कुछ भी कहा, विपुल ने घर में भर दिया। भुआजी की खूब सेवा की।

अपनी ननद की आंखों में विस्मय का भाव पहले ही दिन मां ने देख लिया था।
‘‘भतीजा मेरा राजा है और मैं कभी उससे मिलने ही न आई।’’
भुआजी ने घूम-घूमकर विपुल का तीन कमरों का फ्लैट देखा था, ‘‘दिल्ली में भी इतना बड़ा घर !’’ वे रसोई में खड़ी बहुत देर तक गैस को देखती रहीं, ‘‘यह कैसी अंगीठी है भई ! बहू, तू तो जादूगरनी है पल में काम कर लेती है।’’ वे विपुल की बहू से बोली थीं।
फिर जब विपुल की बहू ने जमाई हुई मलाई को मिक्सी में मथकर मक्खन निकाला तो उनकी आंखें फटी रह गईं।
‘‘वे विप्पल !’’ वे बोलीं, ‘‘ऐसी मथनी तो तू एक मुझे भी ला दे। फिर कभी पिंड गई और भैंस, रखी तो मैं भी इसी से मक्खन निकालूंगी। अब वह उमर नहीं रही भई। दही रिड़कते-रिड़कते बांहें रह जाती हैं मेरी। और तुम जानो, जिंदगी भर दही-मक्खन खाया तो इस उमर में नहीं छूटता।’’

भुआजी ने विपुल की सहमति की आवश्यकता नहीं समझी थी। जीवन में पहली बार तो उन्होंने एक चीज मांगी थी अपने राजा भतीजे से। वह इनकार कैसे कर सकता है ! वे अड़ जाएंगी तो एक डंगर और एक गहना लेकर ही टलेंगी। दस वर्ष बाद वे अपने भाई के द्वार पर आई हैं। मजाक नहीं है कोई, हां...
विपुल की बहू ने सबके लिए टोस्ट और अंडे का नाश्ता बना लिया तो मां ने उसे रसोई से हटा दिया। मां ने ढेर सारे आलू उबाले और खूब-खूब आलू भरकर, घर के मक्खन में तलकर मोटे-मोटे चार परांठे बनाए। दो भुआजी के लिए और दो फूफाजी के लिए। फिर उन्होंने बाकी बचा सारा मक्खन उनको दे दिया।

भुआजी बाहर धूप में चारपाई बिछाकर आलू के परांठे मक्खन में लपेट-लपेटकर खाती गईं और मां से कहती गईं, ‘‘तुझे क्या बताऊं मैं सरस्वती ! मेरे बेटे और मेरी बहुएं। तीन-तीन बेटे पाल-पोसकर इसलिए तो इतने बड़े नहीं किए थे कि आज इस उमर में यह दिन देखना पड़े। ये पिंड में गिर न पड़े होते, इनके पैर की हड्डी न टूट गई होती तो हम दिल्ली क्यों आते, धक्के खाने को। तब तो तीनों ने ही बारी-बारी लिख दिया कि पिताजी इस उमर में टूटी टांग के साथ वहां गांव में मत रहो, यहां आ जाओ, हमारे पास।...अब जब हम आ गए हैं तो बड़ा छोटे से कहता है कि हमने मां-बाप को रखा है। उन पर मेरा खर्च हुआ है। तू भी मुझे हर महीने पैसे दे।...तुझे सच बताऊं, उसने दोनों भाइयों से पच्चीस-पच्चीस रुपए लिये। अरे, तुम चार-चार सौ रुपए काहे को कमाते हो, अगर मां-बाप को दो वक्त का खाना नहीं खिला सकते। और खिलाते भी क्या हैं-दाल-रोटी ! सच मान सरस्वती ! भगवान झूठ न बुलवाए। जब से अपना गांव छोड़ा है, आज पहली बार मक्खन देखा है।...ओम् तत्सत् !’’ और भुआजी ने भगवान के सामने हाथ जोड़ दिए।

