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पुराण एवं उपनिषद् >> गरुड़ पुराण

गरुड़ पुराण

विनय

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3590
आईएसबीएन :81-288-0701-3

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पुराण-साहित्य-श्रृंखला में गरुड़ पुराण

Garun Puran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रन्थों का महत्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्ण निधि हैं। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएँ मिलती हैं। कर्मकांड से ज्ञान की ओर आते हुए भारतीय मानस चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई है। विकास की इसी प्रक्रिया में बहुदेववाद और निर्गुण ब्रह्म की स्वरूपात्मक व्याख्या से धीरे-धीरे मानस अवतारवाद या सगुण भक्ति की ओर प्रेरित हुआ। अठारह पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र मानकर पाप और पुण्य, धर्म और अधर्म, कर्म, और अकर्म की गाथाएँ कही गई हैं।

आज के निरन्तर द्वन्द्व के युग में पुराणों का पठन मनुष्य़ को उस द्वन्द्व से मुक्ति दिलाने में एक निश्चित दिशा दे सकता है और मानवता के मूल्यों की स्थापना में एक सफल प्रयास सिद्ध हो सकता है। इसी उद्देश्य को सामने रखकर पाठकों की रुचि के अनुसार सरल, सहज और भाषा में पुराण साहित्य की श्रृंखला में यह पुस्तक गरुड़ पुराण प्रस्तुत है।

प्रस्तावना


भारतीय जीवन-धारा में जिन ग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है उनमें पुराण भक्ति ग्रंथों के रूप में बहुत महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पुराण-साहित्य भारतीय जीवन और साहित्य की अक्षुण्य निधि है। इनमें मानव जीवन के उत्कर्ष और अपकर्ष की अनेक गाथाएं मिलती हैं। भारतीय चिंतन-परंपरा में कर्मकांड युग, उपनिषद् युग अर्थात् ज्ञान युग और पुराण युग अर्थात् भक्ति युग का निरंतर विकास होता हुआ दिखाई देता है। कर्मकांड से ज्ञान की ओर जाते हुए भारतीय मानस चिंतन के उर्ध्व शिखर पर पहुंचा और ज्ञानात्मक चिंतन के बाद भक्ति की अविरल धारा प्रवाहित हुई।

महर्षि कश्यप के पुत्र पक्षीराज गरुड़ को भगवान् विष्णु का वाहन कहा गया है। एक बार गरुड़ ने भगवान विष्णु से मृत्यु के बाद प्राणियों की स्थिति, जीव की यमलोक-यात्रा, विभिन्न कर्मों से प्राप्त होने वाले नरकों, योनियों तथा पापियों की दुर्गति से संबंधित अनेक गूढ़ एवं रहस्ययुक्त प्रश्न पूछे। उस समय भगवान् विष्णु ने गरुड़ की जिज्ञासा शांत करते हुए उन्हें जो ज्ञानमय उपदेश दिया था, उसी उपदेश का इस पुराण में विस्तृत विवेचन किया गया है।

गरुड़ के माध्यम से ही भगवान विष्णु की श्रीमुख से मृत्यु के उपरांत के गूढ़ तथा परम कल्याणकारी वचन प्रकट हुए थे, इसलिए इस पुराण को ‘गरुड़ पुराण’ कहा गया है। श्री विष्णु द्वारा प्रतिपादित यह पुराण मुख्यतः वैष्णव पुराण है। इस पुराण को मुख्य गारुड़ी विद्या भी कहा गया है।

इस पुराण का ज्ञान सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने महर्षि वेद व्यास को प्रदान किया था। तत्पश्चात् व्यासजी ने अपने शिष्य सूतजी को तथा सूतजी ने नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषि-मुनियों को प्रदान किया था।

सनातन हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद गरुड़ पुराण के श्रवण का प्रावधान है। इस पुराण के उत्तर खण्ड में ‘प्रेतकल्प’ का वर्णन है। इसे सद्गति प्रदान करने वाला कहा गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में श्राद्ध-तर्पण, मुक्ति के उपायों तथा जीव की गति का विस्तृत वर्णन मिलता है।

