लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> पुराणों की कथाएं

पुराणों की कथाएं

महेश शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 335
आईएसबीएन :81-288-027-7

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

731 पाठक हैं

पुराणों से ली गयी ज्ञानवर्धक कहानियाँ ...

Puranon Ki Kathayein - A Hindi Book by - Mahesh Sharma पुराणों की कथाएं - महेश शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कथा-कहानियाँ हमारा मनोरंजन तो करती ही हैं साथ ही ज्ञानवर्धन भी कराती हैं। यही कारण है कि हमारी संस्कृति में कथा-कहानियों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन ऋषि-मुनि अपने शिष्यों को काव्यात्मक तथा कथात्मक शिक्षा प्रदान करते थे ताकि प्रदत्त शिक्षा को शिष्य सरलता से आत्मसात् कर सके। वैसे ही पुराणों की कथाएं भी प्राचीन शिक्षा और संस्कृति की थाती हैं, जिसका अनुसरण कर प्रत्येक व्यक्ति गर्व का अनुभव करता है। यह कथाएं ज्ञान, संदेश, नीति, शिक्षा, विज्ञान, मनोरंजन और प्राचीन परम्पराओं का खजाना है, ऐसा खजाना जो सभी के लिए सुलभ है-कोई कितना भी इसका फायदा उठाये यह कभी खत्म नहीं हो सकता।

भगवान विष्णु योगनिद्रा में अचेत-से पड़े हैं। जब उन्हें जगाने के लिए देवताओं द्वारा किए गए सभी प्रयास विफल हो गए तब ब्रह्माजी ने वम्री नामक एक कृमि (कीड़ा) उत्पन्न किया। ब्रह्माजी के आदेश पर उस कृमि में धनुष की डोरी काट दी। धनुष की डोरी कटते ही ब्रह्माण्ड को हिला देने वाला एक भयंकर धमाका हुआ और चारों ओर अंधकार छा गया। समस्त देवता भयभीत हो उठे। कुछ समय बाद जब अंधकार छँटा तो सभी देवता आवाक रह गए।। श्रीविष्णु के सिर कटकर न जाने कहाँ अदृश्य हो गया था। वहाँ उनका केवल धड़ ही शेष था।
इसी पुस्तक से

अपनी बात

वेद और पुराण हिन्दू धर्म की अमूल्य निधि हैं। हमारा जीवन इन्हीं की शिक्षाओं और मार्ग दर्शन पर आधारित है। जन्म से लेकर मृत्यु तक के हमारे समस्त संस्कार वेदों और पुराणों के दिग्दर्शन पर आधारित होते हैं। इनमें ज्ञान, शिक्षा और साथ ही मनोरंजन का अक्षुण्ण स्रोत प्रवाहित है। यही कारण है कि इनकी ओर सभी लोग सहज ही आकृष्ट हो जाते हैं। प्रमुख पुराणों की संख्या अठारह कही गई है। इनमें विभिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं, जीवों आदि को माध्यम बनाकर शिक्षा और ज्ञान की महत्ता बताई गई है। गुण और अवगुण में भेद स्पष्ट करने के लिए पुराणाकार ने कथा के पात्रों को दोनों प्रकार का दर्शाया है—अच्छा भी और बुरा भी। लेकिन सांकेतिक भाषा में उसने केवल अच्छाइयों को ही ग्रहण करने पर ज़ोर दिया है। पुराण इतने हैं कि पढ़ना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर हमने इनके सार-संक्षेप के रूप में ‘पौराणिक कथाएँ’ नामक यह पुस्तक प्रस्तुत की है, जिसमें विभिन्न पुराणों से रोचक और शिक्षाप्रद कहानियाँ ली गयी हैं। ये कहानियाँ प्रेरक तो हैं ही, पुराणों के प्रति हमारी जिज्ञासा को भी निश्चित ही शांत करती हैं। अनेक कहानियाँ तो इतनी पारंपरिक और लोकप्रिय हैं; जिनका हम वर्षों से लोकनाटकों, सिनेमाघरों, हमारी पाठ्य पुस्तकों, स्थानीय संस्कृतियों आदि के माध्यम से रसास्वादन करते आ रहे हैं। दादा-दादी और नाना-नानी भी इनमें से अनेक पौराणिक कथाओं के माध्यम से बच्चों का मनोरंजन करते आ रहे हैं।

