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कोई तो

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :295
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3377
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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इस उपन्यास में लेखक ने मध्यमवर्गीय नैतिकता के प्रश्न को उठाने का वर्णन किया है....

Koi To

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इस उपन्यास में लेखक ने मध्यवर्गीय नैतिकता के प्रश्न को उठाना चाहा है। मध्यवर्ग बृहतर समाज का एक छोटा-सा अंग है लगभग 20 प्रतिशत जबकि निम्न वर्ग है लगभग 75 प्रतिशत और 5 शेष प्रतिशत में वे लोग हैं जो सत्ता के शीर्ष पर है, वह चाहे धन की हो या शासन की या धर्म की लेकिन सम्पूर्ण समाज में जो नीति-नियम, विधि-विधान चलते हैं सब मध्य वर्ग के ही होते हैं। वही वर्ग करणीय और अकरणीय की सीमा रेखा निर्धारित करता है और सभ्यता तथा संस्कृति के मानदण्ड स्थापित करता है। हर क्षेत्र में नेतृत्व भी प्रायः उसी वर्ग से आता है जिसका बड़ा अंश कालान्तर से उच्च वर्ग में सामिल हो जाता है।

निरवधि काल में मूल्य स्थिर नहीं रह सकते पर मध्यवर्ग नैतिकता के आशंकित भय के कारण उन मूल्यों में जरा भी परिवर्तन स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। ऐसी स्थिति में जो सड़ांध पैदा होती है उसकी एक झलक दिखाने की चेष्टा लेखक ने ‘कोई तो’ में की है।

कैसे अपवाद फैलते हैं और फिर वे अपवाद नये भय को जन्म देते हैं और भय घुटन को। इस प्रकार नये अपराधों की भूमिका तैयार होती रहती है और मनुष्य दुर्बल होता रहता है। यही शापित जीवन मध्यवर्ग की नियति बन गया है।
‘कोई तो’ में बार-बार यह प्रश्न उभरा है कि क्या कोई इस स्थिति से मुक्ति नहीं दिला सकता ? ‘कोई तो’ दिलायेगा ही। वह ‘कोई तो’ हर व्यक्ति स्वयं है, इस संकेत के साथ उपन्यास समाप्त होता है।

विष्णु प्रभाकर हिन्दी की कहानी, उपन्यस तथा नाटक के क्षेत्र में विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठत हैं। हाल ही में प्रसिद्ध बंगला उपन्यासकार शरच्चन्द्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ के कृतित्व ने विष्णु जी को भारत के महान जीवनीकार के रूप में प्रस्तुत किया है।

इसके बाद ‘कोई तो’ विष्णु जी की अत्यन्त महत्वपूर्ण औपन्यासिक कृति है। पाँच वर्षों की निरन्तर सृजन-प्रक्रिया की एक विशिष्ट उपलब्धि के रूप में।

पूर्व पीठिका
1


वह सुविधा नहीं है। उसका नाम सुविधा है।
वह नारी नहीं है। उसका शरीर नारी है।
वह वयस्का नहीं है। उसकी आयु सत्रह वर्ष नौ महीने है।
अर्थात् तीन महीने कम है।
अर्थात् वह तीन महीने तक कुछ भी करने को स्वतन्त्र नहीं है।
यही उसके जीवन की त्रासदी है। उसने करणीय और अकरणीय की सीमा-रेखा को अस्वीकार कर दिया। वह सोच नहीं पायी कि ईसा की बीसवीं सदी के आठवें दशक में भी उसके लिए वह कुछ अकरणीय है जो उसने किया।
क्या किया उसने ? उसने साहस किया कि जहाँ वह जाना चाहे अपनी इच्छा से अकेले जा सके।
क्या सचमुच उसने यह साहस किया ?
नहीं, यह साहस किया एक सत्रह वर्ष नौ महीने की लड़की ने। उसका नाम कुछ भी हो सकता है। नाम कोई अर्थ नहीं रखता। वह मात्र एक सुविधा है। तब लड़की का नाम सुविधा हो सकता है।
सुविधा की कहानी मसूरी से आरम्भ होती है।

