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पं.दीनदयाल उपाध्याय

हरीश दत्त शर्मा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3634
आईएसबीएन :81-288-1035-9

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पं.दीनदयाल उपाध्याय के जीवन पर आधारित पर आधारित पुस्तक..

Pandit Deendayal Upadhaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे महान व्यक्तित्व के बारे में जितनी भी प्रशंसा की जाए या लिखा जाए वह वास्तव में बहुत थोड़ी होगी। कौन है इनके जैसा त्यागी, देश भक्त और संघर्षशील आत्मा, शायद कोई नहीं। जितना इन्होंने देश के लिए सहयोग व समर्पण किया, उसकी गुण गाथा गाई नहीं जा सकती।

पं. उपाध्याय एक महान देशभक्त, कुशल संगठनकर्ता, मौलिक विचारक, दूरदर्शी, राजनीतिज्ञ और प्रबुद्ध साहित्यकार थे। सादा जीवन उच्च विचार की जीती जागती प्रतिमा थे। सनातन संस्कृति के प्रतिनिधि और संदेश-वाहक थे। आज प्रत्येक भारतीय इनके त्यागमय जीवन का ऋणी है।

पं. दीनदयाल जी के व्यक्तित्व को शब्दों में पिरो पाना बड़ा कठिन है। वे एक कुशल संचालक, लेखक, पत्रकार, राज्ञनीतिज्ञ, संगठनकर्ता आदि थे। वे बहुत ही साधारण से दिखने वाले व्यक्ति थे। धोती-कुर्ता पहनते थे अर्थात साधारण पुरुष थे लेकिन इस साधारण पुरुष में असाधारण विद्वता, महानता का पूर्ण समावेश था। उन्हें बाह्य आडम्बरों से कोई लेना-देना नहीं था। समाज का उत्थान उनका सर्वोपरि गुण था। वे कहते थे कि मनुष्य जन्म से नहीं अपितु कर्म से महान बनता है। कम बोलना, अधिक सुनना उनका विशेष गुण था।

अपनी बात


भारत वर्ष के अनेक महापुरुषों की कड़ी में से एक मनके हैं- पं. दीनदयाल उपाध्याय। दीनदयाल जी ने स्वयं को मानव-सेवा, समाज-सेवा और देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया था। आज देश के सामने अनेक समस्याएँ हैं, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है, सामाजिक दायरे सिकुड़ रहे हैं- ऐसे में उचित मार्गदर्शन के लिए पं. दीनदयाल जैसे महापुरुषों की जीवनियाँ प्रेरणास्रोत हो सकती हैं।

पं. दीनदयालजी सरल स्वभाव के व्यक्तित्व थे। उनकी कथनी और करनी में तनिक भी भिन्नता नहीं थी। वैसे तो पं. दीनदयाल जी के जीवन के विषय में अधिक पुस्तकें उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन उन्होंने स्वयं जो लिखा वह उनके विचारों के रूप में हमारे लिए अमूल्य धरोहर है। उनके असामयिक अंत में राष्ट्र की बड़ी क्षति हुई, क्योंकि उनके जैसे नेता बहुत विरले ही होते हैं जो अपना जीवन राष्ट्रहित के लिए समर्पित कर देते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में उनके समग्र जीवन पर एक दृष्टि डाली गयी है। आशा है, पाठकों को यह  पुस्तक उपयोगी लगेगी।

-हरीश दत्त शर्मा

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पं. दीनदयाल उपाध्याय : जीवन परिचय


स्वर्ण, अग्नि में तपकर कुन्दन बनता है अर्थात स्वर्ण तप कर ही उस आकार में ढलता है जिसे साधारण करने से धारण करने वाले व्यक्तित्व में चार चाँद लग जाते हैं लेकिन स्वर्ण को धारण करने योग्य बनाने के लिए पहले अग्नि में तपना पड़ता है।
उसी प्रकार जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे भी सरलता से महान नहीं हुए हैं और न ही ऐसे बने हैं कि लोग उनके आदर्शों को जीवन में उतारें। उन्होंने अपने जीवन को जिन्दगी की भट्ठी में झोंक दिया। तब वे महान व्यक्ति कहलाए और लोगों ने

