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विविध उपन्यास >> एक और चन्द्रकान्ता - 2

एक और चन्द्रकान्ता - 2

कमलेश्वर

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3540
आईएसबीएन :81-7016-451-6

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टी.वी. धारावाहिक चन्द्रकान्ता का दूसरा भाग

Ek Aur chandrakanta Part-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय दूरदर्शन के इतिहास में चन्द्रकान्ता सीरियल ने जो लोकप्रियता का कीर्तिमान स्थापित किया है इसका श्रेय हिन्दी के अग्रणी उपन्यासकार बाबू देवकीनंदन खत्री को जाता है क्योंकि चन्द्रकान्ता सीरियल के सुप्रसिद्ध लेखक कमलेश्वर का मानना है कि इसकी प्रेरणा उन्होंने खत्रीजी से ही ग्रहण की है। खत्रीजी की प्रेरणा के महादान से संपन्न इस शीर्ष कथाकार ने जिस प्रकार उपन्यास से सीरियल को अलग किया था,उसी तरह सीरियल से एक और चन्द्रकान्ता की इस महागाथा को अलग करके प्रस्तुत किया है। चमत्कार, ऐयारी, फंतासी, बाधाएँ, कर्तव्य, दोस्ती,युद्ध-पराक्रम, नमकहरामी, बगावत, प्रतिरोध, साजिश,मक्कारी,तांत्रिक एवं शैतानी शक्तियाँ वासना वफादारी तथा अंधसत्ता आदि को बखानती और परत-दर-परत खुलती बंद होती अनेक कथा-उपकथाओं की इस उपन्यास-श्रृंखला में मात्र प्यार-मोहब्बत की दास्तान को ही नहीं बखाना गया है बल्कि इस दास्तान के बहाने लेखक ने अपने देश और समाज की झाड़ा-तलाशी ली है। यही कारण है कि कुँवर वीरेन्द्र सिंह और राजकुमारी चन्द्रकान्ता की उद्दाम प्रेमकथा को बारंबार स्थगित करते हुए,लेखक कहीं दो देशों की परस्पर शत्रुता के बीच संधि की कोशिश को शिरोधार्य करता प्रतीत होता है तो कहीं भ्रष्टाचार राष्ट्रदोह की प्रतिच्छाया वाली उपकथाओं के सृजन में व्यस्त दीखता है। समय के साथ निरंतर बहने और रहने वाली एक और चन्द्रकान्ता की इस महाकथा में महानायकों का चिरंतन संघर्ष यहाँ मौजूद है, उनका समाधान नहीं। अर्थात् यह एक अनंत कथा है जो यथार्थ और कल्पना की देह-आत्मा से सृजित और नवीकृत होती रहती है। इस उपन्यास श्रृंखला के सैकड़ों बयानों की अखण्ड पठनीयता लेखक की विदग्ध प्रतिभा का जीवंत साक्ष्य है। यदि इस लेखक की सामाजिक प्रतिबद्धता की बात पर ध्यान दें तो एक और चन्द्रकान्ता उसकी सम्यक् लेखकीय जबावदेही का साहसिक उदाहरण है। अपने अग्रज-पूर्वज उपन्यासकारों का ऋण स्वीकार करते हुए स्पर्धाहीन सर्जन की ऐसी बेजोड़ मिसाल आज अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। दूसरे शब्दों में कमलेश्वर का हिन्दी साहित्य में यह एक स्वतंत्रता संग्राम भी है जिसमें आम हिन्दी को सुराज सौंपने का सपना लक्षित है।

कुछ और बातें


‘एक और चन्द्रकान्ता’के पहले भाग में मेरा लेखकीय दृष्टिकोण मौजूद है। उसमें मैं पाठकों के सामने अपना विनम्र प्रतिवेदन रख चुका हूँ। उसे यहाँ दोहराना उचित नहीं है। यह उपन्यास-श्रृंखला कितने भागों में समाप्त होगी, यह कह सकना अभी संभव नहीं है, लेकिन ‘एक और चन्द्रकान्ता’ का यह क़िस्सा तभी तक जारी रहेगा, जब तक कहानी की रोचकता क़ायम रहेगी। इस दास्तान को उस तरह खींचने की ज़रूरत नहीं है, जिस तरह मीडिया में खींचना पड़ता है। वैसे वह भी एक बड़ी चुनौती है, जिसे हर उस मीडिया-लेखक को झेलना पड़ेगा, जो इस माध्यम के लिए लिखेगा।