बाबूजी ने फ्रिज खोलकर दो संतरे और दो केले निकाले और एक-एक संतरा एक-एक केला भुआजी और फूफाजी के हाथ में पकड़ा़ दिया। उन्होंने आंखों में बच्चों की सी ललचाई नजरों से देखा और पकड़कर हंस दिए। फिर आंखें झुकाए अपना-अपना हिस्सा खाते रहे और सिर तब उठाया जब संतरा और केला-दोनों चीजें समाप्त हो गईं।
मां को दोपहर को ही पता लग गया था कि विपुल को यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। ‘‘मां ! ये कैसे लोग हैं।’’ उसने कहा था, ‘‘भुआजी मेरे घर आई हैं, तो अच्छा है। मैं कहता हूं कि उनकी खूब खातिर करो। पर ये लोग घरवालों के समान क्यों नहीं रहते। भुआजी दिनभर चारपाई से ही नहीं हिलतीं। इसीलिए तो इनकी बहुएं इनसे खुश नहीं रहतीं। सारा मक्खन ये लोग खा गए और एक बार भी यह नहीं कहा कि कोई और भी थोड़ा सा ले ले। बाबूजी ने केला-संतरा पकड़ा दिया जैसे बच्चों को उनका हिस्सा दिया जाता है और ये दोनों खा गए। एक बार भी किसी से नहीं कहा कि संतरे की एक फांक तो लो...’’

मां ने तब भी उनका बचाव किया था, ‘पुराने लोग हैं, बेटा ! गांव के। पीछे घरों में खाने को बहुत कुछ था। अब बेचारे रुल गए हैं। ऊपर से बहुएं वैसी आईं, बेटे नालायक निकल गए। नहीं तो इस उमर में ये लोग खाने को क्यों तरसते।’’
विपुल ने मां की बात नहीं मानी, उल्टे उत्तेजित हो उठा, ‘‘इन्हें भी समय के साथ बदलना चाहिए, मां ! हम अंडे खाएं और तुम्हें अचार के साथ रोटी दें तो हम बुरे। पर यदि अपनी आंखों से तुम यह देखो कि मैं तुम्हारे सामने रोटी पर अचार रखकर खा रहा हूँ, तुम्हें भी वही दे रहा हूँ, तो तुम मुझे दोषी मानोगी क्या ?’’
‘‘क्यों मानूंगी ?’’ मां ने कहा था, ‘‘मां-बाप स्वयं खा-पीकर खुश नहीं होते, बेटा बच्चों को खाते-पीते देख खुश होते हैं।’’
‘‘तो मां !’’ विपुल बोला था, ‘‘भुआजी के बेटे नालायक कैसे हो गए। इन्होंने न उन्हें पढ़ाया, न लिखाया। छोटे-छोटे थे तो उनकी शादियां करके ये सुर्खरू हो गए। सबके चार-पांच बच्चे हो गए। इतनी मंहगाई में इस शहर में चार-पांच बच्चों के साथ रहना आसान है क्या ? जाकर एक बार उनका घर देखो, कैसे रहते हैं बेचारे। दिन भर जी-तोड़ मेहनत कर अपना पेट पालते हैं और फिर इनको शिकायत है कि वे इन्हें मक्खन नहीं खिलाते....’’

आज फिर भुआजी बार बार मां के बेटों की प्रशंसा कर रही थीं और संकेत पर संकेत कर रही थीं। पर मां क्या कहे। भुआजी जब कहतीं कि आखिर विपुल की कमाई पर उनका भी अधिकार है तो ‘है क्यों नहीं’ कहकर मां टाल जाती। कितनी बार उनकी जीभ कहते-कहते रुक गई कि वे विपुल से कह देंगी कि वह भुआ को भी पचास रुपए महीना भेज दिया करे। बेचारे पर इतना बोझ कैसे डाला जा सकता है। उसका आधा वेतन तो मकान के किराए में ही निकल जाता है। पर साफ-सुथरे ढंग से रहने के लिए वह छोटा घर नहीं लेना चाहता था। और फिर वह मान जाएगा क्या ? वे जानती थीं, वह नहीं मानेगा। मां-बाप की सेवा के लिए इतना खर्च कर रहा है, नहीं तो इतनी उसकी हैसियत नहीं है...
अंत में मां नाश्ता बनाने के बहाने उठकर रसोई में आ गई और भुआजी ने विपुल की बहू को अपने पास बैठा लिया। वे बार-बार उसकी प्रशंसा कर रही थीं, थपकियां दे रही थीं, उसकी पीठ पर हाथ फेर रही थीं और उसका सिर सूंघ रही थीं, ‘‘तेरे जैसी बहू हमारे सारे परिवार में और कोई नहीं आई। मेरे भाई ने पिछले जन्म में कोई पुन्य किए थे, जो तुझ जैसी बहू इस घर में आई। सरस्वती बड़े भागवाली है। मैं तो कहती हूं....’’

