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कल्पवृक्ष की छाँव में

राजेश चन्द्रा

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3510
आईएसबीएन :81-7016-550-4

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कल्पवृक्ष की छाँव में...

KALPVRIKSHA KI CHHAANV MEIN

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


ख़ुशबू घुली हवाओं में
घुँघरू बँध गए पाँव में
उत्सव होता रहता है
कल्पवृक्ष की छाँव में

इस दरख़्त के घेरे में
दीवानों के डेरे में
धूना इश्क का जलता है
दिन क्या रात अंधेरे में
वासंती मौसम आया है
मस्तानों के गाँव में
कल्पवृक्ष की छाँव में...

राही रुकते आते-जाते
कुछ गाते, कुछ बतियाते
दुनिया की बिसात पर
बिछे हुए हैं रिश्ते-नाते
वही जुआरी जीत गया
जो धर गया जीवन दाँव में
कल्पवृक्ष की छाँव में...

दुनिया रैनबसेरा है
क्या तेरा क्या मेरा है
आँख बंद की रात है
खुली आँख सवेरा है
यहीं मिलेगा, बैठ जा
जो खोजे दसों दिशाओं में
कल्पवृक्ष की छाँव में...

आसमान की ओर नज़र गई
देखा वहाँ हवन हो रहा है
कई साये उसमें हवन सामग्री डाल रहे हैं
काका शान्त मुस्कराते बैठे हैं
चारो तरफ मंगलगान हो रहा है
फूल ही फूल हैं
पूरा आसमान फूलों से भरा हुआ
कुछ फूल धरती पर भी गिर रहे हैं
एक अम्बरी आवाज़ आई-
आज काका को ब्रह्म विद्या हासिल हुई है...
अब से वह ब्रह्म ऋषि हुए...


प्रेम की संजीवनी



फ्रांस की एक रोचक घटना है कि वहाँ एक युवक-युवती एक-दूसरे के प्रेम में थे वे विवाह करने की योजनाएँ बना रहे थे, लेकिन युवक कोई व्यवसाय नहीं करता था। उसने अपनी मँगेतर से कहा कि वह कुछ दिन के लिए अमेरिका जाना चाहता है। वहाँ रहकर कुछ कमाई करेगा तब लौटकर विवाह रचाएगा। मँगेतर तैयार हो गई। युवक अमेरिका चला गया। उसने वहाँ पाँच साल रहकर धन कमाया। अब वह फ्रांस लौटने की योजना बना ही रहा था कि अचानक किसी झूठे अपराध से उसे पकड़ लिया गया, उसे दस साल का कारावास हो गया। जब फ्रांस उसने छोड़ा था तब उसकी आयु पच्चीस वर्ष और उसकी मँगेतर की आयु बीस वर्ष थी। ढेर साल की सज़ा पूरी होने को थी कि उसने एक बार कारावास से भागने की कोशिश की। फलस्वरूप उसकी सज़ा दस साल और बढ़ा दी गई। अब उसके सारे सपने बिखर गए सारे अरमान मरने लगे।

उसने मान लिया कि उसकी प्रेमिका ने अब उसके आने की उम्मीद छोड़ दी होगी। उसका विवाह किसी और से हो गया होगा अपनी स्थिति के विषय में कोई पत्र-व्यवहार करना भी उसने उचित नहीं समझा क्योंकि दूर देश में रहकर यह समझ पाना मुश्किल था कि वह बिना कुछ किए किसी झूठे अपराध की सज़ा कारावास में काट रहा है। अंततः दस साल और भी कट गए और वह कारावास से मुक्त हुआ। अब वह जीवन के पाँचवे दशक में था। पैंतालीस वर्ष बीत चुके थे। यौवन ढलान पर था। बाल सफेद हो चले थे उम्र अपना प्रभाव चेहरे पर छोड़ने लगी थी। कारावास ने उसकी जीवन-ऊर्जा सोख ली थी। तन से ज्यादा उसका मन बूढ़ा हो गया था। उसने अनुमान लगाया कि अब उसकी प्रेमिका की उम्र चालीस साल की होगी, उसके बाल बच्चे भी हो चुके होंगे। उसका मन नहीं किया कि वह लौटकर फ्रांस जाए लेकिन फिर भी वह फ्रांस लौटा। उसे मालूम नहीं था कि उसकी प्रेमिका कहाँ होगी। अपने पूर्व घर पर उसके मिलने की उसे कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन उसी घर से अपनी प्रेमिका के बारे में कुछ जानकारी मिल सकती थी। बस यूँ ही अपनी स्मृतियों को ताजा करने के लिहाज से वह उसके घर पहुँचा तो दरवाजे पर ठिठककर खड़ा हो गया।

