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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ऋग्वेद संहिता - भाग 3

ऋग्वेद संहिता - भाग 3

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :364
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 359
आईएसबीएन :00-000-00

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ऋग्वेद का विवरण (मण्डल 7-8)

Rigved Sanhita Part 3 - A Hindi Book by - Sriram Sharma Acharya ऋग्वेद संहिता भाग 3 - श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


।।अथ सप्तमं मण्डलम्।।

(सूक्त-1)

(ऋष-वसिष्ठ मैत्रावरुणि। देवता-अग्नि। छन्द-विराट्, 19-25 त्रिष्टुप।)

5134. अग्निं नरो दीधितिभिररण्योर्हस्तच्युती जनयन्त प्रशस्त्म्।
दूरेदृशं गृहपतिमथर्युम्।।1।।

प्रशंसनीय गतिमान, दूर से परिलक्षित होने वाले गृहपति अग्नि को नर श्रेष्ठों ने हाथों और अँगुलियों की कुशलता से प्राप्त किया।।1।।

5135. तमग्निमस्ते वसवो न्यृण्वन्त्सुप्रतिचक्षमवसे कुतश्चित्।
दक्षाय्यो यो दम आस नित्यः।।2।।

घर में प्रज्वलित किये जाने योग्य, नित्य दर्शनीय, सदैव ज्वालायुक्त जो अग्निदेव हैं, उन्हें याजकों ने अपने रक्षण हेतु यज्ञ-स्थल में स्थापित किया है।।2।।

5136. प्रेद्धो अग्ने दीदिहि पुरो नोऽजस्रया सूर्म्या यविष्ठ।
त्वां शश्वन्त उप यन्ति वाजाः।।3।।

हे शक्तिशाली अग्निदेव ! भली प्रकार से प्रज्वलित हुए आप प्रचण्ड ज्वालाओं से हमारे निकट प्रदीप्त हों। ये आहुतियाँ निरन्तर आपको समर्पित की जा रही हैं।।3।।

5137. प्र ते अग्नयोऽग्निभ्यो वरं निः सुवीरासः शोशुचन्त द्युमन्तः।
यत्रा नरः समासते सुजाताः।।4।।

जिनके पास सुन्दर जन्म वाले (मानव जीवन को सार्थक करने वाले याजक) बैठते हैं, वे अग्नियो में श्रेष्ठ अग्निदेव प्रकाशित होते हैं। अति तेजस्वी वे अग्निदेव हमारा कल्याण करते एवं सन्तान प्रदान करते हैं।।4।।

5138. दा नो अग्ने धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम्।
न यं यावा तरित यातुमावान्।।5।।

शत्रुओं को जीतने वाले हे अग्निदेव ! आप हमें वीर, बुद्धिमान एवं श्रेष्ठ पुत्रों सहित प्रशंसित धन प्रदान करें, जिसका हिंसक शत्रु अपहरण न सक सकें।।5।।

5139. उप यमेति युवतिः सुदक्षं दोषा वस्तोर्हविष्मती घृताची।
उप स्वैनमरमतिर्वसूयुः।।6।।

आहुति के योग्य, घृत धारण करने वाली जो नित्य सम्बद्ध (यज्ञ पात्र जुहू अथवा स्थूल-सूक्ष्म सामग्री) सुदक्ष-श्रेष्ठ-कुशल (यज्ञाग्नि) के पास पहुँचती है, वह अपने ही धन से प्रदीप्ति प्राप्त करती है।।6।।
(जो सामग्री यज्ञाग्नि में पहुँचती है, उसके अपने ही गुण यज्ञ की बहुलीकरण शक्ति से बढ़ते एवं भासित होते हैं।)

5140. विश्वा अग्नेऽप दहारातीर्येभिस्तपोभिरदहो जरूथम्।
प्र निस्वरं चातयस्वामीवाम्।।7।।