2



सुविधा ने अचानक एक दिन अपनी बुआ से कहा, ‘‘ओ माँ ! मैं भूल गयी। एक हफ़्ते में इंटर का फ़ार्म भर देना है। सो मुझे आज ग्वालियर जाना होगा।’’
‘‘आज ?’’ बुआ ने अचकचाकर कहा।
‘‘हाँ, आज। किसी अफ़सर या प्रिंसिपल के हस्ताक्षर करवाने हैं न।’’
‘‘लेकिन अकेली कैसे जायेगी ?’’
‘‘यहाँ से देहरादून बस से। देहरादून से गाड़ी में बैठकर सवेरे दिल्ली। वहाँ से सवेरे नौ बजे गाड़ी चलती है जो दो बजे ग्वालियर पहुँचा देती है।’’
बुआ हँस आई। बोली, ‘‘अरी, यह तो मैं जानती हूँ, पर क्या तू समझती है मैं तुझे अकेले जाने दे सकती हूँ !’’
‘‘क्यों नहीं जाने दे सकती, क्या मैं बच्ची हूँ ?’’
‘‘बच्ची नहीं है, इसीलिए तो। अब बहस करने की जरूरत नहीं है। एक-दो दिन में कोई उधर जाने वाले मिल जायेगा तो भेज दूँगी।’’

बहस की इजाज़त नहीं है लेकिन सुविधा उद्धिग्न है। कह बैठती है, ‘‘बुआ ! फ़ार्म समय पर नहीं गया तो....।’’
प्रगट में कुछ नहीं कहा बुआ ने, मन-ही-मन सोचा-फ़ार्म नहीं गया तो केवल एक साल बेकार जायेगा लेकिन अकेले जाने पर कोई दुर्घटना हो गयी तो सात जन्म बिगड़ जायेंगे।
लेकिन संध्या बीतते न बीतते उन्हें याद आया कि सुविधा के हैड-मास्टर पिता के साथ मिडिल स्कूल में जो शेख जान मोहम्मद काम करते हैं उनका बेटा असद किसी काम से मसूरी आया हुआ है, वह कल वापिस जा रहा है। बुआ ने कहा, ‘‘सुविधा, तू असद के साथ चली जा। वह भी कल जा रहा है।’’
सुविधा ने खुश होकर कहा, ‘‘सो तो जाऊँगी ही। मैंने सोच लिया था।’’
असद बहुत सीधा लड़का है, शर्मीला भी, बोलता है तो जैसे माधुर्य झरता हो। इसीलिए सुविधा के परिवार में उसकी बहुत साख है।

अगले दिन सुविधा और असद दोनों शुभ मुहूर्त में बस द्वारा देहरादून के लिए रवाना हुए। बुआ ने बार-बार ताक़ीद करके असद से कहा, ‘‘इसका ध्यान रखना, बेटे ! इधर-उधर न भटक जाए। दिल्ली तो जंगल है। भीड़-सी-भीड़ ही होती है वहाँ ! ना बाबा, तू तो मरद बच्चा है, यह ठहरी औरतजात...।’’
एक क्षण के लिए असद ने कुछ कहना चाहा, पर सुविधा के चेहरे पर प्रफुल्लता देखकर इतना ही बोला, ‘‘आप फ़िकर न करें, फूफीजान ! सुविधा बखूबी मेरी देखभाल कर सकती है।’’
सचमुच बस में ज़ोर-ज़ोर से बोलकर उसने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। परिणाम यह हुआ कि एक जवान होती हिन्दू लड़की को एक मुसलमान लड़के के साथ अकेले सफ़र करते देखकर कुछ व्यक्ति चौकन्ने हो उठे-
‘‘वह लड़की अकेली है।’’
‘‘मुझे लड़की का चरित्र शंकास्पद लगता है।’’
‘‘हमें इस लड़की पर दृष्टि रखनी चाहिए।’’
‘‘रखनी होगी।’’
‘‘मसूरी की रहने वाली या पहाडी नहीं जान पड़ती।’’
‘‘मसूरी में देश-भर के लोग आते हैं। कहीं से भाग कर आयी होगी।’’
‘‘लगती पछाह की है। ठेठ हिन्दी बोल रही है।’’

