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परम्परा

नरेन्द्र कुमार सिन्हा

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :254
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3433
आईएसबीएन :81-8419-093-x

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वास्तविक जीवन को प्रतिबिम्बित करती कहानियाँ...

Parampra Narendra Kumar Sinha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस संग्रह की सभी कहानियाँ वास्तविक जीवन को प्रतिबिम्बित करती हैं तथा ये भारतीय भूमि की उपज है और इसमें भारत की मिट्टी की गन्ध है। कुछ कहानियाँ लेखक की यात्रा के दौरान प्राप्त वास्तविक अनुभव पर आधारित हैं, कुछ प्राप्त सूचनाओं पर और कुछ कल्पना पर आधारित है। कुछ में भय और दर्द की झलक मिलती है, तो कुछ में हल्का-फुल्कापन झलकता है ताकि पाठक हल्कापन महसूस कर सके।

दो शब्द


ये कहानियां अपने जीवन-कार्य से अवकास प्राप्ति के बाद के प्रयत्न-स्वरूप प्रस्तुत हैं। इनका पहला संस्कण ‘अधूरे सपने’ नाम से ग्रन्थ सदन, शाहदरा, द्वारा 2004 में प्रकाशित हो चुका है। इस परिवर्द्धित संस्करण में और भी कहानियाँ जोड़ी गई हैं और इन्हें पॉकेट बुक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यद्यपि मैं सम्प्रति अमेरिका में रह रहा हूँ पर ये सभी कहानियाँ भारतीय भूमि की उपज हैं, और इनमें भारत की मिट्टी की गन्ध है। आशा है कि ये पाठकों को पसन्द आएँगी।

-नरेन्द्र कुमार सिन्हा
मैडिसन, विस्कॉसिन, यू.एस.ए.

परम्परा


सूखी-जली कड़ाही को नारियल की छाल लेकर महावर लगी अपनी दाहिनी एँड़ी से दाँत दबाकर घिसती हुई सुगिया की चेष्टा ऐसी लगती जैसे वह किसी बकरे की गरदन रेत रही हो। उसकी आँखों में एक प्रकार का प्रतिशोध, प्रतिहिंसा, या प्रतिकार का भाव इस प्रकार कौंध जाता था कि क्षण भर के लिए मैं सचमुच सहम जाता था। अपनी अठारह वर्ष की उम्र में सुगिया सामान्यतः सुन्दर लगती थी। थोड़ा धीमा रंग, गोल-सुडौल चेहरा, भर माँग सिन्दूर, कलाई पर दो-चार काँच की चूड़ियाँ, आँखों में काजल, पाँवों में चाँदी के छल्ले, और हाँ, महावर—उसका यही रूप और श्रृंगार था। इस छोटे-से गाँव में हाईस्कूल का प्रधानाध्यापक होकर आना मेरे लिए मुसीबतों की जड़ सिद्ध हो रहा था। घर का अकेला लड़का होने के कारण गृहस्थी के झंझट में कभी पड़ा ही नहीं, और जब तक नौकरी पक्की नहीं हो जाती तब तक विवाह करके घर बसाने का विचार भी मन में नहीं ला सकता था। वह तो भला हो अपने चपरासी रंगनाथ का जिसने घर सम्भालने की समस्या चुटकियों में हल कर दी थी। उसकी ब्याहता बेटी सुगिया कुछ समय के लिए अपने मायके आकर रह रही थी और समय काटने तथा पेट पालने के लिए उसे ऐसी ही घरेलू नौकरी की आवश्यकता थी।

