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जैसा मैंने देखा

किरण बेदी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :258
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3450
आईएसबीएन :81-288-0288-7

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किरण बेदी के जीवन पर आधारित पुस्तक.....

Jaisa Main Dekha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लेखक परिचय

डॉ. किरण बेदी भारतीय पुलिस सेवा की प्रथम वरिष्ठ महिला अधिकारी हैं। उन्होंने विभिन्न पदों पर रहते हुए अपनी कार्य-कुशलता का परिचय दिया है। वे संयुक्त आयुक्त पुलिस प्रशिक्षण तथा स्पेशल आयुक्त, खुफिया, दिल्ली पुलिस के पद पर कार्य कर चुकी हैं। इस समय वे संयुक्त राष्ट्र संघ के ‘शांति स्थापना ऑपरेशन’ विभाग में ‘नागरिक पुलिस सलाहकार’ के पद पर कार्यरत हैं। उन्हें वर्ष 2002 के लिए भारत की ‘सबसे प्रशंसित महिला’ तथा ‘द ट्रिब्यून’ के पाठकों ने उन्हें वर्ष की सर्वश्रेष्ठ महिला’ चुना।

डॉ. बेदी का जन्म सन् 1949 में पंजाब के अमृतसर शहर में हुआ। वे श्रीमती प्रेमलता तथा श्री प्रकाश लाल पेशावरिया की चार पुत्रियों में से दूसरी पुत्री हैं। उनके मानवीय एवं निडर दृष्टिकोण ने पुलिस कार्यप्रणाली एवं जेल सुधारों के लिए अनेक आधुनिक आयाम जुटाने में महत्तवपूर्ण योगदान किया है। नि:स्वार्थ कर्त्तव्यपरायणता के लिए उन्हें शौर्य पुरस्कार मिलने के अलावा अनेक कार्यों को सारी दुनिया में मान्यता मिली है जिसके परिणामस्वरूप एशिया का नोबल पुरस्कार कहा जाने वाला ‘रमन मेगासेसे’ पुरस्कार से उन्हें नवाजा गया। उनके मिलने वाले अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की श्रृंखला में शामिल हैं-जर्मन फाउंडेशन का जोसफ ब्यूज पुरस्कार, नार्वे के संगठन इंटशनेशनल ऑर्गेनाजेशन ऑफ गुड टेम्पलर्स का ड्रम प्रिवेंशन एवं कंट्रोल के लिए दिया जाने वाला एशिया रीजन एवार्ड, जून 2001 में प्राप्त अमेरीकी मॉरीसन-टॉम निटकॉफ पुरस्कार तथा इटली का ‘वूमन ऑफ द इयर 2002’ पुरस्कार।

व्यावसायिक योगदान के अलावा उनके द्वारा दो स्वयं सेवी संस्थाओं की स्थापना तथा पर्यवेक्षण किया जा रहा है। ये संस्थाएं हैं 1988 में स्थापित ‘नव ज्योति’ एवं 1994 में स्थापित ‘इंडिया विजन फाउंडेशन’। ये संस्थाएं रोजना हजारों गरीब बेसहारा बच्चों तक पहुंचकर उन्हें प्राथमिक शिक्षा तथा स्त्रियों को प्रौढ़ शिक्षा उपलब्ध कराती है। ‘नव ज्योति’ संस्था नशामुक्ति के लिए इलाज करने के साथ-साथ झुग्गी बस्तियों ग्रामीण क्षेत्रों में तथा जेल के अंदर महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण और परामर्श भी उपलब्ध कराती है। डॉ. बेदी तथा उनकी संस्थाओं को आज अंतर्राष्टीय पहचान तथा स्वीकार्यता प्राप्त है। नशे की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया गया ‘सर्ज साटिरोफ मेमोरियल अवार्ड’ इसका ताजा प्रमाण है।
 
वे एशियाई टेनिस चैंपियन रही हैं। उन्होंने कानून की डिग्री के साथ-साथ ‘ड्रग एब्यूज एण्ड डोमेस्टिक वायलेंस’ विषय पर डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की है। उन्होंने ‘इट्स ऑलवेज पॉसिबल’ तथा दो आत्मकथा ‘आई डेयर’ एवं ‘काइंडली बेटन’ नामक पुस्तक लिखी हैं। इसके अलावा यथार्थ जीवन पर आधारित वृतांतों का संकलन ‘व्हाट वेंट रोंग’ नाम से किया है। इसका हिन्दी रुपांतर ‘गलती किसकी’ नाम से संकलित है। ये दोनों संकलन, दैनिक राष्ट्रीय समाचार पत्रों ‘ट टाइम्स ऑफ इंडिया’ एवं ‘नवभारत टाइम्स’ में डॉ. बेदी के व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित, पाक्षिक स्तभों से संबंधित हैं। ‘जैसा मैंने देखा’ पुस्तक राष्ट्रीय दैनिक ‘पंजाब केसरी’ में प्रकाशित होने वाले सत्य जीवन वृत्तांतों से संबंधित स्तंभ ‘चेतना’ पर आधारित है।