हम आज के जीवन की विडबनापूर्ण स्थिति के बीच से गुजर रहे हैं। हमारे बहुत सारे मूल्य खंडित हो गए हैं। आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा। कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है, मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा-क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। मनुष्य का मन बहुत विचित्र होता है और उस विचित्रता में विश्वास और विश्वास का द्वंद्व भी निरंतर होता रहता है। इस द्वंद्व से परे होना ही मनुष्य जीवन का ध्येय हो सकता है। निरंतर द्वंद्व और निरंतर द्वंद्व से मुक्ति का प्रयास मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। पुराण हमें आधार देते हैं और यही ध्यान में रखकर हमने सरल, सहज भाषा में अपने पाठकों के सामने पुराण-साहित्य जो कुछ हमारे साहित्य में है उसे उसी रूप में चित्रित करते हुए हमें गर्व का अनुभव हो रहा है।

‘डायमण्ड पॉकेट बुक्स’ के श्री नरेन्द्रकुमार जी के प्रति हम बहुत आभारी हैं, कि उन्होंने भारतीय धार्मिक जनता को अपने साहित्य से परिचित कराने का महत् अनुष्ठान किया है। देवता एक संज्ञा भी है और आस्था का आधार भी इसलिए वह हमारे लिए अनिवार्य है। और यह पुराण उन्हीं के लिए है जिनके लिए यह अनिवार्य है।

-डॉ. विनय


प्रथम अध्याय


प्राचीन समय की बात है कि नैमिषारण्य क्षेत्र में शौनक आदि ऋषियों ने अनेक महर्षियों के साथ हजार वर्ष पर्यंत चलने वाले यज्ञ को प्रारंभ किया था जिससे उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो सके। उस क्षेत्र में सूतजी भी आए। तब ऋषियों ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। क्योंकि, सूतजी पौराणिक कथाएं कहने में सिद्धहस्थ थे और उन्होंने विभिन्न रूपों से अनुभव प्राप्त किया हुआ था-यह जानकर उपस्थित ऋषियों ने सूतजी से कहा-आप हमें इस सृष्टि, भगवान, यमलोक तथा अन्य शुभाशुभ कर्मों के संयोग से मनुष्य किस रूप को प्राप्त होता है यह बताने की कृपा करें।

सूतजी बोले-इस सृष्टि के कर्त्ता नारायण विष्णु हैं। वह ही नारायण विष्णु जल में रहने के कारण नारायण हैं, लक्ष्मी के पति हैं और उन्होंने अनेक अवतार धारण करके पृथ्वी पर अधर्म का नाश किया है और पृथ्वी की रक्षा की है। उन्होंने राम का अवतार धारण करके लंका के राजा रावण से ऋषि-मुनियों का उद्धार किया। उन्होंने नृसिंह रूप का अवतार धारण करके हिरण्यकश्यप का उद्धार किया। यही भगवान विष्णु सृष्टि के आदि कर्त्ता, पालक और रुद्र रूप में संहार करने वाले हैं भगवान विष्णु ने ही वराह का रूप धारण करके पृथ्वी का उद्धार किया और मत्स्य रूप में अवतार लिया। भगवान विष्णु का ही अंश वेदव्यास हैं और वेदव्यासजी ने इन पुराणों की सृष्टि की है।

विष्णु भगवान रूपी वृक्ष सर्वश्रेष्ठ वृक्ष है। उसका दृढ़ मूल धर्म है। वेद उसकी शाखाएं हैं, यज्ञ उसके फूल हैं और मोक्ष उसका फल है। इस प्रकार भगवान विष्णु ही सारी तपस्या के फल और मोक्ष को देने वाले हैं।

