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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सामवेद संहिता

सामवेद संहिता

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :332
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 363
आईएसबीएन :00-000-00

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सामवेद संहिता सरल हिन्दी भावार्थ सहित।

Samved Sanhita - A Hindi Book by - Sriram Sharma Acharya सामवेद संहिता - श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने आराध्य के चरणों में

परम पूज्य गुरुदेव ने जो गुरुत्तर भार कन्धों पर डाला, उनमें अपने वेदों का आज के परिप्रेक्ष्य में बुद्धिसंगत एवं विज्ञानसम्मत प्रतिपादन सर्वथा दुःसाध्य कार्य था। लोगों के पास योग्यता रहती होगी, जिससे वे बड़े-बड़े कार्य सम्भव कर पाते होंगे; पर मुझ अकिंचन के लिए तो यह सौभाग्य ही क्या कुछ कम था कि अपने आराध्य के चरणों पर स्वयं को सर्वतोभावेन समर्पित करने का सन्तोष प्राप्त हुआ। होंठ कौन से गीत निकालेंगे, भला बाँसुरी को क्या पता ? कौन सा राग आलापित होगा—यह पता वादक को हो सकता है, सितार बेचारा उसे क्या समझे ?

वेदों के भाष्य जैसे कठिन कार्य में मेरी स्थिति ऐसे ही वाद्य यंत्र की रही। यदि गायन सुन्दर हो तो श्रेय उन्हीं को मिलना चाहिए, जिन्होंने इस भाषानुवाद प्रारम्भ (सन् 1960 ई.) में किया और दुबारा करने का आदेश मुझे दिया। कलम मेरी हो सकती है, पर चलाई उन्होंने ही। अक्षर मेरे हो सकते हैं, पर भावाभिव्यक्ति एक मात्र उन्हीं की है।
आज यह सुरभित पुष्प अपने उन्हीं आराध्य गुरुदेव-आचार्य जी के चरणों में समर्पित कर स्वयं को कृत्य-कृत्य हुआ अनुभव करती हूँ।

जिन मनीषियों के ग्रन्थ हमने इस अवधि में पढ़े, उनसे कुछ दिशा बोध मिला, उनका तथा जिन्होंने इस गुरुतर कार्य के संकलन से प्रकाशन तक में सहयोग दिया, उनका मैं विशेष रूप से आभार मानती हूँ। आशा करती हूँ कि इस सृजन से अपनी संस्कृति और इस महान् देश की विराट् बैद्धिक, आत्मिक तथा अध्यात्मिक सम्पदा गौरवान्वित होगी।

 

-भगवती देवी शर्मा

 

भूमिका

 

‘‘वेदानां सामवेदोऽस्मि’’ कहकर गीता उपदेशक ने सामवेद की गरिमा को प्रकट किया है। साथ ही इस उक्ति के रहस्य की एक झलक पाने की ललक हर स्वाध्यायशील के मन में पैदा कर दी है। यों तो वेद के सभी मंत्र अनुभूतिजन्य ज्ञान के उद्घोषक होने के कारण लौकिक एवं आध्यात्मिक रहस्यों से लबालब भरे हैं, फिर सामवेद में ऐसी क्या विशेषता है, जिसके कारण गीता ज्ञान को प्रकट करने वाले ने यह कहा कि ‘वेदों में मैं सामवेद हूँ।’

यहाँ स्मरण रखने योग्य तथ्य यह है कि ऋषियों ने ‘वेद’ सम्बोधन किसी पुस्तक विशेष के लिए नहीं किया है, उसका अर्थ है दिव्य साक्षात्कार से उद्भूत ज्ञान। एस आधार पर ‘वेद’ कोई पुस्तक नहीं, ज्ञान की एक विशिष्ट परिष्कृत धारा है, तो सामवेद को भी मंत्रों का एक संग्रह न कहकर ज्ञान की अभिव्यक्ति या उपयोग की एक विशिष्ट विधा ही कहा जा सकता है। इस दृष्टि से ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि’ का भाव यह निकलता है कि वेद की सामधारा या विधा को समझ लेने से ‘मुझे’ (परमात्म-चेतना को) भी समझा जा सकता है।

यहाँ ज्ञान के साथ भावना के संयोग का महत्त्व समझाया गया है। यह सत्य है कि ज्ञान दृष्टि से ईश साक्षात्कार किया जा सकता है, किन्तु भावना के बिना ज्ञान दृष्टि से भी अपूर्ण रहती है। यह सत्य है कि ‘भावे हि विद्यते देव: तस्मात् भावो हि कारणम्’ अर्थात् भावना ही देवों का निवास है, अत: उनके साक्षात्कार का मुख्य आधार भावना ही है; किन्तु भावना एक उफान है, उसे भटकन से बचाकर दिशाबद्ध तो, ज्ञान ही-विवेक ही करता है। इसीलिए ज्ञान एवं भावना की युग्म ही ईश साक्षात्कार सुनिश्चित आधार बनता है।

