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गरुड़ जी के सवाल

किरीट भाई जी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3423
आईएसबीएन :81-288-0856-7

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प्रस्तुत है गरुड़ जी के सवाल....

Garun Ji Ke Sawal

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

श्रीमद्भागवत, ज्ञान कथा और लोकमंगलकारी रामचरित कथा के प्रवचन में समान अधिकार रखने वाले युवा श्री किरीट ‘भाई जी’ का जन्म 21 जुलाई सन् 1962 को पोरबंदर (गुजरात) में हुआ। उन्होंने आत्मज्ञान और ज्ञान के लोक विकास के लिए सात वर्ष की आयु में वल्लभकुल गोस्वामी श्री गोविन्द रायजी (गुरूजी) महाराज से दीक्षा प्राप्त की। दीक्षा प्राप्त करने के तुरंत बाद इंगलैंड निवासी हुए और वहां जीविका के लिए निमित्त चार्टर्ड एकाउंटेंसी में डिग्री प्राप्त की।
‘भाई जी’ का लंदन आना विश्व के धर्मशील व्यक्तियों के लिए उस समय वरदान सिद्ध हुआ, जब 1987 में हनुमान जयंती के अवसर पर आपने कथा प्रवचन प्रारंभ किया। लंदन में इस कथा प्रवचन से भक्तों को एक नया प्रकाश मिला और उसके बाद विभिन्न रूपों में मारीशस, दक्षिण अफ्रीका (डर्बन), पाकिस्तान, कीनिया, इटली, हालैंड आदि स्थानों पर मधुर और अगाध ज्ञानयुक्त कथा प्रवचन से वर्तमान जीवन की विसंगतियों से युक्त मनुष्य क धर्मशीलता का मार्ग दिखाया।
पूज्य किरीट भाई भक्तिभाव का एक ऐसा सागर है, जिसका कोई किनारा नहीं, उसकी लहर ही रसामृत का पान कराने के लिए गतिमान होती है और उसकी लहर ही प्राप्ति के किनारे का आभास कराती है।

ॐ परमात्मने नमः


परमपूज्य गुरुवर के मुखारबिन्द से प्रवाहित ज्ञान गंगा  खगपति द्वारा गरुड़ जी के संसय का छेदन-

ॐ श्री रामाय् नमः, स्वस्ति श्री गणेशाय् नमः।
श्री सरस्वत्यै नमः श्री गुरुभ्यो नमः।।

लोकाभिरामं रणरगंधीरं राजीव नैत्रं रघुवंशनाथम्।।
करूण्यरूपं करूणाकरं तं श्री राम चन्द्रं शरणं प्रपधै।।

मनोजवं मारूततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्।
वातात्मनं वानरयूथ मुख्यं श्री राम दूतं शरणं प्रपधे।।

मंगल भवन अमंगल हारी-मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहुं सो दशरथ अजिर बिहारी।। जय जय हनुमान गोसाई
कृपा करहुं गुरुदेव की नांई-मंगल भवन अमंगल हारी
 
राजा राम राम राम-सीता राम राम राम।
राजा राम राम राम-सीता राम राम राम।।

नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तमम।
देवी सरस्वतीं व्यासं ततौ जय मुठीरयेत्।।
अज्ञान-तिमिरान्ध्स्य ज्ञानाज्जन शलाकया।
चक्षुरू मीलित येत तस्मै री गुरवे नमः।।

चरितं रघुनाथस्म शत कोटि प्रवीशतरम्।
एक एक लक्ष्षम कोश महापातक नाशनम्।।
हरे नाम हरे नाम नामे नम जीवनम्।
कलौ नास्तेव नास्तेव नास्तेव राती रन्यथा।

