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जीवनी/आत्मकथा >> रामकृष्ण परमहंस

रामकृष्ण परमहंस

अशोक कौशिक

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :149
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3451
आईएसबीएन :81-288-0817-6

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रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Ram krishan paramhans

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रामकृष्ण समझते थे कि उन्होंने मां काली का हाथ नहीं पकड़ा हुआ है अपितु मां काली ने उनका हाथ पकड़ा हुआ है। इस कारण उनको कभी किसी के कथन की कोई चिन्ता ही नहीं रही। वह बराबर कहते थे मेरा तो हाथ मां ने पकड़ा हुआ है वह जहां ले जाएँगी मैं वहीं चला जाऊंगा। उसी को अपने लिए कल्याणकारी मानूंगा।

उनकी दृष्टि में पत्नी के समीप रहते हुए भी जिसके विवेक और वैराग्य अक्षुण्ण बने रहते हैं उसी को वास्तविक रूप में बह्मा में प्रतिष्ठित माना जाता है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही जो समान आत्मा के रूप में देखे और तदनुसार आचरण करे उसी को वास्तविक ब्रह्मज्ञानी माना जा सकता है।

‘‘मनुष्य को यदि भगवान तक पहुंचने का यत्न करना है तो उसको चाहिये कि सर्वप्रथम वह सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो जाये। अपने सब पूर्व संस्कारों को भुला दे। घृणा, लज्जा, कुल, शील, भय, मान, जाति तथा अभिमान ये आठों मनुष्य की आत्मा को बन्धन में रखने वाले पाश के समान हैं। भगवान तक पहुंचने के लिये इनसे मुक्त होना आवश्यक है। यज्ञोपवीत, जाति अथवा कुल का सूचक अभिमान का प्रतीक है। इसलिए यह भी पाश के समान ही है। इसी प्रकार उसको समझना चाहिए कि यह सब रुपया पैसा भी मात्र मिट्टी है, इससे अधिक कुछ भी नहीं।’’


रामकृष्ण परमहंस


भूमिका



श्री रामकृष्ण परमहंस का जीवन अद्भुत कल्पनाओं, कामनाओं, विचारों से ही नहीं अपितु किंवदन्तियों से परिपूर्ण है। तदपि न केवल पूर्वी बंगाल में अपितु देश देशान्तर में उनके असंख्य शिष्यों की ऐसी परम्परा प्रचलित है, इतने अधिक मठ और मन्दिर हैं कि कदाचित ही किसी अन्य संन्यासी के इतने शिष्य आदि हों। उनके चमत्कारों की कहानियां भी इसी संख्या में उनके शिष्यों में प्रचलित हैं। उनके शिष्यों में यह मान्यता है कि उनके जीवनकाल में जो कोई भी उनके सम्पर्क में आया उसको उन्होंने अपनी कृपा से उपकृत किया।

स्वामी विवेकानन्द, जिनका पूर्व नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, उनके ही अनन्य भक्त और शिष्य थे। उन्होंने जो कुछ भी पाया था, वह सब ठाकुर अर्थात् रामकृष्ण परमहंस की कृपा से ही प्राप्त किया था। स्वामी विवेकान्द ने विश्व भर में हिन्दुत्व का डंका बजाया था। विदेशों में वे ‘हिंदु मोंक’ के नाम से ही विख्यात रहे हैं। अपने देश में भी उनकी वैसी ही ख्याति रही है। विदेशों में हिन्दुत्व का डंका बजाने वाले कदाचित वे पहले संन्यासी थे। यद्यपि उनके बाद तो कथाकथित संन्यासियों की विदेश भ्रमण और प्रचार की गति और सीमा का कोई अन्त नहीं रहा है। किंतु जो ठोस कार्य विवेकानन्द द्वारा किया गया माना जाता है, उसका कोई अन्य उदाहरण उपलब्ध नहीं है।
 