संत तुलसीदस ने इसीलिए श्रद्धा एवं विश्वास के रूप में भवानी-शंकर की वंदना करते हुए कहा है कि इनके योग के बिना सिद्ध पुरुष भी अपने अंत:करण में विराजमान ईश तत्त्व का साक्षात्कार नहीं कर पाते।

 

भवानीशंकरौ वन्दे
श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति
सिद्धा: स्वान्त: स्थमीश्वरम्।

 

-मानस

 

ज्ञान की परिपक्वता से विश्वास उपजता है तथा भावना की परिपक्वता श्रद्धा है। ज्ञान और भावना के संयोग से ईश से साक्षात्कार संभव है, यह तथ्य निर्विवाद है, सत्य से ईश्वर का बोध हो सकता है- यह मानने वाले अगले चरण में यह भी अनुभव करते हैं कि मृत्यु ही ईश्वर है, इसी तरह यह अनुभवगम्य है कि परिष्कृत ज्ञान और उत्कृष्ट भावना का संयोग ईश्वरत्व ही है।

वेद है ज्ञान, साम है गान। गान का सीधा-सीधा संबंध भाव-संवेदना से है। अनुभूति की अभिव्यक्ति में शब्दों की सामर्थ्य छोटी पड़ जाती है। वेद अनुभूतिजन्य ज्ञान हैं, उन्हें व्यक्त करनें में भी शब्द शक्ति अपर्याप्त है। ऋषि ने अनुभूतिजन्य ज्ञान को शब्दों में व्यक्त करने का प्रयास किया, किन्तु जब देखा कि पूरे प्रयास के बाद भी अभिव्यक्ति अनुभूति के स्तर की नहीं बन सकी, तो उसने ईमानदारी से कह दिया ‘नेति-नेति’- ‘यह बात पूरी नहीं हो सकी’।
शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति की तीन धाराएँ हैं- गद्य, पद्य एवं गान। ज्ञान की किसी भी धारा को इन्हीं माध्यमों से व्यक्त किया जा रहा है। कोई भी देश-काल हो अभिव्यक्ति के माध्यम तो यही हैं।

वेद का-ज्ञान का मूल स्रोत्र ऋषियों ने ईश्वर को ही माना है। ज्ञान की सार्थकता-पूर्णता तभी है, जब वह पुन: अपने उद्गम तक जा पहुँचे। ईश्वर तक पहुँचने के लिए उसे भावना का योग चाहिए। भाषा को भावपूर्ण बनाने के प्रयास में ही मंत्र बने। गद्य की अपेक्षा पद्य में भाव-संयोग एवं उभार की क्षमता अधिक पाई गई। पद्य को भी जब गान विद्या से जोड़ा गया, तो भावना का प्रवाह अधिक पूर्णता से खुला- इस तथ्य को सभी जानते हैं।
जब वेद के पद्यबद्ध मंत्रों को गान विद्या से अनुप्राणित किया गया, तो ‘सामवेद’ बन गया। मानवीय क्षमता के अंतर्गत ज्ञान और भावना का सर्वोत्कृष्ठ संयोग होने से इसे सर्वश्रेष्ठ प्रयोग कहना सब प्रकार युक्तिसंगत है।

 

भाव विज्ञान एवं गान विद्या

 

 

सृष्टि क्या है ? सृजेता की आत्माभिव्यक्ति ही तो है। भावमय परमात्मा द्वारा रची गई यह बहिरंग, हम उसमें अपनी भावनाओं को ही प्रतिबिम्बित या प्रतिफलित होते देखते हैं। मन की कल्पनाओं, बुद्धि के विचारों और कर्म की हलचलों के ताने-बाने भावनाओं के आधार पर ही बनते-बदलते रहते हैं।
 