परमात्मा श्री राम वेदान्तियों का निर्गुण निराकार चैतन्य नित्य शुद्ध बुद्ध तत्त्व जिनका प्राकल्य जीवमात्र के लिए श्रेय और कल्याण का द्योतक है। जिन्होंने जीव मात्र को ये बोध दिया है कि समय-समय पर स्थान के ऊपर, समस्या के आधार के ऊपर मैं अवतरित होऊंगा। परमात्मा का प्राकट्य होना जीव मात्र के लिए कल्याण का सूचक है, बाकी परमात्मा हमारे में प्रकट हो जाएं ये हमारा उद्धार का सूचक है, बाकी परमात्मा हमारे में प्रकट हो जाएं ये हमारा उद्धार का सूचक है। वो तो प्रकट होते रहते है, होते थे। होता रहेंगे। बाकि वो राम का प्राकट्य हमारे जीवन में, हमारे हृदय में, हमारे कर्म में, हमारे मस्तिष्क में जब तक उनका प्राकट्य न हो, तब तक परमात्मा का विश्व में प्राकट्य भक्ति के लिए कोई उद्धारक या कल्याणमय सूचक नहीं हो सकता। वेदान्तियों ने ब्रह्म का प्राकट्य मनुष्य के जीवन में तीन प्रकार से होता है। ज्ञान में, भक्ति में, कर्म में। भक्तों के जीवन में ब्रह्म का अवतरण उनके हृदय में होता है। आचार्य चरण वल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु इन महापुरूषों में ब्रह्म का प्राकट्य हृदय में हुआ है। कुछ लोगों के जीवन में ब्रह्म का अवतरण कर्म में होता है। प्रतिपल उनका व्यवहार जो है, वही ब्रह्म का प्राकट्य है। भगवान ने अर्जुन से कहा-हे अर्जुन। नियतकर्म का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। ये नियत कर्म निःस्वार्थ कर्म है। स्वामी विवेकानन्द, लोकमान्य तिलक इस प्रकार के महापुरुषों के जीवन में ब्रह्म का अवतरण कर्म में हुआ है। कुछ लोगों के जीवन में प्रभु का प्राकट्य ज्ञान यानी बुद्धि में हुआ है। ज्ञानियों के जीवन में प्राकट्य जब होता है। तो उनका प्राकट्य का स्थान वृद्धि में है। आदिगुरु शंकराचार्य जैसे महापुरुषों जिनकी प्रखण्ड बुद्धि के बारे में हमारे जैसे अल्पज्ञ, वामन स्वरूप जैसे कोई आम के पेड़ पर आम पक जाए और उनकी ऊँचाई के कारण से उनको स्पर्श नहीं कर सकते, वैसे ही शंकराचार्य जैसे व्यक्ति इतने ऊंचे हैं, उनका अस्तित्व इतना बड़ा है कि हमारे जैसे वामन लोग तो अथाह समुद्र को पार न कर सकें। तथापि, इस सुअवसर पर आपको और हमको जो मौका मिला है। वो दो दिनों का सद्उपयोग ब्रह्म का अवतरण ज्ञान में यानी बुद्धि में कैसे होता है- उसी पर हम चर्चा करेंगे।

ज्ञान के पंथ कृपाण के धारा।
परत खगेस रहहि नहीं बारा।।

इस मिट्टी के महापुरुषों ने प्राग्य पुरुषों ने महर्षियों ने, ब्रह्मऋषियों ने, क्योंकि सनातन धर्म दर्शन है इसलिए अनेकानेक पंथों का दर्शन करवाया है। जिसके ऊपर आरूढ़ होकर जीवात्मा ने अपने कल्याण और श्रेय की प्राप्ति की है। मार्ग सही है। कोई मार्ग न हो तो गलत है ना ही एक दूजे से टक्कर लगा रहे हैं, तथापि योगमार्ग में जब तक संयम, नियम में परिपक्व न हों, मन स्थिर न हो, भगवान ने गीता में ‘‘कुटस्थ’’ शब्द का प्रयोग किया है। बुद्धि जब तक कुटस्थ न हो, समदर्शन जब तक न हो।
(एक व्याधि बस नर मरही) असाधि बहु व्याधि (पिडही जो संतत तो किमी लहही समाधि)
मन स्थिर न हो तो योग मार्ग में सफलता नहीं मिलती।

