लोगों की राय

जीवनी/आत्मकथा >> क्रांतिवीर सुभाष

क्रांतिवीर सुभाष

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3460
आईएसबीएन :81-7182-512-5

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

449 पाठक हैं

सुभाष के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Krantiver Subhash

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मैं विश्वास दिला दूँ कि अँधेरे में,उजाले में, गम और खुशी में, कष्ट-सहन और विजय में मैं-आपके साथ ही रहूँगा। इस समय तो मैं आपको भूख प्यास,कठिनाई और मृत्यु के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता, किन्तु यदि आप मेरा साथ जीवन और मरण में दें जैसा कि मुझे विश्वास है कि आप जरूर देंगे, तो मैं आपको विजय और स्वतंत्रता तक पहुँचा दूँगा।

एक


अपने अध्ययन-कक्ष में एक किशोर अध्ययनरत है। उसे यह ज्ञात नहीं है कि उसके पिता जानकीदास बसु उससे कुछ कहने के लिए आए थे; किंतु कुछ देर खड़े रहकर वापस भी चले गए हैं। उसकी माता प्रभादेवी बहुत देर से माँ दुर्गा का प्रसाद लिए खड़ी हैं।
‘बेटा, माँ दुर्गा का प्रसाद लो।’
एक बार के संबोधन से बालक का मौन टूट न पाया। माता ने फिर कहा, ‘इतने अधिक मग्न होकर क्या पढ़ रहे हो, बेटा ? मैं कितनी देर से यहाँ खड़ी हूँ ! लो, माँ दुर्गा का प्रसाद ग्रहण करो।’ और माता ने यह कहकर सुभाष के सामने प्रसाद रख दिया।

बालक उठकर खड़ा हो गया। माता को उसमें एक आश्चर्यजनक परिवर्तन दिखाई दिया।
‘माँ, प्रसाद ग्रहण करने से दुर्गा की शक्ति प्राप्त हो जाएगी ?’
‘माँ दुर्गा शक्ति की देवी हैं, बेटा ! भाव से अर्पित की गई हर वस्तु में उनका वास हो जाता है। इसका अपमान नहीं करना चाहिए।’
‘माँ, तुमने कई बार कहा है—दुर्गा शक्ति की देवी हैं। शक्ति उपासना शक्ति से ही तो होनी चाहिए। फूलों और मिठाइयों से रिझाने से तो उनका अपमान होगा।’

‘बेटा, तुझे क्या हो गया है ? तुझमें यह कैसा परिवर्तन आ रहा है ? यह किसका प्रभाव है ?’
‘माँ, आज देश को बलिदानों की आवश्यकता है। देवी की प्रतिमा अपने अस्त्र-शस्त्रों से हमें यही संकेत दे रही है। उसकी उपासना अब फल-फूल, मिठाई-नारियल से नहीं, अस्त्र-शस्त्र से की जानी चाहिए।’
सुभाष का चेहरा तमतमा उठा, उन्होंने मेज पर से चाकू उठाया और अपनी उँगली चीरकर, सामने टँगे माँ दुर्गा के चित्र का तिलक कर दिया।
माँ स्तब्ध रह गई, वह कुछ समझ न सकी।

दो


अँग्रेज़ी सरकार की निर्दय चालों ने हमें दरिद्रता की विकट स्थिति तक पहुँचा दिया है। बाबूजी, परतंत्रता की ज़ंजीरों को काटना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। अब तो हमें कुछ-न-कुछ करना ही चाहिए।
‘लेकिन सुभाष, इतनी छोटी अवस्था में, कितना ही जोश होने पर भी तुम क्या कर सकते हो ?’
‘बाबू जी, अँग्रेज़ों को बाहर निकालने के लिए मैं अपने प्राणों की बलि दे सकता हूँ, परंतु अपने देश में इन धूर्तों के राज्य को अब एक पल भी देखना नहीं चाहता।’