संक्षेप में इतना है कहा जा सकता है कि पौराणिक कथाएँ ‘गागर में सागर’ की भांति होती हैं जो स्वयं में अनंत ज्ञान को समेटे होती हैं और इस ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के उद्देश्य से ही इस पुस्तक का सृजन किया गया है। आशा है, हमारे पाठकों को यह पुस्तक अवश्य ही रुचिकर लगेगी। अपने सुझावों से अवश्य ही अवगत कराएँ।

-महेश शर्मा

राजा पृथु


प्राचीन समय की बात है, विष्णु-भक्त ध्रुव के वंश में अंग नामक राजा हुए। वे बड़े धर्मात्मा और प्रजा-प्रिय थे। वृद्धावस्था में वे राजपाट त्याग कर तपस्या करने वन में चले गए। भृगु आदि मुनियों ने जब देखा कि उनके जाने के बाद पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं बचा है, तब उनहोंने उनके पुत्र वेन का राज्यभिषेक कर दिया। राजा बनते ही वेन अपने बलऔर ऐश्वर्य के मद में चूर हो गया। उसने राज्य में घोषणा करवा दी कि ऋषि मुनि किसी भी प्रकार का यज्ञ और हवन न करें। जो राजाज्ञा का उल्लंघन करेंगे उन्हें दण्डित किया जाएगा। उसके भय से चारों ओर धर्म-कर्म बंद हो गए।

धर्म-संबंधी कार्य में विघ्न उत्पन्न होने पर सभी ऋषि-मुनि एकत्रित होकर राजा वेन के पास गए और उनसे विनम्र स्वर में बोले- ‘‘राजन ! कृपया हमारी बात ध्यानपूर्वक सुनें। इससे आपकी आयु, बल और यश में वृद्धि होगी। राजन ! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का पालन करे तो उसे स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और यदि वह निष्काम भाव से धर्म का पालन करे तो मोक्ष का अधिकारी बनता है। अतः प्रजा का धर्म आप द्वारा नष्ट नहीं होना चाहिए। धर्म नष्ट होने पर राजा नष्ट हो जाता है। राजन ! आपके राज्य में जो यज्ञ और हवन आदि होंगे, उनसे देवता भी प्रसन्न होकर, आपको इच्छित वर प्रदान करेंगे। अतएव आपको यज्ञादि अनुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।’’

दुष्ट वेन अहंकार भरे स्वर में बोला—‘‘मुनियों ! तुम बड़े मूर्ख हो। तुमने सारा ज्ञान त्यागकर अधर्म में अपनी बुद्धि लिप्त कर रखी है। तभी तो तुम अपने पालन करने वाले मुझ प्रत्यक्ष ईश्वर को छोड़कर किसी दूसरे ईश्वर की पूजा-अर्चना करना चाहते हो, जो तुम्हारे लिए कल्पित है। जो लोग मूर्खतावश अपने राज-रूपी परमेश्वर का अपमान करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और न ही परलोक में। देवगण राजा के शरीर में ही वास करते हैं। इसलिए तुम मेरा ही पूजन करो और मुझे ही यज्ञ का भाग अर्पित करो।’’ अहंकार के कारण वेन की बुद्धि पूर्णतः भ्रष्ट हो गई थी। वह अत्यंत क्रूर, अन्यायी, अधर्मी और कुमार्गी हो गया था। इसलिए ऋषि-मुनियों की विनीत प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया।
उसके पापयुक्त शब्द शुनकर मुनिगण क्रोधित होकर बोले—‘‘वेन ! तू बड़ा अधर्मी और पापी है। यदि तू जीवित रहा तो कुछ ही दिनों में इस सृष्टि को नष्ट कर देगा। जिन भगवान विष्णु की कृपा से तुझे पृथ्वी का राज्य प्राप्त हुआ है, तू उन्हीं परब्रह्म का अपमान कर रहा है। जगत् के कल्याण के लिए तेरा मरना ही उचित है।’’