वह कल्पना करने लगा कि अभी दस्तक दूँगा, दरवाजा खुलेगा उसकी मँगेतर उसे देखकर चौंक जाएगी, वह उसका स्वागत करेगी...वह स्मृतियों में पच्चीस साल पीछे लौट गया। फिर अकेले खड़ा-खड़ा वह खुद पर ही हँस पड़ा। उसने खुद को समझाया कि वक्त पच्चीस साल आगे चला गया है, वक्त का पहिया पीछे नहीं लौटता। फिर उसने अपने मन को पक्का किया, वर्तमान को स्वीकार करने का निश्चय किया और दरवाजे पर दस्तक दी। थोड़ी देर बाद अंदर से आवाज आई-कौन है ?’ उसे आवाज़ पहचानी सी लगी लेकिन उसने इसे भ्रम समझा। अपने आप से कहा, ‘अब वह यहाँ कहाँ होगी।’ खैर, उसने आवाज़ का जवाब दिया, अपना नाम बताया और अगले ही पल दरवाज़ा खुल गया।

सामने उसकी प्रेमिका खड़ी थी-उतनी ही युवा, उतनी ही सुंदर उतनी ही सौम्य ! जैसे कि अभी भी वह बीस बरस की हो। उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ, लगा, कि कहीं वह सपना तो नहीं देख रहा है, कहीं उसकी आँखें अपनी ही कल्पना से सम्मोहित तो नहीं हो गई हैं ! ‘तुम !’’ प्रेमिका के इस विस्मय संबोधन ने उसकी तंद्रा तोड़ी। ‘हाँ, मैं तुम्हारा....’ सहज ही उसके मुँह से निकला। प्रेमिका ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया और उसके सीने से लग गई। उस पल में वक्त बीस साल पीछे चला गया और ठहर-सा गया...

दोनों घर के अंदर गए। थोड़ा सहज हुए। भोजन के वक्त आदमी ने पूछा, ‘तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की ?’ युवती की आवाज़ में दृढ़ता थी, ‘मुझे विश्वास था कि एक दिन तुम ज़रूर आओगे।’
‘मान लो, मैं ना ही आता ?’
‘तो भी मैं किसी और से शादी करने वाली नहीं थी। मैंने प्यार तुमसे किया है, सिर्फ तुमसे। मेरे प्यार की ख़ातिर तुम्हें आना ही था...’’

आदमी अपनी प्रेमिका के निश्चय पर मुग्ध हो गया और समय निश्चित करके जल्दी ही दोनों ने शादी कर ली।
शादी के बाद एक दिन उसने अपनी पत्नी से पूछा, ‘ये पच्चीस बरस का लंबा समय तुम्हारे शरीर पर कोई चिह्न कैसे नहीं छोड़ सका ? तुम अभी तक उतनी ही खूबसूरत उतनी ही कमसिन और उतनी ही युवा कैसे हो ?’
‘इसके पीछे एक राज़ है’, पत्नी ने अपनी सुंदरता और यौवन की प्रशंसा पर शर्माते हुए भेद खोला, ‘तुम जिस दिन से अमेरिका गए उस दिन से मैं रोज़ दर्पण के सामने खड़ी होती थी, अपने को निहारती थी और अपने आपसे कहती थी-मैं आज भी उतनी ही सुंदर, उतनी ही युवा हूँ जितनी मैं कल थी और तुम्हारे आने तक मुझे ऐसा ही बने रहना है। जिस दिन तुमने दरवाज़े पर दस्तक दी उस दिन भी दर्पण के सामने खड़े होकर मैंने अपने आपसे यही कहा था कि मैं आज भी उतनी ही सुंदर, उतनी ही युवा हूँ जितनी कल थी और तुम्हारे आने तक मुझे ऐसा ही बने रहना है...’
यह था उस युवती के अक्षुण्य सौंदर्य और अक्षय यौवन का रहस्य। यह विवरण मैंने लगभग बीस साल पहले पढ़ा था। युवक-युवती के नाम और तथ्यात्मक ब्योरे भूल गया हूँ लेकिन सार अभी तक याद है।

