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यह अंत नहीं

मिथिलेश्वर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :391
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3445
आईएसबीएन :81-7016-465-6

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अंतहीन समस्याओं के खिलाफ मानवीय संघर्ष की विजयगाथा.....

Yah ant naheen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


अंतहीन बनती समस्याओं के खिलाफ मानवीय संघर्ष की विजयगाथा का जीवंत उपन्यास। जीवन की सकारात्मक चेतना और अपराजेय मानवीय जिजीविषा का सार्थक उद्घोष। ग्रामीण जीवन की जमीनी सच्चाई का बेबाक चित्रण। चुनिया और जोखन के रूप में अविस्मरणीय चरित्रों का सृजन। हिंसा, द्वेष और नफरत के विरुद्ध सहज मानवीय संबंधों की स्थापना। गहन मानवीय संवेदनाओं का दस्तावेज। हिन्दी उपन्यास के समकालीन दौर में कलावाद और यथार्थवाद के द्वंद्व को पाटने वाला एक मजबूत सेतु। एक तरफ भाषा की रवानगी और खिलंदड़पन तो दूसरी तरफ जमीनी सच्चाइयों का अंकन। भाषा, शिल्प और कथ्य के स्तर पर एक सशक्त कृति। बींसवी शताब्दी का एक स्तरीय और यादगार उपन्यास।

विपरीत परिस्थियों में भी
जीवन की  सार्थक सक्रियता
बहाल रखने वाली
अपराजेय मानवीय जिजीविषा
के नाम

तेज बारिश में


लगातार सात दिनों से खूब जोरों की बारिश हो रही थी। आँधी और पानी दोनों साथ-साथ। तूफानी मौसम। घरों से निकलना मुश्किल। खवासडीह के ग्रामवासी परेशान और त्रस्त। खवासडीह के ऊपर मँड़राते बादल छँटने का नाम तक नहीं ले रहे थे। अपने सारे काम-धाम छोड़ लोग घरों में सिमट आए थे। जिन चतुर और अग्रसोची लोगों ने राशन और ईंधन बचाकर रखा था, उनके यहाँ तो किसी तरह रसोई पक भी जाती। लेकिन रोज-मजूरी पर जीने, एकाध साँझ का ही इंतजाम रखने और आकाशवृत्ति पर पलने वाले अब चुरा-चबेनी फाँककर समय गुजारने लगे थे। मवेशियों को लेकर अलग बदहाली थी। बथान में (सार घर में) अपने गोबर -मूत पर खड़े बोलते रहते। जिनके बथान की जमीन नीची थी उनके बथान में तो पानी भी जमा होने लगा था। पानी में खड़े मवेशियों का संकट और बढ़ता ही जा रहा था। घर के अंदर बचे-खुचे दाने-भूसे पर उन्हें किसी तरह जिलाए रखने का उपक्रम जारी था।

खवासडीह के बड़े-बुजुर्गों के अनुसार पचास वर्षों के बाद ऐसी प्रलयकारी बारिश हो रही थी। देखते-ही-देखते खेत-खलियान, नदी-नाले, आर-पगार सब डूब गए। उँचे पर बसे गाँव की गलियों में भी ठेहुने भर पानी लग गया। गलियों का पानी जब घरों में घुसने लगा तो लोग और बेचैन हो उठे। अब घरों में रहना मुश्किल। जिनके घर पक्के थे वे अपली छतों पर जमने लगे। मिट्टी की दीवारों वाले घरवईया तो भगवान-भगवान करते रहे। बाढ़ के पानी में बहकर आने वाले साँप-बिच्छुओँ का घरों में घुसना शुरू हो गया। अपने घर पानी में खड़े ललन कहार की जाँघ से सटकर एक गेहुँमन गुजर गया। गनीमत थी कि उसने ललन को काटा नहीं। उस वक्त ललन अपने घर के भीतर सामान को बचाने की फिराक में था। अचानक अपनी जाँघ से सटकर फन काढ़े बहते गेहुँमन को देख भय से वह काँप उठा। एकदम सन्न् रह गया। काटो तो उसकी देह में खून नहीं। इसी दौरान शुकन दुसाध के घर भरने की घटना से कच्चे घरों के निवासियों के पाँव उखड़ गए। वे त्राहि-त्राहि कर उठे। अपने मवेशियों का पगहा खोल उन्हें स्वतन्त्र कर दिया मकान में दबने से पहले पानी में तैरकर वे कहीं भाग सकें ! हाँलाकि वे जानते थे, सर्वत्र उफनती बाढ़ में भागेंगे ?