इस प्रकार उन्होंने दुष्ट वेन को मारने का निश्चय कर उस पर प्रहार करने आरम्भ कर दिए। फिर शीघ्र ही उन्होंने उसका काम तमाम कर दिया और अपने आश्रमों को लौट गए। इधर वेन की माता मोहवश अपने पुत्र के मृत शरीर की रक्षा करने लगी। वेन की मृत्यु के पश्चात् राज्य में चोरो-डाकुओं का अतंक बढ़ गया।
एक दिन सरस्वती नदी के तट पर कुछ मुनिगण बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे। तभी डाकुओं का एक दल उधर से निकला। उन्हें देखकर मुनिगण सोच में पड़ गए। उनके मन में एक ही विचार उत्पन्न होने लगा-‘‘वेन के मरते ही राज् में अराजकता फैल गई है। राज्य में चोर डाकू बढ़ गए हैं, जो निर्दोष प्रजा को लूट रहे हैं। यद्यपि ऋषि-मुनि शांत स्वभाव के होते हैं, तथापि दीनों की उपेक्षा करने से उनका तप क्षण भर में ही क्षीण हो जाता है। राजा अंग का वंश नष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें अनेक पराक्रमी और धर्मात्मा राजा हो चुके हैं। इसलिए हमें उनका उत्तराधिकारी अवश्य उत्पन्न करना होगा, जो अपने पुरुषार्थ से प्रजा की रक्षा कर सके।’

तब उन्होंने आपस में विचार कर राज्य के उत्तराधिकारी के लिए वेन की जँघा को बड़े जोर से मथा तो उसमें से एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। उसका रंग काला था उसके सभी अंग टेढ़े-मेढ़े और छोटे थे। उसने जन्म लेते ही राजा वेन के सभी भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया। बाद में, वह और उसके वंशधर वन और पर्वतों में रहनेवाले ‘निषाद’ कहलाए। इसके बाद मुनियों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया। उसमें से दिव्य स्वरूप धारण किए स्त्री-पुरुष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। उस पुरुष के दाहिने हाथ में भगवान विष्णु के हस्तरेखाएँ और चरणों में कमल का चिह्न अंकित देखकर उन्होंने उसे भगवान विष्णु का ही अंश समझा।

मुनिगण प्रसन्न होकर बोले—‘‘यह पुरुष भगवान नारायण की कला से प्रकट हुआ है और यह स्त्री साक्षात् लक्ष्मी का अवतार है। यह दिव्य पुरुष अपने सुयश का विस्तार करने के कारण संसार में पृथु के नाम से प्रसिद्ध होगा। सुंदर वस्त्राभूषणों से अलंकृत यह अतीव सुंदर स्त्री इसकी पत्नी अर्चि होगी। पृथु के रूप में स्वयं भगवान विष्णु ने संसार की रक्षा के लिए लक्ष्मीरूपा अर्चि के साथ अवतार लिया है।’’

महात्मा पृथु जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर अपने शुभ-कर्मों द्वारा पापी वेन को नरक से छुड़ा दिया। तत्पश्चात् ऋषियों-मुनियों ने पृथु के राज्यभिषेक का आयोजन किया। इस शुभ अवसर पर समस्त देवगण उपस्थित हुए। भगवान विष्णु ने पृथु को अपना सुदर्शन चक्र, ब्रह्माजी ने वेदमयी कवच, भगवान शिव ने दस चक्रकार चिह्नों वाली दिव्य तलवार, वायुदेव ने दो चँवर, धर्म ने कीर्तिमयी माला, देवराज इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यमराज ने कालदण्ड, अग्निदेव ने दिव्य धनुष और कुबेर ने सोने का राजसिंहासन भेट किया।

जब मुनिगण पृथु की स्तुति करने लगे, तब पृथु बोले—‘‘मान्यवरों ! अभी इस लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ है, फिर आप किन गुणों के लिए मेरी स्तुति करेंगे ? आप केवल परब्रह्म परमात्मा की ही स्तुति करें। भगवान विष्णु के रहते तुच्छ मनुष्यों की स्तुति नहीं करते। इसलिए आप कृपया मेरी स्तुति न करें।’’ उनकी बात सुन सभी ऋषि-मुनि आत्मविभोर हो गए। तब पृथु ने उन्हें अभिलषित वस्तुएँ देकर संतुष्ट किया। वे सभी राजा पृथु को आशीर्वाद देने लगे। जब ऋषि-मुनियों ने पृथु का राज्याभिषेक किया, उन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, प्रजाजन के शरीर अन्न के अभाव में दुर्बल हो गए थे। उन्होंने राजा पृथु से सहायता की विनती की।