रामकृष्ण का जब उदय हुआ था, लगभग उसी समय बंगाल में ब्रह्मसमाज की स्थापना भी हुई थी। कालान्तर में रामकृष्ण द्वारा स्थापित संघ के प्रचार प्रसार से ब्रह्मसमाज के माध्यम से भारतवासियों के अर्द्ध ईसाईकरण की प्रक्रिया कम होती गई आज केवल ब्रह्मसमाज का नाम शेष है, कोई विशेष गतिविधि नहीं। इसका श्रेय रामकृष्ण परमहंस को ही देना श्रेयस्कर होगा। तदपि इसका थोड़ा श्रेय स्वामी दयानन्द को भी प्राप्त है, क्योंकि वह स्वामी दयानन्द ही थे जिन्होंने ब्रह्मसमाज के प्रवर्तन में प्रमुख बाबू केशवचन्द्र सेन को वेदों की ओर आकृष्ट किया और वास्तविक वैदिक धर्म का महत्त्व समझाया।

रामकृष्ण की प्राथामिक ख्याति में यद्यपि बाबू केशवचन्द्र सेन का प्रमुख हाथ रहा था। उसका कारण कदाचित यह रहा हो कि प्रारम्भ रामकृष्ण ब्रह्मसमाज की ओर आकृष्ट होने लगे थे और केशवचन्द्र सेन को यह आभास होने लगा हो कि शीघ्र ही वे भी उनके समुदाय में सम्मिलित हो जाएंगे। किंतु ईश्वर की कृपा रही, रामकृष्ण उधर नहीं मुड़े।
यह विचित्र संयोग है कि रामकृष्ण का जीवन चरित्र सब किंवदन्तियों पर आधारित ही मिलता है। यद्यपि उस काल में, वर्तमान में उपलब्ध, आधुनिक सुविधाएं प्रचलित हो गई थीं, तदपि इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया। यह कदाचित इसलिये भी होगा, क्योंकि सत्रहवीं और अट्ठाहरवीं शताब्दी तक भारतवासियों की मानसिकतापूर्ण रूप से दास मानसिकता बन गई थी। यही कारण है कि इन शाताब्दियों में उत्पन्न महापुरुषों के जीवन पर सर्वांगपूर्ण साहित्य उपलब्ध नहीं होता। महर्षि दयानन्द जैसे अनेक महापुरुष हैं जिनकी जन्मतिथि के विषय में भी विवाद है। वे भी उसी काल के हैं।

श्री रामकृष्ण की जीवनी उनके भक्तों में प्रचलित धारणाओं तथा उनके द्वारा लिखित जीवनियों अथवा साहित्य के आधार पर जितनी अधिकृत हो सकती थी, हमने उसके लिये अधिकाधिक प्रयत्न किया है। परमहंस के भक्तों ने जिन लीला प्रसंगों का उल्लेख किया है, हमने उनमें से उनके यथार्थ जीवन को खोजने का यत्न किया है। उसका ही परिणाम यह जीवन चरित्र है। यह कितना अधिकृत है, यह विषय हम अपने पाठकों पर ही छोड़ते हैं, तदपि अपनी ओर से इतना कह सकते हैं कि हमने किवदन्तियों को उतना महत्त्व नहीं दिया है, उनमें से सार तत्त्व को ही ग्रहण करने का यत्न किया।
यह श्री रामकृष्ण का लीलाप्रसंग नहीं अपितु जीवनप्रसंग है, अतः पाठकों से निवेदन है कि इसे वे इसी रूप में ग्रहण करें।


अशोक कौशिक
7 –एफ, कमलानगर
दिल्ली-110007


1.    स्वप्न साकार



स्वप्न विज्ञान बहुत विस्तृत है। इस पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं और अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इस पर अनेक प्रकार के लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं। तदपि स्वप्नों की सत्यता पर अभी भी प्रश्न चिह्न लगा हुआ है। प्रामाणिक रूप से कोई भी स्वप्न के आधार पर घटित घटनाओं का क्रम अभी भी प्रकाशित होता है। यही कारण है कि अनेक जन न केवल भारतवर्ष में अपितु आधुनिक एवं वैज्ञानिक कहे जाने वाले अमेरिका एवं यूरोपीय देशों में भी इस विषय को महत्वपूर्ण मानकर इसका गम्भीरता से अध्ययन कर इस पर मनन, चिन्तन और वाद-विवाद करते हैं।