 लेकिन खूँटे में बँधे हुए उनके मरने के दोष से तो वे मुक्त हो जाएँगे। मवेशियों को आजाद करने के बाद जिन लोगों को अपने घरों के भरने की आशंका सता रही थी वे अपने बाल-बच्चों समेत पक्के घर वालों के यहाँ भाग चले और उनकी छतों पर जाकर पनाह लेने लगे। प्रायः गाँव के सभी पक्के छतों पर लोगों की भीड़ लग गई। पहले से इसकी भनक होती तो वाटरप्रूफ तिरपाल या प्लास्टिक की चादरें वे जुटाकर रखते ताकि छतों पर उनकी भीड़ में पानी से बचे रहते। पर अचानक आई इस प्राकृतिक आपदा ने उन्हें साधन विहीन और असुरक्षित बना दिया था। छतों पर बारिश से भीगते और हवा के थपेड़ों से काँपते-थरथराते औरत-मर्द और बच्चे सिर्फ भगवान-भगवान की रट लगाते रहे-‘‘हे बजरंगवली....हे शिवजी....हे काली मइया रक्षा करें....जान बचाएँ ....एक राक्षसी तूफान को रोंके ! हे सुरूज बाबा....हे किसुन महाराज...हे राम जी....!’’

ऐसे ही आफती मौसम में बड़टोली की एक छत पर आधी रात के आसपास खवासडीह के नरोत्तम कहार की पत्नी ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया-एक लड़की और दूसरा लड़का, जो चुनिया और बुंतु के नाम से जाने गए। पहले चुनिया पैदा हुई, बाद में बुंतु। नरोत्तम कहार के पड़ोस की महिलाओं ने पानी में भीगते भीड़ भरे छत पर चादर का ओहार तानकर उन्हें पैदा कराया। लेकिन यह अजीब संयोग घटित हुआ कि चुनिया के जन्मते बारिश थम गई। तूफान शान्त हो गया। कुछ लोग इसे चुनिया के जन्म का चमत्कार मानने लगे। पर कुछ लोग इसे बारिश की पूर गई मियाद ! जो हो, लोगों की जान में जान लौट आई। मौत के मुँह से बच निकलने के लिए वे भगवान का शुक्रिया अदा करने लगे। साथ ही अपनी चीजों, घरों और माल-मवेशियों की साज-सँभाल में फिर जुट गए। जिनके घर गिर चुके थे सामान बर्बाद हो गये थे और कुछ मवेशी मर गए थे, वे इस विनाशकारी तूफान को गलियारे में कोसते फिर से अपने को खड़ा करने में लग गए थे। इस तूफान ने किसी को नहीं बक्शा था। किसी का ज्यादा नुकसान हुआ था तो किसी का कम, पर कुछ-न-कुछ नुकसान सबका हुआ था....!

भोजपुर जिले के खवासडीह नामक जिस गाँव में जन्मी थी चुनिया, वह गाँव तब भी इलाके में अपनी तरह का अनूठा गाँव था और अब भी उसका अनुठापन बना हुआ था। भोजपुर के गाँवों में सवर्ण-अवर्ण, अमीर-गरीब तथा खेत-मालिक खेतिहार-मजदूर के बीच जो संघर्ष चल रहा था, उससे किसी स्वतंत्र टापू की भाँति यह गाँव अछूता बचता जा रहा था। असल में इस बड़े गाँव की आबादी का एक बड़ा हिस्सा एक जाति-विशेष के लोगों का था, जिनका जीवन स्तर भी कमोबेश एक जैसा ही था। इस गांव की संस्कृति और मानसिकता पर पूरी तरह उनका ही वर्चस्व था। वे आपस में भले ही कट मरें, लेकिन दूसरे तबके की ओर से उठी आवाज को तत्क्षण संगठित हो साम, दाम और दंड, विभेद के आधार पर नेस्तनाबूत कर देते थे। अपने गाँव से असंतोष और विरोध की लहर उन्होंने पनपने ही नहीं दी, इसीलिए बाहरी हवा का असर भी वहाँ नहीं हो सका।

