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शिक्षा और विद्रोह

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3638
आईएसबीएन :81-7182-1092-8

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ओशो द्वारा दिये गये शिक्षा पर प्रवचनों का संकलन...

Shiksha aur vidroha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मेरी बातों को मान लेना आवश्यक नहीं है। खतरनाक भी है मान लेना। मानने से बचना ही चाहिए। मेरी बातों को सोचना। हो सकता है, मेरी सारी बातें गलत हों-शायद आप सोचें और पायें कि बातें गलत हैं तो भी आपका लाभ होगा। क्योंकि कुछ बातों को गलत जान लेने से आदमी सही की तरफ बढ़ जाता है। और अगर कोई बात सही मालूम पड़ जाए तो वह मेरी न रह जाएगी, वह आपकी अपनी रह जाएगी। जिसको हम विचारपूर्वक जानते हैं कि सही है, वह उधार नहीं रह जाती। वह स्वयं की हो जाती है। और सिर्फ वे ही सत्य कारगार होते हैं जो स्वयं के हैं। दूसरे के उधार सत्य सिर्फ बोझ बन जाते हैं। मैं आपका बोझ न बनूं, इसकी आखिरी प्रार्थना करता हूँ। पुराने गुरु बहुत बोझ बन गये हैं। अब किसी को सिर पर रखने की जरूरत नहीं है।

शिक्षा और विद्रोह


वही विद्या है, जो विमुक्त करे— विद्या या विमुक्तये।
आज सारे जगत में पिछली किसी भी सदी से ज्यादा विद्या है, ज्यादा शिक्षा है, ज्यादा विद्यालय हैं। लेकिन आज सारे जगत में पिछली किसी सदी से ज्यादा अशान्ति है, ज्यादा दुख है, ज्यादा पीड़ा है। मनुष्य का  जीवन हानि उठाया है। जिसे हम विद्या कहते हैं उससे। और ऐसी विद्या मुक्त कर सकती है ? ऐसी विद्या मुक्त नहीं करती। लेकिन वही हमारे सामने है। हम विद्यावान बनाये लोगों को—इंजीनियर बनाएं, डाक्टर बनाएं, रसज्ञ बनाएं, गणितज्ञ बनाएं। लेकिन ये कोई भी विद्या नहीं हैं।

ये सब आजीविका के साधन और उपाय हैं, विद्या नहीं हैं।
रोजी और रोटी कमा लेने की व्यवस्था हैं, विद्या नहीं। और हम इन बच्चों को यूरोप भेजें और अमरीका भेजें और हम सोचते हों, हम बड़ा काम कर रहे हैं ? हम केवल रोटी कमाने की कुशलता उन्हें सिखा रहे हैं, और कुछ भी नहीं। हम उन्हें विद्या नहीं दे रहे हैं। विद्या से उनका कोई नाता नहीं जोड़ रहे हैं। विद्या का नाता है, जीवन में श्रेष्ठतर मूल्यों का जन्म, हायर वेलूयज।

ओशो

1
प्रेम-केन्द्रित शिक्षा


मेरे प्रिय

मैं बहुत आनंदित हुआ कि युवकों और विद्यार्थियों के बीच थोड़ी-सी बात कहने को मिलेगी। युवकों के लिए जो सबसे पहली बात मुझे खयाल में आती है वह यह है, और फिर उस पर ही मैं कुछ बातें विस्तार से आज आपसे कहूंगा।
जो बूढ़े हैं उनके पीछे दुनिया होती है, उनके लिए अतीत होता है, जो बीत गया वही होता है। बच्चे भविष्य की कल्पना और कामना करते हैं, बूढ़े अतीत की चिंता और विचार करते हैं। जवान के लिए न तो भविष्य होता है और न अतीत होता है, उसे केवल वर्तमान होता है। यदि आप युवक हैं तो आप केवल वर्तमान में जीने की सामर्थ्य से ही युवक होते हैं। यदि आपके मन में भी पीछे का चिंतन चलता है तो आपने बूढ़ा होना शुरू कर दिया। आप अभी भी भविष्य की कल्पनाएं आपके मन में चलती हैं तो अभी आप बच्चे हैं।