    इसी के साथ यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि चाहे सीरियल को खींचना पड़े, पर उसमें भी अनर्गल लेखन से काम नहीं चलता। क़िस्से की प्रत्यंचा ढीली न होने पाए और दर्शक की उत्सुक रुचि बराबर बनी रहे, इसके लिए घटनाओं और हालात को लगातार अन्वेषित करना पड़ता है। घटना सूत्र को आगे बढ़ाने के लिए तब अग्रजों तथा पूर्वजों का कथा-कौशल भी बहुत काम आता है। अगर मैंने रतननाथ सरशार, बाबू देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी, किशोरीलाल गोस्वामी, गुलाबदास, रामलाल वर्मा, पं. दुर्गाशंकर त्रिवेदी (हातिमताई) सहित प्रेमचंद, आगाहश्र कश्मीरी, राधेश्याम कथावाचक, वृंदावनलाल वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, भगवतीचरण वर्मा, उदयशंकर भट्ट, रांगेय राघव, बलवंतसिंह और अपने समकालीनों में रेणु, भीष्म, राही यादवेंद्र शर्मा चंद्र, शैलेश मटियानी, बदीउज्ज़मां, नासिरा शर्मा आदि को ग़ौर से न पढ़ा होता तो शायद मैं ‘चन्द्रकान्ता’ जितना लम्बा सीरियल लिख सकने की औक़ात अपने भीतर पैदा नहीं कर पाता। जगदीशचंद्र, कामतानाथ और मायानंद मिश्र के औपन्यासिक कथा-प्रवाह ने भी मुझे बहुत कुछ बताया।