यह घटना जब मैंने काकाजी को सुनाई तो उन्होंने कहा, ‘‘जाने-अनजाने में उस युवती ने लगातार बीस वर्षों तक ध्यान की एक विधि का अभ्यास किया जिसका परिणाम यह रहा कि समय उसके शरीर पर कोई चिह्न नहीं छोड़ सका।
‘‘दर्पण के सामने बैठकर स्वयं को आत्मपरामर्श ऑटो सजेशन देना ध्यान की एक विधि है। आज के दौड़-धूप वाले और तनावपूर्ण युग में यह सबसे प्रभावकारी ध्यान विधि हो सकती है। जिन लोगों का ध्यान में मन नहीं लगता है, वे लोग इस विधि से ध्यान करने की शुरुआत कर सकते हैं। यह रोचक है, प्रभावशाली भी और सरल भी....’’

फिर काका ने दर्पण-ध्यान विधि बताई, ‘‘एक दर्पण लें-इतना बड़ा कि पालथी का आसन लगाने के बाद भी आप उसमें पूरे दिखाई दें। दर्पण को एकांत कक्ष में रखें। कमरे में प्रकाश कम हो। थोड़ा मद्घिम और सौम्य प्रकाश बस आपके शरीर पर पड़ रहा हो। इसके लिए आप एक मोमबत्ती या दीपक का प्रयोग भी कर सकते हैं। स्वच्छ और सुंदर कपड़े पहनें। दर्पण के सामने बैठ जाएँ। मुस्कराएँ। यदि आपके चेहरे पर स्वाभाविक मुस्कान नहीं है, और आपको मुस्कराने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है तो भी मुस्कराएँ। बिना मुस्कराए अपने प्रतिबिंब को दर्पण में कभी भी मत देखें-यह इस ध्यान विधि की पहली शर्त है। दस पाँच मिनट तक अपने आपको मुस्कराते हुए देखते रहें। फिर कुछ क्षणों के लिए आँखें बंद करें और अपने मुस्कराते हुए चेहरे को याद करें। जब अन्यथा विचार आने लगें तो फिर आँखें खोल लें और स्वयं को मुस्कराते हुए देखें। शुरू के दो तीन हफ्ते बस इतना ही ध्यान करें और ध्यान के बाद बाकी समय भी अपने मुस्कराते हुए चेहरे को याद रखें। लगभग महीने दो महीने के बाद आप अपने चेहरे पर उभरती हुई स्वाभाविक मुस्कान देखेंगे-जैसे बच्चों के होंठों पर होती है।

‘‘अब आप और भी गहरे उद्देश्यों के लिए इस ध्यान विधि का उपयोग कर सकते हैं-जैसे अपने आपमें आत्मविश्वास विचारों को रोपना, अपने मन से हीन भावनाओं का उन्मूलन करना, मन की गहराइयों से रोग की जड़ों को उखाड़ फेंकना इत्यादि। इस ध्यान विधि के सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सुबह या शाम जिन भाव अथवा विचारों को लेकर आप दर्पण के सामने ध्यान करें, उन भावों को दिन के बाकी समय भी याद रखें।

‘‘जैसे उदाहरण के लिए आप किसी व्यसन से ग्रसित हैं-मान लीजिए कि सिगरेट पीने के व्यसन से-और आपको पता भी है कि वह व्यसन आपका नुकसान कर रहा है लेकिन अपने ही मन की कमजोरियों के कारण आप उससे छुटकारा नहीं पा रहे हैं, तो दर्पण के सामने आप स्वयं को समझाइए-यह एक बुरा व्यसन है, इससे हानियाँ हैं। स्वयं को स्वयं के सामने साक्षी रखकर सिगरेट न पीने का संकल्प लें-सिर्फ एक दिन का संकल्प-और उस संकल्प को दिन भर याद रखें। अपने आपका सम्मान करें कि स्वयं को दिया हुआ वचन निभाना है। फिर दूसरे दिन भी ऐसा ही संकल्प करें, फिर तीसरे दिन....ऐसे एक-एक दिन करके आपका आत्मविश्वास बढ़ता जाएगा और एक दिन आप व्यसन से पूर्णतः मुक्त हो जाएँगे। पढ़ने वाले विद्यार्थियों में, खास तौर से उन विद्यार्थियों में, जिनमें यह विचार बैठा होता है कि वे कमजोर बुद्धि के हैं, यह ध्यान विधि आत्मविश्वास जाग्रत करने के लिए बहुत ही प्रभावशाली सिद्घ हो सकती है...