इसी प्रकार के एक स्वप्न के सत्य सिद्ध होने की घटना का चित्रण ही इस पुस्तक का वर्ण्य विषय है।
भारत भूमि अनेक सम्भावनाओं, उद्भावनाओं एवं समस्याओं के समाधान की जननी है। इसी उर्वरा भूमि में ऐसे अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया जो कालान्तर में विश्वविभूति के रुप में विख्यात हुए। भारत के विभिन्न अंचलों की ही भांति इसका पूर्वांचल भी अनेकानेक सन्तों, महात्माओं की जन्मभूमि है। क्रान्ति और शान्ति दोनों ही यहां की उपज है।

पूर्वांचल की उस देवी भूमि के पुत्र खुदीराम चटर्जी ने अपनी गया तीर्थयात्रा के दौरान एक स्वप्न देखा। अपने स्वप्न में चटर्जी महाशय ने देखा कि वे एक मन्दिर में बैठे हैं। सहसा वह मन्दिर एक दिव्य ज्योति से दैदीप्यमान हो उठा है। उन्हें वहां मूर्ति के स्थान पर कोई दिव्य विभूति दिखाई दी। सहसा खुदीराम चटर्जी उस दिव्य विभूति की ओर आकर्षित हुए और उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। दिव्य विभूति ने उनकी प्रार्थना, अर्चना को स्वीकार किया और अन्त में उन्होंने कहा-‘‘पुत्र ! उठो ! मैं तुम्हारी निष्काम भक्ति से सन्तुष्ट एवं प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारे घर में पुत्र के रूप में जन्म लेकर तुम्हारी सेवा को, भक्ति को ग्रहण करूंगा।

इसके उपरान्त उनकी नींद खुल गई। उसके बाद खुदीराम सो नहीं सके और अपने स्वप्न पर बड़ी गम्भीरता से विचार करने लगे। वे उस ज्योति पुरुष के अद्भुत रूप और उसके मधुर स्वर को स्मरण कर भाव-विभोर हो उठे। इस प्रकार उन्होंने वह शेष रात्रि बिना सोये ही बिताई और बार बार रह रहकर उसी पर विचार करते रहे। उस समय उनकी आयु लगभग 60 वर्ष की थी। इससे पूर्व उनकी तीन सन्तानें थीं। एक कन्या और दो पुत्र।

इसी प्रकार बहुत वर्ष पूर्व जब खुदीराम चटर्जी रामेश्वरम् की यात्रा से लौटे थे तो उसके कुछ माह बाद उनको जिस पुत्र रत्न की उपलब्धि हुई थी, उसे रामेश्वर भगवान का आशीर्वाद मानकर उन्होंने उसका नाम रामेश्वर ही रख दिया था। यद्यपि अपने भरे पूरे परिवार से खुदीराम प्रसन्न थे, तदपि ज्योतिपुंज के इस कथन पर कि वह उनके घर में पुत्र में जन्म लेंगे, उन्हें विचित्र प्रसन्नता हो रही थी, किन्तु उन्होंने अपने इस स्वप्न का उल्लेख किसी अन्य से उस समय में नहीं किया। दो-तीन दिन का कार्य सम्पन्न कर वे घर लौट आये।

घर लौटने पर खुदीराम ने अपनी पत्नी में भी विचित्र परिवर्तन देखे। उनकी पत्नी का नाम चन्द्रा देवी था, जिसे वे प्यार से चन्द्रा ही कहते थे। अब उन्हें वही प्रिय चन्द्रा किसी देवी के समान दिखाई देती थी। खुदीराम को उनमें विचित्र प्रकार का परिवर्तन दिखाई देने लगा था।