एक बार भगवान रुद्र से पार्वतीजी ने पूछा कि आप तो स्वयं भगवान हैं। सृष्टि के कर्ता, पालक और संहारक हैं। फिर भी आप किसी का ध्यान करते रहते हैं। आपसे बड़ा वह कौन है जिसका आप ध्यान करते हैं। पार्वती के मुख से यह सुनकर भगवान शिव ने कहा कि मैं आदि देव ऋषियों का ध्यान करता हूं। विष्णु ही परम और महान् हैं। उनका ध्यान करते हुए ही मैं अपने आप में तल्लीन रहता हूं। इस प्रकार शौनिकजी ने जब सूतजी से पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया, कि भगवान् विष्णु ही सारे कर्मों के आधार हैं। यह बताते हुए उन्होंने कहा कि शिवजी ने पार्वती से कहा-मैं परम ब्रह्म का चिंतन करता हूं। यह परम ब्रह्म भगवान विष्णु ही हैं। मैं विष्णु का ही चिंतन करता हूं। भगवान विष्णु ही अनेक रूप में अवतार लेते हैं। उन्होंने ही राम, कृष्ण, वाराह, नृसिंह, आदि के रूप में अवतार लेकर धर्म की रक्षा की है। राम के रूप में उन्होंने राक्षसों का नाश किया है और कृष्ण के रूप में दुष्ट प्रवृत्ति वाले लोगों का विनाश करके धर्म की स्थापना की है। शिवजी ने आगे कहा कि हे पार्वती ! वारह के रूप में विष्णु ने ही पृथ्वी का उद्धार किया है और नृसिंह के रूप में भक्त प्रह्लाद की रक्षा करते हुए हिरण्यकश्यप का उद्धार किया है। मैं अपने नेत्र बंद करके उनका चिंतन करता हूं।

इस प्रकार भगवान विष्णु की महिमा सुनकर (जैसे कि शंकर ने भगवती पार्वती को बताई थी) ऋषियों की उत्सुकता अन्य विषयों में जाग्रत हो गई।

ऋषियों ने सूतजी से पूछा कि हे भगवान् ! आपने भगवान विष्णु के महत्त्व को स्थापित करते हुए जो कुछ भी कहा वह भयमुक्त करने वाला है। किंतु आप संसार के दुःख और कष्टों को नष्ट करने का उपाय बताइए, कि यमराज का मार्ग कैसा होता है और वहां मनुष्य को कैसी-कैसी यातनाएं मिलती हैं। ऋषियों से यह सुनकर सूतजी बोले कि जो वृत्तांत भगवान नारायण ने गरुड़जी के पूछने पर उनको बताया था मैं तुम्हें बता देता हूं।

यम का मार्ग अत्यंत दुर्गम मार्ग है फिर भी मैं आप लोगों के कल्याण के लिए इसका वर्णन करता हूं। गरुड़जी ने पहले भगवान से कहा था कि हे प्रभु ! आपका नाम लेना तो सरल है फिर भी मनुष्य आपकी भक्ति से वंचित रहकर नरक में पहुंचते हैं। आपकी भक्ति के अनेक मार्ग हैं। उनकी अनेक गतियां हैं और आपने मुझे यह बताया भी था। किंतु इस समय मैं यह जानना चाहता हूं कि जो व्यक्ति आपकी भक्ति से विमुख हो जाता है और उसे दुर्गम यम मार्ग मिलता है। किंतु यह मार्ग उन्हें कैसे मिलता है और इसकी कठिनाइयां क्या हैं ?