चुनिया का पिता नरोत्तम कहार गाँव के अल्पसंख्यकों में से था। कहार-टोली के सात-आठ घर कहारों में से एक। उन कहारों के जिम्मे खेती के लिए अपनी कोई जमीन नहीं तथा नाई, धोबी, बढ़ई. कुम्हार आदि जातियों की भाँति अपना कोई जातिगत व्यवसाय भी नहीं। अपनी आजीविका चलाने के लिए उन्हें जोतदारों के यहाँ बनिहार-चरवाह बनना पड़ता। बारातों में पानी भरना तथा पालकी ढोना होता। उनकी औरतें जोतदारों के यहाँ चौका-बर्तन करतीं, मवेशियों का गोबर काढ़तीं (हटाती) तथा जोतदारों की बहू-बेटियों को तेल लगातीं।
चुनिया जब पैदा हुई थी, उसके बाबू श्रवण सिंह के यहां बनिहार थे। वह अपनी पीठ पर भाई लेकर आई थी। उसके मुहल्ले की औरतें उसे भागमानी कहतीं। लेकिन उसके अभावग्रस्त और कामकाजी मां-बाप परेशानी महसूस करते। एक साथ दो बच्चों की परवरिश। दो बच्चों को  साथ लेकर मालिक के यहाँ काम पर जा पाती उसकी माँ। कहती- ‘‘भगवान को देना ही था तो बारी-बारी से देते। अब भला इन्हें सँभालूँ या इनके खाने-पीने का इंतजाम करूँ......?’’

अकेले नरोत्तम को काम पर जाना पड़ता, जिनकी आय गृहस्थी के लिए नहीं पड़ती। इस स्थिति में कुछ समय तक उसका जीवन कष्टों और परेशानियों  से घिरा रहा। बच्चों के लिए दूध-घी की बात तो सपना थी, समय पर माँड़-भात का जुगाड़ भी तो नहीं हो पाता था। पर जैसे ही चुनिया गोद में लेने लायक हो गई, बाबू ने उसे अपने जिम्मे ले लिया। बेटा माँ की गोद में और बेटी बाप की गोद में कंधे पर....अब दोनों माँ-बाप एक-एक बच्चे के साथ अपने काम पर जाने लगे।
 हल की मूठ पकड़े बैलों को टिटकारी मारता नरोत्तम और उसके कंधे पर बैठी नन्ही चुनिया अचरज से खेत-खलियान और, नदी-नाले, गाँव-बगीचे सब कुछ अपनी छोटी-छोटी आँखों से निहारा करती। उसकी कौतुक-भरी आँखें बाबू की टिटकारी, बैलों के चलने, हल की फाल से खेतों की मिट्टी उखड़ने, कुएँ में लगी रहट से पानी निकलने तथा आम के वृक्ष पर बैठकर कोयल के कूकने पर भी रह-रहकर ठहर जाती। उसका ध्यान जैसे ही किसी चीज पर जाता उसे निहारने के साथ बाबू से पूछ उठती-‘‘इ का है बाबू....?’’ बाबू जवाब देते-‘‘यह कोईलर चिरई  (कोयल चिड़िया) है बुचिया।’’ फिर दूसरा सवाल- ‘‘इसका नाम कोइलर काहे है बाबू ?’’