यह पुस्तक क्यों


जैसा मैंने देखा, सुना तथा महसूस किया उस पर मेरी क्या प्रतिक्रिया होती ?-चाहती तो नजरअंदाज कर सकती थी, टाल सकती थी या उस पर अपनी बात कह सकती थी। मेरे लिए यह जरूरी हो गया था कि जो कुछ मैंने अंदर से महसूस किया, उसको लिखूं। इसलिए मैंने ‘ट्रिब्यून’ तथा ‘पंजाब केसरी’ में लिखने का विचार बनाया। इसके अलावा अन्य समाचार-पत्रों के आग्रह को भी स्वीकार किया। फिर ये मेरी सोच तथा चिन्तन का हिस्सा बन गये।
हर लेख को मैंने अपना दिल तथा दिमाग एक करके लिखा। ऐसा करने के बाद मैंने ऐसे पंक्षी की तरह महसूस किया जो उड़ने के लिए स्वतंत्र हो।
मेरे लेखों का दूसरों के लिए कितना महत्त्व है यह मैं नहीं जानती लेकिन जो कुछ मैंने देखा तथा सुना उसे मैंने लिखने की जरूरत महसूस की। ऐसा मैं आगे भी करती कहूंगी।

आभार


मैं तहे दिल से श्री हरि जय सिंह तत्कालीन संपादक, द ट्रिब्यून तथा श्रीमती किरण चोपड़ा, डायरेक्टर पंजाब केसरी का आभार व्यक्त करती हूं जिनके आग्रह पर मैं ‘रिफ्लेक्शन’ तथा ‘चेतना’ स्तम्भों में लगातार योगदान दिया।
मैं श्री रुपिंदर सिंह, सह-संपादक, द ट्रिब्यून व अतुल भारद्वाज का भी आभार व्यक्त करना चाहूंगी जिन्होंने स्तंभ को इस प्रकार व्यवस्थित किया कि जिसे पाठकों ने बेहद सराहा तथा अतुल जी ने बड़े ही शानदार ढंग से हिन्दी अनुवाद किया।
सुश्री कामिनी गोगिया तथा श्री सुरेश त्यागी की भी आभारी हूं जिनके सहयोग के बगैर मैं अपने कार्य को समय से अंजाम नहीं दे पाती।
मैं अपने परिवार के सहयोग को भी भुला नहीं पाऊंगी जिनके सहयोग के बगैर रिफ्लेक्ट करना संभव नहीं था।
मैं श्री नरेन्द्र कुमार मैंनेजिंग डायरेक्टर, फ्यूजन बुक्स की भी आभारी हूं जिन्होंने मेरे अनुभवों को हिन्दी में पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।

मानवजनित त्रासदियों के परिणाम


अतीत में घटी घटनाओं को मानवजनित त्रासदियों के नाम किया जा सकता है। ऐसी त्रासदियों के नाम जिन्हें कुछ एहतियात बरत कर टाला जा सकता था।

पहली त्रासदी धनबाद के बागडिगी कोयला खान में खनिकों के साथ घटी, जहां कुछ कोयला खनिक खदान में पानी भर जाने से मारे गए। यह घटना स्पष्ट रूप से प्रबंधन द्वारा उचित सुरक्षा व्यवस्था नहीं किए जाने और लापरवाही बरतने का संकेत देती है। दरअसल कोयला खदान के मानचित्र ही गलत थे। अतः बचाव कार्य सही दिशा में नहीं किए जा सके। इसके अलावा इस खदान की दीवारें खनन के कारण काफी पतली हो चुकी थीं। उनके कभी भी ध्वस्त हो जाने का अंदेशा था, फिर भी प्रबंधन ने खुदाई बंद कराने का निर्णय नहीं लिया, अंततः जिसकी कीमत निरपराध खनिकों को चुकानी पड़ी।
अगर प्रबंधन ने इस त्रासदी से पूर्व खनिकों द्वार इस संबंध में की गई शिकायतों पर ध्यान दिया होता और उसके अनुसार सुरक्षा के उपाय किए होते तो शायद खनिकों की जानों को बचाया जा सकता था, इस तरह की घटनाएं नई नहीं हैं, वास्तविकता यह है कि हम पूर्व की घटनाओं से कोई सबक नहीं लेते और न ही आवश्यक सुरक्षा उपायों को अपनाते हैं।
दूसरी मानवजनित त्रासदी सूरजकुंड मेले में घटी जहां एक नाव के आकार के झूले से 16 व्यक्ति गिर गए।