हे प्रभु, इस मार्ग में पापियों की दुर्गति होती है और जिस रूप में वे नरकगामी बनते हैं वह आप मुझे विस्तार से बताइए। गरुड़जी की प्रार्थना पर भगवान विष्णु उनसे बोले-हे गरुड़ ! तुम्हारे पूछने पर मैं यम मार्ग का वर्णन करता हूं क्योंकि इस मार्ग से ही होकर पापी यमलोक जाते हैं। यह वर्णन अत्यंत भयंकर है। जो अपने को सम्मानित मानकर उग्र रहते हैं और धन तथा मर्यादा के गर्व से युक्त हैं तथा राक्षसी भाव को प्राप्त होकर दैवी शक्ति रूपी संपत्ति से हीन होते हैं, जो काम तथा भोग में लीन रहते हैं, जिनका मन-मोह माया जाल में फंसा हुआ है, वे अपवित्र नरक में गिरते हैं। जो मनुष्य दान देते हैं वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। जो लोग दुष्ट और पापी हैं वे दुःखपूर्वक यम की यातना सहते हुए यमलोक जाते हैं। पापियों को इस संसार के दुःख जैसे मिलते हैं उन दुःखों को भोगने के पश्चात् जैसी उनकी मृत्यु होती है, और वे जैसा कष्ट पाते हैं उसका वर्णन तुमसे करता हूं, सुनो !

मनुष्य संसार में जन्म लेकर अपने पूर्वजन्म के संचित किए हुए पुण्य और पाप के कारण अच्छे-बुरे फल को भोगता है। शेष अशुभ कर्मों के संयोग से शरीर में कोई भी रोग हो जाता है। रोग और विपत्ति से युक्त वह प्राणी जीवन की आशा से उत्कंठित होता रहता है। युवावस्था में वेदनाहीन यह प्राणी स्त्री और पुत्रों से सेवित होने पर भी बलवान सर्प के द्वारा काल के रूप में एकाएक भयभीत होता है और उसके सिर पर काल आ पहुंचता है। वह वृद्धावस्था के कारण रूपहीन होकर घर में मृतक के समान रहता है। वह गृहस्वामी द्वारा अपमान-युक्त आहार को कुत्ते के समान भोजन करता है, रोग और मंदाग्नि के कारण आहार कम हो जाता है, और चलने-फिरने की शक्ति घट जाती है। वह चेष्टाहीन हो जाता है। जब कफ से स्वर-नलियां रुक जाती हैं, आवागमन में कष्ट होता है, खांसी और श्वास के वेग के कारण उसके कंठ से घुर-घुर शब्द होने लगता है तब वह चेतनाहीन रहने के कारण चारपाई पर पड़ा हुआ सोचता है, और बंधु वर्ग से घिरा हुआ होने के कारण प्राणी मृत्यु के सन्निकट आता रहता है, बुलाने से भी नहीं बोलता है। इस प्रकार हमेशा कुटुंब के पालन-पोषण में जिसकी आत्मा लगी रहती है, उस परिवार के प्रेम की वेदना से रोता हुआ वह प्राणी परिवार के बीच में मर जाता है।

हे गरुड़ ! मृत्यु के समय देवताओं के समान प्राणी की भी दिव्य दृष्टि हो जाती है। वह संसार को प्रभुमय देखता है, और कुछ भी बोलने में असमर्थ हो जाता है। इंद्रियों की व्याकुलता से चैतन्य प्राणी भी जड़ के समान हो जाता है। इस कारण समीप आए यमदूतों के भय से अपने स्थान से चलायमान हो जाता है। जब प्राण आदि पांचों तत्त्व अपने स्थान से चल देते हैं, तब समय पापी को एक क्षण भी कल्प के समान बीतता है। सौ बिच्छुओं के काटने से जो पीड़ा होती है वैसी ही यातना-व्यथा श्वासों के निकलते समय होती है। यमदूतों के भय से उस जीव के मुंह से लार और झाग गिरने लगता है। अतः पापियों का प्राणवायु गुदा के मार्ग से निकलता है। प्राण निकलते समय प्राणियों को यमदूत मिलते हैं जो क्रोध से लाल नेत्र वाले, भयानक मुख, पाश और दंड लिए होते हैं, तथा नग्न शरीर और दांत को पीसते हैं। ऊपर को उठे केश वालों के समान काले, टेढे़ मुख विशाल नखरूपी शस्त्र वाले यमदूत वहां आकर उपस्थित रहते हैं। उन दूतों को देखकर भय से वह प्राणी मल-मूत्र का त्याग करने लगता है। इस अवस्था में हाय-हाय करता हुआ जीव शरीर से निकलकर अंगूठे के समान शरीर को धारण करता है और मोहवश अपने घर को देखता है। उसी समय यमदूतों द्वारा पकड़ा जाता है। उस अंगुष्ठमात्र शरीर को यातना रूपी शरीर से ढककर गले में रस्सी बांधकर यमदूत इस प्रकार ले जाते हैं, जैसे अपराधी पुरुष को राजा के सिपाही पकड़कर ले जाते हैं। वे यमदूत इस प्रकार उस जीव को ले जाते हुए मार्ग में धमकी देते हैं तथा नरकों के भयानक दुःखों का वर्णन बारंबार करते जाते हैं।

