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भारतीय त्योहार

भाई परमानंद

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 341
आईएसबीएन :9788123735924

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भारतीय त्योहारों का वर्णन...

Bhartiya Tyohar - A Hindi Book - by Nehru Bal Pustakalaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

अनुक्रम

१. बुद्ध पूर्णिमा
२. बिहू
३. रथ यात्रा
४. रक्षा बंधन
५. ओणम
६. ईद
७. गणेश चतुर्थी
८. दुर्गा पूजा
९. दशहरा
१॰. दिवाली
११. क्रिसमस
१२. लोहड़ी
१३. पोंगल
१४. होली 
१५. नवरोज़


बुद्ध पूर्णिमा

 

धार्मिक तथा अन्य त्योहार क्यों मनाए जाते हैं, इसके कई कारण हैं। त्योहार सभी धार्मिक संप्रदायों और वर्गों के बीच मेल-मिलाप बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं और उन लोगों के मन में भी उल्लास और भाईचारे की भावना भरते हैं जिनका जीवन नीरस और उबाऊ होता है। त्योहार हर साल लोगों को किसी न किसी घटना का स्मरण दिलाते हैं जो शायद समय के साथ भुला दी जाती है।
बुद्ध पूर्णिमा बौद्धों के लिए वर्ष का सबसे पवित्र दिन है; सबसे पवित्र त्योहार है। हर त्योहार की एक कहानी होती है। हर त्योहार उल्लास और उमंग के साथ मनाया जाता है। हर त्योहार के साथ कुछ ऐसी बातें जुड़ी रहती हैं जो उसे मानने वालों के रहन-सहन, रीति-रिवाज और धर्म-मत के बारे में जानकारी देती हैं।

बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म के मानने वालों का ही त्योहार क्यों है ? इसलिए क्योंकि इसका संबंध बौद्ध धर्म की स्थापना करने वाले भगवान बुद्ध से है। यूं तो बौद्धों के लिए हर पूर्णिमा एक त्योहार है पर वैशाख महीने की पूर्णिमा उनके लिए एक विशेष महत्व रखती है। इसी को हम बुद्ध पूर्णिमा के नाम से जानते हैं।
बुद्ध पूर्णिमा का महत्व क्या है ? इस दिन भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था। इसी दिन उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसी दिन उनका निर्वाण हुआ था। यह एक अद्भुत संयोग है और यह संयोग इस त्योहार को तिगुना महत्वपूर्ण बना देता है।

भगवान बुद्ध का जन्म ईसा पूर्व 544, यानी आज से ढाई हजार वर्ष से भी पहले हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन शाक्य राजवंश के प्रमुख शासकों में से एक थे। वे राजा कहलाते थे। वे सूर्यवंशी थे। इसी वंश में भगवान राम का जन्म हुआ था।
भगवान बुद्ध की माता का नाम महामाया था। वे उसी दिन राजधानी कपिलवस्तु से अपने मायके देवदह जा रही थीं। रास्ते में लुम्बिनी वन में दो शाल वृक्षों के बीच बुद्ध का जन्म हुआ। वहां से वे सब वापस कपिलवस्तु लौट आये। असित नाम के एक बूढ़े संन्यासी ने राजमहल में आकर बालक को देखा। उसने बताया कि यह बालक तो दुनिया का उद्धार करने आया है।

बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। गोत्र का नाम गौतम था। बाद में वह बालक इसी नाम से प्रसिद्ध हुआ। शाक्यों ने बड़ी धूमधाम से उसका जन्मोत्व मनाया, लेकिन सातवें दिन ही उसकी माता रानी महामाया का देहांत हो गया। उनके बाद बालक की सौतेली मां और मौसी महाप्रजापति गौतमी ने उसका पालन-पोषण किया।
बचपन से ही गौतम बहुत गंभीर थे। अक्सर वह एकांत में बैठकर सोचा करते थे। पिता ने उनका ध्यान बंटाने के लिए बहुत प्रयत्न किये। वह युवा हुए तो एक परम सुंदरी राजकुमारी यशोधरा के साथ उनका विवाह कर दिया। भोग-विलास की सारी सामग्री उनके चारों ओर इकट्ठी कर दी गयी, पर गौतम तो संसार का उद्धार करने आये थे। इन बातों का उन पर कोई असर नहीं हुआ।

