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ओशो साहित्य >> होनी होय सो होय

होनी होय सो होय

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :157
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3602
आईएसबीएन :81-7182-829-9

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‘होनी होय सो होय’ कबीर के अनूठे पदों पर ओशो की यह अमृत प्रवचनमाला अहंकार-शून्यता का सुमधुर संदेश है।

Honi Hoy So Hoy

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘होनी होय सो होय’ कबीर के अनूठे पदों पर ओशो की यह अमृत प्रवचनमाला अहंकार-शून्यता का सुमधुर संदेश है।
मनुष्य अपने अहंकार के नशे में सोचता है कि वह कर्ता है, जबकि अस्तित्व में सब कुछ अपने आप ही हो रहा है। बूँद को यह भ्रांति हो गई है कि वह कुछ कर रही है, जबकि वास्तविकता है कि बूँद का अपना कोई अलग अस्तित्व ही नहीं है, ये बूँदें अभिव्यक्तियाँ हैं सागर की। लेकिन बूँद बहुत अकड़ भरी है, उसकी ऐंठन देखते ही बनती है।

उसकी दावेदारी, उसका दंभ ऐसा है जैसे वह सागर से भी बड़ी हो। बुद्धपुरुष बोध देते हैं कि बूँद सागर ही है, क्योंकि उसका कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। बूंद अगर अहंकार की भ्रांति में न पड़े तो वह सागर ही है, कभी सागर से अलग थी ही नहीं। फिर वह विराट है, असीम है। विराट उसका आनंद है। असीम उसकी अनुभूति है। फिर सागर पर जो घटित हो वह होनी होय सो होय।

ओशो कहते हैं : ‘तो फिर न तो कुछ करने को बचता है, न न-करने को बचता है; न तो कुछ पकड़ने को बचता है, न कुछ छोड़ने को बचता है। जो हो रहा है, ठीक हो रहा है—हम केवल दर्शक रह जाते हैं। न पकड़ना है न छोड़ना है; न करना, न न-करना है। जो हो रहा है, हो ही रहा है। हम सिर्फ दर्शक रह गए, दृष्टा रह गए—देखेंगे और देखने से इंच-भर भी इधर-उधर नहीं जाएँगे, कर्ता नहीं बनेंगे।

कबीर ने कहा है : ज्यों-की-त्यों धरि दीन्हीं चदरिया।
अनुभूति के ऐसे अनूठे लोक में मिटने के लिए और पूर्ण अनुभूति के लिए-लहर की भाँति खोने के लिए, सागर की भाँति समग्र होने के लिए-कबीर के इन मीठे पदों के माध्यम से ओशो हमें निमंत्रण दे रहे हैं। और फिर...होनी होय सो होय।

स्वामी चैतन्य कीर्ति

सूत्र


मोर फकिरवा माँगि जाय,
मैं तो देखहू न पौल्यौं।
मंगन से क्या माँगिए,
बिन माँगे जो देय।
कहैं कबीर मैं हौं वाही को,
होनी होय सो होय।
चली मैं खोज में पिय की, मिटी नहिं सोच यह जिय की।
रहे नित पास ही मेरे, न पाऊं यार को हेरे।
बिकल चहूँ ओर को धाऊँस तबहु नहिं कंत को पाऊँ।
खरों केहि भाँति सों धीरा गयौ गिर हाथ से हीरा।
कटी जब नैन की झाईं, लख्यौ तब गगन में साईं।
कबीर शब्द कहि त्रासा, नयन में यार को वासा।

तन-मन-धन बाजी लागी हो,
चौपड़ खेलूँ पीव से रे, तन-मन बाजी लगाया।
हारी तो पिय की भई रे,
जीती तो पिय मोर हो।
चौरसिया के खेल में रे, जुग्ग मिलन की आस।
नर्द अकेली रह गई रे, नहिं जीवन की आस हो।
चार बरन घर एक है रे, भाँति-भाँति के लोग।
मनसा-बाचा कर्मना कोई, प्रीति निबाहो ओर हो।
लख चौरासी भरमत भरमत, पौ पे अटकी आय।
जो अबके पौ ना पड़ी रे, फिर चौरासी जाय हो।
कहैं कबीर धर्मदास से रे, जीती बाजी मत हार।
अबके सुरत चढ़ाय दे रे, सोई सुहागिन नार हो।

कबीर ! संत हजारों हुए हैं, पर कबीर ऐसे हैं जैसे पूर्णिमा का चाँद–अतुलनीय, अद्वितीय ! जैसे अँधेरे में कोई अचानक दीया जला दे, ऐसा यह नाम है। जैसे मरुस्थल में कोई अचानक मरुद्यान प्रकट हो जाए, ऐसे अद्भुत और प्यारे उनके गीत हैं !
मैं कबीर के शब्दों का अर्थ नहीं करूँगा। शब्द तो सीधे-सादे हैं। कबीर को तो पुनरुज्जीवित करना होगा। व्याख्या नहीं हो सकती उनकी, उन्हें  पुनरुज्जीवन दिया जा सकता है। उन्हें अवसर दिया जा सकता है कि वे मुझसे बोल सकें।