गाँव छोटा-सा था। दो-चार सप्ताह में ही गाँव के गणमान्य व्यक्तियों से परिचय हो गया था। सभी को इस बात से संतोष हुआ था कि मास्टर साहब को अब घर सम्भालने तथा खाना बनाने की चिन्ता से मुक्ति मिल गई थी। पहली बार सुगिया जब अपने बापू के साथ मेरे घर आई तो अपनी ओर से कुछ शर्त न रखकर वह मुझसे ही चाहने लगी कि मैं बताऊँ कि मैं उसे किस शर्त पर रखना चाहूँगा। मुझे याद है रंगनाथ की ओर देखकर मैंने कहा था—
‘‘देखो समय पर काम करना, सफाई से काम करना, और सफाई से रहना, मेरी तीन शर्ते हैं। खाना बनाओगी तो खाओगी ही, पैसे मैं तुम्हारे बापू से बात करके बता दूँगा।’’
‘‘बापू को क्यों साहब जी, मुझे ही बता दीजिए।’’
मैं मुस्कुराया, बोला, ‘‘फिर तुम्हीं बताओ क्या लोगी ?’
‘मुझे पता नहीं साहबजी, आप ही बता दें।’’
मुझे थोड़ी खीझ हुई, ‘‘इधर क्या भाव चलता है मुझे पता नहीं सुगिया, इसीलिए मैंने कहा था कि तुम्हारे बापू से बात करके बता दूँगा।’’
‘‘साहब जी, मैं कम-से-कम महीने के दो सौ रुपये लूंगी, कपड़े धोने के अलग।’’
‘‘वह क्या होगा ?’’
‘‘पचास रुपये महीने के और।’’
‘‘ठीक है, कुछ महीने तो काम कर सकोगी न ?’’

अचानक सुगिया जैसे सिहर उठी, आँख चुराकर चुप रही, बोली कुछ भी नहीं। रंगनाथ ने ही कहा, ‘‘साहब जी, जब तक सुगिया मेरे घर रहेगी, आपके यहाँ काम करती रहेगी। यदि नहीं रही तो खातिर जमा रखिए मैं कोई-न-कोई प्रबन्ध कर ही दूँगा। मेरी बेटी बहुत ईमानदार और मेहनती लड़की है, आपको कोई शिकायत नहीं होगी।’’
बात यहीं पर खत्म हो गईं। दूसरे दिन से सुगिया ने अपनी दिनचर्या समय पर शुरू कर दी, सवेरे सात बजे आकर मुझे चाय बनाकर दे देती, फिर घर की सफाई का काम करने लगती सारी सफाई के बाद वह नाश्ते का प्रबन्ध कर देती थी। मेरे स्नानादि के बाद कपड़े साफ करना, फिर खाना बनाकर रख जाना उसका नित्य का काम हो गया। अपना खाना वह मुझे दिखाकर ले जाती थी। मैं दोपहर लंच के अवकाश-काल में घर आकर खाना खा लेता था। चूल्हे पर रखे रहने के कारण खाना थोड़ा गरम ही रहता था। सुगिया फिर शाम को पाँच बजे आकर चाय बनाकर दे देती थी, फिर, रात के भोजन का प्रबन्ध। रात का भोजन वह खुद भी हमारे यहाँ ही कर लेती थी। इस तरह एक नियमित दिनचर्या चलने लगी। मैं प्रायः चाय पीने के बाद टहलने और मित्रों से गप करने निकल जाता था। रात का खाना नौ बजे के आस-पास होता था। सुगिया रात का बरतन दूसरे दिन सवेरे आकर धोती थी क्योंकि रात में वह जल्दी घर लौटना चाहती थी। यह अवश्य था कि रात भर के सूखे बरतनों को धोने में सुबह उसे अधिक परिश्रम करना पड़ता था।

उस दिन दिन में घर जाने से पहले मेरे पास आकर सुगिया ने कहा, ‘‘साहब जी, तेल खत्म हो गया है।’’
‘‘क्या ?’’ आश्चर्य से आँख फैलाते हुए मैंने पूछा, ‘‘इतनी जल्दी ?’’
सुगिया की आँखों में एक क्षण के लिए जैसे एक ज्वाला-सी फूट पड़ी, फिर कुछ शान्त होकर बोली, ‘‘साहब जी, मैं चोरी नहीं करती, और न ही झूठ ही बोलती हूं।’’
‘‘सुगिया, मेरा आशय तुम पर शक करना नहीं था। तुम तेल कुछ ज्यादा खर्च करती होगी। ज्यादा तेल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। खैर, कोई बात नहीं, मैं स्कूल से वापस आते समय लेता आऊँगा। कुछ और भी चाहिए हो तो बता दो।’’
‘‘अपने मन की कोई साग-सब्जी भी ला सकते हैं।’’
‘‘यह सब अगर तुम ही ला सको तो अच्छा है, मैं तुम्हें पैसे दे देता हूँ। तुम तो सब्जीवालों को जानती भी हो।’’
‘‘जी साहब जी।’’ मैंने उसे पैसे दे दिये।
सुगिया फिर भी खड़ी रही।
‘‘क्या बात है सुगिया ?’’ मैंने नरमी से पूछा।
‘‘आपने शादी क्यों नहीं की साहब जी ?’’ फिर झेंप भी गई।