युवा अवस्था बीच का एक संतुलन बिंदु है। मन की ऐसी अवस्था है, जब न कोई भविष्य होता है, और न कोई अतीत होता है। जब हम ठीक-ठीक वर्तमान में जीते हैं तो चित्त युवा होता है, यंग होता है, ताजा होता है, जीवित होता है, लिविंग होता है। सच यह है कि वर्तमान के अतिरिक्त और किसी की कोई सत्ता नहीं है। न तो अतीत की कोई सत्ता है, न भविष्य की कोई सत्ता हैं, सत्ता है तो वर्तमान की है। वह जो मौजूद क्षण है, उसकी है।

कितने लोग हैं जो मौजूद क्षण में जीते हों ? जो मौजूद क्षण में जीता है, उसे मैं युवा कहता हूं। जो मौजूद क्षण में जीने के सामर्थ्य को उपलब्ध हो जाता है, उसका मस्तिष्क युवा है; बूढ़ा नहीं है। लेकिन अक्सर यह होता है कि लोग बच्चे से सीधे बूढ़े हो जाते हैं, युवा बहुत कम लोग हो पाते हैं। जरूरी नहीं है कि युवक होना...आवश्यक नहीं है कि आप युवा अवस्था से गुजरें ही—यह अनिवार्य बात नहीं है। और बड़े मजे की बात है, जो एक बार युवा होता है वह बूढ़ा नहीं होता। क्योंकि जिसे युवक होने का राज और सीक्रेट पता चल जाता है उसे बूढ़े होने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। शरीर बूढ़ा होगा, आयेगा और जायेगा लेकिन चित्त एक सतत यौवन में, सतत जवान, सतेज और युवक बना रह सकता है।

तो पहली बात यह कहूं कि केवल इस कारण अपने को युवक मत में समझ लेना कि उम्र बूढ़े और बच्चे के बीच में है। इससे कोई युवा नहीं होता। युवा होना बड़ी गहरी बात है। उसके संबंध में कुछ थोड़ी-सी बात कहूंगा। यह भी कहा कि आप विद्यार्थी हैं, यह भी मुझे नहीं दिखायी पड़ता। अगर दुनिया में विद्यार्थी हों तो ज्ञान बहुत बढ़ जाना चाहिए, लेकिन विद्यार्थी तो बढ़ते जाते हैं, ज्ञान तो बढ़ता नहीं। बल्कि अज्ञान घना होता चला जाता है। विद्यार्थी तो बढ़ते चले जाते हैं, विद्यापीठ बढ़ते चले जाते हैं, लेकिन दुनिया रोज बुरी से बुरी होती चली जाती है। अगर ज्ञान विकसित होता तो परिणाम में दुनिया बेहतर होना चाहिए। अगर मुझे कोई किसी बगिया में ले जाये और कहे कि हमने खूब फूल लगाये हैं, फूल के पौधे बढ़ते चले जाते हैं, फूल लगते चले जाते हैं और बगिया में बदबू बढ़ती चली जाये, गंदगी बढ़ती चली जाये, सुगंध की जगह दुर्गंध बढ़ने लगे तो हैरानी होगी। और हमें पूछना पड़ेगा कि ये पूल और ये पौधे, ये किस भांति बढ़ रहे हैं ? यहां दुर्गंध तो बढ़ती चली जाती है।

विद्यापीठ बढ़ते हैं, पुस्तकें बढ़ती हैं, मैं सुनता हूं कि कोई पांच हजार ग्रंथ प्रति सप्ताह छप जाते हैं। पांच हजार ग्रंथ जिस दुनिया में प्रति सप्ताह बढ़ते हों, रोज-रोज विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती चली जाती हो, लेकिन वह दुनिया तो नीचे गिरती चली जाती हो। वहां के युद्ध और घातक से घातक हुए चले जाते हैं, वहां तो घृणा और व्यापक हुई जाती है, ईर्ष्या और जलन तीव्र हुई जाती है तो जरूर कोई बुनियाद में खराबी है। और इस तरह खराबी का जिम्मा और किसी पर इतना ज्यादा नहीं जितना उन पर, जिनका शिक्षा से संबंध है—चाहे वे शिक्षक हो, चाहे विद्यार्थी हों।