 उनके कार्यों, उनके आदर्शों को अपनाया। अर्थात महान त्याग करके महान बना जाता है। महानता कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे बाजार से खरीदा जाए और महान बना जाए। इन्हीं महान पुरुषों की श्रृंखला में एक महान पुरुष थे- ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय।


जन्म-



पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म आश्वनि कृष्णा त्रयोदशी, सोमवार संवत 1973; ईस्वी सन् के अनुसार, 25 सितम्बर, 1916 को हुआ था। इनका जन्म इनके नाना पंडित चुन्नीलाल जी के यहाँ धनकिया नामक ग्राम में हुआ था।


पारिवारिक पृष्ठभूमि-

पं. चुन्नीलाल शुक्ल राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में रहते थे। यह जयपुर अजमेर रेलमार्ग पर बसा हुआ छोटा-सा ग्राम है। पं.चुन्नीलाल इसी ग्राम के रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। इनके पिता का नाम श्री भगवती प्रसाद उपाध्याय था। वे मथुरा जिले के फराह नामक गाँव के रहने वाले थे। वे भी स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। वे मथुरा में जलेसर मार्ग पर स्थित स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे। इनकी माता का नाम श्रीमती रामप्यारी था। वे धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। दीनदयाल जी के दादा पं. हरिराम अपने समय के प्रकाण्ड ज्योतिषी थे।


भविष्यवाणी


दीनदयाल जी के जन्म के कुछ दिन बाद पं. चुन्नीलाल शुक्ल के मन में अपने नाती का भविष्य जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने एक ज्योतिषाचार्य को बुलवाकर बालक का भविष्य बताने के लिए कहा।

बालक दीनदयाल के ग्रह नक्षत्रों का गहन अध्ययन करने के बाद ज्योतिषाचार्य गम्भीर स्वर में बोले-‘‘निश्चय ही यह बालक अद्भुत व्यक्तित्व और तीव्र बुद्धि का स्वामी होगा साथ ही बड़ा प्रतिभाशाली और विद्वान होगा। सेवा, दया और मानवता के गुण इसमें कूट-कूटकर भरे होंगे। अपनी विलक्षण प्रतिभा और विद्वता के आधार पर यह बालक युग पुरुष के रूप में उभरेगा और देश-विदेश में अतुलनीय सम्मान प्राप्त करेगा। इतिहास के पन्नों में इसका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा किंतु...।’’

नाती के विलक्षण गुणों, अपूर्व तेज और उज्जवल  भविष्य के विषय में सुनकर पं.चुन्नीलाल बड़े भाव- विभोर हो रहे थे। प्रसन्नता की अधिकता से उनकी आँखें छलक रही थीं। चंद लम्हों में ही उन्होंने न जाने कितने स्वप्न देख डाले थे। लेकिन ज्योतिषाचार्य के मुँह से निकला ‘किंतु’ शब्द उन्हें कल्पना लोक से वास्तविकता के धरातल पर ले आया और वे किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो उठे। उन्होंने ज्योतिषाचार्य से ‘किंतु’ का अर्थ पूछा। ज्योतिषाचार्य बोले -‘‘यजमान ! ग्रह-नक्षत्रों के अनुसार यह बालक जीवन में कभी विवाह नहीं करेगा। इसकी कुण्डली में आजीवन अविवाहित रहने का योग है।’’
यह बात सुनकर चुन्नीलाल जी का मन दुःख और पीड़ा से भर आया। किंतु फिर उन्होंने स्वयं को दिलासा दिया और यह सोचकर संतोष कर लिया कि ‘बड़ा होने पर समझा-बुझाकर विवाह करा देंगे।’

‘महापुरुष-सेवा, मानवता की रक्षा और समाज के उद्धार के लिए जन्म लेते हैं, कि स्वयं के सुखों के लिए। दीनदयाल जी ने भी अपना सम्पूर्ण जीवन इन्हीं उद्देश्यों के लिए समर्पित कर, ज्योतिषाचार्य की एक-एक बात को अक्षरशः सत्य सिद्ध कर दिखाया।