‘‘सुगिया, अभी अपनी नौकरी का तो ठिकाना ही नहीं, शादी करके मैं परिवार को खिलाऊँगा क्या ?’’
सुगिया पैसे लेकर चली गई। मैं कुछ देर सोचता रहा। सुगिया की दृष्टि बहुत पैनी हुआ करती थी। कभी-कभी लगता था कि वह मेरे हृदय को बींधकर भीतर से मेरे मन की बात निकाल सकती है। और, जिस समय उसकी निगाह ऐसी हो जाती, वह या तो वह बोलती ही नहीं थी या यदि बोलती भी थी तो बड़े नपे-तुले शब्दों में, या हाँ या ना में। पर, यह उसके स्वभाव की विशेषता ही थी कि वह दूसरे ही क्षण सामान्य हो जाती थी। आँखों में एक स्निग्धता आ जाती थी, और शब्दों में एक चापलूसी।
घर के काम के बीच तो सुगिया से कभी-कभी कुछ बात हुआ करती थी, शाम के समय मेरे चाय पीते समय प्रायः ही पास बैठने लगी थी।
सुगिया चाय नहीं पीती थी, पर बना अच्छा लेती थी। उसके पास बैठने पर भी उससे बात अधिक नहीं हो पाती थी। कभी वह मुझे इस नज़र से देखती जैसे वह मुझे मन-ही-मन तौल रही हो। बहुत तीखी और पैनी दृष्टि होती थी उसकी। यदि उस समय मेरी नजर उससे जा मिलती तो वह तुरन्त ही अपनी निगाह नीची कर लेती थी। मुझे जब-न-तब ऐसा लगता रहता था जैसे कुछ बोलने के लिए उसके होंठ फड़फड़ा रहे हों, पर वह कुछ बोलती नहीं थी। एकाध बार मैं ही उससे पूछ बैठता—‘‘क्या बात है सुगिया ? कुछ कहना है ?’’

‘‘कुछ नहीं साहब जी,’’ और फिर वह उठकर काम करने चली जाती।
जाने क्यों मुझे कभी-कभी लगता कि सुगिया को काम पर रखकर मैंने कुछ अच्छा नहीं किया। यह मायके रहने आई है, कब तक रहेगी इसका भी कोई ठिकाना नहीं। अपने ससुराल से इतने अनिश्चित काल के लिए क्यों और कैसे चली आई ? दूसरी ओर ऐसी स्त्री को काम पर रखने से एक अपवाद की भी आशंका हो सकती थी। इसीलिए सुगिया से मैं उसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में कभी कुछ नहीं पूछता था और न अपने बारे में बताता ही था, दो में से किसी की बात एक दूसरे को सहज ही निकट ला सकती थी जो दो में से किसी के लिए वांछनीय नहीं था।
एक दिन वैसे ही मैंने रंगनाथ से पूछ लिया, ‘‘उसे कैसा लग रहा है ? कुछ बताती है तुम्हें ?’’
‘‘साहब जी, आपकी बड़ी तारीफ करती है, कहती है आप बड़े उदार और सज्जन व्यक्ति हैं।’’
मैं हँसा, ‘‘तुम ऐसा नहीं समझते क्या ?’’