मन की स्थिरता के लिए भगवान वेद कहते हैं। आहार शुद्धो तो तत्त्व शुद्धि आहार से प्रारम्भ किया है, तो योग मार्ग का तो कहना ही क्या। भक्ति के लिए आपके सन्मुख कई बार श्रीमद्भागवत भी सुनाई है हमने। और आप सुनते भी रहते हैं। गोपीगीत की भी तो कथा हमने सुनाई है। भक्ति मार्ग की आचार्य हैं गोपियां। भक्ति कैसे करनी यदि ये सीखना हो तो कोई गोपी के चरणों में बैठकर उनके चरण की सेवा करे और ये गोपी यदि प्रसन्न हो जाएं तो कोई-कोई व्यक्ति को ये भक्ति का सुप्रसाद मिलेगा।

गोपायति हृदयं श्री कृष्ण सा गोपी- अब आया ज्ञान मार्ग। ज्ञान मार्ग में वैराग्य परिपक्व होना चाहिए। यदि वैराग्य परिपक्व नहीं हुआ तो इस मार्ग में सफलता नहीं मिलेगी। पदार्थों का त्याग नहीं करना, मालिकीपन का त्याग करना है। यदि पदार्थ का त्याग कर दिया और मालिकीपन का त्याग नहीं किया तो वैराग्य टिकता नहीं। न ही वो सफल होता है। आत्म प्रबोध में ऋषि हमको यही कह रहे हैं कि मन एवं मनुष्याणं कारणं बन्ध मोक्ष तो मन में वैराग्य होना चाहिए तन में नहीं, जिनकी सराहना भगवान् योगेश्वर गीता में करें, जिनकी सराहना स्वयं उनके गुरुदेव अष्टावक्र करें तो इस संसार को पार करने में जनक जैसे महापुरुष सफल हुए जिनके जीवन में वैराग्य परिपक्व हुआ। केवल अष्टसिद्धि का त्याग कर दें, नव निधि का त्याग कर दें, वैसे हमारे शुकदेव जी महाराज ने तो परिक्षित को ग्यारहवें स्कन्ध में ये कह दिया कि राजन ये सिद्धि और नव निधि का सम्बन्ध परमात्मा के साथ कोई नहीं है। ये तो विघ्न है। पदार्थों का नहीं भावार्थ का होना चाहिए। वस्त्र संन्यास नहीं व्यवहार संन्यास है। और ये कठिन है। इसलिए महापुरुष बोले-ज्ञान के पंथ कृपाण के धार- ज्ञान का पंथ जो है, ज्ञान का मार्ग जो है, वो कृपाण की धार है, तलवार नहीं तलवार में तो एक ही साइड में धार होती है। दूसरी साइड में धार नहीं होती। सरकस में खेल करने वाले ये लोग तलवार के ऊपर खेल कर सकते हैं। चल भी सकते हैं, बाकि कृपाण इसमें तो दोनों ओर धार होती है। बाकि मार्ग सही है। आओ जिस ब्रह्म को हमको हमारे ज्ञान के माध्यम से बुद्धि में जिनका प्राकल्य करना है। ये सवाल नीलगिरि पर्वत के ऊपर खगपति गरूण जी महाराज जिनकी पीठ के ऊपर परमात्मा सतत सवारी करते हैं। मोह ग्रस्त होकर उनके पास आए आप तो रामायण के प्रेमी हैं। आप सब जानते हैं। इन्द्रजीत ने ये परात्पर ब्रह्म को नाग पाश में बान्धा, ऐसा प्रसंग है लंकाकाण्ड में नारदजी ने गरूण जी से सम्पर्क किया। गरूण जी से प्रर्थना की कि रामचन्द्रजी  को जाकर मुक्त करो। आपको तो वरदान है, आप नागों को खा सकते हैं। गरूण जी ने आज्ञा का पालन किया। रामचन्द्र जी के जो नाग थे उनको खा गए और उन्हें मुक्त करा दिया। श्रीराम को तो मुक्त करवा दिया बाकि स्वयं बन्धन में आ गए गरुड़ जी। बन्धन सवाल के रूप में प्रकट हुआ ?