दीना और शिव


पं. दीनदयाल उपाध्याय का परिवारिक नाम ‘दीना’ था। बचपन में सभी उन्हें स्नेह से दीना कहकर ही पुकारते थे। दीना के जन्म के लगभग दो वर्ष बाद इनकी माता रामप्यारी ने एक और पुत्र को जन्म दिया। इस बालक का नाम ‘शिवदयाल’ रखा गया तथा पारिवारिक नाम दिया गया-‘शिव’। इस प्रकार दीना अपने परिवार के साथ जीवन के मार्ग पर आगे  बढ़ने लगा।


समय के क्रूर प्रहार


कहते हैं कि समय बड़ा बलवान होता है। इसके प्रहारों से शक्तिशाली और तेजस्वी व्यक्ति भी बलहीन, आश्रयहीन और तेजहीन होकर नष्ट हो जाता है। केवल उसी का अस्तित्व बचता है जो इसके कठोर प्रहारों को धैर्य त्याग और शांत भाव से सहन कर ले। इसके परिणाम स्वरूप वह व्यक्ति यश, विद्वता और सम्मान को उस शिखर पर प्रतिष्ठित होता है, जहाँ पहुँचने की केवल कल्पना ही की जा सकती है।

कुछ इसी तरह की विषम परिस्थितियाँ दीनदयाल जी  के सामने भी उपस्थित हुईं। समय का पहला क्रूर प्रहार उन्हें तब झेलना पड़ा, जब वे मात्र ढाई वर्ष के थे। नवरात्रि के दिन चल रहे थे। चतुर्थी को इनके पिता पं. भगवती प्रसाद उपाध्याय किसी के घर भोजन करने गए। किंतु वहाँ काल उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने जैसे ही भोजन आरम्भ किया, वैसे ही मृत्यु ने उन्हें अपनी आगोश में ले लिया। किसी ने उनके भोजन में विष मिला दिया था, जिससे उनकी मृत्यु हो गयी।
दीनदयाल एवं शिवदयाल के सिर से पिता का साय उठ गया और वे पितृ-प्रेम से वंचित हो गये। उनकी माता दोनों बच्चों को साथ लेकर अपने पिता के घर आ गयीं और वहीं रह कर दोनों का लालन-पालन करने लगीं।

किंतु काल की क्रूर दृष्टि इनके परिवार पर पड़ चुकी थी। अतृप्त मृत्यु मुख खोलकर अपना भोजन माँग रही थी। अततः दीनदयाल पर एक और वज्राघात हुआ। 8 अगस्त, 1924 को इनकी माता रामप्यारी दोनों पुत्रों को छोड़कर ब्रह्म में लीन हो गईं। उस समय दीनदयाल केवल आठ वर्ष के और शिवदयाल साढ़े छः वर्ष के थे। इस प्रकार दोनों बालक बाल्यकाल में ही माता-पिता के स्नेह से वंचित होकर अनाथ हो गए थे। इनके मामा का स्नेह इन दोनों पर अधिक था, अतः अब वे दोनों मामा की छत्रछाया में पलने लगे।

काल की क्रीड़ा का अन्तिम चरण अभी शेष था। वह दीनदयाल जी के सभी सांसारिक बंधन तोड़ देना चाहता था। सन 1934 की कर्तिक कृष्ण एकादशी (18 नवम्बर, 1934) को छोटे भाई शिवदयाल की ‘नमोनिया’ से मृत्यु हो गई। अब दीनदयाल जी संसार में अकेले रह गये थे। किंतु ननिहाल के लोगों ने उन्हें अकेले नहीं रहने दिया और पूर्ण वात्सल्यभाव से उनका पालन-पोषण किया।