बाबू वेणीमाधव ने सुभाषचंद्र बोस के जोश और उत्साह को देखा तो वह दंग रह गए। वह कालेजिएट हाईस्कूल में प्रधानाचार्य थे। व्यवहार के अत्यन्त उदार तथा हृदय से सच्चे देशभक्त थे। सुभाष अपने विचारों को कार्यरूप में परिणत करने की वास्तविक प्रेरणा बाबू वेणीमाधव से ही प्राप्त करते थे। अपनी किसी भी शंका का समाधान करने के लिए सुभाष किसी भी समय बाबू जी के पास पहुँच जाते थे। बाबू वेणीमाधव जी सुभाष के गुणों को अच्छी प्रकार समझ चुके थे। इसीलिए सुभाष जब कभी कुछ पूछना चाहते, वह बिना किसी दुविधा के समय न रहने पर भी उनके प्रश्नों का उत्तर देते थे और उनकी बात सुनते थे।

आज जब सुभाष आए तो वह अपने स्कूल की किसी बड़ी समस्या में उलझे हुए थे। सुभाष के स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति या छात्र होता तो वह उसे कुछ समय के लिए टाल देते। पर सुभाष को देखकर तो उनका हृदय प्रसन्नता से भर उठता था। वह अपनी समस्याओं को भूल गए और सुभाष से बातचीत करने लगे। यद्यपि अभी तक वह समाचारपत्र भी नहीं पढ़ पाए थे।
‘सुभाष, मुझे तुम्हारे इन क्रांतिकारी विचारों से प्रसन्नता होती है, परंतु मैं चिंतित भी हूँ। मैं नहीं समझ पाता कि तुम अपने इन विचारों को साकार कैसे कर पाओगे।’

‘बाबूजी, लगता है आज आपको भी संदेह हो रहा है। स्वतंत्रता के पाँवों में पड़ी हुई बेड़ियों को काटना क्या प्रत्येक देशवासी का कर्तव्य नहीं है ? क्या हमारी रगों का खून सूख गया है ? क्या उसमें जोश और गर्मी शेष नहीं रहीं ?’
बाबू वेणीमाधव व्यग्र हो उठे। उन्होंने कहा, ‘नहीं सुभाष ऐसी बात नहीं है। अँग्रेज़ इस देश की बागडोर को ढीला करना कभी पसंद नहीं करेंगे। वे नहीं चाहते कि कोई भी व्यक्ति उनके सुख-चैन में बाधा पहुँचाए। वे कड़े-से कड़ा दमन करने में भी नहीं हिचकिचाएँगे। उस समय वह न्याय और अन्याय में कोई अंतर नहीं देखेंगे।

सुभाष के मन में संकल्प-विकल्पों का तूफ़ान उठ रहा था। वह अपने भविष्य के सम्बन्ध में उतने चिंतित नहीं थे, जितने वर्तमान में अपने देश की दरिद्रता और अँग्रेज़ी सरकार की उपेक्षा से व्याकुल थे। उनके चेहरे पर व्याप्त तेज, उनकी अभिलाषाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त कर रहा था। कितनी उत्कंठा थी ! कितनी उत्सुकता थी !!

कुछ देर रुककर सुभाष बोले, ‘बाबूजी, क्या अँग्रेज़ी सरकार इस समय न्याय का पक्ष ले रही है, जो हमारे आंदोलनों के प्रति न्याय करेगी ? अँग्रेज़ों की दृष्टि में तो भारतवासी आदमी ही नहीं हैं। वे आज जंगली जानवर से भी बुरी स्थिति में हैं। उनके जीवन का कोई सहारा नहीं है। उनको जीवित रहना है या मर जाना है—इसकी कोई चिंता सरकार को नहीं है। अभी आपने समाचारपत्र नहीं पढ़ा शायद—जाजपुर में कितना भयानक हैजा फैला है ! सैकड़ों व्यक्ति पीड़ित हैं। मरनेवालों की संख्या का कोई अनुमान नहीं। और सरकार क्या कर रही है ? अब आप ही बताइए कि हमारी रगों का खून उफान क्यों न खाए ? क्या हम अपने देश-वासियों को भेड़-बकरियों की तरह मर जाने दें ? क्या हमारा कुछ कर्तव्य नहीं है ?’