इस दुर्घटना में चार लोग मारे गए और काफी लोग घायल हुए। यह दुर्घटना इसलिए घटी क्योंकि झूले में बैठने वालों के लिए किसी सुरक्षा बेल्ट का इंतजाम नहीं किया गया था। सीटों के चारों ओर लगी लोहे की हल्की छड़ें ज्यादा मजबूत नहीं थीं। साथ ही एक और महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि मेला असमतल जमीन पर लगा हुआ था। इस कारण झूला असंतुलित था। वहां न तो किसी एम्बुलेंस की व्यस्था थी और न ही पुलिस कंट्रोल रूम की जिससे कि आपातकालीन जरूरतों या हादसे से निपटा जा सके और पीड़ित व्यक्तियों को शीघ्र राहत पहुंचाई जा सके। मेले के प्रबंध अधिकारियों का कहना था कि जब ये झूले गेट से बाहर लगे हुए थे उस वक्त निजी ठेकेदारों द्वारा इनका प्रबंध किया जाता था। प्रत्येक सरकारी एजेंसी इस जिम्मेदारी को एक-दूसरे पर डाल रही थी। अगर ये सभी संबंधित अधिकारी व एजेंसियां अपनी जिम्मेवारी को सही तरह से निभाते तो शायद ये जानें बच सकती थीं और न ही इतने लोग घायल होते।

तीसरी मानवजनित त्रासदी तो और भी भयानक थी जिसमें एक ही परिवार के दो सदस्य काल के ग्रास में चले गए। यह घटना उस समय घटी जब ये लोग हाल ही में बने नोएडा टोल ब्रिज पर अपनी नई मारुति कार से गुजर रहे थे तभी एक ट्रक टोल टैक्स को बचाने के चक्कर में यू-टर्न लेता हुआ विपरीत दिशा में आया और तेजी से जा रही इस मारुति कार में घुस गया। इस हादसे में दो व्यक्तियों की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई और तीन अन्य गंभीर रुप से घायल हो गए। इस हादसे के संबंध में यातायात प्रबंध अधिकारियों का पुख्ता सबूतों के बलबूते पर कहना है कि नोएडा टोल ब्रिज को अनेक यातायात खामियों और खतरों के बावजूद खोल दिया गया है, जबकि दूसरी ओर नोएडा टोल अथारिटी के अधिकारियों का कहना है कि सभी सुरक्षा उपाय अपना लिए गए हैं। दरअसल कहना और बात है और किसी सिस्टम का कार्य न करना दूसरी। बहरहाल एक परिवार तो कुचल ही गया।

ये सभी त्रासदियां मानवनिर्मित थीं और कर्त्तव्यहीनता इन सब घटनाओं का मुख्य कारण रही। सूरजकुंड के मेला प्रबंधन, नोएडा टोल ब्रिज का यातायात प्रबंधन और धनबाद का कोयला प्रबंधन इनमें एक समान रूप से दोषी था। इनके बाद बारी आती है ट्रक ड्राइवर और मेला कांट्रेक्टर्स की जिन्होंने गैर जिम्मेदार नागरिक की तरह व्यवहार किया। ऐसा लगता है मानो इनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है, चाहे उसकी कीमत किसी की जान ही क्यों न हो ? खैर लोगों ने अपनी जान गंवा कर इनकी कर्त्तव्यहीनता की कीमत चुका दी है, क्या अब भी ये लोग नींद से जागेंगे ?

