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साधना के आयाम

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :146
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3637
आईएसबीएन :81-288-1090-1

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ओशो के सहज प्रवचनों का संकलन...

Sadhana Ke Aayam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘‘मैं नहीं जानता कि ओशो किस धर्म के प्रणेता हैं लेकिन ज्ञान के क्षेत्र में जागृति और क्रांति की जिस जाज्वल्मान मशाल को लेकर इस सदी में साहसपूर्ण कदमों से आगे बढ़े हैं। उनकी गति से पक्ष या विपक्ष रूप में सारे संसार को प्रभावित देखकर मैं अंत में उनके प्रति इतना ही कहूंगा—
धर्म तेरा नहीं लेकिन तू धर्मों का सरताज है।
तेरी वाणी में वीणा की झंकार है गीत का साज है।
आज दुनिया को तेरी जरूरत है ये दुनिया जानेगी कल। सत्य कहता हूं मैं तेरी अवाज ईश्वर की आवाज है।’’

ओमप्रकाश आदित्य

साधना के साधन


‘‘बीसवीं सदी के जिस परम पुरुष ने आगम को सुगम, कठिन को सरल और नीरस को सरस करके ज्ञान और दर्शन के जटिल कपाट अपनी व्याख्या के एक-एक पृष्ठ खोलकर स्पष्ट रूप से प्रभुसत्ता की झलक को रूपायित कर दिया है, उसकी भूमिका में मैं क्या लिखूँ, और किस सामर्थ्य या अधिकार से लिखूँ ! क्योंकि उपनिषदों की चर्चा, व्याख्या, अर्थ या उनके संबंध में जो भी हो, कहने का अधिकारी वही हो सकता है, इस गहनतम ज्ञान-वाङ्मय पर वही कुछ कह-सुन सकता है जो उनके रचयिता साधकों को आत्यंतिक पहुंच तक किंचित मात्र तो पहुँच ही चुका हो।
ओशो वहीं पहुँचकर बोलते हैं यानी सातवें द्वार के झरोखे से झांककर जगत की गतिविधियों का लेखा-जोखा लेते हैं। इसलिए लगता है कि इस उपनिषद की व्याख्या करते समय उनके श्रीमुख से स्वयं वे मंत्र अपनी व्याख्या करने को उत्सुक, विह्वल और आतुर होकर पुस्तक के पृष्ठों पर मुखरित हो उठे हैं।’’


ओमप्रकाश आदित्य

1
वही तुम हो, तुम वही हो



यत्परं ब्रह्मा सर्वात्मा विश्वस्यायतनं महत्।
सूक्ष्मात् सूक्ष्तरं नित्यं तत्त्वमेव तत्।।16।।
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तादि प्रपंचं यत्प्रकाशते।
तद् ब्रह्माहमिति ज्ञात्वा सर्वबन्धैः प्रमुच्यते।।17।।


जिस परब्रह्म का कभी नाश नहीं होता, जो सूक्ष्मतम से भी सूक्ष्म है, जो संसार के समस्त कार्य और कारण का आधारभूत है, जो सब भूतों की आत्मा है, वही तुम हो, तुम वही हो।।16।
जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में जो मायिक प्रपंच दिखायी देते हैं वे सब ब्रह्म द्वारा ही प्रकाशित होते हैं और वह ब्रह्म मैं ही हूं—ऐसा जो जान लेता है, वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।।17।।
साधना के दो भाग हैं। समस्त प्रयासों के ही दो भाग होते हैं। एक भाग, जिसमें जो असार है उसे छोड़ना होता है, त्यागना होता, उससे तादात्म्य तोड़ना होता है और दूसरा भाग, जो सार है उसके साथ एकात्म, उसके साथ तादात्म्य जोड़ना पड़ता है। पहला भाग निषेध है, दूसरा भाग विधेय है।