इस बात ने बाबू वेणीमाधव को चुप करा दिया। चिंता की रेखाएँ उनके ललाट पर उभर आईं। सामने पड़े हुए अखबार को उठाकर जब उन्होंने समाचार पत्र पढ़ा, तो उनकी आँखों में बरबस आँसू छलक उठे। उन्होंने कहा, ‘सरकार के इस व्यवहार से व्याकुल होना स्वाभाविक है। देश की स्थिति से हर विचारवान व्यक्ति का मन व्यथित है, किंतु ऐसी विषम परिस्थिति में क्या किया जाए ?’
‘बाबूजी, हमारा कर्तव्य स्पष्ट है। हमको मृत्युपर्यंत भारतमाता की बेड़ियाँ काटने के लिए जूझना होगा। जाजपुर में सैकड़ों की संख्या में लोग मर रहे हैं और सरकार हाथ-पर-हाथ रखे बैठी है। यह उनकी अनीतियों का नंगानाच है। हम इसे सहन नहीं कर सकते।’

‘सुभाष, तुम जानते हो कि अँग्रेज़ी सरकार से टक्कर लेना, फौलाद से टक्कर लेना होगा।’
‘जानता हूँ बाबूजी, लेकिन ताक़त का जवाब ताक़त ही है। मैं उस ताक़त का निर्माण करूँगा, जो देश की विपन्नता को दूर करने के लिए शत्रु से जूझ जाए। एक ऐसी शक्ति और जाग्रति का निर्माण देशवासियों में करना चाहता हूँ, जो उनको अन्तिम बलिदान तक प्रेरणा देती रहे।’
‘लेकिन तुम अकेले....’
‘बाबूजी....।’
सुभाष को बाबू वेणीमाधव की बात काटनी पड़ी। उनका हृदय सुलग रहा था। देश की ग़रीबी और दुरावस्था के चित्र उनकी आँखों के सामने तैर रहे थे। वह तनिक आवेश में बोले, ‘बाबूजी, मैं जानता हूँ कि आप क्या कहना चाहते हैं। मैं इस समय अकेला हूँ, छोटा हूँ, पर शांति से बैठ जाने से भी कुछ नहीं होगा। हमको अपना प्रयत्न जारी रखना चाहिए और हर क्षण, हर पल अपने कर्तव्य-पथ पर अग्रसर रहना चाहिए।’

‘ठीक है सुभाष, प्रयत्न आवश्यक है। कर्तव्य भी स्पष्ट है। तुम जो भी मार्ग अपनाओ, उसमें कोई-न-कोई उद्देश्य निहित रहना चाहिए।’
‘ठीक है सुभाष, प्रयत्न आवश्यक है। कर्त्तव्य भी, स्पष्ट है। तुम जो भी मार्ग अपनाओ, उसमें कोई-न-कोई उद्देश्य निहित रहना चाहिए।’
‘यदि ऐसा है तो हमारा पहला कर्तव्य है—अपने देशवासियों की रक्षा करना। जाजपुर के निवासियों की रक्षा होनी चाहिए। मैं अविलंब जाजपुर जाना चाहता हूँ।’
‘क्यों ?’ वेणीमाधव का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया।
‘जाजपुर के निवासियों की रक्षा करने के लिए; उनके जीवन की रक्षा के लिए।’

‘सुभाष, मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि तुम इस संक्रामक बीमारी का सामना किस प्रकार कर पाओगे ? मेरी राय है कि तुम वहाँ न जाओ। मुझे भय है कि कहीं.....।’
‘बाबूजी, मैं अवश्य जाऊँगा, मेरा दृढ़ निश्चय है।’
बाबू वेणीमाधव जानते थे कि सुभाष जिस कार्य का संकल्प कर लेता है, उसको किए बिना उसे चैन नहीं मिलता इसलिए सुभाष की इच्छा के सामने उन्हें झुकना पड़ा।
‘तब मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा, सुभाष ! इस तरह से मेरी छुट्टियों का भी उपयोग हो जाएगा। ‘जाओ तैयारी करो।’

तीन


दो महीने निरंतर, गुरु-शिष्य दोनों ने दीन-दुखियों की सेवा की। उनकी आँखों के सामने, चारों ओर देश की दारुण दरिद्रता के दयनीय दृश्य दिखाई देते थे।
दो माह तक रोगियों की सेवा-सुश्रूषा करने के पश्चात् सुभाष घर लौट आए। वह सीधे पिता के पास गए। अचानक सुभाष को अपने सामने खड़ा देखकर, पिता जानकीदास खुशी से चीख उठे।