छात्र जीवन एवं शिक्षा


दीना जी की माता के स्वर्गवास के बाद इनका पालन-पोषण इनके मामा श्री राधारमण शुक्ल ने किया। वे गंगापुर (राजस्थान) स्टेशन पर मालगार्ड के रूप में कार्यरत थे। दीनदयाल जी यहीं उनके साथ गंगापुर में रहे और उन्होंने अपनी छठीं कक्षा तक की शिक्षा यहीं पूर्ण की। सातवीं कक्षा में प्रवेश के लिए उन्हें राजस्थान के कोटा शहर में भेज दिया गया। वहाँ वे छात्रावास में रहे।

उनके चचेरे मामा श्री नारायण शुक्ल रामगढ़ में रहते थे और वे भी वहाँ स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे, अतः जब दीनदयाल जी ने कक्षा सातवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की तब उन्हें रायगढ़ में अपने चचेरे मामा के यहाँ आना पड़ा। यहाँ उन्होंने आठवीं कक्षा में प्रवेश लिया और यहाँ से आठवी कक्षा उत्तीर्ण की।

आगे की शिक्षा के लिए राजस्थान के सीकर ज़िले में जाना पड़ा। यहाँ उन्होंने ‘कल्याण’ हाई स्कूल में नवीं कक्षा में प्रवेश लिया। यहाँ दसवीं कक्षा में वे सर्वप्रथम आये। यह परीक्षा उन्होंने वर्ष 1935 में राजस्थान बोर्ड से उत्तीर्ण की। उनकी इस प्रतिभा के कारण विद्यालय एवं बोर्ड ने पुरस्कार स्वरुप उन्हें दो स्वर्ण पदक दिये। इतना ही नहीं सीकर के महाराज ने भी उनकी प्रतिभा से प्रसन्न होकर उन्हें दो सौ पचास रुपये नगद पुरस्कार स्वरूप दिए एवं दस रुपए माहवार की छात्रवृत्ति प्रदान की। उनकी लगन और मेहनत उन्हें निरन्तर आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती रही।

स्नातक की पढ़ाई के लिए दीनदयालजी कानपुर पहुँचे। यहाँ उन्होंने कानपुर के सनातन धर्म कॉलेज में बी.ए. करने के लिए प्रवेश लिया। यहाँ भी ये छात्रावास में रहे।

प्रायः वे पढ़ाई मे डूबे रहते थे। जब भी छात्र नियमानुसार छात्रावास की बत्तियाँ (लाईट) बन्द कर देते थे और सो जाते थे, तब दीनदयाल जी लालटेन जलाकर अध्ययन में लगे रहते थे। तभी उनकी मेहनत रंग लाती थी। कानपुर में बी.ए. की परीक्षा में भी वे सर्वप्रथम आए। उनकी इस उत्कृष्ट प्रतिभा के फलस्वरूप कालेज से उन्हें तीस रुपए मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी। वे अपनी शिक्षा इसी छात्रवृत्ति से पूर्ण कर रहे थे।

बी.ए. की शिक्षा पूरी करने के बाद एम.ए. करने के लिए दीनदयाल जी आगरा पहुँचे। यहाँ उन्होंने अंग्रेजी विषय में अध्ययन के लिए आगरा के ‘सेंट जॉन्स कॉलेज’ में प्रवेश लिया। यहाँ भी उन्होंने अपनी अनूठी प्रतिभा और लगन का प्रदर्शन किया। वर्ष 1939 में एम.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा में वे सर्वप्रथम आए। अब एम.ए. द्वितीय वर्ष के लिए प्रवेश लिया।

 अध्ययन प्रारम्भ किया। लेकिन यहाँ उनकी आगे की शिक्षा में व्यवधान उत्पन्न हो गई। उनके मामा श्री  नारायण की पुत्री अर्थात उनकी ममेरी बहन रामदेवी को खराब स्वास्थ्य के चलते आगरा अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ के लिए लाया गया। यहाँ दीनदयाल ने अपनी ज़िम्मेदारी को पूर्ण रूप से निभाया और बहन की सेवा में लग गए। लेकिन फिर भी उनकी बहन बच न सकीं और एक दिन उनकी मृत्यु हो गई।