    प्रेमचंद से लेकर अपने समकालीनों तक के औपन्यासिक कृतित्व का ज़िक्र इसलिए नहीं कि इन्होंने इस तरह का फंतासी-लेखन किया है, बल्कि इसलिए कि इनके पास कथा-कथन, सघन कथन को बेहद आसानी से कहने की सूक्ष्म कला और उसे कहानी के प्रवाह में जोड़ देने की अद्भुत क्षमता और कलात्मक शक्ति मौजूद है। इन्होंने क़िस्सागोई के अतिरेक को रोककर, उसके स्थूल ढाँचे को तोड़कर, समकालीन मनुष्य के विषम यथार्थ जैसे कठिन कथ्य को कहानी के पहियों पर बैठाकर संवेदनात्मक विक्षुब्धता और मानवीय नियति के प्रति उत्सुकता की आधुनिक कथात्मकता का अन्वेषण और आविष्कार किया है। इनके अलावा भी अन्य कई कथाकार हैं जो रचनात्मक रूप से मुझे उद्वेलित करते हैं पर मीडिया-लेखन में मैंने जिन्हें कुंजी के रूप में सहायक पाया है, उन्हीं को मैंने यहाँ याद किया है। हिंदी के औपन्यासिक कृतित्व की संचित स्मृति ने मेरा बहुत साथ दिया। विपुलता और विविधता से भरा यह अक्षय भंडार आज हिंदी कथा-साहित्य के पास मौजूद है।
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    यह कहने में मुझे कोई शक या संशय नहीं है कि मीडिया-लेखन का मूल्यगत संस्कार साहित्य ही करेगा, अन्यथा मात्र भाषा ज्ञान उसका अंतिम संस्कार करके रहेगा। इस सच्चाई को हमें नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि फ़िल्म और मीडिया का लेखन हिंदी का लेखन होते हुए भी हिंदी-जाति का लेखन नहीं है। हर हिंदी वाले और लेखक की अपनी एक क्षेत्रीय मातृभाषा है जो हमें लोकधर्मी संस्कारों से जोड़े रखती है। उन मातृभाषाओं का संस्कार ही ख़ड़ी बोली हिंदी को लोकधर्मी बनाता है। यही हिंदी की आंतरिक शक्ति है। लोकधर्मिता आधुनिकता की विरोधी नहीं, पूरक है और इसे पूरा करने में उर्दू हमारा साथ देकर जनभाषा के रूप में इसे और संचरित करने के साथ-साथ संवादशील बनाती है।
    ‘चन्द्रकान्ता’ जैसे सीरियलों के लेखन में यह मानकर चलना कि मात्र तिलिस्म या ऐयारी के दृश्यों से काम चल जाता है, एक ग़लत अवधारणा है। एक-एक घंटे के ऐपिसोड में चमत्कृत करने वाले असाधारण ‘स्पेशल इफैक्ट्स’ के दृश्य मुश्किल से दो तीन मिनट के होते हैं, कुछ तो मात्र 15-20 सेकिण्ड के होते हैं, बाक़ी अवधि में तो घटनाओं और पात्रों का कार्य-व्यापार ही सँभालना पड़ता है। बहरहाल...
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    ‘एक और चन्द्रकान्ता’ (पहला भाग) के प्रकाशन के साथ ही एक संतोषमिश्रित सार्थकता का एहसास हुआ। मीडिया-लेखन के प्रति बढ़ती गहरी रुचि का पता चलने लगा। बहुत-से पाठकों और मीडिया-लेखन की महत्ता और आवश्यकता को स्वीकार करने वाले लेखकों ने यह जानना चाहा कि क्या ‘चन्द्रकान्ता’ के आलेख (स्क्रिप्ट्स) उपलब्ध हो सकते हैं ?
    कुछ ही नहीं, काफ़ी सुधी पाठकों ने ‘एक और चन्द्रकान्ता’ को पढ़ने के बाद यह जानना चाहा कि एक कथा पर आधारित इस धारावाहिक को नाटकीय दृश्य-बंधों में बाँधने के बाद फिर कथा रूप में निबद्ध करने की रचना-प्रक्रिया का लेखकीय अनुभव कैसा रहा ? यह साहित्य की दुनिया का वह गंभीर और जागरूक वर्ग है, जो विशुद्धतावादी ब्राह्मणत्व से ग्रस्त नहीं है। यह भी सुखद आश्चर्य का विषय है कि दो महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों ने मीडिया-लेखन पर गंभीर शोध-कार्य की शुरुआत की है। आजकल होने वाले शोध-कार्यों की स्तरीयता से बहुत संतुष्ट न होने के बावजूद यह एक अच्छा लक्षण है कि मीडिया-लेखन की ओर दायित्वपूर्ण दृष्टि आकर्षित हुई है।
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    और अब कुछ रोचक प्रसंग। पहले भाग की भूमिका में ऐयार अहमद के ‘जन्म’ का प्रसंग आया है। किन हालात में उसे पैदा करना पड़ा। फिर हुआ यह कि शूटिंग के दौरान अहमद को एक दृश्य में टीन के एक ड्रम में बंद करना पड़ा। उसे लुढ़काया जाना था। इस दृश्य में विरोधी ऐयार तेजसिंह को उसी फ्रेम में दूर से गुज़रना था, पर तेजसिंह अपने निजी (दैनिक) प्रेमाकर्षण के कारण मेकअप-रूम में व्यस्त थे। फ़िल्मांकन रुका हुआ था। गर्मी के कारण ड्रम में लेटे अहमद की हालत पस्त हो गई। उसका धीरज जवाब दे गया। पसीना पोंछता वह ड्रम से बाहर आया और गुस्से में कुछ बेहूदे अपशब्द बोलता सेट से निकला, अपनी कार में बैठा और शूटिंग छोड़कर चला गया।
    ऐसे में कहानी को अपना ‘फ़र्ज़’ निभाना पड़ा। सीरियल साप्ताहिक था। शूटिंग तो रुक नहीं सकती थी। आख़िर तत्काल कहानी का ट्रैक बदलकर, अहमद नामक पात्र को हाथी के पैरों तले कुचलवाकर मौत के घाट उतार देना पड़ा। मौत के दृश्यों में डुप्लीकेट से काम चल जाता है।

    फिर तेजसिंह जी के निजी प्रेमाकर्षण में कुछ खटास आ गई। वे देर से आने या अनुपस्थित रहने लगे, तब सातवें बयान में मौजूद उनके छोटे भाई अजीतसिंह को तत्काल पैदा करना ज़रूरी हो गया। फिर तेजसिंह निजी सरोकारों से ऊपर ‘प्रोफ़ेशनल’ हो गए, इसलिए अजीतसिंह को बलिदानी पात्र का ज़बरदस्त बिल्डअप देकर मरवाना पड़ा, ताकि पात्र की इमेज ख़राब न हो जाए। न जाने कब फिर अजीतसिंह की ज़रूरत पड़ जाए। उन्हें नाराज़ करना मुनासिब नहीं था।
    उन्हीं दिनों बकरीद का त्यौहार पड़ा। धर्म का व्यावसायिक शोषण और पोषण ज़रूरी हो गया। इसलिए काली घाटी के बाबा को उत्पन्न कर जाँबाज़ को मुसीबतों में फँसाकर बार-बार उससे इबादत की कवायद करवाई गई। काली घाटी के बाबा को वक़्त ज़रूरत के लिए जीवित रख लिया गया। भारी गेट-अप के कारण ऐसे पात्र आड़े वक़्त में बहुत काम आते हैं। हमें सिर्फ़ उनकी दाढ़ी मूँछ, बाल और पोशाक वग़ैरह की ज़रूरत पड़ती है, उसे धारण करके कोई भी ‘एक्सट्रा’ हमारी मुश्किल हल कर देता है।