मां ने फिर आलू के परांठे बना दिए थे। पर मक्खन तो कल ही समाप्त हो गया था। इतना दूध तो नहीं आता था कि रोज मक्खन निकलता। विपुल की बहू ने मलाई उतारकर डोंगे में रखी होगी। मां ने फ्रिज खोलकर डोंगा निकाला। आधे से ज्यादा भरा हुआ था। तीन-चार दिनों की मलाई तो होगी ही। कल-परसों शायद डोंगा लेकर भुआजी के सामने रख दिया।
भुआजी ने दोनों हाथ बढ़ाकर डोंगा थाम लिया, ‘‘अच्छा, आज मक्खन नहीं है। कोई बात नहीं, शहरों में कौन रोज मक्खन मिलता है। मलाई से ही खा लूंगी।’’
एक परांठा खाकर उन्होंने आवाज लगाई, ‘‘सरसवती ! तू भी आ जा भई, यहां ही। ननद-भरजाई इकट्ठे बैठकर खा लेंगे।’’
और मां हाथ में टोस्ट पकड़े, कटोरी लिये बाहर आ गईं।

बहू को खिसकने का अवसर मिल गया। उसने भीतर आ विपुल से कहा, ‘‘देखो जाकर, मां क्या खा रही हैं।’’
विपुल झपटकर बाहर आया। मां के हाथ में सूखे टोस्ट थे। मक्खन तो भुआजी कल ही खा चुकी थीं। और कटोरी में रात की बची शलजमों की सब्जी थी।
‘‘मां !’’ विपुल ने घटी हुई तीखी आवाज में कहा, ‘‘तुम्हें कितनी बार कहा है, रात का बचा-खुचा मत खाया करो।’’
मां ने आंखों से उसे डांट बताई, ‘‘तू छोड़ दे।’’
भुआजी ने चम्मच भर मलाई मुंह में डाली और बोलीं,‘‘कोई बात नहीं बेटा ! घर में बची-खुची चीजें भी खानी ही पड़ती हैं। सरसवती ! तू बड़ी भागवाली है भाई, जिसको ऐसे बेटे मिले हैं।’’
विपुल का मुंह क्रोध से लाल हो गया। बोला, ‘‘आप चुप रहिए भुआजी ! मैं यह नहीं देख सकता कि मेरी अपनी मां बासी सब्जियां खाए और बीमार पड़े, जबकि...’’

वह आगे नहीं बोला। उसने मां के हाथ से सूखा टोस्ट और कटोरी छीन ली थी।
‘‘बहू ने बताया होगा।’’ भुआजी ने डोंगा चाटकर साफ कर दिया था।
मां अपने् असह्य आक्रोश में रो पड़ीं। वह क्या करे, अपने बेटे का ऐसा राज, जहां वह अपने मन से अपनी ननद की सेवा भी नहीं कर सकतीं। वह तो जानती ही थीं कि उनके हाथ में कुछ नहीं है। लोग समझते हैं कि बेटे कमाते हैं तो उसे राज कराते होंगे। वह अपनी मर्जी से तो किसी को एक जून खाना भी नहीं खिला सकतीं।
मां के चेहरे पर आंसू बहते जा रहे थे-बहू भी कैसी चुगलखोर निकली। जाकर फट से खसम को बुला लाई। ये आजकल की लड़कियां सब एक-जैसी हैं। और पढ़ी-लिखी तो और भी बदतर हैं।

अभी बाबूजी को पता चलेगा तो वे बिस्तर बांधकर वापस चलने की तैयारी कर देंगे। पर तैयारी से क्या होगा। बेटे छोड़े तो नहीं जाते, जैसे भी हों। निर्वाह तो इन्हीं से करना है।...और भुआजी मेरे इसी बेटे की प्रशंसा करती नहीं अघाती थीं।
मां ने भुआजी के बर्तन उठा लिये और रसोईघर में घुस गईं। वहां वे रो तो सकेंगी; नहीं तो विपुल ने देख लिया तो नालायक रोने भी नहीं देगा।