हे अग्निदेव ! जिन तेजस्वी ज्वालाओं से आपने कटुभाषी असुरों का नाश किया, उसी तेज से समस्त शत्रुओं का नाश करें। आप हमारे रोगों को जड़ से मिटाएँ।।7।।

5141. आ यस्ते अग्न इधते अनीकं वसिष्ठ शुक्र दीदिवः पावक।
उतो न एभिः स्तवथैरिह स्याः।।8।।

हे पवित्र करने वाले अग्निदेव ! आपकी प्रदीप्त ज्वालाएँ धवल हैं। जिस प्रकार आप अपने याजक के पास रहते हैं, वैसे ही हमारे स्तोत्रों से प्रसन्न होकर इस यज्ञ में रहे।।8।।

5142 वि ये ते अग्ने भेजिरे अनीकं मर्ता नरः पित्र्यासः पुरुत्रा।
उतो न एभिः सुमना इह स्याः।।9।।

हे अग्निदेव ! आपके तेज को पितरों के हितैषी मनुष्यों ने विभिन्न स्थानों –देशों में फैलाया है। हमारे स्तोत्रों से प्रसन्न होकर आप हमारे यज्ञ में निवास करें।।9।।

5143. इमे नरो वृत्रहत्येषु शूरा विश्वा अदेवीरभि सन्तु मायाः।
ये मे धियं पनयन्त प्रशस्ताम्।।10।।

(अग्निदेव का कथन है-) जो मनुष्य हमारे उत्तम कर्मों को जानते हैं। वे संग्राम में शत्रु-असुरों की माया को दूर करके विजयी होते हैं।।10।।

5144. मा शूने अग्ने नि षदाम नृणां माशेषसोऽवीरता परि त्वा।
प्रजावतीषु दुर्यासु दुर्य।।11।।

हे अग्निदेव ! वीरतारहित पुत्र-पौत्रादि रहित घरों में हमें न रहना पड़े। घर के हितैषी हे अग्नदेव ! पुत्र-पौत्रादि से भरे-पूरे घर में हम आपकी उपासना करते हुए निवास करें।।11।।

5145. यमश्वी नित्यमुपयाति यज्ञं प्रजावन्तं स्वपत्यं क्षयं नः।
स्वजन्मना शेषसा वावृधानम्।।12।।

आश्वारूढ़, पूजनीय अग्निदेव की जहाँ नित्य उपासना की जाती हो (अर्थात् यज्ञ किया जाता हो), वैसा प्रजा से परिपूर्ण, सुसंतति को बढ़ाने वाला, घर हमें प्राप्त हो।।12।।

5146. पाहि नो अग्ने रक्षसो अजुष्टात् पाहि धूर्तेरररुषो अघायोः।
त्वा युजा पृतनायूँरभि ष्याम्।।13।।

हे अग्निदेव ! असम्बद्ध, दुष्ट असुरों से आप हमारी रक्षा करें। सेना सहित आक्रमण करने वाले दुष्ट शत्रुओं से आप हमें बचाएँ। आपकी सहायता से हम उन्हें जीत लें।।13।।

5147. सेदग्निरग्नीँरत्यस्त्वयान्यत्र वाजी तनयो वीळुपाणिः। सहस्रपाथा अक्षरा समेति ।।14।।

दृढ़ भुजाओं वाला बलवान्-पुत्र अक्षय स्तोत्रों (अनश्वर-सनातन मंत्रों-सूत्रों) से जिन अग्निदेव की निकटता प्राप्त करता है, वे अग्निदेव अन्य अग्नियों को जाग्रत करें।।14।।
(मंत्रों से जाग्रत् यज्ञाग्नि जनित ऊर्जा के प्रभाव से प्राणियों, वनस्पतियों एवं प्रकृति में वाञ्च्छित अग्नि-ऊर्जा विकसित हो, ऐसी कामना की गयी है। ऊर्जा के सार्थक प्रयोग के सूत्र अक्षर-सनातन हैं, समय के अनुरूप उनका जो स्वरूप पुरुषार्थपूवर्क प्रकट किया जा सके, वे प्रयोग वृद्धि पाएँ-बढ़ते रहें।)