    एक्टरों की बात तो छोड़िए, कंटीन्युटी में आने वाले पशु-पक्षियों के नखरे भी लेखक को सँभालने पड़ते हैं, यदि उन पशु-पक्षियों की पहचान बन चुकी है तो। जाँबाज़ का घोड़ा ‘तूफ़ान’ कत्थई रंग का था। उसकी पहचान स्थापित हो चुकी थी। घोड़े के मालिक की माँगे प्रोडक्शन मैनेजर को रास नहीं आईं, इसलिए घोड़े को दलदल में दफ़न कर देना ज़रूरी हो गया। और यह इत्तफ़ाक़ की बात थी कि कला-निर्देशक ने अगले किसी ऐपिसोड के लिए दलदल के सीन का इंतज़ाम कर रखा था। वह हमारे काम आ गया, विजुअल के रूप में वह दलदल आकर्षक और नया था, इसलिए हमने घोड़े को शानदार विदाई दे दी।
    कहने का मतलब यह कि मीडिया-लेखन में कंटीन्युटी इतनी बड़ी मजबूरी है कि एक्टर तो एक्टर, पहचान में स्थापित हो जाने वाले पशु भी नहीं बदले जा सकते...बदले जाने के लिए कहानी ही अभिशप्त रहती है ! इस अभिशाप को सकारात्मक वरदान में बदलते रहने की तपस्या ही मीडिया-लेखक की ताक़त है !

5/116, इरोज़ गार्डन
सूरजकुण्ड रोड
नई दिल्ली-110044



एक और चन्द्रकान्ता
पहला बयान


    नौगढ़ के विशाल दुर्ग में शोक का सागर उमड़ पड़ा था। मैत्री-वार्ता के लिए भेजे गए सेनापति उदयसिंह की नृशंस और कायरतापूर्ण हत्या ने पूरे नौगढ़ राज्य को हिलाकर रख दिया था। दुख और शोक के साथ ही क्रोध और प्रतिरोध की आग केवल नौगढ़ की राजधानी में ही नहीं, पूरी रियासत में फैलती-भड़कती चली जा रही थी।
    सेनापति उदयसिंह का रक्तरंजित शव खुले मैदान में तत्काल बनाए गए एक ऊँचे मंच पर रख दिया गया ताकि नौगढ़ की प्रजा अपने प्रिय, विख्यात और अनेक युद्ध के विजेता सेनापति उदयसिंह के अंतिम दर्शन कर सके।
    सेनापति उदयसिंह के शव के आसपास राजपरिवार के सदस्य शोकपूर्ण मुद्रा में खड़े थे।

    अपने छोटे भाई उदयसिंह का शव देखकर महाराज सुरेन्द्रसिंह की आँखों में क्रोध और प्रतिशोध की ज्वाला दहक उठी। उन्होंने अपना हाथ उठाकर वहाँ मौजूद अपार भीड़ को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हमने विजयगढ़ राज्य की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। उसका परिणाम आप सब देख रहे हैं। उसने हमारे भाई और रियासत के सेनापति के जिस्म में एक नहीं, पाँच-पाँच ख़ंजर घोंपकर अपनी वैर भावना और बर्बरता का सबूत दिया है। लेकिन आप विश्वास रखिए, हम अपने भाई के जिस्म में घोपें गए एक-एक ख़ंजर का हिसाब विजयगढ़ से लेकर रहेंगे।’’
    कहते-कहते महाराज की आवाज़ दुख और क्रोध से बुरी तरह काँप उठी। वह पिछले काफ़ी दिनों से अस्वस्थ थे। रोग कहीं और बढ़ न जाए इसलिए महारानी कल्याणी और अन्य मंत्रियों ने उन्हें सँभाला और ज़बर्दस्ती उन्हें उनके महल में लाकर पलंग पर लिटा दिया।