दीनदयाल जी दुःखी हो गए और एम.ए. द्वितीय वर्ष की परीक्षा नहीं दे सके। लेकिन उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि उन्होंने अपनी बहन के प्रति पूर्ण निष्ठा से अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह किया। अब उन्होंने प्रयाग के गवर्नमेंट ट्रेनिंग कॉलेज में प्रवेश लेकर एल.टी. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

इस प्रकार पं. दीनदयाल उपाध्याय जी की शिक्षा का क्रम आगे बढ़ता गया। उन्होंने मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी। जी-जान से मेहनत करते गए। बचपन से ही सिर पर पहाड़ टूटते रहे, कठिनाइयाँ आती रहीं, लेकिन भाग्य भी उनका साथ देता रहा, और वे अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते चले गए। छात्रवृत्ति मिलती रही और इसके बल पर ही शिक्षा का क्रम चलता रहा। दीनदायल जी मेधावी छात्र होने के साथ-साथ अपनी नेतृत्व क्षमता के कारण भी प्रसिद्ध थे। वे कॉलेज के

 छात्रों को निर्देश देते रहते थे। समय-समय पर उन्हें अपने नेतृत्व द्वारा संचालित करते रहते थे। उन्होंने प्रारंभिक से अंत तक की शिक्षा अनेक स्थानों पर जाकर प्राप्त की। इसके लिए उन्हें राजस्थान जो कि अपने पराक्रम के लिए प्रसिद्ध है वहाँ पढ़ाई की। और फिर राजस्थान तो उनकी जन्मभूमि भी थी, साहस, पराक्रम उनमें स्वाभाविक तौर पर था। इसी प्रकार

 कानपुर जोकि क्रांतिकारियों का तीर्थ था, उन्होंने पढ़ाई की और क्रांतिकारियों की महक से भी वे अछूते नहीं रह सके। तत्पश्चात तीर्थराज प्रयाग में शिक्षा के लिए पहुँचे वहाँ भी इन्हें गंगा के पावन तट पर सान्निध्य प्राप्त हुआ। इस प्रकार दीनदयाल को इतना सभी कुछ समयानुसार प्राप्त होता रहा और वे भी उसे सरलता से प्राप्त करते रहे।


विवाह


जैसा कि ज्योतिषी ने इनके नाना श्री चुन्नीलाल जी से कह दिया था कि दीनदयाल जी आजीवन अविवाहित रहेंगे, वैसा ही हुआ। यूँ तो उनके मामा-मामी ने अनेक बार उन्हें विवाह करने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने अपनी चतुराई से मामा-मामी को इस प्रकार संतुष्ट किया कि उन्होंने दीनदयाल जी से फिर कभी विवाह के लिए नहीं कहा।

पं.दीनदयाल जी ने अपनी पुस्तक ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ के अंतर्गत संन्यास ग्रहण के सम्बन्ध में विचार प्रकट किये हैं और इन विचारों का उन्होंने शंकराचार्य जी के मुख से उद्बोधन करवाया है। वे इस प्रकार हैं—

‘‘हे  माँ ! पितृऋण है और उसी को चुकाने के लिए मैं संन्यास ग्रहण करना चाहता हूँ। पिताजी ने जिस धर्म को जीवन भर निभाया, वह धर्म यदि नष्ट हो गया तो बताओ माँ ! क्या उन्हें दुःख नहीं होगा ? उस धर्म की रक्षा से उन्हें शांति मिल सकती है और फिर अपने बाबा और उनके बाबा की ओर देखो। हज़ारों वर्ष का चित्र आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है।

 भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म की रक्षा के लिए स्वयं के जीवन को दाँव पर लगा दिया, कौरवों-पांडवों में युद्ध करवाया। अपने जीवन में धर्म की स्थापना कर गए, पर लोग धीरे-धीरे भूलने लगे। शाक्यमुनि के काल तक फिर धर्म में बुराइयाँ आ गईं। उन्होंने भी बुराइयाँ दूर करने का प्रयत्न किया, पर अब आज उनके सच्चे अभिप्राय को भी लोग भूल गए हैं। माँ ! इन सब पूर्वजों का हमारे ऊपर ऋण है अथवा नहीं ?