2
जितने होंगे मुंह उतना ही चाहिए अनाज


उड़ीसा के एक ग्रामीण श्यामलाल टान्डी ने 3500 रुपए से भी कम कीमत में अपनी बेटी गांव के साहूकार रामप्रसाद मांगेराम को बेच दी। चार बच्चों के पिता श्यामलाल के पास इतनी थोड़ी-सी भी रकम नहीं थी कि वह अपना कर्ज उतार सके। यह सौदा बाकायदा लिखित दस्तावेज के माध्यम से किया गया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया है कि लड़की को खरीदा गया।
खाने के लिए पास में कुछ भी न होने के बावजूद बोलनगीर जिले के बोनगोमुन्डा प्रखंड के कुंडाबुटला गांव के श्यामलाल टान्डी के चार बच्चे हैं, जिसमें सबसे छोटा बच्चा मात्र तीन महीने का है। बोलनगीर अब तक के भीषण सूखे की चपेट में है, जिसने यहां के गरीब किसानों पर जमकर कहर बरपाया है। श्यामलाल को अपने इस संवेदनशील कदम पर कोई पछतावा नहीं है। उनका कहना है कि कम से कम इस समय मेरे सभी बच्चे जीवित तो हैं। उस छोटी सी बच्ची हेमा की मां ललिता का कहना है कि हम बहुत ज्यादा तकलीफ में थे, इसलिए हमने अपनी बेटी को बेच दिया। जब उससे पूछा गया कि यदि ऐसी ही परिस्थितियां दोबारा उत्पन्न हो जाएं तो क्या तुम अपने अन्य बच्चों को भी बेच दोगी ? उसने आंखों से आंसू बहाते हुए कहा-‘‘नहीं। यदि दोबारा ऐसा हुआ तो हम सब जहर खा लेंगे, लेकिन दोबारा ऐसा नहीं करेंगे।’’

इस समय श्यामलाल और उसका सारा परिवार दोबारा भीख मांगने की स्थिति में आ गया है। बहुत दुःख के साथ कहना पड़ता है कि इतना कठोर कदम उठाने के बाद भी उनके परिवार की दयनीय स्थिति नहीं सुधरी। यह परिवार फिलहाल पंचायत द्वारा दिए जाने वाले दस किलो चावल और आंगनवाड़ी से मिलने वाले पांच किलो चावल व एक किलो दाल के सहारे अपने दिन काट रहा है।
यह तस्वीर हमारे जीवन की दुःखद कहानी है। जब एक पति-पत्नी स्वयं को जीवित रखने के लिए भीख मांगने जैसा कार्य कर रहे हैं तब भी उनमें यह सोच नहीं पनप रही है कि जितने मुंह होंगे उतना ही भोजन चाहिए और यहीं से गरीबी शुरू होती है। पर कौन है जो उन्हें यह समझाए और किस प्रकार वह इस बात को समझेंगे कि वह तभी माता-पिता बनने के अधिकारी हो सकते हैं जब वह अपने बच्चों के लिए खाना, कपड़े और शिक्षा उपलब्ध करा पाने में सक्षम हों और तभी बच्चे पैदा करें। यही उनके फायदे में भी होगा। अन्यथा श्यामलाल का उदाहरण हमारे सामने है। इस दिशा में स्थानीय प्रशासन, पंचायतें और स्थानीय राजनीतिज्ञ क्या और कैसी भूमिका निभा रहे हैं। यह पूरा प्रकरण उनकी पोल खोल देता है। जो कुछ थोड़ा बहुत ये लोग कह पा रहे हैं वह या तो बहस तक सीमित है या लोगों को यह जानकारी देने तक कि अधिक बच्चे पैदा करना केवल गरीबी अस्वस्थता और मां और बच्चों की मृत्यु संख्या को ही बढ़ाता है।

अभिभावकों को भी यह समझना चाहिए कि बच्चे पैदा करना केवल मनोरंजन और दिल बहलाने का काम नहीं है, बल्कि यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।
चलिए, इसी तरह के एक और मामले पर नजर डालते हैं। यह मामला जर्मनी से संबंध रखता है, जहां जनसंख्या में गिरावट एक बड़ी समस्या बनती जा रही है। यहां की महिलाएं एक से अधिक बच्चा पैदा करना अधिक खर्च और बड़ी जिम्मेदारी का काम मानती हैं। वह एक से अधिक बच्चे पैदा करने से साफ इंकार कर रही हैं। हालांकि वहां सरकार ने इस संकट से निपटने के लिए प्रत्येक महिला को एक से अधिक बच्चे पैदा करने की स्थिति में 15000 अमरीकी डालर में से पहले तीन वर्ष में बच्चे को प्रतिमाह 400 अमरीकी डालर राशि देने की योजना भी बनाई है, लेकिन फिर भी अधिकतर महिलाओं ने इस प्रस्ताव पर अभी तक कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई है। उनके लिए एक अच्छी मां बनना और बच्चे का सुरक्षित भविष्य किसी भी दूसरी चीज से अधिक महत्त्व रखता है।
जर्मनी की महिलाएं शायद इस कारण ऐसा कठोर निर्णय ले रही हैं क्योंकि वह भारत की महिलाओं की भांति गरीबी और भिखारियों की जिंदगी नहीं जीना चाहतीं। भारतीय महिलाओं की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि जब तक वह अज्ञानता की इस गहरी नींद से नहीं जागेंगी, हम यूं ही भिखारियों के रूप में अपनी जनसंख्या बढ़ाते रहेंगे और हमारे बच्चे हमारे कर्जे चुकाते रहेंगे।