    महाराज सुरेन्द्रसिंह के पलंग के ठीक सामने वीर वेश में खड़े छोटे भाई सेनापति उदयसिंह का विशाल चित्र टँगा था। वह बिस्तर पर लेटे-लेटे अपने छोटे भाई के चित्र की ओर टकटकी बाँधकर देखने लगे, जिसके पराक्रम, शौर्य, रणकौशल और विजय की गाथाएँ लोकगीतों और लोककथाओं में परिवर्तित होकर जनमानस में गूँजती रहती थीं।
    सहसा वह उत्तेजित होकर उठ बैठे और पास ही एक आसन पर बैठी महारानी कल्याणी की ओर देखते हुए बोले, ‘‘महारानी ! विजयगढ़ ने पाँच ख़ंजर हमारे भाई उदयसिंह के सीने में नहीं, हमारे सीने में घोंपे हैं। उदयसिंह की मौत के बाद भी हम ज़िदा है...लेकिन महारानी ! हम उदयसिंह की इस कायरतापूर्ण हत्या का बदला कैसे लें...हम जानते हैं कि हमारा बेटा वीरेन्द्रसिंह शौर्य, पराक्रम और युद्ध-कौशल में अपने चाचा उदयसिंह से रत्ती-भर भी कम नहीं है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से उस पर से हमारा विश्वास उठता जा रहा है। हमें विश्वास नहीं कि वह अपने चाचा की हत्या का बदला ले सकेगा, क्योंकि वह विजयगढ़ की राजकुमारी चन्द्रकान्ता के रूप-सौंदर्य और इश्क़ में इस हद तक डूब चुका है कि महीनों से उसने दरबार में आना बंद कर रखा है। राजकाज में रुचि लेनी छोड़ दी है।’’ कहते हुए महाराज एकदम चीखे, ‘‘कहाँ है वह ?’’

‘‘महाराज, अपने चाचा की हत्या का समाचार पाते ही वह तो जैसे अपनी सुध-बुध ही खो बैठा है। न तो कुछ सुनता है और न कुछ बोलता है।’’...महारानी कल्याणी ने महाराज को शांत करने की कोशिश करते हुए कहा।
    ‘‘लेकिन वह यह क्यों भूल बैठा है कि वह हमारा बेटा है, इस राज्य का होने वाला शासक है। महारानी ! रियासतों का इतिहास वीरों के रक्त से लिखा जाता है, आशिक़ों के आँसुओं से नहीं।’’ महाराजा की उत्तेजना क्रोध में परिवर्तित हो उठी।
    ‘‘महाराज...!’’
    ‘‘जाइए और उससे पूछिए कि वह पूर्वजों के इस विशाल नौगढ़ राज्य का महाराज बनना चाहता है या अपनी प्रेमिका चन्द्रकान्ता के विजयगढ़ की गलियों में भटकने वाला एक दीवाना आशिक़ ?’’
    लेकिन महाराज सुरेन्द्रसिंह अपना वाक्य पूरा नहीं कर पाए। दरवाज़े का पर्दा हटाकर अंदर आते हुए नायब दीवान जीतसिंह को देखकर भौचक्के रह गए।

    ‘‘महाराज और महारानी की जय हो,’’ दीवान जीतसिंह ने सिर झुकाकर दोनों को अभिवादन करते हुए कहा, ‘‘असमय आने के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ महाराज ।’’
    पाठको ! यहाँ आपका परिचय नौगढ़ के नायब दीवान जीतसिंह से करवा देना ज़रूरी है...
    यह तो आपको याद ही होगा कि क्रूरसिंह ने खुद अपने पिता और विजयगढ़ के महामंत्री भूपतसिंह के साथ साज़िश की है...क्रूरसिंह का नामी ऐयार अहमद अभी कुछ देर पहले दीवान भूपतसिंह को बेहोशी की हालत में पकड़ चुका है और ख़ुद उनके भेष में मैत्री-वार्ता के लिए निकल चुका है।

    इतना ही नहीं महाराज सुरेन्द्रसिंह के भाई और शांतिदूत उदयसिंह की हत्या हो चुकी है...ऐसे कठिन वक़्त में नायब जीतसिंह सुमेधा इलाक़े में भड़के विद्रोह का मसला लेकर हाज़िर हुए हैं-
    यहीं यह भी जान लीजिए कि सुमेधा वह इलाक़ा है जहाँ सदियों से एक तिलिस्मी ख़ज़ाना मौजूद है जिसके वारिस का अभी तक कोई पता नहीं है और उस मायावी तिलिस्म को उसका वारिस ही तोड़ सकता है, और वह भी सिर्फ़ शरद पूर्णिमा के दिन, जब होगी पूरे चाँद की रात !....अब आइए, हम शामिल होते हैं महाराज सुरेन्द्रसिंह और नायब दीवान जीतसिंह की बातों में !