‘‘आपको कौन सा विचार या भाव लेकर इस दर्पण ध्यान का प्रयोग करना है, यह आपको अपनी ज़रूरत के मुताबिक स्वयं चुनना होगा।’’
काका ने आगे कहा, ‘‘वास्तव में मनुष्य भाव-पुरुष है। वह जैसे भावों का चिंतन करता है वह वैसा ही हो जाता है। हमारे बाबा एक बड़ी प्यारी कहानी कहते थे।
‘‘कहानी यूँ थी कि एक कुरूप-से व्यक्ति को एक रूपवान सुंदरी से प्रेम हो गया, लेकिन अपनी कुरूपता के कारण वह व्यक्ति अपना प्रेंम-प्रस्ताव उस सुंदरी के सामने रखने का साहस नहीं कर पा रहा था। उसे भय था कि उसका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया जाएगा। लेकिन उसके हृदय में युवती के लिए था बहुत गहरा प्रेम। वह उसके प्रेम में इतना दीवाना था कि उसके बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था। उसे एक उपाय सूझा। वह एक जादूगर के पास गया। उससे कहा कि वह उसे सुंदर बना दे। जादूगर ने उसे एक सुंदर मुखौटा दिया, कहा कि तू इसे पहन ले। मुखौटा पहनकर वह कुरूप व्यक्ति सच में बड़ा सुंदर दिखने लगा, लेकिन जादूगर ने एक शर्त रखी कि वह मुखौटा सिर्फ एक वर्ष के लिए देगा, एक वर्ष पूरा होते ही मुखौटा वापस ले लेगा। उस व्यक्ति ने कोई उपाय न देखकर यह अटपटी शर्त भी अनमने मन से मान ली और मुखौटा लगाकर वह उस सुंदरी के सामने गया। सुंदरी भी उसके रूप पर मोहित हो गई।

उसे लगा कि वह जैसे सुंदर पुरुष की तलाश में थी, वह उसे मिल गया है। एक-दूसरे की रजामंदी से दोनों ने शादी कर ली और समय आने पर वे दोनों एक सुंदर से बालक के माता-पिता बने। वह व्यक्ति अपने सुंदर बेटे और रूपवती पत्नी के प्रेम में जी रहा था। उसे लगने लगा कि वह साक्षात स्वर्ग में है। वह बार-बार अपने भाग्य की सराहना करता कि एक सुबह जब उसकी पत्नी और बच्चा अभी सोए हुए ही थे कि वह जादूगर आ उपस्थित हुआ-एक साल पूरा हो चुका था। जादूगर ने याद दिलाया कि अब उसे मुखौटा वापस चाहिए। वह व्यक्ति हाथ जोड़कर, गिड़गिड़ाकर अनुनय विनय करने लगा कि कृपा करके अब वह मुखौटा वापस न ले, उसके बदले जो कीमत माँगे, वह दे देगा, कहे तो वह उसकी गुलामी भी कर देगा। लेकिन वह जादूगर नहीं माना। वह फिर प्रार्थना करता है कि कम-से-कम एक साल के लिए वह मुखौटा उसके पास और रहने दे। जादूगर उसकी प्रार्थनाओं पर उदासीन रहा। अंत में उसने क्रूरतापूर्वक कहा, ‘अगर तुम मुझे मेरा मुखौटा वापस नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे बेटे को अभी मार डालूँगा’ यह कहकर उसने ज्यों ही सोते हुए बच्चे की ओर हाथ बढ़ाया कि वह व्यक्ति रो पड़ा। विवश स्वर में कहने लगा ठीक है, तुम अपना मुखौटा वापस ले लो, लेकिन मेरे बेटे की जान बख्श दो।’ और जादूगर उसके चेहरे से मुखौटा खींच लेता है....

