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संचित भूख

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : क्रिएटिव बुक कम्पनी प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3344
आईएसबीएन :81-86798-13-7

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नरेन्द्र कोहली के द्वारा चुनी हुई श्रेष्ठ कहानियाँ....

Sanchit Bhookh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


संचित भूख दिसंबर 1969 ई. में और हत्यारा नवंबर 1975 में लिखी गई। शेष कहानियाँ इन दोनों की बीच की अवधि की रचनाएँ हैं।

इस समय तक मेरे जीवन में से घटनात्मकता प्रायः समाप्त हो चुकी थी, पढ़ाई, नौकरी, विवाह संतान का जन्म उनका रोग-शोक, गृहस्थी के तनाव और परेशानियाँ सामाजिक संबंध, सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दबाव, पर कुछ देख चुका था। मेरी रचना-प्रक्रिया में एक विचित्र अंतर आता जा रहा था। सृजन-प्रक्रिया के वृक्ष के तने में दो शाखाएँ उग आई थीं-व्यंग्य और उपन्यास। बीज आ जाने पर फूल झड़ जाते हैं। इन दो टहनियों के विकास में कहानी अनायास ही सूख गई थी।

मेरे सृजन-वृक्ष का तना अब भी कथा ही है। किंतु विधा के रुप में कहानी जैसे गायब हो गई। कथा तत्त्व उपन्यास में समा गया और आक्रोश व्यंग्य में। पिछले दस वर्षों में मैंने कोई कहानी नहीं लिखी। कह नहीं सकता कि भविष्य में कोई कहानी लिख पाऊँगा या नहीं। लिख पाया तो मुझे अच्छा ही लगेगा।


संचित भूख



शाम के झुटपुटे में वे दोनों तेजी से साइकिलें चलाते हुए भागे जा रहे थे।

रास्ते में कहीं कोई इक्का-दुक्का व्यक्ति मिला तो उन्हें देखकर चौंक गया। क्षण-भर उन्हें स्तब्ध दृष्टि से देख, फिर अपनी राह चला गया। उन्हें इक्के-दुक्के आदमी से डर नहीं लगता था, फिर भी वे अपनी साइकिलें तेज कर लेते थे। रास्ते में उन्हें कोई आग लगाती हुई भीड़ या हथियारबंद लोगों का झुंड नहीं मिला था। संयोग ही था कि पुलिस या मिलिट्री का कोई ट्रक भी नहीं दिखा था, नहीं तो कैंप से डिप्टी के बाग का फासला कम नहीं था।

वे ट्रकों वाले बाजार तक आ गए थे। उनकी गली अब बीस गज से अधिक नहीं थी। सहसा उन दोनों ने अपनी साइकिलें धीमी कर दीं। गोपाल ने मुड़कर बिरजू की ओर देखा और मुस्कराया।
बिरजू के चेहरे पर घबराहट घुल गई। वह काफी आश्वस्त हो गया था। असावधान वह फिर भी नहीं लग रहा था।
‘‘साइकिल की घंटी मत बजाना, गोपाल बाबू !’’ बिरजू फुसफुसाया।
‘‘क्यों ?’’ गोपाल ने अपनी घनी काली भवें ऊपर उठाईं।  
‘‘यहां कोई छिपा बैठा हो तब ?’’ बिरजू ने कहा, ‘‘आप घंटी बजाएंगे और वह अंधेरे में ही छुरा पेट के आर-पार कर देगा।’’
‘‘यहां कोई नहीं है।’’ गोपाल ने साइकिल का अगला पहिया अपनी गली की कूचाबंदी के भीतर कर दिया, ‘‘अपनी गली में क्या डर ?’’
गली के पहले घर ‘कृष्णा कॉटेज’ की ड्यौढ़ी में से सहसा कोई झपटकर निकला और उनके सामने खड़ा हो गया, ‘‘कौन हो ?’’
दोनों ने देखा, सामने खड़ा व्यक्ति कोई दंगई नहीं था। एक सैनिक बंदूक पर संगीन चढ़ाए, तना हुआ उनके सामने खड़ा था....बलोच था शायद ! हां, बलोच ही था। उसका सुर्ख कठोर चेहरा, उसके लंबे भूरे बाल, उसकी लाल टोपी फिर वह कड़कड़ाती आवाज ! हां, बलोच ही था। तो उनका मोहल्ला भी मिलिट्री के अधिकार में था।
‘‘कौन हो ?’’ उसने धमकाकर पूछा और बंदूक उठाई।
‘‘मैं गोपाल हूँ और यह बिरजू।’’ गोपाल ने थूक गटककर अपना निरर्थक परिचय दिया और उसका चेहरा ताकने लगा।
‘‘यहां क्या करने आए हो ?’’ बलोच ने पूछा। उन्हें घबराया हुआ देख उसने अपनी बंदूक नीचे कर ली थी।
गोपाल कुछ आश्वस्त हुआ....नहीं, वह उनको मारेगा नहीं। वह मिलिट्री का सिपाही था, गुंडा नहीं था।
‘‘हम अपने घर आए हैं।’’ गोपाल ने कुछ खुले गले से कहा, ‘‘गली का पांचवां मकान हमारा है।’’
‘‘अपने मकान में लौटना था तो पहले छोड़कर भागे क्यों थे ?’’ बलोच हंसा।
‘‘कल मुहल्ले पर मुसलमानों ने हमला कर दिया था।’’ गोपाल ने कहा, ‘‘दो मकानों को तो आग भी लग गई थी, इसीलिए भाग गए थे।’’
‘‘तो आज क्या करना आये हो ?’’ बलोच के स्वर में जिज्ञासा कम, व्यंग्य अधिक था।

