लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> हिम्मत है

हिम्मत है

किरण बेदी

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3449
आईएसबीएन :81-7182-991-0

Like this Hindi book 14 पाठकों को प्रिय

103 पाठक हैं

किरण बेदी की जीवनी....

Himmat Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

यह सारा काम और मेरे सरोकार मेरी आत्मीय बहन के अनुराग और माता-पिता के अपरिमित आशीर्वाद का प्रतिफलन है। उन्हीं की बदौलत यह साहस मुझमें समा सका है।

-किरण बेदी

इसी पुस्तक से


जैसे-जैसे वह नशीले पदार्थ संबंधी अपराधों के निवारण में बाहरी रूप से जुड़ती गई, वैसे-वैसे इस समस्या से मानसिक रूप से जुड़ने लगीं। किरण के सामने स्पष्ट था कि नशीले पदार्थ और अपराध साथ-साथ चलते हैं और वह सिद्धांत के स्तर पर भी इसी कारण-परिणाम संबंध को समझने में जुट गई। उन्होंने अब इस विषय पर उपलब्ध पुस्तकों का अध्ययन किया तो पाया कि यद्यपि पश्चिमी देशों में से इस विषय पर काफी-कुछ काम किया जा चुका है किन्तु भारतीय साहित्य और भारतीय परिदृश्य में उस पर बहुत कम सामग्री उपलब्ध है। एक सरसरी जाँच से पता चला कि नशीले पदार्थों के व्यसन की परिणति अधिकतर घरेलू हिंसा संबंधी अपराधों में होती हैं और यह हिंसा केवल मौखिक गाली-गलौज नहीं बल्कि बड़ी सीमा तक शारीरिक तथा मानसिक यंत्रणा, बल्कि शारीरिक हिंसा में भी अभिव्यक्ति होती है।

1
आरंभिक वर्ष


भव्य और आलीशान राष्ट्रपति भवन को जाने वाली सड़क राजपथ अपने पूरे वैभव में जगमगा रही थी। ऐसा हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर होता ही है। वर्ष 1975 की 26 जनवरी को भी ऐसा ही हुआ। अगर कुछ भिन्न था तो यह कि मार्च पास्ट में पहली बार दिल्ली पुलिस के पुरस्कृत दस्ते का नेतृत्व एक महिला अधिकारी कर रही थी। उसी महिला का कार्य निष्पादन इतना अधिक प्रभावशाली रहा कि प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने सहायकों को इशारे से उस महिला अफसर की पहचान करवाई और अगली ही सुबह उसे नाश्ते के लिए आमंत्रित किया। वह अधिकारी और कोई नहीं किरण बेदी ही थीं। किरण की पहली नियुक्त उस समय चाणक्यपुरी, नई दिल्ली में सब-डिवीजनल अधिकारी के रूप में हुई थी।

दरअसल किरण को बिल्कुल आखिरी समय पता चला कि उन्हें परेड का नेतृत्व नहीं करना है। वह दिल्ली पुलिस के तत्कालीन महानिरीक्षक पी.आर. राजगोपाल से मिलने के लिए तत्काल पहुंची और उसने प्रश्न किया, ‘‘सर, मुझे बताया गया है कि परेड़ का नेतृत्व मैं नहीं कर रही हूँ ?’’
‘‘देखों किरण, पंद्रह किलोमीटर तक मार्च करना है, और तुम्हें इतना लम्बा रास्ता भारी तलवार थामकर करना होगा। कर पाओगी ?’’
‘‘सर इतने गहन प्रशिक्षण के बाद भी मुझे इस प्रश्न  का उत्तर देना पड़ेगा ? किरण ने हैरान होकर पूछा था और परेड का नेतृत्व किरण ने ही किया।’’

‘‘कुछ वर्ष बाद इसी राजपथ पर 5 नवंबर 1979 को एक विस्मयकारी नाटक खोला गया। लंबे-लंबे कुरते पहने, पेटियों में खाली म्यानें लटकाए, हाथों में तलवारें थामे सैकड़ों सिख बड़े धमकी-भरे अंदाज़ से राष्ट्रपति भवन की ओर बढ़ रहे थे। जैसे-जैसे वे अपनी मंज़िल के निकट पहुंच रहे थे, वैसे-वैसे उनके रवैये की आक्रामकता बढ़ रही थी। आख़िर वे भयानक रोमांचकारी रणनाद करते हुए बेतहाशा दौड़ने लगे। धार्मिक उन्माद से ग्रस्त वे लोग निरंकारी सिखों द्वारा पहले आयोजित संत समागम के विरोध में जुलूस निकाल रहे थे। किरण बेदी ने चिल्लाकार प्रदर्शनकारियों को आगे बढ़ने से रोका। वे उस समय दिल्ली पुलिस के एक दल का नेतृत्व कर रही थीं। इसके उत्तर में उन्होंने पुलिस दल पर आक्रमण कर दिया। किरण बेदी के सिपाही तो मैदान छोड़कर भाग निकले सिर्फ अपनी हैलमेट और बैटन के सहारे उस समूह पर किरण ने धावा बोल दिया। घूसों की बौछार के बावजूद किरण ने अभूतपूर्व साहस का प्रदर्शनकारियों का डटकर मुकाबला किया जब तक वे उनके साहस और संकल्प से भयभीत नहीं हो गए। तभी उनके सिपाही लौट आए और पूरी स्थिति पर काबू पा लिया गया।