रंगनाथ ने दाँत से जीभ को काटते हुए कहा, ‘‘राम-राम साहब जी आपने क्या कह दिया ? तोबा-तोबा !’’
‘‘अरे रंगनाथ मैं इसी तरह कभी-कभी मजाक कर लिया करता हूँ सभी से, मन हल्का रहता है।’’
फिर पूछ बैठा, ‘‘सुगिया तो अभी रहेगी न ?’’
मैंने देखा रंगनाथ के चेहरे का रंग कुछ उतर गया, ‘‘अभी तो रह ही रही है सरकार। वैसे भला कौन बाप चाहेगा कि बेटी ससुराल छोड़कर मायके रहे ?’’
‘‘क्यों, क्या बात है रंगनाथ ?’’ मैंने सहानुभूति से पूछा।
‘‘साहब जी, अब आप भले ही कुछ न कहें, सारा गाँव तो कहता ही है, बेटी ससुराल छोड़कर मायके में रह रही है।’’
‘‘लेकिन वह क्यों रह रही है ?’’ मैने खोदना चाहा।
‘‘यह एक लम्बी कहानी है, साहब जी, फिर कभी बताऊँगा।’’
‘‘ठीक है।’’

मन में उत्सुकता तो बहुत जग गई थी, पर मैं रंगनाथ के बयान की प्रतीक्षा करता रहा। सुगिया से मैंने कुछ पूछने की कोशिश नहीं की। यदि सुगिया खुद मुझे कुछ बताने की पहल करती तो शायद मैं उससे खोद-खोदकर और भी जानकारी ले पाता। पर हम दोनों के बीच इस प्रसंग को लेकर एक मौन की दीवार खड़ी रही। सारांशतः मैंने यह मान लिया कि जैसे हजारों घरों में होता है ससुराल में पति या सास-ससुर से नहीं पटी और लड़की वापस मायके आ गई।
 
जिसकी जबान नहीं चलती उसकी आँखें ज्यादा मुखर होती हैं, या यों कहिये कि जब जबान नहीं चलती तब आँखें ज्यादा बात करती हैं। सुगिया के लिए यह बात सही अर्थों में चरितार्थ होती थी। जब भी वह सहमी-सहमी होती तो उसकी आँखों में एक अकुलाहट-सी झलकती शायद यह सोचकर कि यह सामनेवाला आदमी समझ क्यों नहीं रहा या कुछ पूछ क्यों नहीं रहा ? फिर, आँखों से जितना कहा जाए उतना ही समझा जाए, न कम, न अधिक। मेरे लिए यह एक चुनौती थी, पर, सच पूछिए तो मैं इस झंझट में पड़ना ही नहीं चाहता था। एक क्षण जिन आँखों में यह पीड़ा या करुणा झलकती उन्हीं आँखों में दूसरे ही क्षण निराशा और उपलम्भ ! सुगिया अब शाम की चाय के समय अक्सर सामने जमीन पर बैठ जाया करती थी, बात चाहे हो या न हो। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी, बल्कि एक प्रकार से अच्छा ही लगता था। पर, यह अच्छा तभी लगता था जब मैं उन आँखों में ममत्व या स्नेह पाता था। दुर्भाग्यवश ऐसा कम होता था। प्रायः मैं पाता कि उन आँखों में एक आँधी-सी उठती होती थी। रह-रहकर यह लगता कि वह मन-ही-मन मुझे तोलती-सी होती थी। क्यों, यह समझ नहीं पाता था। अविवाहित होने के बावजूद मैंने उसके रूप-यौवन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, न ही मैंने यह जताने की कोशिश की कि मैं उसकी समस्या के प्रति कोई सहानुभूति प्रकट करने जा रहा होऊँ ! ऐसे वाकये होते ही रहते हैं और सुगिया भी उन हजारों-लाखों में एक थी, फिर उससे अतिरिक्त सहानुभूति जताने की आवश्यकता ही क्या थी ? और फिर बिना पूछे या बिना माँगे ? अब इन आँखों की माँग को क्या कहा जाए ? मेरा अपना निष्कर्ष गलत भी हो सकता था, फिर मैं ही क्यों अँधेरे में छलाँग लगाने जाऊँ ? देर तक जब सन्नाटा सहन नहीं होता और सुगिया फिर भी बैठी होती तो औपचारिकतावश पूछ बैठता, ‘‘सब काम खत्म हो गया ?’’ या ‘‘सब ठीक तो चल रहा है ?’’ या ‘‘भण्डार में सामान तो है न ?’ मतलब, व्यक्तिगत प्रश्नों से मैं अपने को दूर ही रखता। वह भी कोई व्यक्तिगत प्रश्न नहीं पूछती। उसके प्रश्न होते, ‘‘खाना ठीक लगता है न ?’’ या ‘‘चाय अच्छी बनी है न ?’’ या ‘‘मेरा काम माफिक लग रहा है न ?’’ इन प्रश्नों का उत्तर भी संक्षेप में ही देता था बिना किसी प्रशंसा या अतिशयोक्ति के। जैसे कहा जा सकता था, ‘‘सुगिया, खाना तो तुम इतना अच्छा बनाती हो कि मैं उँगली चाटता रह जाता हूँ।’’ या ‘‘तुम तो जैसे लगता है बड़े होटलों में खाना बना चुकी हो।’’ और भी अधिक रोमांटिक होकर कहा जा सकता था, ‘‘सुगिया, तुम्हारे हाथ के खाने का क्या कहना, वे उँगलियाँ तो दिखाओ जिनसे तुम खाना बनाती हो।’’ पर मैं ऐसा कुछ नहीं कहता। मेरा संक्षिप्त में उत्तर होता, ‘‘हाँ, खाना मेरी पसन्द का रहता है, ठीक लगता है।’’ तब मैं ध्यान देता उसकी आँखों में एक असन्तोष-सा झलकता जैसे वह कुछ और सुनना चाह रही हो। परेशानी यह थी कि किसी बात पर यदि मैं कुछ अधिक बोल देता था तो उसकी आँखों में एक शंका-सी झाँक जाती थी। जैसे एक बार मैंने कह दिया कि ‘‘सुगिया, मुझे बहुत खुशी है कि जिन तीन शर्तों के साथ मैंने तुम्हें रखा था तुम तीनों को बखूबी पूरा कर रही हो, बहुत अच्छा लग रहा है।’’ अब उन आँखों की अभिव्यक्ति को मैं सही पढ़ पा रहा था या मेरा भ्रम था, पता नहीं, पर लगा कि जैसे पहला वाक्य सुनकर उसकी आँखों में एक सन्तोष झलक गया था, पर तुरन्त ही दूसरा वाक्य सुनने पर एक विचित्र प्रकार की शंका जैसे कि ‘‘बहुत अच्छा लग रहा है।’’ ऐसा मुझे नहीं कहना चाहिए था !