5148. सेदग्निर्यो वनुष्यतो निपाति समेद्धारमंहस उरुष्यात्।
सुजातासः परि चरिन्त वीराः।।15।।

जो अग्निदेव अपने को प्रदीप्त करने वाले की, हिंसकों से एवं पापों से रक्षा करते हैं और जिनकी उपासना मनुष्य को उत्तम औरस पुत्र प्रदान करती है, वही अग्निदेव श्रेष्ठ हैं।।15।।

5149. अयं सो अग्निराहुतः पुरुत्रा यमीशानः समिदिन्धे हविष्मान्।
परि यमेत्यध्वरेषु होता।।16।।

जिन अग्निदेव को याजक, हवि प्रदान करके अच्छी तरह से प्रदीप्त करते हैं, याजक आदि जिनकी परिक्रमा करते हैं, वे ही श्रेष्ठ अग्निदेव हैं। इन्हें अनेकों बार आहुतियाँ अर्पित की गई हैं।।16।।

5150. त्वे अग्न आहवनानि भूरीशानास आ जुहुयाम नित्या।
उभा कृण्वन्तो वहतू मियेधे।।17।।

हे अग्निदेव ! हम प्रतिदिन दोनों प्रकार के कर्म (स्तुति एवं यजन) आपके निमित्त करते हैं। आप कृपा करके हमें धन के स्वामी बनाते हैं।।17।।

5151। इमो अग्ने वीततमानि हव्याजस्रो वक्षि देवतातिमच्छ।
प्रति न ईं सुरभीणि व्यन्तु।।18।।

हे अग्निदेव ! आप हमारी इन सदैव प्रिय लगने वाली हवियों को समस्त देवताओं तक पहुँचाएँ। हमारे द्वारा अर्पित यह सुगन्धित आहुतियाँ देवताओं को बहुत प्रिय हैं।।18।।

5152. मा नो अग्नेऽवीरते परा दा दुर्वाससेऽमतये मा नो अस्यै।
मा नः क्षुधे मा रक्षस ऋतावो मा नो दमे मा वन आ जुहूर्थाः।।19।।

 हे अग्निदेव ! आपकी कृपा से हम बुद्धिहीन न हों और न हमें भूखे रहना पड़े। हे देव ! हम कभी वस्त्र और संतान बिना न रहें। हे अग्निदेव ! हमें असुर शत्रु न मिले। हमें घर या जंगल के मार्ग में मृत्यु प्राप्त न हो।।19।।

5153. नू मे ब्रह्माण्यग्न उच्छशाधि त्वं देव मघवभद्यः सुषूदः।
रात्रौ स्यामोभयास आ ते यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।20।।


हे अग्ने ! आप हमारे लिए उत्तम अन्न प्रदान करें। आप अपने याजकों को अन्न देते हैं। हम दोनों (स्तोता एवं हविदाता) आपके द्वारा दिये जाने वाले अनुदानों को प्राप्त करें। आप हमें सुरक्षित रखते हुए हमारा कल्याण करें।।20।।

5154.त्वमग्ने सुहवो रण्वसन्दृक् सुदीती सूनो सहसो दिदीहि।
मा त्वे सचा तनये नित्य आ धङ्मा वीरो अस्मन्नर्यो वि दासीत्।।21।।


हे बल से उत्पन्न अग्निदेव ! उत्तम प्रकार (हवनीय) आहूत किये जाने वाले आप, रमणीय ज्वालाओं सहित प्रकट हों। आप हमारे पुत्र को दग्ध न करें। सदा उसकी रक्षा करते हुए, उस वीर पुत्र को दीर्घायु प्रदान करें
।।21।।

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