प्रजाजन की करुण विनती सुनकर पृथु का मन करुणा से द्रवित हो गया। कुछ देर विचार करके उन्हें पृथ्वी के अन्नहीन होने का कारण ज्ञात हो गया। वे जान गए कि पृथ्वी ने सभी प्रकार के अन्न तथा औषधियों को अपने गर्भ में छिपा लिया है। तब उन्होंने क्रोधित होकर धनुष उठाया और पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर बाण चलाने के लिए उद्यत हो गए। उन्हें बाण चढ़ाए देखकर पृथ्वी अपने प्राण बचाने के लिए गाय का रूप रख कर भागने लगी।
पृथ्वी को गाय-रूप में भागते देख क्रोधित पृथु ने उसका पीछा करने लगे। वह प्राण बचाते हुए जिस-जिस स्थान पर जाती, वहीं-वहीं उसे राजा पृथु हाथ में धनुष बाण लिए दिखाई देते।

जब उसे कहीं भी शरण नहीं मिली तो वह भयभीत होकर उन्हीं की शरण में आई और बोली—‘‘महाराज ! आप सभी प्राणियों की रक्षा करने को सदा तत्पर रहते हैं, फिर मुझ दीन-हीन और निरपराधिनी को क्यों मारना चाहते हैं ? आप धर्मज्ञ हैं, आप क्या आपका क्षत्रिय धर्म एक स्त्री का वध करने का अनुमति देगा ? स्त्रियाँ कोई अपराध करें तो साधाण जीव भी उन पर हाथ नहीं उठाते, फिर आप जैसे करुणामय और दीन-वत्सल ऐसा कैसे कर सकते हैं ? फिर सोचें की मेरा वध करने के बाद आप अपनी प्रजा को कहाँ रखेंगे ?’’
तब पृथु बोले—‘‘पृथ्वी ! तुमने यज्ञों का भाग लेकर भी प्रजा को अन्न नहीं दिया, इसलिए आज मैं तुम्हें समाप्त कर दूँगा। तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुमने ब्रह्मा जी द्वारा उतपन्न किए गए अन्नादि बीजों को अपने गर्भ में छिपा लिया है और उन्हें न निकाल कर अनेक जीवों की हत्या कर रही हो। जो केवल अपना पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो—उसका वध शास्त्रों में तर्कसंगत है। अब मैं तुम्हारे गर्भ को अपने बाणों से छिन्न-भिन्न कर दूँगा और प्रजाजन की क्षुधा शांत कर योगबल से उन्हें धारण करूँगा।’’

क्रोध की तीव्रता से राजा पृथु उस समय साक्षात् काल के समान दिखाई पड़ रहे थे। उनके भयंकर रूप को देखकर पृथ्वी करुण स्वर में उनकी स्तुति करती हुई बोली—‘‘राजन ! ब्रह्माजी ने जिस अन्नादि को उत्पन्न किया था, उसे केवल दुराचारी मनुष्य ही खा रहे थे। अनेक राजाओं ने मेरा आदर करना छोड़ दिया था, इसलिए मैंने अन्न को अपने गर्भ में छिपा लिया। यदि आप वह अन्न प्राप्त करना चाहते हैं तो मेरे योग्य एक बछड़ा, दोहन पात्र और दुहनेवाले की व्यवस्था कीजिए। मैं दूध के रूप में आपको वे पदार्थ प्रदान कर दूँगी। एक बात और राजन ! आप मुझे समतल कर दें। जिससे कि मेरे ऊपर इन्द्र द्वारा बरसाया गया जल वर्ष भर बना रहे। यह आप सभी के लिए मंगलकारक होग।’’तब पृथु ने स्वयंभू मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथों से ही पृथ्वी का सारा दुग्ध दुह लिया। फिर उन्होंने अपने धनुष की नोक से पर्वतों को तोड़कर पृथ्वी को समतल कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने पृथ्वी को अपनी पुत्री रूप में स्वीकार किया। दैत्य मधु-कैटभ के मेद से निर्मित होने के कारण पृथ्वी को पहले मोदिनी कहा जाता था, किंतु राजा पृथु की पुत्री बनने के बाद यह पृथ्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार राजा पृथु ने पृथ्वी का मनोरथ सिद्ध करते हुए अपनी प्रजा की रक्षा की।