वे दूत कहते हैं-अरे दुष्टात्मा तू ! शीघ्र चल, तुझे यमलोक जाना और कुंभीपाक आदि नरकों का उपभोग करना है। अतः तू देर मत कर। यमदूतों की ऐसी वाणी को सुनता हुआ तथा अपने बंधुवर्गों के विलाप को सुनता हुआ वह जीव हाय-हाय करता है। यमदूत उसे प्रताड़ना और कष्ट देते हैं। उन यमदूतों के धमकाने से उसका हृदय विदीर्ण हो जाता है। वह प्राणी भय से कांपता है और अपने पापों का स्मरण करता हुआ यममार्ग से जाता है। यम मार्ग में कुत्तों से कटवाया जाता है। जब मार्ग में भूख और प्यास से पीड़ित होता है, सू्र्य के तेज और हवा की प्रबलता से तप्त बालू में चलना पड़ता है, छाया, और विश्राम-रहित मार्ग में चलने से असमर्थ हो जाता है, तब उस जीव को कोड़ों से मारकर यमदूत घसीटते हैं। ऐसे कठिन मार्ग में चलने से वह थककर गिरता है, मूर्च्छा खाता है तथा फिर उठता है। इस प्रकार वह जीव अधंकारमय यमलोक में पहुंचाया जाता है। वह जीव तीन अथवा दो मुहूर्त में यमलोक में पहुंचाया जाता है। वे यमदूत उसको घोर नरक की यातना देते हैं, और उसके पापों का फल देते हैं।

यमलोक में पहुंचकर वह जीव यमराज के दर्शन तथा एक मुहूर्त में घोर नरकों की यातना को देखकर यमराज की आज्ञा से फिर मनुष्य लोक में आता है। यहां आने पर जीव पुनः अपने पूर्व शरीर में प्रवेश करने की इच्छा करता है, परंतु यमदूत उसे पाश से बांधे रहते हैं। इस कारण वह क्षुधा-तृषा के दुःसह दुःख को सहता और विकल होकर रोता है। तब मृत्यु के स्थान पर पुत्रों द्वारा दिए गए पिंड को और मरने के समय में दिए हुए दान को ही वह जीव खाता है, तब भी उस पापी जीव की तृप्ति नहीं होती। उसके पुत्रों द्वारा दिए हुए दान श्रद्धा और जलांजलि से पापी रूप के कारण तृप्ति नहीं होती। इसी से पिंडदान देने पर भी वे भूख से और भी व्याकुल हो जाता है। जिनका पिंडदान नहीं होता, वे कल्प भर प्रेतयोनि में रहकर निर्जन वन दुःखपूर्वक भ्रमण करते हैं। बिना भोग कर्म का भय करोड़ों कल्प तक भी नहीं होता है और बिना यम की यातना भोगे जीवों को मनुष्य का जन्म भी नहीं मिलता है और उन्हें अन्य योनियों में भटकना होता है।