दुनिया ने इधर पांच हजार वर्षों में बहुत-सी क्रांतियां करके देख ली। उसने आर्थिक क्रांतियां की हैं और राजनीतिक क्रांतियां की है, लेकिन अब तक शिक्षा में कोई बुनियादी क्रांति नहीं हुई। और यह विचारणीय हो गया कि शिक्षा में कोई बुनियादी क्रांति हुए बिना  मनुष्य की संस्कृति में कोई क्रांति नहीं हो सकती है ? नहीं हो सकती है !—क्योंकि शिक्षा आपके मस्तिष्क के ढांचे को निर्धारित कर देती है और फिर उस ढांचे से छूटना करीब-करीब कठिन और असंभव हो जाता है। पंद्रह या बीस साल का एक युवक शिक्षा लेगा, पंद्रह बीस साल में उसके मस्तिष्क का ढांचा निर्णीत हो जायेगा। फिर जीवन भर उसी ढांचे, से छूटना बहुत कठिन है। जिसमें साहस है, जिसमें थोड़ी हिम्मत है वे छूट सकते हैं; लेकिन सामान्यता छूट न सकेंगे।
यह ढांचा कहीं गलत तो नहीं है, जो शिक्षा हमें देती है ? निश्चित ही यह ढांचा गलत होना चाहिए क्योंकि परिणाम गलत हैं। और परिणाम ही परीक्षा देते हैं, परिणाम ही बताते हैं कि हम जो कर रहे हैं वह ठीक है या गलत है।

ये बच्चे जो शिक्षित होकर निकलते हैं, ये विकृत मनुष्य होकर निकलते हैं। ऐसा न सोचें कि इसका अर्थ है कि मैं आपसे कहता हूं कि पीछे पुराने दिनों में जो शिक्षा थी, वह अच्छी थी; उस पर लौट आना चाहिए। ये सब नासमझी के बातें है। पीछे लौटना दुनिया में कभी नहीं होता। और पीछे भी कोई बुनियादी रूप से ठीक शिक्षा नहीं है। अन्यथा यह गलत शिक्षा पैदा ही नहीं होती। क्योंकि ठीक से गलत कभी पैदा नहीं होता। गलत से ही गलत पैदा होता रहता है। पीछे भी गलत था, आज भी गलत है।

गलती के कौन-से आधार हैं, वह थोड़ी-सी मैं आपसे बात करूं।
यह हमारी पूरी की पूरी शिक्षा किस केन्द्र पर घूम रही है, वह केन्द्र ही गलत है। उस केन्द्र के कारण सारी तकलीफ पैदा होती है। वह केंद्र है, एम्बिशन। हमारी यह सारी शिक्षा एम्बिशन के केंद्र पर घूमती है, महत्त्वकांक्षा के केंद्र पर घूमती है।

आपको क्या सिखाया जाता है ? हमको क्या सिखाया जाता है ? हमें सिखायी जाती है महत्त्वकांक्षा। हमें सिखाई जाती है एक दौड़, कि आगे हो जाओ; दूसरों से आगे हो जाओ। छोटा-सा बच्चा, के.जी. में पढ़ता है, उसे भी, एक छोटे से बच्चे को भी हम एंग्ज़ाइटि पैदा कर देते हैं—प्रथम होने की एंग्ज़ाइटि। इससे बड़ी कोई एंग्ज़ायटी नहीं है, इससे बड़ी कोई चिंता नहीं है दुनिया में। दुनिया में एक ही चिंता है कि मैं दूसरे से आगे हो जाऊं, दूसरों को कैसे पीछे छोड़ दूं !
छोटा-सा बच्चा है, छोटे-से स्कूल में पढ़ने जाता है। उसके मन में भी हम चिंता का भूत सवार कर देते हैं, उसे भी आगे होना है। वह भी पुरस्कृत होगा, अगर आगे आयेगा। अपमानित होगा अगर द्वितीय आयेगा। अपमानित होगा, अगर असफल होगा। सफल होगा तो सम्मानित होगा। शिक्षक आदर करेंगे, घर में आदर मिलेगा। हम उसके भीतर प्रतियोगिता पैदा कर रहे हैं। और प्रतियोगिता एक तरह का ज्वर है, एक तरह का बुखार है। जरूर ज्वर में ताकत आ जाती है। अगर आप बुखार में हैं तो आप ज्यादा तेजी से दौड़ सकते हैं। अगर आप बुखार में हैं तो ज्यादा तेजी से गालियां बक सकते हैं। अगर आप बुखार में हैं तो आप ऐसी बात कर सकते हैं जो कि आप सामान्यता नहीं कर सकते। बुखार में, एक ज्वर में त्वरा आ जाती है, एक शक्ति आ जाती है।