3
लड़की बनाम-शिक्षा हिम्मत और आधुनिकता


जब कभी भी मैं इस तरह की स्थितियों और घटनाओं से रुबरु होती हूं, जिसका वर्णन मैं यहां करने जा रही हूं, तो रह-रहकर मुझे यही ख्याल आता है कि इस देश में लड़की का जन्म बहुत से माता-पिता और उनकी बेटियों के लिए एक अभिशाप है। मेरे विचार से आप भी सहमत हो जाएंगे जब नीचे लिखे विवरण को पढ़ेंगे।

मैं अपनी पुस्तक के लोकार्पण समारोह के सिलसिले में मध्य प्रदेश गई हुई थी, वहीं उसी शहर के एक परिवार ने मुझसे करुण अनुरोध किया। उस परिवार के सदस्यों ने मुझे फोन पर बताया कि कुछ दिन पूर्व उन्होंने अपनी बेटी की शादी पास के ही शहर में की थी। लड़की कम्प्यूटर साफ्टवेयर इंजीनियर है। शादी के बाद से ही उसके ससुराल वालों ने उसे तंग करना शुरु कर दिया। लड़की के पति व ससुराल के अन्य सदस्यों ने उसे अपने माता-पिता व परिवार के अन्य सदस्यों से मिलने-जुलने पर पाबंदी लगा दी है। यहां तक कि लड़की के माता-पिता अब अपनी बेटी से टेलीफोन पर भी बात नहीं कर सकते। जब कभी वह लड़की के ससुराल में फोन करते हैं, लड़की के सास-ससुर उसे फोन पर नहीं बुलाते, न ही उस तक संदेशा पहुंचाते हैं और यह कह देते हैं कि वह फोन पर बात नहीं कर सकती और फिर फोन पटक देते हैं। उन्होंने मुझसे बताया कि वह अपनी बेटी की कोई भी खबर न पाकर काफी परेशान हैं और खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। वह यह भी नहीं जानते कि ऐसे हालात में उन्हें क्या करना चाहिए, किससे सलाह लेनी चाहिए, कौन उनकी सहायता कर सकता है ? उनकी करुणामयी पुकार ने मुझे अंदर तक झकझोर दिया। अतः मैंने उनसे उनकी लड़की का नाम और टेलीफोन नंबर लिया और उन्हें आश्वासन दिया कि मैं स्वयं उनकी लड़की से बात करुंगी और उसे उनका संदेशा दूंगी कि वह शीघ्र अपने माता-पिता से संपर्क करे।

मैंने अपने मोबाइल से उस लड़की के ससुराल में फोन किया और अपना परिचय देते हुए लड़की से बात करने को कहा। मैंने उस लड़की का नाम भी बताया, लेकिन जिस आदमी ने फोन उठाया उसने फोन किसी दूसरे व्यक्ति को थमा दिया। मैंने पुनः अपना परिचय दिया और कहा कि मैं काफी दूर से बोल रही हूं और मुझे उनकी बहू को उसके माता-पिता का संदेश देना है। मैंने उन्हें लड़की के माता-पिता की परेशानी और चिंतापूर्ण स्थिति के बारे में बताया और उनसे लड़की की बात कराने का अनुरोध किया। मेरे पूछने पर उस व्यक्ति ने अपने आपको उस लड़की का ससुर बताया। मैंने अनुमान लगा लिया कि पहले फोन लड़की के पति ने उठाया था, बाद में उसने फोन अपने पिता को दे दिया। उसके पिता यानी लड़की के ससुर ने बड़ी ही अभद्रता से मेरा फोन काट दिया। मैं समझ गई कि लड़की के माता-पिता का डर निराधार नहीं है और ससुराल में लड़की की स्थिति ठीक नहीं है।