अनवरत श्रम और रोगियों की सेवा करने के कारण सुभाष का शरीर अत्यधिक कृश हो गया था। माता-पिता ने पुत्र को इस स्थिति में देखा तो उनकी आँखें छलछला आईं। अपने को संयमित करते हुए पिता ने कहा, ‘सुभाष !’
‘जी पिताजी...।’
‘तुम बिना कुछ सूचना दिए कहाँ चले गए थे ? क्या भले लड़के ऐसा करते हैं ? तुमको अपने स्वास्थ्य का भी कुछ खयाल है ?’
‘जाजपुर ।’ सुभाष ने अपना छोटा-सा उत्तर दिया और चुप हो गए।

‘जाजपुर ?’ पिता अचानक चौंक उठे, ‘वहाँ तो भयंकर हैजा फैला हुआ था, तुम वहाँ क्या करने गए थे ?’
‘सेवा-कार्य करने। जब जाजमऊ में मृत्यु का तांडव हो रहा था, रोगियों का आर्तनाद बढ़ता जा रहा था तो ये समाचार सुनकर मुझसे से न रहा गया। मैं उन्हां दीन-दुखियों की सेवा करने गया था।’
‘किंतु सुभाष, तुमको यह पता नहीं था कि हैजा एक संक्रामक बीमारी है ?’
‘पता था पिताजी।’
‘फिर भी तुम वहाँ गए ? तुमको अपनी कोई चिंता नहीं थी ?’

‘पिताजी, जिस तरह आपको मेरी चिन्ता है उसी तरह जाजपुर के निवासियों की क्या स्थिति होती होगी, जब वे अपने जवान बेटों को प्राण त्यागते देखते होंगे और अपनी अस्वस्थता तथा निर्बलता के कारण उनकी किसी तरह चिकित्सा भी नहीं करक पाते होंगे। मैं इन दीन-दुखियों की सेवा करने के लिए गया था।’
‘तो तुम सेवा कार्य कर रहे थे ? रायबहादुर जानकीदास का पुत्र, जिसके घर में उसकी सेवा करने वाले दर्जनों सेवक हैं, सेवा-कार्य कर रहा था ! क्या तुमको मेरी प्रतिष्ठाकी तनिक भी चिंता नहीं है ?’ जानकीदास ने बात का रुख बदलते हुए कहा।

सुभाष चुप थे।
‘तुमने नीच मनुष्यों की तरह सेवा-वृत्ति स्वीकार की ! परंतु तुम यह भूल गए कि तुम उस रायबहादुर के बेटे हो, जिसका सम्मान आफिसर भी करते हैं।’
एकाएक सुभाष की मुखमुद्रा बदल गई। उनका मौन टूट गया, ‘‘पिताजी, मैं नहीं समझता कि इस सेवा-कार्य से आपकी प्रतिष्ठा में किसी प्रकार का अंतर आया है ! मौत के मुँह में जाते लोगों के प्राण की रक्षा कर, मैंने आपकी प्रतिष्ठा बढ़ाई ही है। अपने बच्चों को जीवित और स्वस्थ देखकर, उनके माता-पिता के हृदयों में हम सबके लिए दुआएँ नहीं निकलती होंगी ? जब रोगी कहते थे कि वे माता-पिता धन्य हैं, जिन्होंने तुम जैसा पुत्र पैदा किया तो मेरा मस्तक स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता था !’

पिता जानकीदास अभी कुछ और भी कहते, और सुभाष का टूटा मौन कुछ और उत्तेजना पैदा करता, तभी माता प्रभादेवी पुत्र को बुला ले गईं।
‘इतना दुबला हो गया है, ठीक से खाना भी नहीं मिला होगा। चल खाना खा ले।’

चार


‘जीवन एक ऐसी तुला है, जिस पर सत्य और असत्य दोनों ही तुलते हैं। यह मानव-स्वभाव है कि कभी सत्य का पलड़ा भारी हो जाता है, तो कभी असत्य का। जीवन की कठोरता को सहन करते हुए भी जिसने अपनी जीवन-तुला पर असत्य का भार नहीं पड़ने दिया है, वही मनुष्य संसार में अपने कुछ क्षण सार्थक व्यतीत कर सकता है, अन्यथा असत्यवादी तो पहले ही जीवन-विहीन है। इसलिए जीवन का वास्तविक आनन्द प्राप्त करने के लिए सत्य की खोज करो।’ सुभाष के कानों में स्वामी दयानंद के ये शब्द बारंबार घंटों की तरह गूँजने लगे। सत्य की खोज करो ! सत्य की खोज करो !!