इस सारी शिक्षा की दौड़ को हमने बुखार पर आधारित किया है। हम कहते हैं कि दूसरे से आगे निकलो। अहंकार को चोंट लगती है बच्चों के। वे दूसरों से आगे होने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। जब वे दूसरों से आगे होना चाहते हैं तो श्रम करते हैं, मेहनत करते हैं, अपनी सारी शक्ति लगा देते हैं, अपने पूरे प्राण जुटा देते हैं।

लेकिन किसलिए ? इसलिए कि उन्हें दूसरों से आगे होना है। एक प्रतिस्पर्धा है, एक कंपटीशन है। यह कंपटीशन का ज्वर उनको पकड़ जाता है। जब वे शिक्षा के जगत से बाहर आते हैं, पढ़-लिखकर बाहर निकलते हैं तब भी ये ज्वर उन्हें पकड़े रहता है। उन्हें दूसरे से बड़ा मकान बनाना है, उन्हें दूसरे से बड़ी दुकान खोलनी है, उन्हें दूसरे से बड़े पद पर पहुंचना है, छोटे क्लर्क को बड़ा क्लर्क होना है, अध्यापक को प्रधान अध्यापक होना है, डिप्टी मिनिस्टर को मिनिस्टर होना है, किसी को राष्ट्रपति होना है किसी को कुछ होना है। एक पागलपन की दौड़ पकड़ती है। फिर जिंदगी भर प्रत्येक को कुछ न कुछ होने का पागलपन सवार रहता है। और इस पागलपन की दौड़ में उनके जीवन की सारी शांति, सारी शक्ति, सारा सामर्थ्य नष्ट हो जाता है।

आखिर में वे क्या पाते हैं ? आखिर में वे कहीं नहीं पहुंचते। क्योंकि वे कहीं भी पहुंच जायें, जहां भी पहुंच जायेंगे, हमेशा उससे आगे उन्हें दिखायी पड़ेंगे। और जब तक उनके कोई आगे है तब तक उन्हें शांति नहीं मिल सकती। और इस दुनिया में अब तक कोई ऐसा आदमी नहीं हुआ जिसे ऐसा अनुभव हुआ हो कि मैं सबके आगे आ गया हूं क्योंकि कुछ लोग हमेशा उससे आगे हैं। यह दुनिया बड़ी है और हम सब एक गोल घेरे में खड़े हैं। अगर हम गोल वृत्त में खड़े हो जायें तो कौन आगे है कौन पीछे है ? हरेक के हर कोई आगे है। तब दौड़ चलती चली जाती है, दौड़ चलती चली जाती है। कभी कोई आदमी सबसे आगे आया है अब तक ? आज तक कोई न कोई आगे आ जाता। हम जरूर चक्कर में खड़े हैं। एक सर्कल में घूम रहे हैं। उसमें कोई न कोई हमारे आगे है हमेशा। दुनिया में अब तक कोई आदमी आगे नहीं आ सका लेकिन फिर भी हम बच्चों को सिखा रहे हैं कि तुम आगे आ जाओ। हम उनको पागलपन सिखा रहे हैं।



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