    ‘‘हम अच्छी तरह जानते हैं नायब दीवान जीतसिंह, कि जब कोई जटिल समस्या आपके सामने आ खड़ी होती है आप तभी हमारे पास आते हैं,’’ महाराज ने अपने आपको संयत करके कहा, ‘‘लगता है आप कोई महत्त्वपूर्ण समाचार लेकर आए हैं।’’
    ‘‘जी महाराज !’’ नायब दीवान जीतसिंह ने बड़ी विनम्रता से कहा, ‘‘पिछले दिनों मैंने महाराज से निवेदन किया था कि राज्य के सुमेधा प्रांत की प्रजा में विद्रोह की चिनगारियाँ भड़कने लगी हैं। मैंने विद्रोहियों को शांत करने के लिए कुछ सैनिक भेज दिए थे, लेकिन महाराज, भेजे गए सैनिकों की टुकड़ी के सेनापति का आज संदेश मिला है कि विद्रोहियों को समझाने-बुझाने का कोई नतीजा नहीं निकला है। उनकी संख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती चली जा रही है। राहज़नी, लूटपाट और मारकाट का बाज़ार गर्म हो उठा है। जो लोग विद्रोह में उनका साथ नहीं देते या उनका विरोध करते हैं, विद्रोही उन शांतिप्रिय नागरिकों को मौत के घाट उतार देते हैं। उनके घरों को लूटकर जला डालते हैं। उनकी स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं। सुमेधा प्रांत की प्रजा ने विद्रोहियों के अत्याचारों और अनाचारों से तंग आकर अपने घर-बार, खेत-खलिहान छोड़कर राज्य के अन्य प्रातों में भागना शुरू कर दिया है।’’

    ‘‘ये विद्रोही आख़िर चाहते क्या हैं ?’’ महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा।
    ‘‘स्वाधीनता-अपने प्रांत में अपना राज्य।’’
    ‘‘अपने प्रांत में अपने राज्य और आज़ादी का यह नारा महज़ एक धोखा है-फ़रेब है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि इन लोगों को विजयगढ़ की आतंकवादी शक्तियों ने भड़काया है- वही हथियारों और धन से उनकी सहायता कर रहे हैं।’’
    ‘महाराज, यही नहीं, विजयगढ़ के सैनिक विद्रोहियों के वेश में सुमेधा में आ घुसे हैं और लूट-पाट, हत्या बरबादी तथा बलात्कारों का उन्होंने बाज़ार गर्म कर रखा है।’’ नायब दीवान जीतसिंह ने कहा, ‘‘सारा प्रांत पहाड़ियों और जंगलों से भरा हुआ है इसलिए हमारे सैनिक उनके आने-जाने पर कारगर रोक भी नहीं लगा पाते। सुमेधा से लगी विजयगढ़ की सीमा की निगरानी कर पाना और घुसपैठियों को रोकना किसी भी तरह सम्भव नहीं दिखाई दे रहा है महाराज !’’

    ‘‘दीवान जीतसिंह, यह एक अघोषित युद्घ है-जो विजयगढ़ ने हमारे विरुद्ध छेड़ रखा है। इस युद्ध ने पूरे प्रदेश की सुख-शांति छीनकर उसे तबाह और बरबाद कर दिया है। सुमेधा की प्रजा धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिक भेदभाव से हमेशा दूर रही है। वहाँ की जनता अपने पुरातन ऋषि-मुनियों, संतों और सूफ़ियों की मिली-जुली परपराओं में विश्वास रखती है। सुमेधा का इतिहास शांति, भाईचारे और आपसी सौहार्द का इतिहास रहा है। लेकिन इन विद्रोहियों ने उनकी मज़हबी भावनाओं को धार्मिक उन्माद में बदल दिया है। धर्मनिरपेक्षता को साम्प्रदायिकता के लहू से नहला दिया है। आज पड़ोसी पड़ोसी के ही नहीं, भाई भाई के ख़ून का प्यासा बन गया है। इससे तो अच्छा था कि विजयगढ़ खुल्लमखुल्ला युद्ध की घोषणा कर देता !