सुभाष का मन आंदोलित हो उठा, ‘सत्य की खोज करो !!’ बचपन से ही वह अत्यधिक चिंतनशील थे। पिछले दिनो ही उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश लिया था। धनिकों के लड़कों को रेस्ट्राँ और होटलों में धन का अपव्यय करते देखकर उसका मन असह्य पीड़ा से भर जाता था, और उनकी दृष्टि के सामने देश की गरीबी एवं दरिद्रता का कोढ़ी शरीर प्रतिबिंबित हो उठता था। परंतु वह किसी से क्या कह सकते थे ! अपने को समझा पाना ही सरल था, इसलिए निमंत्रण मिलने पर भी वह ऐसे स्थानों पर जाने के लिए तैयार नहीं हो पाते थे। उनका समय गंभीर चिंतन अथवा देश की वर्तमान समस्याओं के समाधान में बीतता था। वह बार-बार सोचते थे कि अपनी वर्तमान अवस्था के लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं और जो कुछ हम करना चाहें, उसकी शक्ति भी हमीं में है। यदि हमारी वर्तमान अवस्था हमारे ही पूर्व कर्मों का फल है तो यह निश्चित है कि जो कुछ हम भविष्य में होना चाहते हैं, वह हमारे वर्तमान कार्यों द्वारा ही निर्धारित किया जा सकता है। कभी-कभी वह सोचते कि मनुष्य तभी मनष्य हो सकता है, जब वह प्रकृति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करता रहे। इस प्रकार धीरे-धीरे आध्यात्मिकता ने उनके मन-मस्तिष्क पर अधिकार कर लिया।

धीरे-धीरे उनका मन कालेज की पढ़ाई की ओर से हटने लगा। स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचारों ने उनको आंदोलित कर दिया था। हृदय का यह आंदोलन क्रमशः सीमातीत होता गया। मन की उथल-पुथल और भावों के उतार-चढ़ाव के बीच उनके विचार भटकते रहे। यह निश्चय करना कठिन लग रहा था कि अंततः कौन-सा मार्ग ऐसा है, जिस पर चलकर सत्य की खोज की जाए। अब तक सुनी हुई साधु-संतों की गाथाओं पर भी मनन किया। यही मार्ग शेष था कि हिमालय के किसी एकांत कंदरा में बैठकर सत्य की खोज की जाए। निश्चय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए, एक रात्रि में, घरवालों को किसी प्रकार की सूचना दिए बिना, वह सत्य की खोज में निकल पड़े।

रात्रि का गहन अंधकार, परंतु मन में प्रकाश की ओर जाने की लग्न, सत्य के अनुसंधान की प्रेरणा। पहाड़ों की कंदराओं, जंगलों और ऋषि-मुनियों के आश्रमों की ओर क़दम बढ़ते ही रहे। किंतु कहीं पर सत्य की एक झलक भी दिखाई नहीं दी। दिन बीतते जाते, परंतु सत्य के दर्शन नहीं हो सके। सर्वत्र घृणित और पाखंडपूर्ण वातावरण देखने को मिला। ऐसे स्थानों पर सुभाष क्षणभर भी न ठहर सके।

हिमालय के एकान्त स्थानों पर उनको शांति न मिल सकी। वहाँ भी चारों ओर दुनियादारी और अशान्ति का ही राज्य था। वहाँ से ऊबकर वह मथुरा गए। वहाँ उनकी भेंट स्वामी परमानंद जी से हुई। स्वामी जी स्नातक थे। उनका रहन-सहन गृहस्थों जैसा था। यह सभी कुछ सुभाष जी को अच्छा न लगा। वहाँ भी वह न रुक सके।
मथुरा से सुभाष वृंदावन पहुँचे। उनके व्यक्तित्व से यहाँ एक साधु रामकृष्णदास बहुत अधिक प्रभावित हुए और उन्होंने सुभाष को वाराणसी जाकर अध्ययन करने की सलाह दी।