बस देहरादून के व्यस्थ इलाक़ों से गुज़र रही थी। असद बहुत कम बोल रहा था, इसलिए वह सुन अधिक सकता था। अन्तर में कहीं वह इस तथ्य के प्रति सजग था कि वह एक हिन्दू लड़की के साथ अकेला सफ़र कर रहा है। इस सजगता के कारण बार-बार अपनी ओर उठती सन्देहास्पद दृष्टियाँ उसे भेद रही थीं।
लेकिन वह जानता था कि वह कोई अपराध नहीं कर रहा है, इस वास्ते वह शक्ति प्राप्त करने के लिए बार-बार हँस पड़ता था। और सहज बनने का वह प्रयत्न, हर बार उसे अधिक असहज बनाने में ही सफल होता था।
बस रुकने पर असद बाथरूम जाने के लिए उतरा कि एक व्यक्ति ने उससे पूछा, ‘‘कहाँ जा रहे हैं आप ?’’
‘‘दिल्ली । वहाँ से ग्वालियर जाना है।’’
‘‘बस से जायेंगे या रेल से ?’’
‘‘रेल से....।’’
‘‘टैक्सी से क्यों नहीं जाते ? बहुत जल्दी पहुँच जायेंगे। तीन हम हैं, दो आप।’’
असद एक क्षण अनिर्णय की स्थिति में रहकर बोला, ‘‘बात ठीक है। रात की गाड़ी आसानी से मिल जायेगी।’’

और फिर वे भद्र पुरुष असद को खींचकर टैक्सी स्टैंड की ओर ले चले। सुविधा ने असद को जाते नहीं देखा। वह रेल से जाने का निश्चय करके आयी थी। इसलिए बस के चलने पर जब असद नहीं आया तो वह चिंतित हो उठी। सोचा, शायद रेलवे स्टेशन पर आ जाएगा। बहुत पास था वह, लेकिन जब वहाँ पर भी वह नहीं दिखाई दिया, तो वह व्यस्त इधर-उधर देखने लगी। तभी कानाफूसी करने वाले दूसरे सज्जन ने पूछा, ‘‘कहाँ जा रही हो, बेटी ?’’
सुविधा ने एक बार उन्हें देखा। उसके पिता जैसे भद्र पुरुष थे वे। बोली, ‘‘जी, मैं ग्वालियर अपने घर जा रही हूँ।’’
‘‘तुम्हारे साथ कौन है ?’’
‘‘असद भाई हैं। उनके पिताजी मेरे पिताजी के साथ काम करते हैं।’’
‘‘लेकिन वह पिछले स्टैंड पर क्यों उतर गया ?’’
‘‘पता नहीं, शायद बाथरूम गये हों। अभी आ जायेंगे।’’
‘‘गाड़ी का समय होने वाला है। में दिल्ली जा रहा हूँ। तुम्हें सवेरे पंजाब मेल में बैठा दूँगा।’’
संरक्षण का अयाचित आश्वासन पाकर सुविधा को विशेष खुशी नहीं हुई, इसलिए उसने उस ओर ध्यान नहीं दिया। उसे पूर्ण विश्वास था कि असद भाई अवश्य आयेंगे, पर वह नहीं आये। आये वही सज्जन। बोले, ‘‘तुम्हें जाना है, टिकट ले आऊँ ?’’

सुविधा का अन्तर क्रोध से भभक उठा। ये कौन हैं मेरी चिन्ता करने वाले ? मैं क्या इतनी बच्ची हूँ कि दिल्ली न जा सकूँ...पर असद भाई का क्या हुआ ? कहाँ रह गये ? कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गयी ? कहीं वह मुझे छोड़कर बस से तो नहीं चले गये ? नहीं, नहीं असद भाई ऐसा नहीं कर सकते। पर..पर...वह हैं कहाँ ? मैं क्या करूँ ? क्या पीछे लौटूँ...?
वे भद्र पुरुष वहीं खड़े थे। व्यग्र होकर बोले, ‘‘क्या सोचने लगी, बेटी ? दिल्ली जाना है तो...।’’
तड़प उठी वह, ‘‘जी हाँ, दिल्ली ज़रूर जाना है।’’
और जैसे उनसे अपने को तोड़ना चाह रही हो, तेज़ी से टिकटघर की ओर बढ़ गयी।
दिल्ली तक की उसकी यात्रा बिना असद भाई के पूरी हुई। वह कहीं नहीं दिखाई दिये। उनके स्थान पर वे भद्र पुरुष आ विराजे थे जिनके संरक्षण को वह किसी भी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। रातभर सोते-जागते वह असद भाई के संभावित भवितव्य के बारे में सोचती रही। इसलिए अधिक कि वे भद्रजन बार-बार उनकी चर्चा करके उन्हें छोटा सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे थे। वही प्रयत्न उसके मन में प्रतिक्रिया पैदा करता था।
सवेरे उन्होंने पूछा, ‘‘ग्वालियर कैसे जाओगी ?’’
‘‘नयी दिल्ली से गाड़ी में बैठकर।’’
‘‘मुझे स्टेशन के पास जाना है। चलो, छो़ड़ दूँगा।’’

दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगाते हुए उसने कहा, ‘‘आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं चली जाऊँगी। मुझे रास्ते में किसी से मिलना है।’’
‘‘कोई चिन्ता नहीं, चलते हैं।’’
वह यात्रा राजधानी के राजमार्गों की भीड़ और तंग रास्तों की किच-किच से होकर एक अँधेरी गली में समाप्त हुई, जहाँ खुली बदबूदार नालियों में निबटने को बैठे नंगे-अधनंगे बच्चे बतिया रहे थे। गन्दी आवाज़ें कसते या उतने ही गन्दे गीतों को गुनगुनाते, एक-दूसरे को धकियाते किशोर पास से निकल जाते थे। आपस में उलझे ऊबड़-खाबड़ मकानों की बदरंग दीवारों पर किसी चुनाव या नौजवानों को जवानी का विश्वास दिलाते, दवाइयों के वैसे बदरंग पोस्टर इस बात का प्रमाण थे कि अभी शैतान ने सभ्यता से हार नहीं मानी है।

सब ओर से निस्संग सुविधा जितनी चंचल थी वे भद्रजन उतने ही आश्वस्त कि वह घर से भाग आयी है। जिस घर के सामने जाकर वह रुकी वह उनकी शंका को पुष्ट करने वाला था। आस-पास की बस्ती में प्रायः सभी समाज की निचली श्रेणी के अभद्र लोग (?) थे। सुविधा के आहट करने पर जिस महिला ने दरवाज़ा खोला वह अपेक्षाकृत सुन्दर थी, पर शालीन उतनी नहीं थी। कम-से-कम उसकी पोशाक निश्चित रूप से भद्रजनों जैसी नहीं थी। बोली, ‘‘किससे मिलना है ?’’
‘‘सुन्दरपाल जी से।’’
‘‘वह घर पर नहीं है। दो-तीन घंटे में आयेगा।’’
सुविधा ने मुड़कर उन भद्रजन से कहा, ‘‘आप कृपा कर जायें। मैं सुन्दरपालजी से मिलकर चली जाऊँगी। स्टेशन बहुत पास है।’’
भद्रजन एक क्षण ठिठके, फिर तेज़ी से मुड़े और एक दूसरे मार्ग से आगे बढ़ गये। आधा घंटे बाद उसी मार्ग से वे लौटे, दो पुलिस कांस्टेबल उनके साथ थे। सुविधा एकाएक चंचल हो उठी। उसने ज़ोर देकर उन्हें बताया कि वह भले घर की बेटी है। उसके पिता ग्वालियर में मिडिल स्कूल के हैडमास्टर हैं। वह अपने घर जा रही है। यहाँ अपने परिचित से मिलने रुकी है।
‘‘कब से परिचय है तुम्हारा इससे ?’’

‘‘तीन महीने पहले हम ट्रेन में मिले थे। मेरी माँ, भाई-बहन सभी थे। इन्होंने हमारी बड़ी मदद की थी।’’
और उसने अपने पास के सब काग़ज़ात पुलिस के सिपाही को दे दिये। कई क्षण तक उनकी पड़ताल करने के बाद सिपाही ने घोषणा की, ‘‘तुम्हारी उम्र 17 वर्ष 9 माह है ?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘तब तुम नाबालिग़ हो। तुम्हें पुलिस स्टेशन चलना होगा।’’
सुविधा सचमुच घबरा गयी तब तक आसपास रहने वाले अनेक व्यक्तियों ने उन्हें घेर लिया था और उनके चेहरे आश्वस्त करने वाले नहीं थे। पुलिस के पूछने पर सभी ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया। यहाँ तक कि जिससे वह मिलने आयी थी उसकी घरवाली ने स्पष्ट कहा,‘‘मैं इसे नहीं जानती। मेरे घरवाले ने मुझे कभी इसके बारे में नहीं बताया।’’
सुविधा सुन्दर नहीं है। आधुनिक साज-सज्जा में भी उसकी रुचि नहीं दिखायी देती, पर शास्त्रकारों ने षोडशी को इसलिए सुन्दर माना है कि वह षोडशी है। यौवन उसके शरीर में प्रवेश पा चुका है।