वे क्षत्रिय थे। क्षत्रिय लोग शिकार खेलते हैं। पशु-पक्षियों का शिकार करना धर्म मानते हैं, पर गौतम उन्हें बचाना अपना धर्म समझते थे। एक दिन उनके चचेरे भाई देवदत्त ने एक हंस को तीर मारकर घायल कर दिया। वह गौतम के पास आकर गिरा। गौतम ने उसे गोद में उठाकर प्यार किया। उसके घाव पर दवा लगायी। तभी देवदत्त ने आकर उनसे अपना हंस मांगा। उन्होंने नहीं दिया। कहा, ‘‘मारने वाले से बचाने वाले का अधिकार ज्यादा होता है।’’
यह बात प्रमाणित भी हो गयी। राजा के कहने पर उस हंस को दरबार के बीच में एक चौकी पर बिठा दिया गया। दोनों राजकुमारों से कहा गया कि वे बारी-बारी से हंस को पुकारें। पुकारने पर वह जिसके पास चला जायेगा, उसी का होगा।
पहले देवदत्त ने पुकारा, हंस कांप कर चीख उठा। फिर गौतम ने पुकारा। हंस दौड़कर उनकी गोद में आ बैठा। राजा ने निर्णय दिया, ‘‘हंस गौतम का है।’’

गौतम ने एक दिन एक बूढ़े को देखा, जो चल नहीं पा रहा था। एक रोगी को देखा जो बेहोश पड़ा था। एक मरे हुए व्यक्ति को देखा जिसे जलाने के लिए लोग श्मशान ले जा रहे थे। उनके मन में यह प्रश्न उठा–यह दुख क्या है ? क्यों होता है ? इससे बचने का उपाय क्या है ? उन्होंने एक संन्यासी को भी देखा। उसने मोक्ष पाने के लिए संन्यास ले लिया था। उसका चेहरा शांत था। गौतम ने निश्चय किया कि वह भी संन्यासी बन कर जरा, रोग और मृत्यु से छुटकारा पायेंगे।
अब तक उनके यहां एक पुत्र भी हो चुका था। लेकिन उसकी माता भी उन्हें नहीं रोक सकी। पत्नी का प्यार भी उन्हें नहीं रोक सका। एक रात जब वे दोनों सो रहे थे, गौतम चुपचाप घर छोड़कर चले गये। उन्होंने अपने सुंदर वस्त्र उतारे, केश काटे और संसार से विरक्त हो गये। वह दुख का कारण खोजना चाहते थे।

वह बहुत से आश्रमों में भटके, लेकिन दुख का कारण नहीं खोज सके। अंत में वह बोधगया के पास, निरंजना नदी के तट पर एक वन में पहुंचे। वहां उन्होंने छह वर्ष तक कठोर तप किया। वह सूख कर कांटा हो गये। लेकिन ज्ञान फिर भी प्राप्त नहीं हुआ। उन्होंने सोचा कि शरीर को सुखाने से ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। संयोग से उसी दिन उन्हें सुजाता नाम की एक स्त्री ने खाने के लिए खीर दी। शाम को एक घसियारे ने सोने के लिए घास दी। गौतम स्वस्थ हुए और एक पीपल के पेड़ के नीचे निश्चय करके बैठ गये कि बिना ज्ञान प्राप्त किये वह नहीं उठेंगे।

तब सचमुच एक रात को, अरुणोदय से पहले, उन्हें दुख के कारण का पता चल गया। उन्होंने चार आर्य सत्यों का पता लगा लिया–(1) दुख, (2) दुख समुदय अर्थात् दुख का कारण, (3) दुख निरोध, (4) दुख का निरोध का उपाय। उस दिन वह बुद्ध हो गये–‘गौतम बुद्ध’। उस दिन भी वैशाख की पूर्णिमा थी। बुद्ध पूर्णिमा इसलिए भी पवित्र दिन है। इसके बाद उन्होंने वाराणसी के निकट सारनाथ जाकर पांच शिष्य बनाये। इस प्रकार ‘संघ’ की स्थापना हुई। फिर तो वह घूम-घूमकर अपने धर्म का प्रचार करने लगे। बड़े-बड़े विद्वान, साधु और राजा उनके शिष्य बन गये। वह पिता के बुलाने पर घर भी गये, लेकिन राजकुमार के रूप में नहीं, भिक्षु के रूप में। धीरे-धीरे उनके पिता, पत्नी, पुत्र और मौसी सब उनके संघ में आ गये।
भगवान बुद्ध के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए बुद्ध पूर्णिमा का उत्सव बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। बौद्ध लोग उनका स्मरण करते हैं। उनकी शिक्षाओं का पालन करने का व्रत लेते हैं। जो बौद्ध नहीं हैं, वे भी श्रद्धा से उनको याद करते हैं।