बाबू बताते है यह कुचकुच काली है इसलिए नन्हकी।’’ इसके बाद तीसरा सवाल ! फिर चौथा सवाल ! सवालों की अनवरत झड़ी। बाबू भी जवाब देने में आनाकानी नहीं करते और न झुल्लाते और न थकते। खेत की जोताई भी नहीं रहती और चुनिया का परिचय भी इस दुनिया से होता जाता।
बाबू को जब लगता कि कंधे पर बैठी चुनिया का माथा घमा रहा है तो अपना अँगोछा चुनिया के ऊपर डाल देते-‘‘इसे ओढ ले नन्हकी, घाम बहुत कर्कश है। माथा अगिया जाएगा...।’
 बाबू को प्यास लगती तो उससे भी कहते,-‘‘चल पानी पी लेते हैं नन्हकी। तू भी पिआसी होगी....!’’
बाबू अपने हाथों का खदोना बना कुएँ का शीतल जल पहले उसे पिलाते। फिर स्वयं पीते। बाबू के कंधे पर सवार चुनिया खाना लेकर घर से आ रही माँ को दूर से ही देख लेती। माथे पर खाने की बँधी थाली, हाथ में पानी से भरा लोटा तथा कमर पर लदा उसका जुड़वाँ भाई बुंतु। वह किलकारी मारकर चहक उठती-‘‘माई आई बाबू ! माई आई....!’’

बाबू के कंधे पर वह उछलने लगती। बाबू उसे नीचे उतार देते। वह अपने नन्हे-नन्हे नंगे पैरों से खेत की मेड़ों पर दौड़ते हुए माई से जा मिलती। फिर माई की साड़ी पकड़ उसके आगे-आगे चलते हुए बाबू तक आती। बाबू जब खाना खाने बैठते तो वह भी साथ बैठ जाती। बुंतु भी बगल में बैठ जाता। तीनों जन एक साथ खाते। माँ पंखा झलती। जब उसके मुँह में मिर्च का कोई टुकड़ा चला जाता और वह चिल्लाने लगती-‘‘माई रे माई !’’ तो खूँटे में बँधी गुड़ की भेली तोड़कर माई उसे चखा देती। बुंतु भी मिर्च खा लेता तो उसे भी चखाती...। गुड़ चखकर वह हँसने लगती। एक क्षण में ही रुलाई। दूसरे ही क्षण हँसी....।

बीतते समय के अनुसार अब बाबू के कन्धे पर उसे अच्छा नहीं लगता घर से मालिक के खेत तक वह बाबू के कंधे पर टँग कर जरूर आती। लेकिन खेत पर पहुँचते ही जमीन पर धम्म से कूद जाती। बाबू लाख कहते कि उस पे़ड़ के नीचे बैठकर गोटी (छिटके का खेल) खेलों पर वह नहीं मानती। बाबू जिस खेत में कुदाल चलाते, वह भी उस खेत की घास चुनती।  बाबू की कुदाल से निकले मिट्टी के चकत्तों को फोड़कर भुरभुरा बनाती। खेत मालिक श्रवण सिंह कभी देख लेते तो शाबाशी भी देते-‘‘बहुत खूब नन्हकी !’’ फिर उसके बाबू से कहते-‘‘तेरी छोरी बहुत मेहनती होगी नरोत्तम। बहादुर लड़की है। इसे तो छोरा होना था। यह कैसे छोरी हो गई....?’’
कटनी के दिनों में नरोत्तम बोझा ढोता तो चुनिया खेत में बिखरी धान की बालियों को चुनती। बाल बीनकर (बालियों को चुनकर) वह कभी चार सेर को कभी पाँच सेर धान जुटा लेती। यह बाल बीना धान उसका अपना होता। माई तो धान देख निहाल हो जाती-‘‘नन्हकी के बाबू, अब अपनी नन्हकी भी कमासुत हो गई...!

लेकिन श्रवण सिंह के लोगों की आँखों में उसका बाल बीनना गड़ जाता। श्रवण सिंह का मुँहफट चाचा नकटू अपनी आदत से बाज नहीं आता-‘‘बोझा बाँधते हुए खेत में जानबूझ कर बाल (अनाज की बालियाँ) मत गिराओ नरोत्तम। हम देख रहे हैं कि तुम जिस खेत में बोझा बाँध रहे हो उसमें जास्ती (ज्यादा) बाल गिरा देते हो....!’’
इस पर नरोत्तम भी ताव में आ जाता-‘‘तो ठीक है। दोसरा से बोझा बन्धवा लो। हम खाली ढो देंगे....।’’
यह देख श्रवण सिंह बीच-बचाव करते-‘‘चाचा तुम जाकर खलियान में देखो। मैं यहाँ बोझा बन्धवा रहा हूँ.....। वहाँ खलियान में कोई नहीं है।’’