    ‘‘क्षमा करें महाराज, छिप-छिपकर वार करना और सामने आकर तलवार उठाने में बहुत अंतर होता है। विजयगढ़ के पास न तो इतनी शक्ति है और न इतनी हिम्मत कि वो हमारे विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सके !’’ दीवान जीतसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, वास्तव में यह अघोषित युद्ध हमारे नौगढ़ के विरुद्ध एक बहुत बड़ा षड्यंत्र है। और इस षड्यंत्र को कोई पराक्रमी और युद्ध-कुशल सेनापति भी समाप्त कर पाने में उतना शीघ्र सफल नहीं हो सकता, जितना वह व्यक्ति जो षड्यंत्रों की गहराई से छानबीन कर सके और सुमेधा के भूगोल से अच्छी तरह परिचित हो। वही षड्यंत्रकारियों का पता भी लगा सकता है, उनकी पहचान भी कर सकता है। और महाराज ! हमारे पास ऐसा एक कुशल और योग्य व्यक्ति मौजूद भी है जिसकी जासूसी, ऐयारी और सूझबूझ का लोहा दुनिया मानती है !’’
    ‘‘कौन है वह शख्स ?’’ महाराज सुरेन्द्रसिंह ने उत्सुकता से पूछा।

    ‘‘वह है तेजसिंह। तेजसिंह को एक शक्तिशाली सेना के साथ सुमेधा भेज जा सकता है। तेजसिंह की सूझबूझ पर तो महाराज को भी विश्वास है।’’
    ‘‘आप ठीक कह रहे हैं। आप तेजसिंह को सेना के साथ सुमेधा भेजा दीजिए। हम सारी स्थिति पर बड़ी गंभीरता से विचार कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि दरबार भी हमारी राय का समर्थन करे और आतंकवादी गतिविधियों के जन्मदाता विजयगढ़ राज्य को दुश्मन रियासत घोषित कर दिया जाए...।’’
    ‘‘यही उचित रहेगा महाराज !’’
    ‘‘लेकिन नायब दीवान जीतसिंह, आपके आने से पहले हमने सुमेधा की समस्या का एक दूसरा ही हल खोजा था !’’ अचानक महाराज सुरेन्द्रसिंह ने गंभीर होकर कहा।
    ‘‘कौन-सा हल महाराज ?’’

    ‘‘रहने दो, हो सकता है वह हल हमारी महारानी कल्याणी देवी को पसंद न आए।’’
    ‘‘यह आप क्या कह रहे हैं महाराज ?’’ देर से ख़ामोश बैठी महारानी कल्याणी अपना ज़िक्र आते ही बोल उठीं, ‘‘आप किसी समस्या का अचूक हल तलाश करें और हमें वह पसंद न आए, ऐसा कैसे हो सकता है महाराज ? क्योंकि आप कुशल शासक ही नहीं महान राजनीतिज्ञ भी हैं। आपके विचार और निर्णय का सम्मान करना मेरा धर्म है महाराज !’’
    ‘‘महारानी, उदयसिंह के बाद जिस व्यक्ति पर हमारी आशाएँ टिकी हुई हैं वह है आपका बेटा वीरेन्द्रसिंह ! वही इस राज्य का वारिश भी है। अगर अभी से वह राज्य की समस्याओं को सुलझाने में रुचि नहीं लेगा तो कब लेगा ? हम चाहते हैं कि सुमेधा के बाग़ियों और बग़ावत को कुचलने की ज़िम्मेदारी वीरेन्द्रसिंह को सौंप दी जाए। वह वीर है, शक्ति-सामर्थ्य की उसमें रत्ती-भर कमी नहीं है, इस बात को वह कई बार प्रमाणित कर चुका है। लेकिन महारानी, राजकाज केवल शक्ति और वीरता से ही नहीं चला करते। उनके लिए राजनीतिक ज्ञान, सूझबूझ और कूटनीति की भी ज़रूरत होती है।’’
    ‘‘फिर आपने यह कैसे सोच लिया कि आपका फ़ैसला हमें पसंद नहीं आएगा ?’’ महारानी कल्याणी ने हैरानी से पूछा।
    ‘‘इसलिए कि जब भी हम वीरेन्द्रसिंह के संबंध में कोई फ़ैसला लेते हैं तो आपके दिल और दिमाग़ में सवालों के तूफ़ान मचल उठते हैं।’’