‘‘मुखौटा खींचते ही जादूगर की आँखें खुली की खुली रह गईं। वह देखता है कि उस व्यक्ति का चेहरा अब उतना ही सुंदर है जितना कि वह मुखौटा लगाने पर दीखता था। उसकी कुरूपता अलोप हो गई थी।
‘‘इस कहानी का सार इतना ही है कि व्यक्ति जिन भावों को चिंतन करता है, वह वैसा ही हो जाता है। वह व्यक्ति रूपवान मुखौटे के सिर्फ सम्मोहन से कुरूप से कुरूप हो गया। वह सिर्फ कहानी नहीं है बल्कि वास्तव में भी ऐसा ही होता है। आप जिन भावों में रहते हैं, वही रूप धारण कर लेते हैं...’’
काकाजी समय-समय पर अलग-अलग लोगों को उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग ध्यान विधियाँ बताते हैं। एक दिन वे एक व्यक्ति को गुरु-ध्यान की विधि बता रहे थे।

‘‘आप अपने गुरु का चित्र सामने रखें...’’
‘‘लेकिन मैंने तो अभी किसी को अपना गुरु धारण नहीं किया है...’’ वह व्यक्ति सकुचाते हुए बीच में ही बोल पड़ा।
‘‘कोई बात नहीं’’, काका ने समाधान किया, ‘‘आप ऐसे किसी संत का चित्र भी ले सकते हैं जिन पर आपकी आस्था हो। उस चित्र को लकड़ी की एक छोटी-सी चौकी पर स्थापित करके उसके सामने सुखासन में बैठकर सबसे पहले सर्वांगन्यास कीजिए...’’

‘‘काका जी, सर्वांगन्यास ?’’
‘‘न्यास का मतलब होता है नींव फाउंडेशन शिलान्यास होता है न ! बड़ी योजना के लिए न्यास की स्थापना भी की जाती है यानी कि नींव डाली जाती है। वैसे ही सर्वागन्यास यानी कि अपने अंग-अंग में गुरु को धारण करना। अपने पैरों पर हाथ रखें और यह भाव करें कि ये मेरे नहीं, गुरु के पैर हैं, अपनी भुजाओं पर, वक्ष पर, सिर पर हाथ रखें और भाव करें कि ये गुरु की भुजाएँ, गुरु का वक्ष, गुरु का सिर, गुरु के नेत्र हैं...ऐसे एक-एक अंग में अपने गुरु को धारण करना, यह सर्वांगन्यास है। जब यह भाव गहरा हो जाए, आप केवल इसी भाव से भर जाएँ तब धीरे से आँखें बंद करें और भाव करें कि गुरु ही ध्यान कर रहा है...और इसी भाव में स्थिर रहने का प्रयास करें। इसे गुरु ध्यान कहते हैं....’’
‘‘काकाजी, इस तरह चित्र रखकर ध्यान करना क्या हमारी सिर्फ कल्पना नहीं होगा।’’
‘‘होगी, शुरू-शुरू में कल्पना ही होगी। लेकिन जैसे-जैसे आप इस विधि को जारी रखेंगे, आप अपने आपमें बदलाव भी महसूस करेंगे...’’
‘‘वह क्या ?’’

‘‘वह यह कि जब आपका अपने शरीर के प्रति गुरु भाव विकसित होने लगेगा तो आपके सारे व्यवहार, गतिविधियाँ संयत और अनुशासित होने लगेंगी। आपकी जागरूकता बढ़ जाएगी। आपकी सारी अवांछित छूटने लगेंगी। कोई गलत काम करते-करते आप रुक जाएँगे। अंदर से एक आवाज़ सी आएगी- नहीं, यह तुम्हारा शरीर नहीं है, गुरु का शरीर है। आपका स्वयं के प्रति सम्मान भाव बढ़ने लगेगा। जब इस तरह होने लगे तो समझ लीजिए कि आपका गुरु ध्यान फल देने लगा है अब आप स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ सकते हैं....।’’
‘‘स्थूल से सूक्ष्म की ओर का मतलब ?’’
‘‘स्थूल से सूक्ष्म की ओर का मतलब है कि अब आप गुरु के सूक्ष्म गुणों को अपने में न्यास करना, स्थापित करना शुरू करें...गुरु के अंदर की शांति, उनकी प्रज्ञा उनकी मुदिता अपने में धारण करें...ऐसा करते-करते किसी दिन उनके अंदर का ज्ञान, उनके अंदर की समाधि भी आपमें स्थापित हो जाएगी...’’
‘‘क्या काका, सच में ऐसा हो सकता है ?’’
‘‘हाँ, निश्चित रूप से हो सकता है। अपरोक्षानुभूति प्राप्त गुरु अपरोक्षानुभूति करा सकता है। उसका ध्यान, सर्वागन्यास भी साधना है।’’ काका ने दृढ़तापूर्वक कहा, ‘‘स्वयं हमारे बाबा गुरुध्यान की जीती जागती मिसाल हैं। वह कैसे गुरु ध्यान करते थे इसके लिए आप उनकी आत्मकथा पढ़िए-चितशक्ति विलास।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘आपको एक मिसाल देता हूँ। आप कभी खजुराहों या कोणार्क गए हैं कि नहीं ?’’