यदि हिन्दू समाज नष्ट हो गया, हिन्दू धर्म नष्ट हो गया तो फिर तू ही बता माँ, कोई दो हाथ दो पैर वाला तेरे वश में हुआ तो क्या तुझे वह पानी भी देगा ? कभी तेरा नाम लेगा ?’’
इस प्रकार उन्होंने यह तर्क अपने विवाह न करने के सम्बन्ध में प्रस्तुत किया।


पं.दीनदयाल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ


पं.दीनदयाल उपाध्याय ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में एक सेवक की भाँति प्रवेश किया और वे अपनी  प्रतिभा के बल पर एक दिन संघ के अध्यक्ष पद तक पहुँचे।
पिलानी में दीनदयाल जी के एक मित्र थे—बलवंत महाशिन्दे। वैसे तो वे इन्दौर के रहने वाले थे, लेकिन पिलानी से वे दीनदयाल जी के साथ अध्ययन करने कानपुर आए थे। उनकी अटूट मित्रता थी।

उन्हीं बलवंत जी की प्रेरणा से दीनदयाल जी ने अपने कदम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर बढ़ाए। वैसे मुख्य रुप से दीनदयाल जी का संघ में प्रवेश का श्रेय श्री भाऊराव जी देवरस को जाता है।
वर्ष 1937 में जनवरी 14 अर्थात मकर संक्रांति के दिन दीनदयालजी ने संघ की प्रतिज्ञा ली क्योंकि यह वह शुभ अवसर था जब मकर संक्रांति के दिन उत्सव था और इसी दिन पं.सातनलेकर द्वारा संघ की कानपुर शाखा को ध्वज भेंट किया जा रहा था। यहाँ उनका संघ से साथ प्रारम्भ हुआ और संघ के लिए कर्तव्यनिष्ठता से कार्य करने का कार्य।

इस समय वे बी.ए. में अध्ययन कर रहे थे, छात्रावास में रहते थे और छात्रावास में ही शाखा लगाई जाती थी। लेकिन कुछ समय पश्चात शाखा छात्रावास में न लग कर कानपुर के नवाबगंज नामक स्थान में लगने लगी। दीनदयाल जी ने पूर्ण निष्ठा से अपना जीवन इसमें लगाने का निर्णय लिया। वर्ष 1939 में जब एम.ए. करने के लिए वे आगरा आए तो वहाँ भी उन्होंने संघ के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूर्ण रुप से निभायी और आगरा के राजा की मंडी नामक स्थान पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ

 की एक शाखा को स्थापित किया। लोगों को संघ के साथ जोड़ा, संघ के कार्य आगे बढ़ाए। वे अपनी मेहनत व लगन से संघ के कार्यों में लग गए। उनकी ख्याति संघ में बढ़ती गयी। दीनदयाल जी सहृदयी, मिलनसार व्यक्तित्व के धनी थे। लोग उनके व्यवहार से मंत्रमुग्ध हो जाते थे। उसी समय उत्तर प्रदेश से माननीय वापु राव मोघे, नानाजी देशमुख, बापू जोशी आदि बड़े-बड़े संघ के  नेता संघ के कार्य के लिए आए हुए थे। दीनदयाल जी को उनका सान्निध्य प्राप्त हुआ। उन्होंने भी उनकी प्रशंसा की।
वर्ष 1942 में उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले में दीनदयाल जी को संघ का प्रचार करने के लिए भेजा गया। उन्होंने वहाँ से प्रचारक के रुप में अपना कार्य प्रारम्भ किया। यहाँ भी अपनी व्यवहार कुशलता एवं प्रतिभा से उन्होंने लोगों के हृदय में जगह बना ली। वे यहाँ पर पं. रामनारायण मिश्र के ही यहाँ रहते थे। यहाँ दीनदयाल जी ने लोगों को संघ के प्रति आकर्षित किया और सैकड़ों लोग संघ से जुड़ने लगे।


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