असत्य को असत्य की तरह जानना पड़ेगा। तभी हम सत्य को सत्य की तरह जान पाएंगे। प्रकाश को भी जानना हो तो पहले अंधेरे को जानना पड़ेगा, तो ही हम प्रकाश को जान पाएंगे। जीवन को भी पहचानना हो तो मौत की भी पहचान बनानी पड़ेगी, तो ही जीवन हमारे खयाल में आएगा। क्योंकि जो भी हमारे खयाल में आता है, उसे खयाल में आने के लिए विपरीत का भी हमारी  दृष्टि में होना जरूरी है। अंधेरी रात होती है तो तारे चमकते हैं। दिन के प्रकाश में भी तारे होते हैं, लेकिन दिखायी नहीं पड़ते। चमकना तो दूर, दिखायी भी नहीं पड़ते। तारे अभी भी आपके ऊपर आकाश में फैले हुए हैं। तारे तो कहीं चले नहीं जाते। कोई सुबह होते से तारे कहीं विलीन नहीं हो जाते हैं लेकिन सूरज के प्रकाश की पर्त, फिर उन तारों की झलक असंभव हो जाती है। तारों को जानना हो तो रात का गहन अंधेरा जानना चाहिए, तब वे दिखायी पड़ते हैं। और जितना हो गहन अंधेरा, उतने प्रकट होकर, स्पष्ट होकर दिखायी पड़ते हैं।
विपरीत में ही बोध है।

इससे एक बहुत मजेदार बात खयाल में ले लें, फिर हम इस सूत्र में चलें। जिन चीजों को हम विपरीत कहते हैं, वे विपरीत कहने से सहयोगी हो जाती हैं। उनके भीतर आंतरिक मैत्री बन जाती है। रात का अंधेरा तारों का दुश्मन नहीं है, तारों का मित्र है। क्योंकि उस अंधेरे के बिना तारे प्रकट नहीं होते।
फिर तो मृत्यु भी जीवन की दुश्मन नहीं है। फिर तो मृत्यु भी जीवन की मित्र है। क्योंकि मृत्यु के बिना जीवन भी प्रकट नहीं हो सकता। ऐसा अगर देखेंगे तो समझ में आएगा कि जिसे हम शत्रु कहते हैं, वह भी हमारी नासमझी का ही हिस्सा है।

जिसे हम बुरा कहते हैं वह भी हमारी नामसमझी का हिस्सा है।
इस जगत में सभी विपरीत अंतस में सहयोगी हैं। रावण के बिना राम नहीं हो पाते और न राम के बिना रावण हो पाता। अगर राम को भी जानना हो तो यहीं से शुरू करना पड़ेगा कि रावण क्या है ? क्योंकि जो-जो रावण है, वह राम नहीं है। मनुष्य का आंतरिक यथार्थ क्या-क्या नहीं है। जाग्रत जो है, वह भी वह नहीं है। स्वप्न जो है, वह भी वह नहीं है। सुषुप्ति जो है, वह भी वह नहीं है। यह जो दिखायी पड़ता है, प्रपंच यह माया है, यह भी वह नहीं है। अभी तक हमने वह क्या नहीं है इस संबंध में चर्चा की है। इस सूत्र के साथ विधायक बात शुरू होती है—वह क्या है ?

और ध्यान रहे, निषेध की बात पहले करनी पड़ती है। निषेध की रेखाओं के बीच में ही विधेय उभरता है। अगर देखना हो कोई पर्वत-शिखर तो उन खाइयों को न भूलना जो उसे चारों तरफ से घेरे हुए हैं। कैसे उनके बीच ही वह उभरता है। अगर खाइयां मिटा दें, शिखर मिट जाए। खाइयां बड़ी करो, शिखर बड़ा होता चला जाएगा। वह जो खाई है, वह शिखर की दिशा में नहीं, उलटी दिखायी पड़ती है। वह सहयोगी है। वह चारों तरफ से उसकी रेखा निर्मित करती है। और जितनी होती है गहरी, उतनी ही शिखर ऊपर उठता जाता है।