इसलिए डरी-सहमी वह जब पुलिस स्टेशन पहुँची तो भीड़ में उसके परिवार के कई हितैषी पैदा हो आये। कई भद्रजन उसकी ज़मानत देने को तैयार हो गये। उनमें एक थे हरिकृष्ण। दृढ़ स्वर में उन्होंने घोषणा की, ‘‘इसके हेडमास्टर पिता और मैं दोनों एक साथ पढ़े हैं। आप जो ज़मानत चाहें दे सकता हूँ। बेचारी को छोड़ दीजिये।’’
इंस्पेक्टर ने पूछा सुविधा से, ‘‘तुम इन्हें जानती हो ?’’
‘‘जी नहीं’’, उसने उत्तर दिया।
निःसंकोच हरिकृष्ण बोले, ‘‘यह कैसे जानेगी ? इत्ती-सी थी जब बर्मा चला गया था। अभी लौटा हूँ।’’
फिर इंस्पेक्टर अप्रतिहित सुविधा से बोले, ‘‘यहाँ किसी और को जानती हो ?’’
‘‘मैं उनसे मिली नहीं, पर रिश्ते के मेरे एक मामा यहाँ रहते हैं। गाँव में मेरी माँ और वे वर्षों साथ रहे हैं। माँ उनके बारे में बताती रहती हैं। वे प्रसिद्ध लेखक हैं। प्रभात कुमार नाम है उनका।’’
‘‘कहाँ रहते हैं ?’’

‘‘पता नहीं मुझे। मैं कभी आयी नहीं उनके पास। आप किसी से पता कर ले सकते हैं। रेडियो पर बोलते हैं।’’
भीड़ कम हो गयी थी, पर जमानत देने वाले अपना दावा प्रमाणित करते अवसर की ताक में आसपास मँडरा रहे थे। पुलिस से साँठ-गाँठ थी उनकी, पर दुर्भाग्य से वे धर्मधुरीण भद्र पुरुष अभी वहीं थे। उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ‘‘आप लड़की को तुरंत मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करें। मैं तब तक प्रभात कुमार को ढूँढ़ता हूँ।’’
मैजिस्ट्रेट अपेक्षाकृत दयालु प्रकृति के भद्रजन थे। उन्होंने सब काग़ज़ात देखे। सुविधा की बातें सुनीं। आदेश दिया, ‘‘लड़की ने कोई अपराध नहीं किया। लेकिन वह नाबालिग़ है। डर है कि कोई उसे गुमराह न कर दे। उसके मामा को और उसके माँ-बाप की तलाश की जाए और तब एक उसे मातृ-मन्दिर में रखा जाए।’’
पुलिस के खोज करने का अपना मार्ग होता है। चाहती तो मैजिस्ट्रेट के पास जाने से पूर्व प्रभात कुमार का पता लगा सकती थी, पर ‘सीधी-राह’ जैसा कोई शब्द पुलिस के शब्दकोश में नहीं होता। फिर एक जवान लड़की उनके अंकुश में थी। लाभ के न जाने कितने मार्ग उनकी कल्पना में रेखांकित हो चुके थे। पर मैजिस्ट्रेट का आदेश था, इसलिए लेखक का पता लगाना होगा। सुविधा ने बताया था, मामा रेडियो पर बोलते हैं। पुलिस ने वहीं जाने का निश्चय किया।

पुलिस के साथ एक युवती को देखकर वहां भी हलचल मच गयी, पर नाम सुनने पर कार्यक्रम अधिकारी ने तुरन्त कहा, ‘‘प्रभात कुमार को कौन नहीं जानता ? आपको फ़ोन कर लेना था तुरन्त।’’
‘‘हमें फ़ोन नम्बर नहीं मालूम था।’’
‘‘डायरेक्टरी हर कहीं होती है..खैर, मैं अभी बात करवाता हूँ।’’
प्रभात कुमार लिखने में व्यस्त थे कि फ़ोन की घण्टी ने उनकी तन्द्रा भंग की। उन्होंने चोंगा उठाकर कहा, ‘‘मैं प्रभात बोल रहा हूँ. आप कौन है ?’’
‘‘मैं मित्तल, आकाशवाणी से बोल रहा हूँ, प्रभात जी !’’
प्रभात ने प्रसन्न होकर पूछा, ‘‘कैसे याद किया बन्धु, आदेश !’’
उधर से जवाब आया, ‘‘आपकी कोई भानजी है ?’’
उत्तर दिया प्रभात ने, ‘‘मेरी कोई बहन नहीं है। भानजी कहाँ से होगी। पर आप क्यों पूछते हैं ?’’
‘‘इसलिए कि एक लड़की सुविधा कहती है आप उसके मामा-लगते हैं। पुलिस उसे लेकर यहाँ आई है।’’