अपने फ़र्ज़ की अपेक्षा से आगे बढ़कर यह कार्य करने के लिए किरण बेदी को उनके पराक्रम के लिए 10 अक्टूबर 1980 को पुलिस पदक प्रदान किया गया।
 
किरण तत्कालीन पुलिस कमिश्नर जे.एन. चतुर्वेदी को बहुत स्नेहपूर्वक स्मरण करती है, क्योंकि वह हमेशा किरण के काम काम की सराहना करते थे और पहल करने के लिए प्रोत्साहित करते थे। इस पदक का पूरा श्रेय जे.एन. चतुर्वेदी के उस नेतृत्व को देती हैं जो कार्यकाल के आरंभिक दौर में एक आदर्श साबित हुआ।
उस तिथि के ठीक चौदह वर्ष बाद फिलिपीन की राजधानी मनीला में किरण बेदी को एशिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार प्रदान किया गया। वह संसार की एकमात्र पुलिस अफ़सर हैं जिन्हें शांति पुरस्कार प्रदान किया जाना पराकाष्ठाओं के असामान्य मेल का द्योतक है। ध्यानपूर्वक देखने पर पता चलता है कि वह जो कुछ भी करती रहीं उसे सिर्फ अपनी ड्यूटी समझकर अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने पूरी योग्यता और निष्ठा से निभाया। घोषित रूप से हिन्दुत्व की समर्थक भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) के नेता और बाद में दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने वाले मदनलाल खुराना ने 1986 में केदारनाथ साहनी जैसे अन्य नेताओं के साथ इकट्ठा होकर एक भारी जुलूस का नेतृत्व करते हुए लालकिला मैदान में एकत्रित होकर धनी मुस्लिम आबादी के नज़दीक के इलाकों में आने का आग्रह किया। ज़िला पुलिस कमिश्नर (डी.सी.पी.) (उत्तर दिल्ली) होने के नाते किरण बेदी ने उन्हें भीतर जाने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया। किरण को यकीन था कि कोई कुछ भी दावा करे इस जुलूस के परिणाम स्वरूप विस्फोटक साम्प्रदायिक तनाव हो जाने की संभावना है और पुलिस के लिए स्थिति को नियंत्रित करने में दिक्कतें पेश आएंगी। किरण और भाजपा नेता अपनी-अपनी ज़िद पर टिके रहे। वे तीन सप्ताह तक धरने में हैठे रहे। उनकी एकसूत्री मांग थी-किरण बेदी को बरखास्त किया जाए।

सात वर्ष जब मदनलाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में तिहाड़ जेल गए तब किरण महानिरीक्षक (जेल) थीं। उन्होंने तिहाड़ में किए गए सुधारों की मुक्तमन से सराहना की और अपने धरने की भी चर्चा की। उन्होंने पूरे नौ हज़ार कैदियों को संबोधित करते हुए कहा कि किरण बेदी ने तब भी अपना कर्तव्य निभाया था, आज भी वह वहीं कर रही है। गिरगिट की तरह रंग बदलना राजनेताओं के लिए एक सामान्य-सी बात है।
जब-जब किरण बेदी ने अतिरिक्त आत्मविश्वास का परिचय दिया है तब-तब उनसे चूक भी हुई हैं। लेकिन किरण में एक गुण यह भी है कि जब वह संकटग्रस्त होती है, जब भी उन्हें ‘पराजय’ शब्द लिखा नज़र आता है, वह उस संकट से निकलने का रास्ता निकाल ही लेती हैं।

चंड़ीगढ़ में किरण निरुपमा माकंड (वसंत) के विरुद्ध राष्ट्रीय टेनिस का फाइनल मैच खेल रही थीं। किरण ने पहला सेट 3-6 से हारा था। कुँवर महेन्द्र सिंह बेदी और भूतपूर्व एशियाई चैंपियन लक्ष्मी महादेवन रेडियो पर विवरण सुना रहे थे।
कुँवर महेन्द्र ने लक्ष्मी से पूछा, ‘‘आपके विचार से क्या किरण पराजित हो जाएगी ?’’ लक्ष्मी को उस समय किरण के विरुद्ध खेला गया अपना वह मैच याद आ गया जो असम में खेला गया था। उस समय किरण ने पहला सैट 0-6 से हारा था और दूसरे में 0-5 से घिसट रही थीं। इसके बाद पूरे प्रतिशोध भाव से मैदान में उतरीं। और 0-6,7-5,6-0 से विजयीं हुई थीं। इसलिए लक्ष्मी ने जोर देकर कहा था कि यह नहीं कहा जा सकता कि वह हार जाएगी। किरण ने अंतत: निरुपमा को 3-6,6-3,6-1 से हराया था।