फिर एक दिन जब मुझसे नहीं रहा गया तथा सन्नाटा नहीं सहा गया तो मैंने पूछ लिया, ‘‘सुगिया मेरा दिया वेतन तो पूरा पड़ रहा है न ?’’
‘‘मुझे और क्या करना है साहब जी ! खाना आपके यहाँ खा लेती हूँ, रहना बापू के यहाँ हो जाता है। पैसों को करना ही क्या है ?’’
‘‘क्यों ? पैसे तो हर स्थिति में रखने चाहिए। पैसों की जरूरत बाद में पड़ सकती है, अपने लिए नहीं तो बाल-बच्चों के लिए !’’
और बस उन आँखों में अचानक उतर आया एक भयानक विद्रूप, एक पीड़ा, एक कुंठा ! सुगिया तुरंत उठकर काम करने चली गई। मुझे लगा मैंने उसकी कोई दुखती रग पकड़ ली है। यह सब अनजाने में ही हुआ और बहुत देर तक मुझे इसकी ग्लानि होती रही। बहुत खुशी हुई जब घण्टे भर बाद वह मुझे शान्त भाव से खाना खिलाने वापस आई।
उस दिन सुगिया जैसे कुछ बोलने के लिए तैयार बैठी थी। चाय रखते ही वह पास आकर बैठ गई, ‘‘बोली, मर्द-मर्द में इतना फर्क क्यों होता है, साहब जी ?’’
‘‘हर आदमी एक दूसरे से अलग होता है सुगिया !’’
‘‘मैं वह नहीं कह रही साहब जी !’’
‘‘फिर क्या ?’’
‘‘जैसे मेरा मर्द....’’ उसके आगे बोला नहीं गया।
‘‘और ?’’ मैंने उत्सुकता जताई।