निषेध खाई की तरह है। गड्ढा है। इनकार करना होता है पहले कि क्या-क्या मैं नहीं हूं। क्योंकि जब तक भेद स्पष्ट न हो जाए जो-जो मैं नहीं हूं, तो बहुत मुश्किल होगा उसको पकड़ पाना जो मैं हूं। मेरा होना मेरे न होने से घिरा है। और न होना पहले मुझे मिलेगा। फिर होने मुझे मिलेगा। अगर मैं अपनी तरफ जाऊँ अपनी यात्रा पर तो मुझे मेरी खाइयां मिलेंगी। और फिर मुझे मेरा शिखर मिलेगा।
इसे बहुत आयामों में समझ लेना।

अगर मैं अपने भीतर जाऊंगा तो पहले तो मुझे मेरी बुराइयां मिलेंगे। और जो बुराई से डरती हो वह तो फिर कभी भीतर नहीं जा सकेगा। अगर मैं अपने भीतर जाऊंगा तो पहले मुझे सारी बुराइया मिलेंगे। बड़ी ग्लानि  होगी, बड़ी आत्मनिंदा जगेगी। लगेगा मुझसे पापी कौन है। सभी संतों ने जो बातें कहीं हैं, वह आप यह मत समझ लेना कि विनम्रता के कारण कही हैं। अकसर यही समझा जाता है। कबीर ने कहा है, जब मैं खोजने गया तो मुझसे बुरा कोई न पाया। बच्चों को बूढ़े समझाते हैं स्कूल में शिक्षक विद्यार्थियों को समझाते हैं कि यह कबीर कि विनम्रता है। यह विनम्रता नहीं है। इसका विनम्रता से कोई लेना-देना नहीं है। यह कबीर की शोध है।

जब कभी कोई व्यक्ति खोजने जाएगा तो पहले बुराइयों की खाइयां मिलेंगी। और जब बुराइयों की खाइयां पार होंगी तभी भलाई का शिखर आंखों में आएगी। इसलिए जो अपने को भला मानकर बैठा है, वह भीतर जा ही न सकेगा। क्योंकि इसकी भले मानने की मान्यता ही उसको डर पैदा करवा देगी कि यहां भीतर गये तो बुराई मिलती है। जो अपने को अहिंसक मानकर बैठा है, क्योंकि रात भोजन नहीं करता है, पानी छानकर पी लेता है, इतनी सस्ती अहिंसा में जिसने अपने को घेर रखा है, वह जरा भीतर झांकेगा तो हिंसा मिलेगी। वह घबड़ा जाएगा भीतर जाने से। फिर बाहर ही रह आएगा।
हम सब अपने बाहर भटक रहे हैं, क्योंकि हम अपनी बुराई की खाई को पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। साहसपूर्वक जो अपनी बुराई की खाई से गुजर जाता है, वही अपने भलाई के शिखर को उपलब्ध होता है। इसे ऐसा समझें कि जिसे संत होना है, उसे पहले पापी होना पड़ेगा। होना पड़ेगा का मतलब उसे पहले अपने आप की खाइयों से गुजरना पड़ेगा। और जितना बड़ा संत होगा संत, उतनी बड़ी पाप की खाई उसके इर्द-गिर्द होगी क्योंकि वह संतत्व का शिखर पाप की खाई के बिना उभरता नहीं है। है ही नहीं कहीं।