चन्द्रा देवी ने जब देखा कि उनके पति की गया तीर्थयात्रा की थकान अब मिट गई है और वे स्वस्थ, सुस्थिर, हो गये हैं तो उन्होंने एक दिन उनके समीप बैठकर कुछ अन्तरंग बात करने का विचार किया। यह अन्तरंग बात भी उनके अपने स्वप्न के विषय में थी।
उन्होंने अपने पति को कहा कि जब वे तीर्थयात्रा पर गये हुए थे तो एक रात्रि को उन्होंने एक विचित्र स्वप्न देखा था। उस स्वप्न में उन्होंने देखा कि कोई दिव्य पुरुष उनके साथ उनकी शैय्या परसोया हुआ है। वह दिव्य विभूति अत्यन्त रूपवान थी। ऐसा रूप चन्द्रा देवी ने अपने जीवन में इससे पूर्व न कभी देखा था और न कल्पना ही की थी। सहसा चन्द्रा देवी की आंख खुल गई और वे उठ बैठीं तो उन्होंने देखा वह दिव्यमूर्ति अभी भी उनके पलंग पर सोई हुई है। उन्हें एक विचित्र प्रकार का भय मिश्रित आश्चर्य हो रहा था।

चन्द्रा देवी का कहना था कि उन्हें वास्तव में सन्देह ही हो गया था कि कहीं पति की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर कोई पर-पुरुष उनकी शैय्या पर आकर नहीं लेट गया है ? उन्होंने उठकर दीपक जलाया तो देखा कि वहां तो कोई नहीं है। चन्द्रा देवी ने द्वार की ओर देखा तो वह भीतर से ठीक उसी प्रकार बन्द है जिस प्रकार उन्होंने द्वार पर कुण्डी लगाई थी खिड़की आदि भी सब वैसे ही बन्द हैं।
तदनन्तर उस रात्रि में चन्द्रा देवी को भी फिर नींद नहीं आई। रात भर वे उसी स्वप्न पर विचार करती रहीं। कभी-कभी उन्हें भय का भी भास होता था, किन्तु जब वे उस दिव्य विभूति की कल्पना करतीं तो उनका भय भाग जाता, क्योंकि ऐसा दिव्य पुरुष तो उन्होंने संसार में उससे पूर्व कभी देखा ही नहीं था।
ज्यों-ज्यों रात बीती, प्रभात हुआ। चन्द्रा देवी ने अपनी शैय्या त्यागी और नित्यकर्म से निवृत्त होने पर कुछ स्वस्थ होने के उपरान्त उन्होंने अपने पड़ोस की दो स्त्रियों को अपने घर पर बुलवाया। उनमें एक धनी लोहारिन और दूसरी धर्मदास लाहा की बहन प्रसन्ना थी। उन दोनों को पास बैठाकर चन्द्रा देवी ने रात की सारी घटना यथावत् उनको सुनाकर पूछा-‘‘क्यों यह सच हो सकता है कि कोई मेरे घर में बुरी नीयत से घुस आया हो ? यदि आया भी तो वह आया किधर से मेरे तो सारे द्वार और खिड़कियां भीतर से बन्द थीं।’’

चन्द्रा देवी का किसी से वैर भाव भी नहीं था जो कि कोई उनसे बदला लेने के लिए इस प्रकार रात्रि में घुस आये।
इसी प्रसंग में चन्द्रा देवी ने उनसे कहा कि एक-दो दिन पूर्व मधुयुग नामक एक व्यक्ति से उनकी कुछ थोड़ी सी गरमा-गरम बात अवश्य हो गई थी, किन्तु क्या इतनी-सी बात पर वह कोई ऐसा काण्ड कर सकता था ?
दोनों महिलाओं ने जब सुना तो उनकी हंसी निकल गई। उन्होंने चन्द्रा देवी को समझाया कि यह कोई सत्य घटना नहीं, मात्र एक स्वप्न था। इस प्रकार के स्वप्न की बात से न तो घबराने की आवश्यकता और न ही ढिंढोरा पीटने की आवश्यकता है। अन्य लोग सुनेंगे तो वे बात का बतंगड़ बनाकर उनकी खिल्ली उड़ायेंगे।
उन्होंने चन्द्रा देवी को सावधान कर दिया कि अब वह इस बात को किसी अन्य को बिल्कुल न सुनाये और तदनुसार चन्द्रा देवी ने उसके बाद उस स्वप्न को अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी से उल्लेख किया भी नहीं।




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