गोपाल डरी आँखों से क्षड़ भर उसे ताकता रहा, फिर सिर झुकाकर बोला, ‘‘मेरी मां बहुत बीमार है। वह बिना बिस्तर के सो नहीं सकती। हम बिस्तर लेने आए हैं।’’
बलोच खूब जोर से हँसा, ‘‘लड़के, तुम्हारी मां को अपना बिस्तर तुम्हारी जान से ज्यादा प्यारा है। रास्ते में कोई छुरा मार दे या.....’’ वह रुका, ‘‘......कर्फ्यू में घूमने के जुर्म में मैं ही बंदूक दाग दूं तो कयामत तक बिना बिस्तर के सोए रहोगे।’’

वह अपने हाथ में बंदूक तौल रहा था।
दोनों सन्न रह गए। थोड़ी देर पहले तक की उनकी निश्चिंतता जम गई थी। बिरजू के जबड़े कस गए थे और उसके मुंह में बदमजा खट्टा-खट्टा पानी जमा होने लगा था।

और स्वयं उसे पता नहीं चला कि कब उसका निचला होंठ फैल गया। वह रो रहा था, ‘‘मैं तो नौकर हूं। गोपाल बाबू अपनी मां के लिए बिस्तर लेने आ रहे थे, मुझे भी लालाजी के साथ कर दिया कि कुछ चीजें ले आऊं।’’
‘‘नौकर !’’ बलोच ने बन्दूक फिर नीचे कर ली। और सहसा उसका स्वर बदल गया। गहरी रौबदार आवाज में वह बोला, ‘‘अच्छा, जाओ अपने मकान में। रात-भर चुपचाप भीतर पड़े रहो। अंदर से दरवाजा बंद मत करना और बाहर भी मत निकलना। कर्फ्यू लगा है। सुबह तक बचे रहे तो कर्फ्यू खुलने पर चुपचाप कैंप को लौट जाना है। और देखो, कोई सामान-वामान लेकर नहीं जाना है। सामान ले जाने से जान का खतरा है, जाकर उन बेवकूफों को समझा दो, जिन्होंने तुम्हें भेजा है।’’
वे दोनों बहुत धीरे से साइकिलें ठेलते हुए आगे बढ़ गए। बिरजू पलटकर पीछ देख रहा था, कहीं उनके आगे बढ़ते ही बलोच पीछे से गोली न मार दे। पर वैसा कुछ नहीं हुआ। बलोच अपनी जगह खड़ा चुपचाप उन्हें देखता रहा और फिर दो-तीन छलांगों में कृष्णा कॉटेज की ड्यौढ़ी में गायब हो गया।

बिरजू ने गोपाल की चिन्ता नहीं की। झपटकर उसने अपने मकान का ताला खोला और ड्यौढ़ी में जा पहुंचा।
‘‘गोपाल बाबू ! अब तुम भी इधर ही आ जाओ।’’ उसने कहा और भीतर गायब हो गया।
गोपाल उसके पीछे-पीछे भीतर चला गया। बलोच ने कहा था, कर्फ्यू में बाहर नहीं जाना है और फिर सुबह भी कोई सामान लेकर नहीं जाना है। फिर वह अपने मकान के ताले खोलकर क्या करेगा ? गली में बलोच मिलिट्री है और गली के बाहर फसादी मुसलमान !
वह अपने मकान में अकेला क्या करेगा ? दो ही तो वे जने हैं, अच्छा है कि दोनों एक ही मकान में साथ-साथ रहें।

उसने अपने पीछे आँगन का दरवाजा भिड़ा दिया। बलोच ने कहा था- दरवाजा अंदर से बंद मत करना कहीं वह देखने ही न आ जाए। उसकी बात मानने में उनकी भलाई थी, नहीं तो एक बार बंदूक दागना उसके लिए क्या मुश्किल था।