पालतू कबूतर


वह बहुत दिनों से अपने घर से बंधा पड़ा था। घर से तात्पर्य था-पत्नी और बच्चा। घर को वह मकान के रूप में नहीं देखता था। मकान से तो उसे प्यार था और जिससे प्यार किया जाए, उससे आदमी स्वयं बंधा हुआ कैसे मान सकता है। दिल्ली में अच्छा मकान एक ऐसी लक्जरी था कि आदमी खामखाह ही उससे प्यार करने लगे !
पर प्यार तो-जैसा कि वह स्वयं समझता और मानता था, वह अपनी पत्नी और बच्चे से भी करता था। पत्नी से प्यार न करने की बात कोई स्वीकार कर भी ले, पर बच्चे से प्यार न करने की बात तो वह सैद्धांतिक धरातल पर ही स्वीकार नहीं कर पाता था। बच्चा तो अपने खून का खून, मांस का मांस था। वह बहुत भावुक हो उठता था-उससे कोई प्यार कैसे नहीं करेगा।

पर फिर भी वह अनुभव कर रहा था कि वह अपनी पत्नी और बच्चे से बंध गया है और अजीब तमाशा यह था कि पिछले तीन महीनों से पत्नी ने एक बार भी मायके हो आने की जिद नहीं की थी उसने कितनी बार सोचा था कि वह आल इंडिया विमेन कान्फ्रेंसवालियों के पास जाकर शिकायत लिखा आए कि उसकी पत्नी काफी अस्त्री टाइप की स्त्री है। उसमें भारतीय स्त्री की परंपरागत विशेषताओं में से सर्वप्रमुख विशेषता-मायके जाने की तीव्र इच्छा और जिद सिरे से नहीं है। उसने यह भी सोचा था कि वह उनसे प्रार्थना करे कि उसे पत्नी के रूप में कोई ऐसी स्त्री दी जाए, जो कम से कम हफ्ते में दो बार मायके जाने की जिद किया करे।
उसने स्वयं भी पत्नी को याद दिलाया कि वह बहुत दिनों से मायके नहीं गई है।
‘‘तो ?’’ उसकी पत्नी ने पूछा।

‘‘हो आओ।’’ वह बोला, ‘‘मिलते-जुलते रहना चाहिए। ससुराल से इतना भी क्या लगाव कि आदमी मायके जाना ही न चाहे।’’
‘‘ऐसे तो पचासों काम हैं, जिन्हें किए मुझे बहुत दिन हो गए हैं।’’ पत्नी ने कहा, ‘‘क्या वे सारे काम मुझे करने चाहिए ?’’
वह अपनी पत्नी की इस मुद्रा से बहुत डरता था। ऐसे अवसरों पर वह हमेशा ही धार्मिक किस्सों के विषय में सोचने लगता था। उसे लगता था कि वह आशुतोष देवता है और उसकी पत्नी कोई औघड़ भक्त है, जिसे वह वरदान मांगने की अनुमति दे चुका है-अब वह पता नहीं क्या मांग बैठे।
वह ऐसे अवसरों से सदा कतराता था और उसकी पत्नी उसे ऐसे ही अवसरों के लिए घेरती-घारती रहती थी।
‘‘मैं तुम्हारे मायके जाने की बात कह रहा था।’’ वह बोला
‘‘मायके जाने की बात छोड़ो।’’ वह बोली, ‘‘मैं तो सिद्धांत की बात कर रही हूं।’’
‘‘सिद्धांत की बात पत्नी से नहीं करनी चाहिए।’’ उसने कहा, ‘‘सैद्धांतिक चर्चा से प्रेम कम हो जाता है। तुमसे मेरा सम्बन्ध सैद्धान्तिक नहीं है। प्रेम में सिद्धांत नहीं होते।’’

वह जानता था कि पत्नी यह कहेगी कि उसे पिक्चर देखे हुए भी बहुत दिन हो गए हैं। इसलिए पिक्चर चलना चाहिए। पर वह तो पत्नी से ही छूटना चाहता था, उसी के साथ पिक्चर कैसे जाता !
पत्नी को किसी प्रकार बहकाकर वह उसके मायके ले गया। दोनों में अंडरस्टैंडिंग यही थी कि वह पत्नी और बच्चे को वहां छोड़कर वापस लौट आएगा। इसलिए वहां पहुंचने के बाद कोई बात डिस्कस करने की रह नहीं जाती थी, पर उसे स्वयं ही पता नहीं चला कि वहां जाकर वह अड़ क्यों गया।
‘‘तुम घर कब तक लौटोगी ?’’
‘‘कैसे लौटोगी ?’’
‘‘लौट आओगी न ?’’
‘‘तकलीफ तो नहीं होगी न ?’’ इत्यादि पचासों प्रश्न।