अगर खाई से बचना है तो दो उपाय हैं। या तो खाई में प्रवेश मत करो और खाई के बाहर ही अपनी जिंदगी बिता दो। लेकिन जब शिखर पर भी कभी नहीं पहुंचोगे। और दूसरा उपाय यह है कि शिखर पर पहुंचो, तो फिर खाई से मुक्त हो जाओगे। लेकिन खाई से मुक्त होने के लिए खाई से गुजरना ही पड़ेगा। ईसाई रहस्यवादियों में उसे ‘डार्क नाइट ऑफ दि सोल’ कहा है कि जब भी कोई उस परम प्रकाश कि तरफ जाता है तो पहले उसे महा अंधकारपूर्णँ रात्रि से गुजरना पड़ता है। पुण्य के सभी शिखर पाप की रेखाओं से घिरे हैं। उन रेखाओं से भयभीत मत हो जाना। जानना यह, खयाल रखना यह कि जितनी बड़ी खाई है, उतना ही बड़ा शिखर निकट है। इसलिए न तो निंदा से भरना, ‘न भयभीत होना। न आत्मग्लानि अनुभव करना, न ऐसा समझना कि अब क्या होगा ! मैं तो पापी हूं ! अगर पाप है तो कहीं छिपा पुण्य भी होगा, थोड़ी और यात्रा की बात है। और यहां एक बात और समझ लें।

इस खाई में उतरकर आदमी दो काम कर सकता है। या तो इस खाई से लड़ने लग जाए, जो कि नैतिक आदमी करता है। और या, इस खाई को पार करने लग जाए, जो कि धार्मिक आदमी करता है। और नैतिक आदमी खाई से भी लड़कर खाई में ही उलट जाता है और शिखर तक कभी नहीं पहुंच पाता। धार्मिक आदमी खाई से लड़ता नहीं, स्रिफ खाई से गुजरता है। स्वभावत-अगर खाई से लड़ियेगा तो खाई में ही रुकना पड़ेगा, शिखर पर कैसे जाइयेगा ! जो लड़ेगा, उसे वहीं रुकना पड़ेगा जिससे लगेगा। दुश्मन का तल ही हमारा तल हो जाता है। इसलिए बुरा दुश्मन अगर मिल जाए जिंदगी में तो आदमी बुरा हो जाता है। बुरा मित्र इतना नुकसान नहीं पहुंचा पाता, बुरा दुश्मन बहुत नुकसान पहुंचा देता है।
इसलिए मित्र तो कोई भी चुन लें तो चलेगा। दुश्मन बहुत सोच-समझ कर चुनना चाहिए। क्योंकि उससे लड़ना पड़ेगा, उसी भूमि पर खड़े रहना पड़ेगा। धीरे-धीरे जो भी लोग लड़ते हैं उनका गुणधर्म एक-सा हो जाता है। धीरे-धीरे, दोनों एक-दूसरे को बदलकर उस हालत में ला देते हैं कि दो मित्र भी इतने समान कभी नहीं होते, जितने दो दुश्मन समान होते हैं।

नैतिक व्यक्ति का अर्थ है कि जैसे ही उसे भीतर बुराई दिखाई पड़ती है, जो पहला काम करता है, उससे लड़ने का करता है। बुराई से जब आप लड़ियेगा तो आप हारियेगा। बुराई को जीता नहीं जाता। ये अलग बातें हैं। बुराई को जीता कभी नहीं जाता, बुराई से ऊपर उठा जाता है। और जो ऊपर उठ जाता है वह जीत भी जाता है। क्योंकि जो हमसे नीचे पड़ जाता है, उसके मालिक हो जाते हैं। लेकिन जो बुराई से लड़ता है, समतल भूमि पर खड़ा रहता है। और लड़ने वाला कभी नहीं जीतता। क्योंकि लड़नेवाले का तल वही होता है, जो बुराई का तल होता है। तल की बदलाहट क्रांति है।
तो मेरे भीतर हिंसा है। अगर मैं इससे लड़ूं तो मैं क्या करूंगा ? मैं यही कर सकता हूं कि इसको दबाऊं। उसको भुलाऊं। मैं यह कर सकता हूं कि कुछ अहिंसा आरोपित करूं। और अहिंसा को बढ़ाऊं और हिंसा को दबाऊं लेकिन दबी हुई हिंसा मिटती नहीं है। दबी हुई हिंसा कभी-कभी तो और ही प्रखर हो जाती है, और नये मार्गों से प्रकट होने लगती है।



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