सुविधा ! पुलिस ! स्तब्ध रह गया प्रभात, फिर भी उसने कहा, ‘‘सुविधा से पूछो, उसकी माँ का नाम क्या है ? रिश्ते की बहनें बहुत हैं मेरी।’’
उत्तर मिला, ‘‘माँ का नाम है, कमला।’’
भूतकाल बीत जाता है पर मन के पटल पर गहरी रेखाएँ अंकित कर जाता है। क्षण-भर में न जाने कितने संसार कौंध गये उसके मस्तिष्क में, कितने इन्द्र-धनुष बने और बिगड़े। उसने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, वह मेरी रिश्ते-की बहने हैं। सुविधा को मेरे पास भेज दो।’’
और लगभग एक घण्टे बाद सुविधा उसके सामने थी। पुलिस इंस्पेक्टर बात करने में बड़े विचारशील लगे। बोले, ‘‘मैं तो आश्वस्त हूँ पर चूँकि मैजिस्ट्रेट का आदेश मातृ-मन्दिर में रखने का है, आप अदालत चलें और लड़की को ले आयें।’’
फिर घड़ी देखकर कहा, ‘‘लेकिन अब तो पाँच बज चुके हैं। अदालत उठ चुकी होगी। इसलिए अब कल यह काम हो सकेगा। सुविधा को आज की रात मातृ-मन्दिर में रहना होगा।’’

सुनहरे स्वप्न देखते-देखते जैसे नींद खुल जाती है, सुविधा के धैर्य ने जवाब दे दिया। वह सुबक उठी। उसने कहा, ‘‘मामा ! मैं मातृ-मन्दिर नहीं जाऊँगी। नहीं जाऊँगी।’’
प्रभात मातृ-मन्दिर के बारे में कुछ नहीं जानता। अनाथालय जैसी कोई संस्था होगी। प्यार से बोला, ‘‘सुविधा बेटी ! और कोई रास्ता नहीं है। बस, एक रात बीच में है। सवेरे मैं तुम्हें ले आऊँगा, जाओ।’’
सुविधा चली गयी, त्रस्त, आतंकित, भय और आश्वासन के बीच झूलती। निपट अन्जाना क्षेत्र, प्रतिक्षण निगल जाने को आतुर अजनबी हितैषी वह समझ नहीं पा रही थी कि इसका अर्थ क्या है और क्या परिणाम हो सकता है इसका ! परिणाम के बारे में प्रभात भी नहीं जानता। वह यह भी नहीं जानता कि कथा का सूत्र क्या है। उसके मस्तिष्क में विगत जैसे बार-बार आहट करता है, स्मृति के धुँधले द्वार खुलते हैं और उनके बीच से होकर एक सौम्य मूर्ति उसके अन्तर को आवृत कर लेती है। गौरवर्ण, मांसल शरीर, नयनों में करुणा, साक्षात देवी हो जैसे। आयु में छोटी होने के कारण वह दूर-दूर से उसे देखती, मुसकराती, वह उसे गोद में उठा लेता, वह हँस पड़ती, छुड़ा कर भाग जाती।
कैसे थे वे दिन। सब रिश्तेदार एक आँगन वाले घर में रहते। साथ-साथ त्योहार मनाते, साथ-साथ जीवन-मरण का खेल खेलते। घर की महिलाएँ वाक्य-युद्ध भी करतीं कभी-कभी पर, वह सामूहिक चरखा-कताई संगीत-सभा या तीर्थ-यात्रा के मार्ग में बाधा न बनता। किसी का बेटा बीमार होता तो सारे परिवार व्यस्त हो उठते किसी की बेटा का विवाह होता तो सभी परिवारों में बधावे बजने लगते। सुख-दुख दोनों ही  बाँटने का सहज अनुभव था उन्हें।


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