हे गरुड़ ! उस पिंड के प्रतिदिन चार भाग होते हैं। उनमें से दो भाग पंचभूतों के लिए होते हैं, जिनसे देह की पुष्टि होती है। तीसरा भाग यमदूतों को मिलता है और चौथा भाग उस प्रेत को खाने के लिए मिलता है। इस प्रकार प्रेत को नौ दिन तक का पिंडदान खाने के लिए मिलता है। दसवें दिन के पिंडदान से प्रेत का शरीर-निर्मित होता है और चलने में सामर्थ्य होती है। हे पक्षियों में श्रेष्ठ ! पूर्व शरीर के जल जाने या नष्ट हो जाने पर पुत्र द्वारा दिए हुए पिंडों से फिर भी उस जीव को देह मिलता है। वह जीवन हाथ भर का शरीर पाकर यमलोक मार्ग में अपने शुभ-अशुभ कर्मों को भोगता है।

अब मैं दस दिन के दिए पिंड से जिस प्रकार शरीर बनता है, उसे कहता हूं। प्रथम दिन के पिंड से सिर, दूसरे दिन के पिंड से गर्दन और कंधा, तीसरे दिन के पिंड से हृदय बनता है। चौथे दिन के पिंड से पीठ, पांचवे दिन के पिंड से नाभि उत्पन्न होती है। छठे दिन के पिंड से कमर, गुदा, लिंग, भग, और मांस के पिंड आदि बनते हैं। सातवें दिन के पिंड से हड्डी आदि बन जाती हैं और आठवें-नवें दिन के दो पिंड से जंघा और पैर उत्पन्न होते हैं। दसवें दिन के पिंड से उस देह में क्षुधा-तृषा की उत्पत्ति होती है। पिंड से उत्पन्न शरीर का आश्रय लेकर भूख-प्यास से पीड़ित प्रेत ग्यारहवें और बारहवें दिन के श्राद्ध को दो दिन में भोजन करता है। तेरहवें दिन यमदूतों से बंधा वह जीव बंधे हुए बंदर के समान अकेला संसार में आता है।

हे गरुड़ ! वैतरणी को छोड़कर केवल यमलोक छियासी हजार योजन विस्तीर्ण है। अब इस जीवन को प्रति दिन 24 घंटों में क्रमशः 247 योजन यमदूतों के संग निरंतर चलना पड़ता है। चलने वाले इस मार्ग के अंत में 16 ग्राम पड़ते हैं। उनको लांघकर तब धर्मराज के नगर में वह पापी जीव पहुंचता है। उन नगरों के नाम ये हैं-सौंम्यपुर, सौरिपुर, नगेन्द्र भवन, गंधर्व, शैलागम, क्रौंच, क्रूरपुर, विचित्र भवन, दुःखद, नाना क्रंदपुर, सुतप्त-भवन, रौद्र नगर, पयोवर्षण, शीतादय, बहुभीति। इनके आगे यमपुर है। यम के पाश (बंधन) में बंधा हुआ वह पापी जीव मार्ग में रोता हुआ अपने घर को छोड़कर यमलोक को जाता है।

यमलोक को जाने वाला मनुष्य अनेक कष्टों को सहन करता हुआ पीड़ित होता रहता है। उसकी पीड़ा का अंत नहीं होता। वह अपने कर्मों के विषय में चिंतन करता हुआ अनेक दुःख भोगता है। इस पर भी यदि वह दुबारा जन्म प्राप्त करता है। तब उसी प्रकार भगवान को भूलकर कर्म करता है।

द्वितीय अध्याय


भगवान नारायण से संक्षेप में यम लोक के विषय में सुनकर गरुड़जी ने कहा हे भगवन् ! यमलोक का मार्ग कितना दुखदायी है ? यहां जीव पाप करने से उसमें कैसे जाता है ? आप मुझे बताने की कृपा करें ! नारायण भगवान ने कहा-हे गरुड़ ! यमलोक का मार्ग अत्यंत दुखदायी है। मेरे भक्त होते हुए भी उसे सुनकर तुम कांप जाओगे। उस यमलोक में वृक्षों की छाया नहीं है, जहां जीव विश्राम ले सकें और न तो वहां अन्य आदि हैं, जिससे जीव के प्राण का निर्वाह हो सके। न तो वहां कहीं जल दिखाई देता है, जिसे अति प्यासा प्राणी पी सके। वह प्यासा ही रहता है।