आज के दिन गृहस्थ लोग स्नान करने के उपरांत श्वेत वस्त्र धारण करते हैं। मंदिर जाकर विधिवत पूजा करते हैं। भिक्षुओं को दान देते हैं। कुछ लोग तो सारा दिन मंदिरों में रहते हैं। बुद्ध और बुद्ध कर्म के बारे में चर्चा करते हैं। कुछ लोग भिक्षुओं को घर बुलाकर धर्मोपदेश सुनते हैं। पंचशील ग्रहण करते हैं। यह पंचशील गृहस्थ और भिक्षु दोनों के लिए मान्य है–(1) किसी जीव को नहीं मारना चाहिए, (2) चोरी नहीं करनी चाहिए, (3) झूठ नहीं बोलना चाहिए, (4) कोई नशा नहीं करना चाहिए, और (5) व्यभिचार नहीं करना चाहिए।

इस दिन लोग मांस नहीं खाते। खीर बनाकर खाते हैं। भंडारा करते हैं। पानी पिलाने के लिए सार्वजनिक प्याऊ लगाते हैं। चिड़ियों को पिंजरों से मुक्त करते हैं। मारने के लिए लाये गये पशुओं को भी मुक्त कराते हैं। अहिंसा के उपासक इसे पुण्य मानते हैं। अनेक लोग इस दिन तीर्थ यात्रा के लिए भी जाते हैं।
बच्चे इन कामों में खूब रस लेते हैं, विशेषकर सजावट के कामों में। जैसे दिवाली पर कंदील बनाये जाते हैं वैसे ही बुद्ध पूर्णिमा के दिन सुंदर-सुंदर वैशाख वकट बनाये जाते हैं। ये बांस के बनते हैं और इन पर सुंदर-सुंदर तार चिपकाये जाते हैं। बहुत से लोग तोरण बनाते हैं जिन पर जातक कथाओं के चित्र होते हैं। जातक कथाओं में भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियां बतायी गयी हैं।

जहां-जहां भी बौद्ध लोग हैं उन सभी देशों में यह त्योहार ऐसे ही उल्लास के साथ मनाया जाता है। श्रीलंका में ऊपर लिखी बातों के अलावा घर-घर में दिवाली भी होती है। कम से कम एक दीया तो जलाते ही हैं। जापान में अप्रैल की 8 तारीख को भगवान बुद्ध का जन्मदिन मनाते हैं। उस दिन सभी मंदिरों में फूलों के छोटे मंदिर बनाये जाते हैं। उनमें बुद्ध की छोटी-छोटी मूर्तियां प्रतिष्ठित की जाती हैं और जापानी बौद्ध बड़े प्रेम और श्रद्धा से उन मूर्तियों का अभिषेक करते हैं।
बर्मा में हर माह एक दिन पर्व का होता है। वैशाख मास के पर्व को ‘जौं वे तो प्वै’ कहते हैं। इसी मास में भगवान बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसीलिए वैशाख मास की गर्मी से रक्षा के लिए वे इसे जल से सींचते हैं।

अन्य देशों में भी लगभग इसी रूप में इस त्योहार को मनाते हैं। संसार के अनेक साहित्यकारों और कलाकारों ने इस पर्व को लेकर अनेक रचनाएं की हैं। चित्रकारों ने तो इस पर्व की घटनाओं को सदा-सदा के लिए अमर कर दिया। ये चित्र बहुत ही लोकप्रिय रहे हैं। इन्हीं के द्वारा इस पर्व की सारी कहानी हम तक पहुंची है।
तो इस प्रकार बुद्ध पूर्णिमा की कहानी बौद्ध धर्म, संस्कृति और बौद्ध इतिहास की कहानी है। भगवान बुद्ध के जीवन की कहानी है। यह केवल अमोद-प्रमोद का पर्व ही नहीं है, ज्ञान देने वाला पर्व भी है। सभी पर्व उनके मनाने वालों के जीवन की अंतरंग झांकी देते हैं, इसीलिए महत्वपूर्ण होते हैं।

 

- विष्णु प्रभाकर


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