उतथ्य



कौशल देश में देवदत्त नाम का एक विख्यात ब्राह्मण रहता था। देवदत्त का विवाह रोहिणी नामक एक सुंदर कन्या से सम्पन्न हुआ। किंतु अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी देवदत्त के कोई संतान नहीं हुई। इस तारण वह सदैव दुःखी रहता था। एक बार देवदत्त के हृदय में पुत्रेष्टि यज्ञ करने का विचार उत्पन्न हुआ। उन्होंने शीघ्र ही तमसा नदी के तट पर एक विशाल यज्ञ-मण्डप का निर्माण करवाया। यज्ञ सम्पन्न कराने के लिए उसने सुहोत्र, यज्ञवल्क्य, बृहस्पति, पैल, गोभिल आदि ऋषियों को आमंत्रित किया। निश्चित समय पर यज्ञ का शुभारम्भ हुआ।

यज्ञ-वेदी पर ऋषि गोभिल सामवेद का गान करते हुए रथन्तर मंत्र का उच्चारण कर रहे थे। तभी मंत्रोच्चारण करते समय उनका स्वर भंग हो गया। इससे देवदत्त कुपित होकर गोभिल ऋषि से बोला—‘‘हे मुनिवर ! आप बड़े ज्ञानी हैं। मैं यह यज्ञ पुत्र-प्राप्ति के लिए कर रहा हूँ और आपने इस सकाम यज्ञ में स्वरहीन मंत्र का उच्चारण कर दिया। आप जैसे ज्ञानी ऋषि को यह शोभा नहीं देता।’’

देवदत्त के कटु वचन सुनकर गोभिल ऋषि क्रोधित होते हुए बोले—‘‘दुष्ट ! प्रत्येक प्राणी के शरीर में श्वास आते-जाते हैं। स्वर का भंग होना इसी का परिणाम है। इसमें किसी का भी दोष नहीं होता। तुमने बिना सोचे-विचारे कटु वचनों का प्रयोग किया है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम्हारे घर उत्पन्न होने वाला पुत्र महामूर्ख और हठी होगा।’’गोभिल के शाप से देवदत्त भयभीत हो गया और उनसे क्षमा माँगते हुए बोला —‘‘ऋषिवर ! मेरे अपराध को क्षमा करें। पुत्र के अभाव ने मुझे अत्यंत विचलित कर दिया था। मैं अज्ञानी यह भूल गया था कि यज्ञ के लिए आए ऋषिगण साक्षात् देवस्वरूप होते हैं। ऋषिवर ! मुझे पर दया करें। मूर्ख प्राणी का इस संसार में कोई अस्तित्व नहीं होता। जीवन में उसे ज्ञान, मान, सम्मान, धन और वैभव कदापि प्राप्त नहीं होते। हे मुनिवर ! आप तो महान तपस्वी हैं। अज्ञानियों का उद्धार करना ही आपका कार्य है। कृपा करके आप मेरा भी इस शाप से उद्धार करें।’’ यह कहकर देवदत्त गोभिल ऋषि के चरणों में गिरकर अपने आँसुओं से उनके चरण धोने लगा। देवदत्त की निर्मल प्रार्थना से गोभिल ऋषि का क्रोध शांत हो गया और वे बोले—‘‘वत्स ! मुख से निकले वचन कभी वापस नहीं आते। जो शाप मैं दे चुका हूँ, वह तो सिद्ध होगा ही। किंतु मैं तुम्हें यह आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हारा पुत्र महामूर्ख होकर फिर विद्वान हो जाएगा।’’ ऋषि से यह वर प्राप्त कर देवदत्त अति प्रसन्न हुआ। तत्त पश्चात् पूर्ण यज्ञ किया गया। सभी उपस्थित ऋषि-मुनि विधिपूर्वक विदा हुए।

उचित समय के पश्चात् यज्ञ-फल के रूप में रोहिणी ने रोहिणी नक्षत्र में ही सुंदर बालक को जन्म दिया। मनोरथ सिद्ध होने पर देवदत्त ने निर्धनों को धन, अन्न और वस्त्रों का दान किया। उस बालक का नाम उतथ्य रखा गया।
कुछ बड़ा होने पर उतथ्य की शिक्षा आरम्भ हुई। गुरु उतथ्य को पढ़ाने लगे, किंतु उतथ्य एक भी शब्द का उच्चारण न कर सका। इस प्रकार बारह वर्ष व्यतीत हो गए थे। उतथ्य पहले के समान ही मूर्ख रहा। आस-पास के सभी गाँवों में यह प्रचलित हो गया कि देवदत्त जैसे  महान विद्वान का पुत्र महामूर्ख है। सभी लोग उसका उपहास करने लगे। इससे उतथ्य के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह सबकुछ त्यागकर वन में चला गया।