तुम ऐसे ही सुनना जैसे यह कोई व्याख्या नहीं है; जैसे बीसवीं सदी की भाषा में, पुनर्जन्म है। जैसे कबीर का फिर आगमन है। और बुद्धि से मत सुनना। कबीर का कोई नाता बुद्धि से नहीं। कबीर तो दीवाने हैं। और दीवाने ही केवल उन्हें समझ पाये हैं और दीवाने ही केवल समझ पा सकते हैं। कबीर मस्तिष्क से नहीं बोलते हैं। यह तो हृदय की वाणी की अनुगूंज है। और तुम्हारे हृदय के तार भी छू जाएँ, तुम भी बज उठो, तो ही कबीर समझे जा सकते हैं, यह कोई शास्त्रीय, बौद्धिक आयोजन नहीं है। कबीर को पीना होता है, चुस्की-चुस्की। जैसे कोई शराब पीए ! और डूबना होता है, भूलना होता है अपने को, मदमस्त होना होता है।

भाषा पर अटकोगे, चूकोगे; भाव पर जाओगे तो पहुँच जाओगे। भाषा तो कबीर की टूटी-फूटी है। बे-पढ़े लिखे थे। भाव अनूठे हैं, कि उपनिषद फीके पड़ें, कि गीता, कुरान और बाइबिल भी साथ खड़े होने की हिम्मत न जुटा पाएँ।
भाव पर जाओगे तो....। भाषा पर अटकोगे तो कबीर साधारण मालूम होंगे। कबीर ने कहा भी-लिखालिखी की है नहीं, देखादेखी बात। नहीं पढ़कर कह रहे हैं। देखा है आँखों से। जो नहीं देखा जा सकता, उसे देखा है और जो नहीं कहा जा सकता उसे कहने की कोशिश की है।

बहुत श्रद्धा से ही कबीर समझे जा सकते हैं। शंकराचार्य को समझना हो, श्रद्धा की कोई जरूरत नहीं। शंकराचार्य का तर्क प्रबल है। नागार्जुन को समझना हो, श्रद्धा की क्या आवश्यकता। उनके प्रमाण, उनके विचार, उनके विचार की अद्भुत तर्कसरणी-वह प्रभावित करेगी। कबीर के पास न तर्क है, न विचार है, न दर्शनशास्त्र है। शास्त्र से कबीर का क्या लेना-देना। कहा कबीर ने—‘मसि कागद छुआ नहीं’। कभी छुआ ही नहीं जीवन में कागज, स्याही से कोई नाता ही नहीं बनाया। सीधी-साधी अनुभूति है; अंगार है, राख नहीं। राख को तो तुम सम्हालकर रख सकते हो, अंगार को सम्हालना हो तो श्रद्धा चाहिए, तो ही पी सकोगे यह आग।

कबीर आग हैं। और एक घूँट भी पी लो तो तुम्हारे भीतर भी-अग्नि भभक उठे-सोई अग्नि जन्मों-जन्मों की। तुम भी दीए बनो। तुम्हारे भीतर भी सूरज उगे। और ऐसा हो, तो ही समझना कि कबीर को समझा, ऐसा न हो, तो समझना कि कबीर के शब्द पकड़े, शब्दों की व्याख्या की, शब्दों के अर्थ जाने; पर वह सब ऊपर-ऊपर का काम है। जैसे कोई जमीन को इंच दो इंच खोदे और सोचे कि कुआँ हो गया। गहरा खोदना होगा। कंकड़-पत्थर आएँगे। कूड़ा-कचरा आएगा। मिट्टी हटानी होगी। धीरे-धीरे जलस्रोत के निकट पहुँचोगे।
ऐसी ही हम खुदाई आज शुरू करते हैं


शब्द झरे अर्थ की लड़ी
अर्थ झरे
एक फूल, पाँच रंग, सात पंखुड़ी।
एक दर्द धूप से भरा हुआ
माथ चूमकर मुझे जगा गया
टूटता हुआ प्रणाम शाम का
गाँठ नई भोर की लगा गया
सिंधु तिरी प्यास की तरी
डूब गए
एक मंत्र, पाँच दीप, सात अँजुरी।
एक वायु गंध से भरी हुई
अंग-अंग को परस गुजर गई
एक मूर्च्छना चढ़ी हुई शिखर
मंत्र-मुग्ध पाँव तक उतर गई
गूँज से दिशा-दिशा भरी
रीत गए
एक गीत, पाँच गान, सात पंखुड़ी।

तुम्हारे भीतर फूल झर जाएँ, तो समझना कि कबीर को समझा। बाँसुरी बज जाए, तो समझना कि कबीर को समझा। इंद्रधनुष प्रकट हो जाएँ, तो समझना कि कबीर को समझा।

शब्द झरे अर्थ की लड़ी अर्थ झरे
एक फूल, पाँच रंग, सात पँखुड़ी।
एक दर्द धूप से भरा हुआ।

एक पीड़ा उठे ! एक पीड़ा-प्रीति की, परमात्मा से विछोह की आत्म-ज्ञान की। एक तीर चुभ जाए कि निकाले न निकले।

एक दर्द धूप से भरा हुआ
माथ चूमकर मुझे जगा गया

और वह पीड़ा तुम्हें जगा जाए, तो ही जानना कि कबीर को समझा।

टूटता हुआ प्रणाम शाम का
गाँठ नई भोर की लगा गया

सुबह की तरफ यात्रा शुरू हो। सुबह की पुकार तुम्हारे प्राणों में गूँज उठे तो समझना कि कबीर को समझा।

सिंधु तिरी प्यास की तरी डूब गए
एक मंत्र, पाँच दीप, सात अँजुरी
एक वायु गंध से भरी हुई !

हाँ, ऐसे ही हैं कबीर-एक वायु गंध से भरी हुई। परमात्मा की सुगंध !


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