श्रवण सिंह छोटी-छोटी चीजों में उलझना नहीं चाहते। अपने बनिहार-चरवाह को मिलाकर रखने में अपना हित समझते हैं। बार-बार बनिहार-चरवाह बदलते रहें तो खेती-गृहस्थी पर भी इसका नुकसान-देह प्रभाव पड़ता है। वैसे भी उनके गांव में बनिहार-चरवाहा की बड़ी किल्लत है। ले देकर सिर्फ पाँच-छः घर कहार ही तो हैं। बनिहार-चरवाह की कमी के कारण उनकी बिरादरी के कई लोग तो बनिहारी–चरवाही के अपने कार्यों को स्वयं अंजाम देते थे। लेकिन श्रवण सिंह इसे अच्छा नहीं मानते। लड़कों की शादी-ब्याह पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। शादी के लिए आने वाले अगुये यह जानते ही कि इसके यहाँ बनिहार-चरवाह नहीं, अपने कदम पीछे खींच लेते हैं। श्रवण सिंह ने अपने बेटे की शादी पर्याप्त तिलक-दहेज लेकर एक अच्छे घर में की, इसकी वजह उनके यहाँ लगातार-बनिहार चरवाह का होना भी रहा है। यह नरोत्तम ही पिछले पंद्रह सालों से उनके यहाँ बनिहार बना हुआ है। कोई और घर होता तो अब तक वह नहीं टिका रहता, इसलिए नकटू चाचा जब भी नरोत्तम से उलझते श्रवण सिंह बीच-बचाव के लिए सामने आ जाते।

नरोत्तम से जिस दिन भी नकटू की बकझक होती, घर आने पर पत्नी के समक्ष अपने मन की भड़ाँस अवश्य व्यक्त करता-‘‘आज फिर नन्हकी बाल बीन रही थी तो नकटुआ बीच में टुभुक पड़ा। यह बाँड़-ठूँठ नकटुआ बोलने से बाज नहीं आता। अगर यह बीबी-बच्चों वाला होता तब तो आग में मूतता....।’’

इस पर उसकी पत्नी उसे समझाती-‘‘बीबी-बच्चों वाला होता तो आइसा अनेत नहीं करता। बाँड़-बहेंगवा और निसतानी-निपुत्तर ही अइसा करते हैं। भगवान जिसे छूछे हाथ भेजते हैं, उसका मन भी छूछा कर देते हैं.....।’’
सचमुच नकटू का कोई नहीं था। उसके हाड़े हरदी लगी ही नहीं (शादी हुई ही नहीं) कि कोई। अपने हिस्से का खेत उसने अपने भतीजे श्रवण को लिख दिया था। मजदूर की तरह खटता था। श्रवण के खेत के एक-एक दाने का हिसाब रखता था। भिछुक-भिखार और साधु-संयासी पर भी लाठी लेकर टूटता था। दान धर्म से तो उसे चिढ़ थी। श्रवण के घर के लोग खुश थे। उसे मालिक करार दे दिया था। लेकिन गाँव के लोगों की नजर में वह मूढ और अभागा था। उसका यह लोक तो बर्बाद हो ही गया था, अपना परलोक भी वह चौपट कर रहा था। नरोत्तम प्रकृति से भली-भाँति परिचित था, इसीलिए अक्सर उससे उसकी झड़प हो जाया करती थी। नरोत्तम इस वज्रमूर्ख से भिड़ना नहीं चाहता। लेकिन वह बीच में कूद ही पड़ता था।

खलियान में ओसवनी के वक्त भी नकटू से नरोत्तम की टकराहट हो जाती। ओसवनी के समय नन्हकी फिर खँखरी (छाड़न) बटोरकर अपने लिए अलग ओसाती तथा ‘मुसकइल’ (मुस द्वारा चाली मिट्टी) में मिले अनाज अलग करती तो उस पर भी नकटू की वक्र दृष्टि चली ही जाती। यहाँ भी वह बिना बोले नहीं रह पाता-‘‘ऐ छोरी, खलियान में मिला अनाज आधा खलियान में ही रख देना और आधा ले जाना.....!’’



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