वन में उतथ्य ने गंगा के तट के निकट पर्णकुटी बनाई और कंद-मूल खाकर ब्रह्मचर्य का पालन करने लगा। उसने यह नियम बना लिया कि वह कभी झूठ नहीं बोलेगा। सत्यव्रत का पालन करते हुए उतथ्य ने चौदह वर्ष बिता दिए। इन चौदह वर्षों में उसने न तो कोई उपासना की और न ही कोई मंत्र जपा अथवा विद्या प्राप्त की। किंतु यह बात चारों ओर फैल गई कि मुनि उतथ्य सत्यव्रत का पालन करते हैं। उनके मुख से निकली वाणी मिथ्या नहीं होती। इस प्रकार उस का नाम उतथ्य के स्थान पर सत्यव्रत पड़ गया।

एक बार एक शिकारी शिकार खेलने के उद्देश्य से वन में आया। वन में घूमते हुए उसकी दृष्टि एक वराह (सूअर) पर पड़ी। उसने शीघ्र ही बाण चलकर वराह को घायल कर दिया। बाण लगने से वराह भयभीत होकर, अपने प्राण बचाने के लिए उतथ्य की कुटिया के निकट झाड़ी में छिप गया।

घायल वराह को देखकर उतथ्य का हृदय दया से भर गया। इसके फलस्वरूप उसके मुख से ‘ऐ’ शब्द का उच्चारण हो गया। उतथ्य ने यह सारस्वत बीज मंत्र न तो कभी सुना था और न ही कभी इसकी उच्चारण किया था। यह बीज मंत्र अनजाने ही उसके मुख से निकल गया था। इस बीज मंत्र के उच्चारण-मात्र से ही भगवती जगदम्बा प्रसन्न हो गईं और उन्होंने उतथ्य को दुर्लभ विद्या प्रदान की। माता जगदम्बा की कृपा से मूर्ख उतथ्य पल भर में ही सभी विद्याओं का ज्ञाता हो गया।
तभी वराह का पीछा करते हुए वह शिकारी वहाँ आ पहुँचा। शिकारी ने देखा कि सामने उतथ्य आसन पर बैठा है। शिकारी ने सिर झुकाकर उतथ्य को प्रणाम किया और उससे वराह के बारे में पूछा।

उतथ्य धर्मसंकट में फँस गया। उसने सोचा कि यदि सत्य बोलता है तो शिकारी वराह को मार डालेगा और यदि असत्य बोलता है तो उसका सत्यव्रत टूट जाएगा। अंत में ज्ञानवान् उतथ्य बोला—‘‘हे व्याध ! मैंने जिन आँखों से देखा है, वे बोल नहीं सकतीं और जो जिह्वा बोल सकती है, उसने वराह को नहीं देखा। इसलिए मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर किस प्रकार दूँ ?’’ उतथ्य की बात सुनकर शिकारी निराश होकर वहाँ से लौट गया।

भगवती जगदम्बा की कृपा-दृष्टि पड़ने से उतथ्य वाल्मीकि के समान एक महान कवि और विद्वान बन गया। उसकी विद्वता की आभा चारों ओर फैलने लगी। यज्ञों  और अन्य धार्मिक उत्सवों में उसका यश गाया जाने लगा। उसकी कीर्ति सुनकर उसका पिता देवदत्त वन में गया और उसे मनाकर वापस घर ले आया। माता भगवती के आशीर्वाद से मूर्ख उतथ्य को ज्ञान, मान, सम्मान और वैभव की प्राप्ति हुई।

समुद्र मंथन


एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आशीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया।
इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गईं। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्माजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्माजी बोले —‘‘देवेन्द्र ! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रुष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हें पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा-दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’

इस प्रकार ब्रह्माजी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्म भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले—‘‘भगवान् ! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम। भगवान् ! हम सब जिस उद्देश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’

भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले—‘‘देवगण ! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हें समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण ! वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।

समुद्र मंथन के लिए समुद्र में मंदराचल को स्थापित कर वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया। तत्पश्चात दोनों पक्ष अमृत-प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने लगे। अमृत पाने की इच्छा से सभी बड़े जोश और वेग से मंथन कर रहे थे। सहसा तभी समुद्र में से कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएँ जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया।  


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book