नाग पाश सोई बान्धेऊ निशाचर बान्धेऊ नागपाश सोई राम एक निशाचर नागपाश से राम को कैसे बान्ध सकता है ? हमने सुना है कि राम तो साक्षात् परात्पर ब्रह्म है। मन में संशय उत्पन्न हुआ। भगवान योगेश्वर कहे संशय आत्मा विनश्यति बाकि संशय का छेदन। भगवान ने भी तो यही कहा कि अधिकारी गुरु के पास जाना चाहिए। भगवती श्रुति कहती है कि गुरुओं का काम समयं भ्रान्ति भंजनम् सद्गुरू के पास जाओ तो सद्गुरू का काम प्रवचन करना नहीं है। भ्रान्ति का भंजन करें, संशयों को छेदन करें, वही सद्गुरू है। मन में संशय आया और वो संशय लेकर जब  वैकुण्ड जा रहे थे। रास्ते में शिवजी महाराज मिले। शिवजी महाराज ने पार्वती जी को ये प्रसंग सुनाते-सुनाते कहा कि देवी मिलेऊ गरुड़ मारग महं मोही, कवन भान्ति समुभावौ तोही

रास्ते में मुझे गरुड़ जी मिले थे और गरुड़ जी ने ये सवाल पूछा कि भोलेनाथ राम चरित तो आप जानते हैं। ब्रह्म को तो आप ही सम्पूर्ण जानते हैं, आप तो ज्ञानावतार हैं। एक तुच्छ राक्षस ने परमात्मा को बान्धा। बाकि देवी मैं उनके सवाल का जवाब कैसे दे सकता था। क्योंकि मिलेऊ गरुड़ मारग महं मोही ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्थिर होना जरूरी है। संशयों के छेदन स्थिरता बहुत जरूरी है। रास्ते में उनको कैसे समझाऊं कवन भांति समुभावौ तोही और महाराज आप तो पक्षी और मैं शिव मेरी जबान मेरी भाषा आप समझोगे नहीं खग जानहीं खग की भाषा आप वहां जाओ नीलगिरिपर्वत पर एक कौआ है। जीवन मुक्त जीव जिनको जाकर सुनते हैं। मैं स्वयं हंस का रूप धारण कर हे गरुड़जी। मैं उनका सत्संग सुनने के लिए जाया करता हूं। आप वहां जाएं वो आपके संशय का छेदन करेगें। गरुड़ जी का मोह और भी बढ़ गया। मैं पक्षियों का राजा और एक तुच्छ कौवा मेरा संशय दूर करेगा। व्यक्ति का जन्म कहां हुआ वो महत्त्व की बात नहीं, क्योंकि हमारा जन्म हमारे हाथ में है ही नहीं। जन्म तो भाग्य के हिसाब से, कर्म के हिसाब से, माता-पिता के हिसाब से हमारा जन्म हुआ। जीवात्मा अपने आपको कहां ले जाए तो बड़े महत्त्व की बात है। जाओ तो सही, आप जाओ तो सही। शिवजी के कहने पर गरुड़ जी महाराज का आगमन नीलगिरि पर्वत पर तभी हुआ। गोस्वामीजी ने लिखा है-कथा आरम्भ करै सोई चाहा। ये कागा कथा का आरम्भ करने ही वाला था। सवेरे का समय। मंगलाचरण की तैयारी हो रही थी। हजारों की संख्या में जीवन मुक्त जीव हंसों के रूप में बैठे हैं और व्यास गद्दी पर कौआ बैठा है। बड़ी विरोधाभासी घटना घट रही है।

दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में ऐसा शब्द लिखा गया है कि दक्षिण की ओर गुरु का मुख है। उत्तर की ओर शिष्य का मुख है। मोनम् व्याख्यानमं मौन का व्याख्यान था। प्रौढ़ शिष्य हो और तरूण गुरु हो। गुरु जवान है ? और शिष्य प्रौढ़ यानी उनकी अधिक हो गई है। ये विरोधाभास है। बाकि स्थूल के रूप में न देखें। यहां शरीर की कोई कीमत है ही नहीं। महाराज ! जहां ज्ञान की चर्चा हो, वहां तो आत्मा की ही चर्चा चल रही है। वहां तो देहाभ्यास शरीर का आभाष होगा तो, हमारी बात भी आपको समझ नहीं आएगी। महात्माओं की कहां बात आएगी आपको समझ में, देहाभ्यास, इन्द्रियाभ्यास रहेगा तो यह बात समझ में ही नहीं आएगी और मैं पहले से कह दूं मैं ज्ञान पर बोलने वाला हूं। सावधान तनयासुनु।। नैमिशारण्य में कृषि की यही शर्तें थी। हे ऋषि ! सावधानी से सुनिये। उसी समय जैसे ही गरुड़जी का दर्शन हुआ ये कौआ व्यास गद्दी से नीचे उतर गया। क्योंकि कथा का प्रारम्भ नहीं हुआ था। देवताओं का आह्वान नहीं हुआ था। मंगलाचरण नहीं हुआ था। आते ही बड़ी प्रसन्नता से गरुड़जी के चरणों में विनम्रता से नमन किया और झुक गए। विद्वता के साथ विनम्रता न हो तो विद्या चमकती नहीं महाराज ! आज विद्वता बहुत दिखाई देती है, विनम्रता नहीं। जिस महापुरुष में विनम्रता भी विद्वता के साथ आ जाए तो समझ लेना इन्होंने शास्त्र को पचाया है, पैसा, प्रतिष्ठा, पदवी, पाण्डित्य ये प्राप्त करना तो कठिन है बाकि इनसे भी कठिन इनको पचाना है। प्राप्ति तो कई लोगों को हो रही है। किसी को पैसा मिल गया पदवी मिल गई, नशा केवल शराब का नहीं होता महाराज नशा इन सब चीजों का भी होता है।

मैं लखपति बन गया, मैं करोड़पति, अरबपति बन गया मेरी पत्नी तो सुन्दर हैं। मैं तो पण्डित हो गया हूं। ये सब नशा है। कठिन है व्यक्ति की विनम्रता। स्व का तो कल्याण करती ही है, सर्व का भी कल्याण करती है और क्या ? ये कौआ क्या बोला। नाथ कृतारथ भयऊं मैं, तब दरसन खगराज। आयसु देहु सो करौ अब प्रभु आयहुं केहि काज।। अरे महाराज ! आपका दर्शन करके तो मैं धन्य-धन्य हो गया। कृत्य-कृत्य ! यानी, इससे आगे संस्कृत में कोई शब्द ही नहीं है। अब कृत्य-कृत्य भयऊ मैं नाथा।

 आपका दर्शन करके मैं कृत्य हो गया। हे प्रभु। आप तो हमारे राजा हैं पक्षियों के। आप बताइए न मैं आपकी क्या सेवा करूं। इसको मान कहा जाता है। विष्णु शहस्रनाम में ठाकुरजी का एक नाम है मान लो या अमानी मान सबको दो। मान देने में अठन्नी का खर्च नहीं होता। मान देने से स्वयं का मान बढ़ जाता है। हम किसी के घर गए तो देखो यजमान ने कैसा हमारे साथ व्यवहार किया। आप मान दोगे तो आपका मान बढ़ेगा। बाकि कई बार ऐसा होता है। जहां क्षमता है वहां विनम्रता नजर नहीं आती और जहां ममता है, वहां समता नजर नहीं आती। ये कठिन है। ये कौवा झुक गया। शास्त्र को पचाया है इन्होंने। और जैसे ही सुना गरुड़जी सावधान ! अरे मैं तो मोह बस। जिनकी सराहना भगवान शिवजी करें। मां सरस्वती करें। मैं मोह बस जीव और मेरा दर्शन करके ये कृत्य-कृत्य हो गया तो प्रति उत्तर दिया गरुड़ जी ने-सदा कृतारथ रूप तुम्ह, कह मृदु बचन खगेस, जेहिं के अस्तुती सादर निज मुख कीन्हि महेस।। महाराज आप तो सदा के लिए कृत्य-कृत्य हो गए। मेरा दर्शन करके आप कृत्य हुए। जिनकी सराहना मां सरस्वती और भगवान शिवजी स्वयं करे। बापजी मैं मोहग्रस्थ जीव आपकी शरण में आया हूं।