वह आंगन में आकर खड़ा हो गया।
बिरजू भी उसे देखकर बाहर निकल आया। वह शायद गुसलखाने में छिपा हुआ था। उसके चेहरे का रंग एकदम सफेद था और उसकी आँखें अभी भी फटी हुई थीं।
‘‘वह हमको मारेगा तो नहीं ?’’ उसने बहुत धीरे से पूछा।
‘‘अपनी नाक पोंछ ले, बह रही है।’’ गोपाल ने कहा।
गोपाल धीरे-धीरे चलता हुआ ड्राइंग रूप में चला गया। यह लालजी की बैठक थी। उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों की तसवीरें बड़े समारोह से दीवारों पर टांग रखी थीं।
‘‘गोपाल बाबू ! वह.....’’
उसने बिरजू को देखा। वह भी उसके पीछे-पीछे ड्राइंग रूम में आ गया था और शायद अब भी जानना चाहता था कि बलोच सिपाही उन्हें मारेगा तो नहीं !
गोपाल उसे पिछले दो वर्षों से देख रहा था, जब से वह लालजी के घर नौकर हुआ था। पर शायद उसने इतने ध्यान से कभी भी नहीं देखा था, बारह-चौदह वर्षों का यह पहाड़ी लड़का साफ-सुथरे कपड़े पहनता तो शायद सुंदर कहलाता। रंग उसका गोरा था, नाक तीखी थी, उठी हुई और पता नहीं उसकी आँखों का रंग हल्का नीला कैसे था। इस समय वह डरे हुए चूजे के समान उसके पीछे-पीछे मंडरा रहा था।

‘‘देख बिरजू !’’ गोपाल ने कुछ स्थिर स्वर में कहा, हमें रात यहीं काटनी है, तू जानता है। फिर भूखे तो नहीं रह जाएगा। कुछ खाना-वाना पका और बलोच की बंदूक को भूल जा।’’
‘‘खाना !’’ बिरजू ने नाक से सडूं किया और आंखें उल्टी हथेली से पोंछ डालीं, ‘‘कैंप में चलकर बना दूँगा। गोपाल बाबू, पहले यहां से निकलो।’’ वह बहुत दीन हो गया था, ‘‘मुझे उस बलोच से बहुत डर लगता है।’’
‘‘देख बिरजू !’’ गोपाल ने उसे समझाया, ‘‘डरने से काम नहीं चलेगा। रात को हमें यहां रहना ही है। रात भर टिके रहे तो सवेरे बचकर निकल जाएं। रात को निकलने की कोशिश की तो बस ठायं !’’

‘‘ठायं !’’ बिरजू के मुंह से अनायास निकला। उसकी आंखें जैसे फट-सी पड़ीं और वह गिरने के-से अंदाज में जमीन पर बैठ गया। उसके चेहरे पर इस मौसम में भी पसीने की बूँदे उभर आई थीं। वह बदहवास-सा गोपाल को अपनी फटी आँखों से घूरे जा रहा था।

गोपाल उसकी हालत देखकर परेशान हो गया था। वह पहले ही कम चिंतित नहीं था। यह पता चलने पर कि दो हिन्दू अभी भी इस मकान में हैं......कोई भी आकर इस मकान पर मिट्टी का तेल या पेट्रोल छिड़ककर आग लगा सकता था। मकान को आग न भी लगे तो भी उसके लिए छुरे का एक हाथ ही पर्याप्त था। या फिर बलोच सिपाही की गोली....उसने कहा था, अगर सवेरे तक बचे तो......पता नहीं सवेरे तक बचना है या नहीं ! और ऊपर से बिरजू की हालत.....!

कल रात जब मुहल्ले पर एक बड़ी भीड़ ने हमला कर दिया था तो मुहल्ले की सुरक्षा-समिति का सारा प्रबंध क्षण में ही छिन्न-भिन्न हो गया था। भीड़ के एक दहाड़ते हुए नारे ‘अल्लाहो अकबर’ के उत्तर में सुरक्षा-समिति के स्वयंसेवकों ने बहुत डरे हुए स्वर में ‘जय बजरंगबली’ कहा था। पर लड़ाई नहीं हो सकी थी। दो मकानों को आग लगी और लोग भाग खड़े हुए।
उस समय शायद किसी ने भी कोई सामान साथ नहीं लिया था। सबको अपनी-अपनी जान की पड़ी थी, सामान की कौन सोचता ! तब वह स्वयं कैसे अपनी बीमार मां के साथ कैंप तक पहुंचा था, उसे याद नहीं है। सारी-की-सारी रात भाग-दौड़ में कट गई थी। पर सवेरे से जब कैंप में कुछ स्थिरता आई और डोगरा मिलिट्री के पहरे में उन लोगों में सुरक्षा की भावना आई, तब से उसके मन में यह चिंता घर कर गई थी।

मां पिछले पाँच वर्षों से बीमार चली आ रही थी। उसे कैंप में मिलिट्रीवालों की दी हुई केवल एक दरी बिछाकर सुलाने से क्या यह अच्छा नहीं था कि वह उसके घर पर ही छोड़ आता। जब तक जीती, आराम से रहती है फिर किसी दंगई के हाथों मारी जाती।

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