‘‘नहीं तो।’’
‘‘वहां के मैथुन-शिल्प के चित्र तो देखे होंगे ?’’
‘‘जी देखे हैं।’’ सहमता सा जवाब था।
‘‘उन्हें देखने से आपके अंदर क्या होता है ? उन मैथुन-शिल्प के चित्रों को देखने भर से आपके अंदर वासना की तरंगें उमड़ने लगती हैं। ऐसा होता है कि नहीं ?’’
‘‘जी, काका, होता है।’’ जवाब में संकोच भरी स्वीकृति थी।
‘‘यदि उन काम चित्रों को देखने से आपके अंदर वासना की तंरगें उमड़ सकती हैं तो संतों के चित्रों पर ध्यान करने से आपके अंदर उपासना की तरंगें क्यों नहीं उमड़ सकतीं ? क्या है कि लोग संतों के चित्रों को अपने घर की दीवारों की सिर्फ शोभा बनाकर रखते हैं, कभी-कभी अगरबत्ती और फूल भी अर्पित कर देते हैं लेकिन उन्हें गौर से देखते कभी नहीं। यदि फिल्मों के पोस्टर आपके अंदर हलचल पैदा कर सकते हैं तो संतों के चित्र भी आपके अंदर तरंगें पैदा कर सकते हैं-अगर आप उन चित्रों को तरंगें पैदा करने का अवसर दें तो।’’
फिर काका ने एक घटना सुनाई, ‘‘उधर मुंबई में एक महिला है। मैं उससे मिला भी हूँ। वह शिर्डी साईं की भक्त है। उस पर साईं का आवेश आता है। गुरु-ध्यान का क्या प्रभाव होता है, आपको वह बता रहा हूँ। एक दिन जब वह साईं के आवेश में थी तो एक फोटोग्राफर ने उसके फोटो खींचे। जब उसने निगेटिव डवलप की तो देखकर दंग रह गया। उसमें से एक फोटो उस महिला की शक्ल में शिर्डी साईं का आया। उस फोटो को आप मुंबई में जगह-जगह देख सकते हैं।

‘‘वास्तव में ये सब घटनाएँ प्रेम का चमत्कार हैं। वह प्रेम चाहे किसी आदमी से हो, औरत से हो, गुरु से या आपके इष्ट से....प्रेम कोई भी चमत्कार कर सकता है....प्रेम की संजीवनी जीवन का रूपांतरण कर सकती है....’’
और एक दिन काकाजी ने मंत्र-ध्यान की विधि बताई, ‘‘मंत्र जाप चार तलों पर होता है-स्थूल, सूक्ष्म, कारण, महाकारण। स्थूल जप जिह्मा से होता है-इसे वैखरी जप कहते हैं। सूक्ष्म जप कण्ठ में होता है-विशुद्ध चक्र पर-इसे मध्यमा जप कहते हैं, यह सूक्ष्म शरीर में होता है। पश्यंति जप हृदय में होता है-मध्य केंद्र पर कारण शरीर में। नाभि पर मंत्र की सिर्फ तरंगें शेष रह जाती हैं-इसे परा जप कहते हैं, यह सीधे महाकारण शरीर में होता है। इस प्रकार मंत्र को क्रमशः गहरे उतारना चाहिए।
‘‘जब मंत्र गहरा उतरने लगता है तो फिर जप करना नहीं पड़ता, वह होता है और आप सिर्फ़ सुनते हैं। उसी अवस्था को संत रैदास ने कहा है-मेरा सुमिरन हरि करें, मैं पायो विश्राम।’’


बुद्ध और तलवार



जापान में टोक्यो की सड़कों पर एक बौद्ध साधु इस तरह से हाथ घुमाते हुए चला जा रहा था जैसे कि वह लगातार चला रहा हो। हालाँकि उसके हाथ में तलवार थी नहीं।
एक आदमी ने उसे रोककर पूछा, ‘‘महाशय, यह आप क्या कर रहे हैं ?’’
साधु ने जवाब दिया, ‘‘मैं वह कर रहा हूँ जो मेरे गुरु ने मुझसे कहा है।’’
‘‘आपके गुरु ने आपसे क्या कहा है ?’’ उस व्यक्ति ने विस्मय से पूछा।
‘‘मेरे गुरु ने कहा है कि यदि बुद्ध भी तुम्हारी सजगता में बाधा बनने लगें तो तलवार से उनके टुकड़े-टुकड़े कर दो।’’ साधु ने बताया।