विराजिए ! स्थान दिया, कौवा गद्दी पर बैठा। सवाल पूछा। बापजी पूछिए। देखो आप कोई भी धर्म ग्रन्थ का दर्शन करोगे न तो एक सवाल पूछने वाला होता है और एक जवाब देने वाला होता है। महापुरुषों का ज्ञान तो हृदयरूपी तिजोरी में बन्द होता है। वो शिष्यों के सवाल रूपी चाभी से ही खुलता है। शिष्य जब तक सवाल नहीं करेगा, तब तक ज्ञान कैसे बहेगा। महाराज ! भारद्वाज जी जब तक सवाल न करें, याज्ञवल्कजी क्या बोलेंगे ?
परीक्षित जब तक सवाल न करें, तब तक भगवान श्री शुक्रमुनि किसको भागवत सुनावें। अर्जुन जब तक सवाल न करें भगवान योगश्वर गीता किसको सुनावें। बापजी पूछो। हे महाराज ! मेरी  बात सुनों मैंने अभी-अभी दर्शन किया। भगवान राम को एक तुच्छ राक्षस ने बांधा है। सुना है वो तो साक्षात् परात्पर ब्रह्म है। भगवान बंधन में नहीं आ सकते ? उनको कैसे बांध सकते हैं ? सुना है वो प्रेम की डोरी में बंध जाते हैं। बाकि इनका तो कोई प्रेम था ही नहीं, इन्द्रजीत का। बैरवृति से भज रहा है उनको। महाराज रहस्य हमको समझाओ। तो ये सवाल का जवाब देने के लिए गोस्वामी जी लिखते हैं।
‘‘कथा समस्त भुसन्ड बखानी, जो मैं तुन्ह सन कही भवानी।।

यानी पूरी रामायण की कथा सुनाई। प्रारम्भ से अन्त तक बालकाण्ड से उत्तराकाण्ड पूरी कथा सुना दी और जब कथा पूरी हुई तो उनका भी शब्द यही है।

गत सन्देह स्थिरो स्मी वचन तव।।
महाराज मेरे सन्देह का नाश।।
गयऊ मोर सन्देह, सुनेऊ सकल रघुपति रचित।।

गोस्वामी जी की भाषा जो है वैसे आजकल मैं इतनी रामायण करता नहीं। भागवत के साथ रामायण बहुत सम्य है। गीता के साथ रामायण बहुत सम्य है। बहुत सामग्री इन्होंने ली। नाना पुराण निगमागम गयेऊ मोर सन्देह सुनेऊ सकल रघुपति चरित।। भयऊ राम पर नेह तब प्रसाद वायस तिलक।। हे वायस तिलक मेरा सन्देश का नाश हुआ है। रघुपति के चरणारबिन्द में भक्ति का प्रारम्भ हुआ और ये सारी प्रसादी गुरुदेव आपकी ही है। बाकि आपने मुझे सात काण्ड सुनाए। बालकाण्ड से लेकर उत्तरकाण्ड तक मेरे मन में सात सवाल आए हैं। आप कहो तो मैं सात सवाल पूछकर आप मुझे जवाब दो और मैं बैकुन्ठ चला जांऊ बाकि सात सवाल। वैसे तो सात काण्ड में उत्तर काण्ड इनका सार है। बाकि एक-एक सवाल, एक-एक काण्ड का प्रतिनिधित्व कर रहा है। महाराज आप कहो तो मैं पूछूँ। भुसुन्डी ने कहा अरे बापजी पूछो न। सद्गुरू चाहता है कि उनका शिष्य उनसे सवाल पूछे। कोई भी संशय बाकी न रह जाए ‘‘हां’’। अगर संशय रह गया तो इस जीवात्मा को मुक्ति कैसे मिलेगी। पूछो महाराज। सात  सवाल  पूछे हैं। वैसे तो सात सवाल में प्रवेश करना दो दिन में सम्भव नहीं है। सात सवाल का जवाब करने के लिए तो मुझे पूरे दिन की कथा करनी पड़ेगी। कभी मौका मिलेगा तो सुनाऊंगा। महाराज श्री गरुड़ जी एक सवाल पूछ रहे हैं।