सुभाष वाराणसी के लिए चल पड़े। कई दिनों तक उन्होंने रामकृष्ण मिशन के स्वामी ब्रह्मानंद जी से अध्ययन की चर्चा की, किंतु स्वामी जी नहीं चाहते थे कि यह बुद्धिमान बालक, अपने माता-पिता की आज्ञा के बिना संन्यास ग्रहण करे। अतः उन्होंने सुभाष को घर जाने की सलाह दी।
सुभाष ने स्वामीजी की आज्ञा-शिरोधार्य की। वह काशी से अपने घर की ओर चले, परंतु बड़ा असंतोष इस बात का था कि वह जिस उद्देश्य को लेकर घर से निकले थे, वह अभी तक पूरा नहीं हुआ था। सत्य की खोज में भटकते समय, उन्हें सत्य की किंचित झलक भी तो नहीं दिखाई दी।

पाँच


माँ की चिन्ता बढ़ती ही जाती थी। पारिवारिक जन उनके दुःख को देख नहीं पाते थे। पिता जानकीदास का मन रोता था परंतु बाहर से धैर्य रखकर वह अपनी पत्नी प्रभादेवी को समझाते। उन्होंने सोच लिया था कि जो होना होगा, वही होगा।
अनेक स्थानों पर पत्र भेजे गए। सभी संबंधियों से समाचार मँगाए गए।
रायबहादुर को पुलिस को सूचना देने की सलाह दी गई। किंतु तभी एक संबंधी, जो पुलिस अधिकारी थे, ऐसा न करने का सुझाव दिया।
कहीं से भी सुभाष की कुशलता का कोई समाचार नहीं मिल रहा था। प्रभादेवी पागल-सी हो गईं।
सभी विवश थे, क्या करें, क्या न करें....?

अंत में सुभाष के मामा को उनकी खोज के लिए भेजा गया। उन्होंने बैद्यनाथ धाम (देवघर) के पर्वतों में सुभाष की खोज की, किंतु कोई परिणाम न निकला। सभी की चिंता बढ़ती जाती थी।
माता की व्याकुलता में वृद्धि हो रही थी।
खोज निरंतर जारी थी।
बेलूर में खोज की गई। रामकृष्ण मिशन (हरिद्वार) को तार दिया गया कोई उत्तर न मिला। तभी सुभाष का पत्र मिला। उन्होंने लिखा था—

‘मैं बालानंद जी के पास गया था। वहाँ एक ब्रह्मचारी ने बताया है—कि सुभाष ने यदि अनधिकारी होकर संन्यास लिया होगा तो धक्के खाकर लौटेगा, और यदि वह संन्यास के योग्य है तो लौटाने के सभी प्रयास व्यर्थ हैं।’
उन्होंने यह भी लिखा कि एक ज्योतिषी ने बताया था कि देश के प्रभाव से सुभाष संन्यासी नहीं होगा।
लेकिन माता का दुःख कम नहीं हुआ। रोते-रोते माँ की आँखें सूज गईं। पिता के दुःख का कोई पार नहीं था। युवा बेटा इस प्रकार बिना कुछ कहे घर से चला जाए। कौन लगा सकता है उसके दुख का अनुमान ?

स्नेह, प्यार और ममत्व की भावनाओं के बीच माता-पिता दोनों का दुःख जितना अधिक बढ़ता था, उतनी ही अधिक निराशा उधर सुभाष को उच्छृंखल साधु-संतो और महात्मा कहे जाने वाले प्राणियों से होती जा रही थी। असफल आशा और द्वंद्व के बीच भटकते हुए सुभाष को कहीं भी अपने उद्देश्य की पूर्ति के चिह्न न दिखाई दे रहे थे। साधु-संतों के भ्रष्ट आचरण और दिखावे को देखकर उनका मन और व्याकुल हो उठा। ये लोग किस प्रकार आत्मिक शांति प्राप्त कर सकेंगे। सत्य की प्राप्ति तो यहाँ स्वप्न में भी नहीं हो सकती।

इन धर्म विरोधी दृश्यों को सुभाष देख न सके और वह शीघ्र ही कलकत्ता लौट आए।
सुभाष के आने का समाचार घर-घर में शोर बनकर फैल गया। पूरे घर में हलचल सी मच गई।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book