तरंगे चुम्बक की हों या विद्युत की, वे अपना चक्र (सर्किट) पूरा करती हैं। भाव तरंगों के साथ भी ऐसा ही होता है। जिस तरह की भाव तरंगे हम विश्व चेतना में छोड़ते हैं, उसी के अनुरूप भाव तंरगें किसी न किसी माध्यम से हम तक पहुँचती रहती हैं। ऋषियों ने यह विज्ञान समझा और सिद्ध किया था, इसीलिए वे विश्व-व्यापी भाव-प्रवाहों को परिष्कृत करते रहने में सफल होते थे। आज के जमाने में भी मनोवैज्ञानिकों ने इस तरह के कुछ प्रयोग सम्पन्न किये, जिससे भाव-प्रवाहों के प्रतिफलित होने की बात प्रमाणित होती है। उदाहरण के लिए एक प्रयोग के दौरान मनोविद् लारेंस डी. वैलेस ने तनाव, आशंका, भयजनित पीड़ाओं से ग्रस्त कुछ ऐसे व्यक्तियों को लिया, जिनका संसार दु:ख से भरा था। उन्हें सामूहिक रूप से इस भाव में विभोर होने को कहा गया- समूची सृष्टि शान्ति-प्रेम व आनन्द की तरंगों से भरी है। ये तरंगे स्वयं में समा रही हैं और व्यक्तित्व को इन्हीं भावों से भर रही हैं। धीरे-धीरे स्वयं के अस्तित्व के रोम-रोम से यही भाव निकलकर सारे समाज में फैल रहे हैं। इन भावों की गहराई में स्वयं को समाहित करने में शुरूआत में थोड़ी कठिनाई हुई, ईर्ष्या-द्वेष की विक्षुब्धता एवं मन के बिखराव ने बाधा डाली, किन्तु तीन-चार दिनों में सभी को इसमें रस आने लगा। स्वयं में परिवर्तन की भी अनुभूति हुई। इस प्रयोग मे लिये गये पचास व्यक्तियों ने धीरे-धारे जीवन रस को अनुभव किया। जिस जिन्दगी से वे निराश हो गये थे, उसमें अमृत-रस- वर्षण की अनुभूति हुई।

लारेन्स डी. वैलेस ने अपने इन्हीं प्रयोगों की श्रृंखला में एक और प्रयोग किया। ऐसे व्यक्ति, जो किसी व्यक्ति विशेष से आशंकित अथवा भयग्रस्त थे, इनसे उपर्युक्त भाव में तल्लीन होने के साथ यह निर्देश दिया गया कि स्वयं के अस्तित्व से विकसित होकर ये भाव उस व्यक्ति विशेष में प्रवेश कर रहे हैं। उसका व्यक्तित्व घृणा-विद्वेष के स्थान पर शान्ति-प्रेम-आनन्द से भर रहा है। इस प्रयोग के परिणाम उन्हें प्रयोग में लिए गये व्यक्तियों के मन की समर्थता के क्रम में प्राप्त हुए। जिस व्यक्ति का मन जितना अधिक समर्थ था, उसने उतनी ही गहनता से इन भावों को सम्प्रेषित किया गया था, जिस व्यक्ति में सम्प्रेषण किया गया था, उसनें स्वयं की भावनाओं में परिवर्तन की अनुभूतियाँ कीं। कई बार तो ये अनुभव स्थायी प्रेम में बदल गये।

इन सफलताओं के क्रम में वैलेस ने एक आयाम विकसित किया। इस क्रम में लगभग एक मन:स्थिति के भाव-सम्पन्न लोगों को लेकर कई शहरों में स्थान-स्थान पर शान्ति-सभाओं का आयोजन किया, जिससे प्रयोग- कर्त्ताओं ने शान्ति-प्रेम, आनन्द की भाव-तरंगों को धारण-सम्प्रेषण का प्रयोग गहरी तल्लीनता-तन्मयता के साथ किया गया। प्रयोग के पहले उन स्थानों की अपराध दर-आत्महत्या दर, जैसे ऑकलन किये गये थे, बाद में इनके घटते क्रम की सुखद अनुभूति हुई। इन सभी प्रयोगों से वैज्ञानिक विधि का पूरा-पूरा पालन किया गया। परिणामों का ऑकलन भी सांख्यकीय गणना प्रणाली से किया गया।

उक्त प्रयोग ऋषियों द्वारा किये गये प्रयोगों की तुलना चाहे जितने हल्के कहे जाएँ, किन्तु उनसे अब भी भाव-प्रवाहों की क्षमता तो, प्रमाणित हो ही जाती है। प्रकृति की इस व्यवस्था का लाभ आज भी इस विद्या को विकसित करके उटाया जा सकता है।

भावों को उभारने और सम्प्रेषित करने में गायन का महत्त्व हमेशा रहा है और आज भी हैं। वेद ने भी इसीलिए उसका उपयोग विशेषज्ञता के साथ किया है। अभिव्यक्ति के तीन माध्यमों (1) गद्य, (2) पद्य और (3) गायन में, गायन को भाव-विद्या से सबसे अग्रणी देखकर उसे विशेष महत्त्व दिया गया। ज्ञान की अभिव्यक्ति की उक्त तीन विधाओं के कारण वेद को तीन प्रवाहों-युक्त ‘‘वेद त्रयी’’ कहा गया। यह विभाजन इन तीन विधाओं के आधार पर है, न कि पुस्तकाकार संकलनों के आधार पर। पुस्तकाकार संकलन विषयानुसार भले ही चार भागों में किये गये हैं, किन्तु वे इन्हीं तीन धाराओं के अंतर्गत आ जाते हैं।

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