लक्ष्मी जनवरी, 1976 में गौहाटी (अब गुवाहटी) में खेली गई ईस्ट इंडिया चैंपियनशिप की चर्चा कर रही थीं। सितंबर 1975 में किरण ने बेटी सुकृति को जन्म दिया था और वह भी स्वास्थ्य-लाभ कर रही थीं। टेनिस मैच में खेलने के लिए किरण को अपने पति ब्रज की निक्कर और टी-शर्ट पहननी पड़ी थी क्योंकि किरण के अपने नाप के वस्त्र छोटे पड़ गए थे। उन्हें तब ऐसा महसूस हुआ कि उस समय जो काम उनके हाथ में था उसमें भीतर की नारी रुकावट बन गई है। ऐसा लगा जैसे उन्हें कुछ साबित करना है और उन्होंने बखूबी वैसा कर दिखाया।

उन्हें अपना आदर्श माननेवाले युवक-युवतियों के पत्र बड़े चाव से दिखाते हुए किरण बेदी कहती हैं, ‘‘मेरे लिए पुलिस अधिकारी होना ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि इससे ज्यादा महत्व इस बात का है कि मैं उस स्थिति में हूँ जहाँ से मैं अपने लिए समुचित मानसिक और भौतिक सामग्री एकत्रित कर सकती हूँ। इस स्थिति में होने के कारण मैं मामलों का मूल्यांकन कर सकती हूं, स्वयं निर्णय ले सकती हूँ और फलस्वरूप बिना किसी को दोषी ठहराए परिणाम को भोग या झेल सकती हूं। मैंने कोशिश करके अब वह पद पा लिया है। अब मुझे किसी बात का इंतजार करने तथा औरों से कुछ मांगने की जरूरत नहीं है, अब मैं दूसरों को कुछ दे सकती हूं। उनसे साझेदारी कर सकती हूं। कुछ उपार्जित कर पाने की लालसा ही मेरी समझ में अस्तित्व का मूल आधार है। मैंने इस पक्ष पर अनेक बार सोचा है और यह समझने का प्रयास किया है कि कैसे यह मेरे भीतर के चेतन व अवचेतन में विकसित हुआ है।’’

अधिकांश भारतीय समाज की तरह किरण बेदी के परिवार का इतिहास पुरुषसत्ता-प्रधान परिवार का इतिहास है। इसके बावजूद किरण में एक महिला होने के नाते स्वतंत्र रहने और अपना लक्ष्य प्राप्त करने की उत्कट आकांक्षा और उसे पूरा करने का दृढ़ संकल्प हैं।

किरण का जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान में) में एक पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार में हुआ था। परिवार बाद में अमृतसर में बस गया। किरण के लकड़दादा लाला हरगोबिंद एक सच्चे-सुच्चे खरे पठान थे और उन्होंने पेशावर से अमृतसर आकर कालीन-निर्माण की एक इकाई और बरतनों की एक फैक्टरी लगाई और उसमें उन्होंने सफलता पाई थी। उन्होंने अपना व्यापार पचास हज़ार रुपयों से प्रारम्भ किया था और अपने ही जीवनकाल में उन्होंने अपना कारोबार बीस गुना बढ़ा लिया था। वे अपने पीछे इतनी संपत्ति छोड़ गए थे कि पेशावरिया परिवार को पीढ़ी-दर-पीढ़ी न सिर्फ व्यापार बढ़ाने का अवसर मिला बल्कि फलने-फूलने का भी मौका मिला।

किरण के परदादा लाला छज्जूमल बहुत ही सीधे-सादे और धार्मिक इनसान थे, लेकिन उनके दादा मुन्नीलाल कुछ अलग किस्म के व्यक्ति थे। उन्होंने पाठशाला जाना बंद करके चार वर्ष तक घर पर ही अंग्रेजी भाषा सीखी। बीसवीं सदी के आरम्भ में ही उन्होंने अपने दादा से 50,000 रुपये उधार लेकर अपने पिता की कपड़े की थोक की दुकान के ऊपर अपना कार्यालय खोल दिया। उन्होंने इंग्लैंड में कपड़ा-निर्माताओं के साथ बड़ी मेहनत सी सीखी अंग्रेजी भाषा में पत्र व्यवहार किया। बहुत जल्दी ही उन्होंने मैनचेस्टर से प्रसिद्ध 926 मलमल और ब्रैडफोर्ड से सलेटी और सफेद रंग की इतालवी फ़लालेन का आयात शुरू किया। उन्होंने एक सूखा तालाब खरीदकर उस पर एक धर्मशाला का निर्माण भी किया। इस धर्मशाला को उन्होंने अपने धार्मिक प्रवृत्ति वाले पिता को समर्पित किया। आज हरिद्वार, वृन्दावन और अमृतसर में पेशावरिया धर्मशालाएँ हैं जिन्हें परिवार द्वारा गठित एक न्यास चलाता है।

 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book