    ‘‘शायद इसलिए कि हम महारानी होने के साथ-साथ एक माँ भी हैं महाराज !’’
    ‘‘महारानी, यही आपकी सबसे बड़ी भूल है। माँ होने से पहले आप नौगढ़ की महारानी हैं ! आपके मन में अपने बेटे के लिए ज़रूरत से ज़्यादा चिंता कुण्डली मारकर बैठी रहती है। और आप उसकी हर ज़िद के आगे ठीक उसी तरह झुक जाती हैं जैसे वह बीस-पच्चीस वर्ष का नौजवान न होकर नन्हा-मुन्ना बच्चा हो !’’
    ‘‘लेकिन महाराज, अपने बेटे की कुशलता की चिंता करना तो हर माँ का कुदरती धर्म और स्वभाव होता है।’’
    ‘‘महारानी, आप केवल वीरेन्द्रसिंह की ही माँ नहीं हैं ! आप नौगढ़ राज्य की प्रजा की राजमाता भी हैं ! क्या आपका धर्म इस बात की इजाज़त देता है कि आप एक बेटे की कुशलता के नाम पर अपने अनगिनत बेटों को षड्यंत्रकारियों और उनके आतंकवादी अत्याचारों का शिकार बन जाने दें ?...नहीं महारानी...यह राजमाता का धर्म नहीं है। और फिर आप तो एक क्षत्रिय-पुत्री हैं एवं क्षत्रिय-पत्नी हैं ! क्षत्रिय के कर्त्तव्य और धर्म का पालन कीजिए महारानी ! जाइए और आप स्वयं अपने बेटे को आज्ञा दीजिए कि वह सुमेधा के विद्रोह और विद्रोहियों को कुचलने के लिए तत्काल सेना लेकर रवाना हो जाए। अगर आपको संकोच हो तो हम कुँवर को यह आदेश भिजवा देंगे !’’
    महारानी कल्याणी तत्काल उठीं और तेज़ी से महाराज के कक्ष से निकल गईं।
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    राजकुमार वीरेन्द्रसिंह अपने कक्ष की एक कार्निस पर रखी राजकुमारी चन्द्रकान्ता की उस तस्वीर को बड़ी चाहत से देख रहे थे, जिसे राजकुमारी चन्द्रकान्ता की हमराज़ और ऐयारा चाँदनी ने खुद अपने हाथों से बनाकर भेजा था।
‘‘कुँवर जी !’’ जाँबाज़ ने दरवाज़े में क़दम रखते ही पुकारा।
    जाँबाज़ की आवाज़ सुनते ही राजकुमार वीरेन्द्रसिंह की तन्मयता भंग हो गई। वह पलटकर जाँबाज़ की ओर देखने लगे।
    ‘‘कुँवर, बहुत बड़ी खुशख़बरी है !’’ जाँबाज़ ने आगे बढ़ते हुए कहा, ‘‘अपना रुस्तम चाँदनी का ख़त ले आया है। आप आज रात विजयगढ़ जाकर राजकुमारी चन्द्रकान्ता से मुलाक़ात कर सकते हैं। राजकुमारी चन्द्रकान्ता आपका इंतज़ार करेंगी।’’
    ‘‘यह खुशख़बरी सुनाकर तुमने हमें जैसे नई ज़िंदगी दे दी दोस्त !’’ राजकुमार वीरेन्द्रसिंह की खुशी की कोई सीमा नहीं रही।
    ‘‘राजकुमार की जय हो !’’ सहसा महाराज सुरेन्द्रसिंह के अंगरक्षक फ़तहसिंह ने राजकुमार वीरेन्द्रसिंह का अभिवादन करते हुए कहा।
    ‘‘तुम...आओ-आओ फ़तहसिंह,’’ राजकुमार वीरेन्द्रसिंह फ़तहसिंह को देखकर चौंक पड़े। फ़तहसिंह का इस तरह अचानक आना सामान्य बात नहीं थी। ‘‘अचानक तुम...पिताजी तो स्वस्थ हैं न ?’’ कुँवर ने पूछा।
    ‘‘माँ भवानी की कृपा है कुँवर जी,’’ फ़तहसिंह ने अदब से कहा, ‘‘महाराज ने आपके लिए एक संदेश भेजा है।’’
    ‘‘कैसा संदेश ?’’
    ‘‘आपको पता ही है कि राज्य के सुमेधा प्रांत में कुछ विद्रोहियों ने सिर उठा रखा है। सुमेधा की शांति और व्यवस्था ख़तरे में पड़ गई है। महाराज का आदेश है कि आप इसी समय सेना के साथ सुमेधा की ओर कूच करें। सुमेधा के विद्रोह और विद्रोहियों को पूरी तरह कुचल डालने की ज़िम्मेदारी महाराज ने आपको सौंपी है। उनका यह भी आदेश है कि जब तक सुमेधा में विद्रोह ख़त्म न हो जाए और वहाँ पहले जैसी शांति स्थापित न हो जाए, तब तक आप वहीं क़याम करें !’’



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