‘‘अरे बाबा तुझे क्या ? जब छोड़ने ही आया है तो छोड़ जा और अपना काम कर। सोचना ही था, तो पहले सोचा होता।’’
पर वह तो जैसे और अधिक ठहरने का बहाना सोच रहा था।
सामान ढोकर लानेवाला मजदूर जैसे सिर से सामान उतारकर हाथ झाड़, पैसे ले, सलाम करके भी खड़ा रहता है-‘‘सामान देख लो, बीबीजी ! नग गिन लो। देख लो, पूरा है न ! हां जी ! बाद में कोई चीज इधर-उधर हो जाए तो हमारा नाम लगे। हम और कुछ भी सह सकते हैं, बदनामी नहीं सह सकते। शरीफ आदमी जो ठहरे।’’
और वह शरीफ आदमी भी ठहरा ही रहा। हिलने का नाम ही न ले।
आखिर तंग आकर पत्नी ने कहा, ‘‘देखो यदि जाना है तो जाओ। तुम कह रहे थे कि बाजार से दो-एक चीजें भी लेनी हैं। चीजें लेनी हैं, तो अभी चले जाओ और यदि दुकानें बंद होने के बाद उनके सामने के फुटपाथ पर सोना है तो थोड़ी देर बाद चले जाना।’’

‘‘जाता हूं, भाई !’’ वह झल्ला गया। पत्नी साफ-साफ उसकी दुर्बलता का मजाक उड़ा रही थी और उसे धक्का दे रही थी। उसके बाप का घर था न, इसलिए शेर हो रही थी। पर फिर वह स्वयं ही नम्र हो गई, ‘‘मेरा मतलब है कि यदि मुझे और बच्चे को छोड़कर जाने का मन नहीं हो रहा तो तुम भी यहीं रह जाओ।’’
उसे लगा, अब यदि उसने ढील दिखाई तो बस फिर हो गया। पत्नी और बच्चे के साथ ही रहना था तो अपना ही घर क्या बुरा था। पत्नी और बच्चे का साथ और वह भी ससुराल में-इससे बुरे ग्रहों का संयोग वह सोच भी नहीं पा रहा था।
बाहर निकलकर उसने स्वयं को विश्वास दिला दिया कि अब सब कुछ नया ही नया है। दुनिया बड़ी रोमानी हो उठी। वह अकेला, साथ कोई नहीं। न उसकी पत्नी और न उसका बच्चा। न उनकी चिंता का बोझ। कितना हल्का है वह ! अकेला तो वह वैसे भी बहुत घूमता है, पर वह बात और होती है। तब वह या तो घर से दफ्तर जा रहा होता है, या दफ्तर से घर जा रहा होता है। न भी हो तो या तो कहीं काम से जा रहा होता है, या काम करके लौट रहा होता है।

पर यह बात सदा ही उसकी खोपड़ी़ पर सवार होती है कि उसका एक घर है, उस घर में उसकी पत्नी है और बच्चा है। और वे दोनों मिलकर उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं और उसे देर या सवेर उनके पास पहुंचना है। जल्दी पहुंचा तो खिच-खिच जल्दी शुरू होगी और देर से पहुंचा तो खिच-खिच जोरदार होगी।
पर आज वैसा कुछ भी नहीं था।
पत्नी और बच्चा घर पर उसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे। जल्दी जाकर क्या करना था और देर से जाने पर कोई कुछ नहीं कहेगा। शाम का आखिरी टुकड़ा उसके सामने था और फिर सारी की सारी रात ! वह चाहे तो घर जाए ही नहीं। सारी रात सड़कों पर फिर सकता था।

‘क्यों फिरा करते हैं। अकेले हम रात गए।’ वह गुनगुनाने लगा।
दो एक दिन पहले ही उसने यह गजल रेडियो पर सुनी थी। उसे अब शब्द ठीक से याद नहीं थे। जो कुछ बन पड़ा गा रहा था। वह जानता था कि ये शब्द भी गलत थे और धुन भी। पर ठीक गाना जरूरी था क्या ?
वह अपनी पत्नी से छिपाकर अपनी जेब में पचास रुपए भी ले आया था। सोचा था, जो मन में आएगा, खरीदेगा और अपनी पत्नी को बताएगा भी नहीं।
पता नहीं क्यों उसे लगने लगा था कि पत्नी से छिपाकर कोई काम करना जैसे कोई बड़ा पराक्रम का काम था।

 

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