जैसे उसके कण्ठ से आवाज बहुत मुश्किल से निकल पा रही हो, ‘‘और, और...और आप अपने को ही ले लीजिए।’’
‘‘सुगिया, क्या औरत-औरत में फर्क नहीं होता ? मनुष्य पैदा तो एक तरह होता है पर शिक्षा और संस्कार उसे अलग कर देते हैं।’’
‘‘यह बात तो है साहब जी, मेरा मर्द पढ़ा-लिखा ही नहीं।’’
‘‘शिक्षा का मतलब केवल पढ़ना ही नहीं होता सुगिया। देखना यह होता है कि आदमी कहाँ रहता है, किससे कितना सीखता है, अच्छी सीख तथा बुरी सीख में कितना भेद करता है और किसे कितना ग्रहण करता है।’’
कुछ देर चुप्पी-सी बनी रही, फिर अचानक ही घृणा, क्रोध तथा विद्रूप के साथ उसके मुँह से एक वाक्य निकल गया, ‘‘मेरा मर्द तो मर्द ही नहीं है साहब !’’ कहकर जैसे वह जमीन में गड़ गई। एक आघात-सा लेकर मैं चुप बना रहा। सुगिया उठकर काम करने चली गई।
उस दिन के बाद लगा कि जैसे वह अपने शरीर के एक-एक अंग को मुझसे छुपाकर चल रही हो। उसके हाथ पर भी मेरी नजर जाती तो वह हाथ को पीछे कर लेती या आँचल में छिपा लेती ! सर पर का आँचल आगे बढ़ गया था। मैं सोचता था, और शायद वह भी सोचती हो, इतनी बड़ी बात वह इतनी आसानी से वह कैसे बोल गई ! कुछ दिनों तक हम दोनों के बीच एक चुप्पी बनी रही।

फिर एक दिन देखा, वह सहज हो गई और हलकी लगने लगी। चाय रखकर पास ही बैठ गई, ‘‘साहब जी, आपकी तो शादी नहीं हुई आप कैसे समझेंगे ?’’
‘‘क्या नहीं समझूँगा सुगिया ?’’
‘‘साहब जी, औरत उसके बिना भी रह सकती है। उसे तब भी दिल भरने के लिए प्यार चाहिए, मरजाद चाहिए। सभी को सब कुछ तो नहीं मिलता लेकिन जो मिला वह उसे तभी गँवारा होता है यदि उसके अलावा उसे दूसरा सब मिले। साहब जी, जीने के लिए कुछ तो चाहिए।’’
‘‘सुगिया दूसरी ओर भी सोचो। वह कहेगा कि उसे भी तो नहीं मिला। सभी मिलने की बात करते हैं, देने की बात कोई नहीं करता।’’

‘‘यह तो आपने बहुत बड़ी बात कह दी साहब जी, आप बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं, मैं जाहिल ठहरी। लेकिन औरत जब अपना घर-परिवार, बंधु-बाँधव, सब कुछ छोड़कर ससुराल आती है तो अपने को देने ही तो आती है। तब उसके मन में सौदेबाजी नहीं होती। साहब जी, सौदेबाजी तो उसमें तब आती है जब औरत देखती है कि उसका सब लिया जा रहा है, उसे लूटा जा रहा है, लेकिन देने के नाम पर अत्याचार, उलाहना, दोषारोपण, तू-तू, मैं-मैं, मार-पीट। छीः साहब जी, ऐसे जीने से तो मर जाना कहीं अच्छा होता है।’’
सुगिया अपने अन्तर्मन की एक-एक परत खोलकर रख रही थी। आगे काँपती आवाज में बोली—‘‘फिर साहब जी, मर्द अगर मर्द नहीं है तो क्या वह लाठी के जोर पर अपने को मर्द साबित कर सकता है ?’’
रुआँसा होकर सुगिया ने अन्त में इतना ही कहा, ‘‘खाना पका लूँ जाकर, देर हो जाएगी ?’’
जब देखा कि सुगिया अब मुझसे खुलकर बातें करने लगी है तो एक दिन मैंने पूछ लिया, ‘‘क्या तुम्हें मेरे यहाँ काम स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं हुआ था, सुगिया ?’’
 



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