।। ग्यानहीं भगतहि अंतर केता, सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ।।
।। भगति ज्ञान ही नहीं कहु भेदा, उभय हरहि भव संभव खेदा ।।

व्यक्ति जब सवाल पूछता है न तो उनकी बुद्धि कहां है ये बात समझ जाती है सात सवाल में गरुड़जी एक सवाल ये पूछ रहे हैं कि महाराज-ग्यानहि भगति अन्तर केता महाराज ज्ञान भक्ति में अन्तर कितना है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान को प्राधान्य दिया गरुड़ जी ने। बाकि ये जवाब देने वाला जो सामने बैठा है। न काग भुसुन्डजी वो भक्ति के ऊपर बैठने वाला भक्ति को प्राधान्य देता है। भक्ति उनका मन है। तो उन्होंने शब्द बदल दिया। ।।भगतिहि ग्यानहि नहि कछु भेदा।। ये ज्ञानी है। ये भगत है शब्द बदल दिया फिर भी बापजी ये ज्ञान क्या है। आपके पास रामायण हो तो उत्तर काण्ड का 116 वां जो है न दोहा इसके आगे की जो चौपाई है ये मैं इन दो दिनों में ले रहा हूं। ये सारी की सारी बात जिनमें आती है। मैं न भूल रहा हूं तो ये सारी कुल चालीस चौपाई है। इनमें दोहा भी आता है। एक सोरठा भी है। उत्तरकाण्ड दोहा 116 इसके आगे की जो चौपाई है वही ले रहा हूं। ज्ञान किसको कहते हैं। ये ज्ञान है क्या ? ज्ञान जीवन में आने के बाद जीवात्मा की अवस्था क्या होती है ? ज्ञान से क्या लाभ ? ज्ञान किसको कहते है ? बाजार में मिलता है क्या ? पांच किलो खरीद सकते हैं क्या ? ज्ञान की मनुष्य के जीवन में उपयोगिता क्या है ? पहले तो ज्ञान की जरूरत क्या है भला ? खावें, पीवें, सोवें, और आखिर में चले जाना। क्या तकलीफ है ? बहुत से लोग कहते हैं। भुसुण्डी ने ज्ञान की चर्चा से पहले विष्णु पुराण में ये शब्द लिखा है। ।।सा विद्या या विमुक्तये।। ज्ञान से जीवात्मा को मुक्ति मिलती है। विष्णु पुराण में ये आया है। तो क्या हमें ये समझना चाहिए कि जीवात्मा बन्धन में है। ये बात समझने के लिए आपको प्रहलादजी को समझना पड़ेगा। प्रहलाद जी कहते हैं। हिरणयकश्यपु को मैंने यही कहा है कि पिताश्री। जा बस जीव परा भव कूपा।।  ये संसार अन्धकूप है और जीव स्वयं अपने आप जाकर इसमें गिरा।

।। सुनहु तात यह अकथ कहानी, समुझत बनई न जाई बखानी।।
।। ईश्वर अंश जीव अबिनासी, चेतन अमल सहज सुख रासी।।

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