हे खगराज ! उस लोक में बारहों सूर्य ऐसे तपतें हैं, जैसे प्रलय के अंत में अग्नि रूप में तपते हैं। वहां ठंडक और हवा से जीव अत्यंत पीड़ित होता है। कहीं वह बड़े-बड़े विषैले सांपों से कटवाया जाता है, कहीं-कहीं कांटों से बिंधवाया जाता है और कहीं-कहीं घोर सिंह, व्याघ्र और कुत्तों से खिलवाया जाता है। कहीं बिच्छुओं से कटवाया जाता है और कहीं अग्नि से जलाया जाता है। इसके बाद विशाल एक असिपत्र-वन है, जिसका विस्तार दो हजार योजन का है। वह वन कौवा, गीध, उलूक और शहद की मक्खियों से भरा है और वन के चारों ओर दावग्नि प्रंचड रहती है। जब कीट और मक्खियों के काटने से तथा अग्नि की गर्मी से वह जीव वृक्ष के नीचे जाता है, तब तलवार के समान तेज उन वृक्षों के पत्तों से उसका शरीर छिन्न-भिन्न हो जाता है। कहीं अंधेरे कुएं में गिराया जाता है, कहीं पर्वत पर से नीचे गिराया जाता है, कहीं छुरों की धार के समान तीक्ष्ण मार्ग में चलाया जाता है और कहीं-कहीं कीलों के ऊपर से चलाया जाता है। कहीं वह अंधकार युक्त गुफाओं में, कहीं जल में, कहीं जोंक से भरे कीचड़ में गिराया जाता है और जोकों से कटवाया जाता है। कहीं जलती हुई कीच में गिराया जाता है।

कहीं जलते हुए बालू में चलाया जाता है। कहीं तांबे के समान जलती हुई पृथ्वी पर और कहीं अंगार-समूह में झोंका जाता है, कहीं धुएं से भरे हुए मार्ग से चलाया जाता है। कहीं पर आग की वर्षा, कहीं पत्थर के टुकड़ों की वर्षा, कहीं रक्त की वर्षा और कहीं गरम जल की वर्षा होती है। कहीं पर खारे कीचड़ की वर्षा होती है, कहीं पर बड़ी घोर गुफाएं होती हैं। कहीं कंदरा में घुसाया जाता है। इस तरह वह जीव निरंतर पीड़ा सहता है और उसका रूप ऐसे हो जाता है कि जैसे चारों तरफ विशालकाय बहुत ही गहरा अंधकार है और कहीं कष्ट से चढ़ने योग्य शिलाएं हैं। इसके साथ कहीं पीप तथा रक्त से भरे, कहीं विष्ठा से भरे कुंड हैं (जिनमें रहना पड़ता है)। मध्य मार्ग में एक वैतरणी नाम की विशाल नदी है, जो देखने मात्र से भय देने वाली है, जिसकी वार्त्ता सुनने से रोमांच हो जाता है। वही नदी एक सौ योजन चौड़ी है, जिसमें पीब-रक्त भरा हुआ है और जिसका किनारा हड्डियों से बना हुआ है, जो रक्त, मांस और पीब के कीचड़ भरी है, जो बड़ी गहरी है तथा बड़े दुःख से पार होने योग्य है और जो बड़े-बड़े घड़ियालों से पूर्ण है। इसमें मांस खाने वाले सैकड़ों प्रकार के पक्षियों का निवास है। यह नदी पापियों के लिए कठिनता से पार होने वाली है।



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