वापिस दिल्ली लौटने पर मैंने लड़की के ससुराल फिर फोन मिलाया। संभवतः दोबारा लड़की के पति ने ही फोन उठाया था। उसने अपने आपको बाहर का व्यक्ति बताया और लड़की को संदेश देने से मना कर दिया, फिर गुस्से के साथ फोन पटक दिया। मैंने फिर फोन मिलाया और कहा कि कोई भी बाहर का व्यक्ति इस तरह की अशिष्टता नहीं करेगा और फोन काटने की बजाय संदेश ले लेगा। इस बार उसने कुछ नर्मी दिखाते हुए मेरा फोन नम्बर लिखा और कहा कि लड़की घर पर नहीं है। एक घंटे बाद मैंने दोबारा फोन किया। इस बार लड़की के ससुर ने फोन उठाया और मुझसे संदेश बताने को कहा और कहा कि लड़की के आने पर मेरा संदेश उस तक पहुँचा देगा, लेकिन मैंने लड़की को स्वयं संदेश देने की इच्छा जताई। इस पर उसने साफ इनकार कर दिया और पूछताछ शुरू कर दी कि मैं उससे क्यों बात करना चाहती हूं और इस मामले में क्यों दखलंदाजी कर रही हूं। मैंने खुद को मामले से संबंधित एक सरकारी अधिकारी बताया तो उसने फिर फोन काट दिया। इस बार मैंने उस क्षेत्र के पुलिस स्टेशन में फोन कर मामले की जानकारी दी।

तभी मुझे पता चला कि लड़की के माता-पिता को अपनी शिकायत वापिस लेने की धमकियां दी जा रही थीं। इन धमकियों से लड़की के माता-पिता घबरा गए और उन्होंने रात ही की रेल से लड़की के ससुराल जाने की योजना बना ली। वहां जाने से पूर्व उन्होंने मुझे फोन किया तो मैंने उन्हें पुलिस स्टेशन से सहायता लेकर लड़की के ससुराल जाने की सलाह दी। उन्होंने ऐसा ही किया। वह पुलिस के साथ लड़की के ससुराल पहुंचे लेकिन लड़की के ससुराल वालों ने उन्हें घर के अंदर नहीं आने दिया।

तब लड़की के माता-पिता ने घर के बाहर से ही लड़की से बात की तो वहां भी उसका पति बिचौलिए की भांति बीच में खड़ा रहा। बातचीत के दौरान लड़की ने अपने माता-पिता को अपने तीन महीने की गर्भावस्था के बारे में बताया और कहा कि उसके सास-ससुर उसके माता-पिता को पसंद नहीं करते। उनकी नापसंदगी काफी गंभीर है, जो शायद ही खत्म हो पाए। उसने बताया कि उसकी सास काफी तेज मिजाज की औरत है चूंकि वह अभी मां बनने वाली है, इसीलिए घर में शांति बनाए रखने के लिए वह अपनी सास की बात मानने को मजबूर है। उसने यह भी कहा कि वह उनसे संपर्क करने में भी असमर्थ है। इस पर लड़की की मां ने उसे समझाते हुए कहा कि उन्होंने उसे इस तरह कमजोर पड़ जाने के लिए शिक्षित नहीं किया था। लड़की के पास उनके सवालों का कोई जवाब नहीं था। इस घटना के बाद लड़की के माता-पिता ने मुझे फोन करके शिकायत वापिस लेने के लिए अनुरोध किया। इन बातों से मुझे गुस्सा आ गया। मैं स्वयं एक महिला हूं और मैंने तथाकथित शिक्षित लड़कियों की मानसिकता को भी भलीभांति देखा है।

इस मामले में लड़की एक कम्प्यूटर इंजीनियर है, यानी उच्च शिक्षा प्राप्त है। इसी तरह के अन्य मामलों में भी जहां लड़कियां काफी शिक्षित होती हैं, अपनी ससुराल छूटने के डर से घर में कैदी बनकर रह जाती हैं, भले ही उनका अपना घर छूट जाए। वह स्वच्छंदता और स्वतंत्रता से डरती हैं और तब उनके अभिभावक असहाय हो जाते हैं। शादी करने के बाद वह अपनी लड़की को भुला देने को मजबूर हो जाते हैं। दूसरी ओर लड़कियां भी अपने माता-पिता और परिवार के सदस्यों को भूल जाती हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षा और लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास तथा आधुनिकता निरर्थक साबित हो जाती है।
यह आश्चर्य की बात नहीं बल्कि कटु सत्य है कि आज भी लड़कियों को पसंद नहीं किया जाता। आज भी वह अनचाही मानी जाती हैं। गलती हमारी है।


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