आदमी ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘लेकिन आपके हाथ में तलवार तो है नहीं !’’
साधु ने मुस्कराकर जवाब दिया, ‘‘और बुद्ध भी कहाँ हैं ?’’
ऐसे ही, बहुत बार देखता हूँ, काकाजी भी बिना तलवार की तलवार से सामने वाले की कमजोर मनोधारणों के खंड-खंड करके रख देते हैं। वह किसी के भी मन को ढहने नहीं देते, हथेली लगाकर थाम लेते हैं।
एक दिन दो युवतियाँ काकाजी से मिलने आईं। वे दोनों बहनें थीं। बीती रात उन दोनों को एक जैसा सपना आया था। वे दोनों उस सपने के अशुभ संकेत कल्पना करके दुखी व निराश थीं।
बड़ी बहन ने सपना देखा था कि वह शिवजी का एक चित्र बना रही है, उसमें रंग भर रही है, रच-रचकर रंगों की सुंदर छायाएँ दे रही हैं...बड़े से कैनवास पर बहुत ही सुंदर चित्र बना था। वह मुग्ध मन से चित्र को निहार रही थी कि अचानक एक युवक आया और उसने वह चित्र फाड़ दिया, रंग व तूलिका उठाकर फेंक दिया...वह युवक वही था जिसके प्रेम में वह थी तथा शादी के सपने बुन रही थी...
बस, यह सपना था जिसे काकाजी को सुनाते-सुनाते वह फूट-फूटकर रोने लगी थी, उसकी हिचकियाँ और आँसू थम ही नहीं रहे थे...

उसकी छोटी बहन को भी ठीक यही सपना आया था कि उसकी दीदी शिवजी का चित्र बना रही है, वह उसे रंग पानी तूलिका आदि ला लाकर दे रही है और जब चित्र बनकर तैयार हो गया तो एक युवक ने आकर उसे फाड़ दिया, रंग फेंक दिया...
पहले तो काका ने उनके तप्त हृदय पर अपने शीतल शब्दों की बौछार की, ‘‘बेटा, यह सपना बिलकुल भी अशुभ नहीं है।’’
और फिर ज्ञान की तलवार निकाली-‘‘देखो, देव विग्रहों को सिर्फ दो ही लोग तोड़ सकते हैं, या तो पागल या फिर ज्ञानी। अगर वह पागल है तो उसे माफ कर दो और भूल जाओ, वह तुम्हारी ज़िंदगी के लिए है ही नहीं, यह इस सपने का एक साफ़ संकेत हैं...’’

काका ने आगे कहा-‘‘और अगर वह ज्ञानी है तो उसे समझने की कोशिश करो। वह नहीं चाहता कि तुम प्रेम के मूर्त रूप में उलझकर रह जाओ। वह तुम्हारी ज़िंदगी में तुम्हें अमूर्त प्रेम की राह दिखाने के लिए आया है, उसका मकसद पूरा हो चुका है इसीलिए उसने इतने प्रेम से बनाए हुए तुम्हारे चित्र को फाड़ दिया, उसने तुम्हारी आसक्ति को बलपूर्वक तोड़ दिया है। शायद तुमने उसके समझाने को सहजता से स्वीकारा नहीं होगा। इसलिए उसने यह कठोर रास्ता अपनाया...’’
काका की व्याख्या की तलवार ने उस लड़की की कमजोर मनोधारणा के खंड-खंड कर दिए। दोनों बहनों के चेहरों पर कुछ पा लेने का सुकून था।

फिर काका ने शब्दों का मरहम लगाया-‘‘बेटे, यह सपना तुम्हें तुम्हारे मोह से बाहर निकालने के लिए है, इसे समझने की कोशिश करो। मूर्त प्रेम शिव है, अमूर्त प्रेम परमशिव है...’’
यह घटना मुझे मेरे मित्र ब्रजेशजी ने बताई। वह उस दिन काकाजी के पास मौजूद थे। उन्होंने ही मुझसे कहा-‘इसे आप ज़रूर लिखिए।

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