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ध्यान क्या है

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :70
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3661
आईएसबीएन :81-7182-205-3

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ध्यान तो शुद्ध रूप से एक समझ है। यह प्रश्न केवल शांत होकर बैठ जाने का नहीं है।

dhyan kya hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ध्यान तो शुद्ध रूप से एक समझ है। यह प्रश्न केवल शांत होकर बैठ जाने का नहीं है। न यह प्रश्न मंत्रजाप करने का है। यह प्रश्न तो मन की सूक्ष्म कार्यविधि को समझने का है। यदि तुम मन की कार्यविधि को एक बार समझ गये, तुम्हारे अंदर एक बहुत बड़ी जागरुकता या होश का उदय होता है, जिसका मन से कोई संबंध नहीं। इस जागरुकता का उदय तुम्हारे अस्तित्व से, तुम्हारी आत्मा से और चेतनता से होता है।

प्रस्तावना


अतीत में संसार कुछ और ही था, सरल और स्पष्ट। छः सौ वर्ष पूर्व का लगभग छः सप्ताह जितना इन्द्रिय ज्ञान, अपरिमित ऊर्जा से, अब हम उसे एक दिन में प्राप्त कर सकते हैं। छः सप्ताह जितनी सूचना और जीवन को प्रभावित करने वाली उत्तेजना, अब हम एक दिन में प्राप्त कर लेते हैं सीखने और ग्रहण करने का दबाव, पहले से लगभग चालीस गुना अधिक बढ़ गया है। आधुनिक मनुष्य में अब सीखने की क्षमता इतनी अधिक हो गई है, जितनी पहले कभी नहीं रही, क्योंकि अब सीखने को भी बहुत कुछ है। आधुनिक मनुष्य प्रतिदिन नई परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने में समर्थ हो गया है, क्योंकि संसार में बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहा है। यह एक बहुत बड़ी चुनौती है।

यह बड़ी चुनौती यदि स्वीकार की जाती है, जो यह चेतना के प्रसार में बहुत बड़े पैमाने पर सहायक होगी। आधुनिक मनुष्य या तो पूर्ण रूप से मानसिक रुग्ण होता जा रहा है अथवा इस बड़े दबाव से उसका रूपान्तरण होता जा रहा है। यह इस बात पर निर्भर है कि तुम इसे कैसे लेते हो। एक बात तय है कि पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं है। इन्द्रिय जनित ज्ञान और जीवन को प्रभावित करने वाली अपरिचित ऊर्जा अधिक-से-अधिक बढ़ती ही जायेगी। तुम्हें अधिक से अधिक सूचनाएँ मिलती रहेंगी, जीवन तीव्र तीव्रतम लय में बदलता जाएगा। और तुम्हें नई चीजों को सीखने और उनको अनुकूल बनाने के योग्य बनना ही होगा।

अतीत में मनुष्य लगभग एक स्थिर संसार में रहता था। हर चीज जैसे रुकी हुई थी, स्थिर थी। तुम भी संसार उसी प्रकार छोड़ देते थे जैसा ठीक तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिये छोड़ा था। तुम उसमें कोई परिवर्तन या बदलाहट नहीं करते थे। चूँकि कुछ बदलता ही नहीं था, अतः अधिक सीखने का भी कोई सवाल नहीं उठता था। थोड़ी सी शिक्षा ही काफी होती थी और अब तुम्हारे मस्तिष्क में कुछ स्थान खाली रहता था, और वह खाली स्थान ही मनुष्य को समझदार बने रहनें में सहायक होता था।

अब मस्तिष्क में कोई खाली स्थान बचा ही नहीं है, जब तक कि तुम जान-बूझकर उसे स्वयं ही सृजित न करो।
आज ध्यान की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। ध्यान करने की अब इतनी अधिक जरूरत है कि यह लगभग जीवन-मृत्यु का प्रश्न बन गया है। अतीत में यह कुछ लोगों की विलासिता थी-बुद्ध, महावीर या कृष्ण जैसे लोगों की ही इसमें रुचि हुआ करती थी। अन्य दूसरे लोग स्वाभाविक रूप से शांत, प्रसन्न और समझदार थे। उन लोगों को ध्यान करने के बारे में सोचने की आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि अचेतन रूप से वह ध्यान ही करते थे। जीवन इतना शांत व धीमी गति से गतिशील था यहाँ तक कि मूढ़-से-मूढ़ लोग भी उससे रिश्ता जोड़ने में समर्थ थे। अब परिवर्तन इतनी भयानक व तेज रफ्तार से हुआ है कि सबसे अधिक बुद्धिमान लोग भी उससे संबंध बनाये रखने में असमर्थता का अनुभव करते हैं। प्रत्येक दिन जीवन भिन्न होता है, और तुम्हें उसके लिये फिर से सीखना होता है और फिर-फिर सीखने का यह क्रम जारी ही रहता है। अब तुम कभी सीखना बंद नहीं कर सकते, क्योंकि यह प्रक्रिया पूरे जीवन भर चलती ही रहती है। मृत्यु होने के अंतिम क्षण तक तुम्हें सीखने वाला ही बना रहना पड़ता है, केवल तभी तुम समझदार बने रह सकते हो। क्या तुम अपने को मानसिक रोगी होने से बचा सकते हो ? और दबाव बहुत अधिक है-चालीस गुना अधिक।

इस दबाव को कैसे शिथिल किया जाये ? तुम्हें सोच-समझकर ध्यानपूर्ण क्षणों में जाना ही होगा यदि एक व्यक्ति दिन में कम-से-कम एक घंटे ध्यान नहीं करता, तो मानसिक रोग किसी दुर्घटनावश नहीं होगा। वह उसका सृजन अपने लिये स्वयं ही करेगा। उसे एक घंटे के लिये संसार से गायब होकर अपने-आपमें डूबना होगा। एक घंटे के लिये उसे इतना एकान्त चाहिये, जहाँ उसमें कोई भी चीज प्रविष्ट न हो सके न कोई स्मृति न कोई विचार न कोई कल्पना। एक घंटे तक उसकी चेतना में कोई विषय-सामग्री न हो, और यही उसे फिर युवा बना देगा, और उसे नई ताजगी देगा। इससे ही उसके अंदर ऊर्जा के नये स्रोत प्रवाहित होने लगेंगे और वह इस संसार में अधिक युवा, और ताजा होकर लौटेगा, वह अधिक सीखने में समर्थ होगा, आँखों में आश्चर्य और हृदय में अधिक प्रकाश के साथ वह फिर से एक बच्चे सा सरल और सहज हो जाएगा।


ध्यान है...खेलपूर्ण होना



ध्यान, बुद्धि या मन की कोई चीज नहीं है, वह तो बुद्धि के पार की कोई चीज है। और इसके लिये पहला कदम है, इसके प्रति खेलप्रिय होना, विनोदी होना। यदि तुम उसके साथ खेलपूर्ण हो, तो बुद्धि (मन) तुम्हारे ध्यान को नष्ट नहीं कर सकती। अन्यथा यह एक दूसरी अहंकार-यात्रा में परिवर्तित हो जायेगी। यह तुम्हें बहुत गंभीर बना देगी। तुम सोचने लगोगे कि मैं एक महान ध्यानी हूँ। यही हजारों कथित संतों नैतिकतावादियों और कट्टर धार्मिकों के साथ हुआ है, ये लोग महज अहंकार के खेल सूक्ष्म अहंकार के खेल ही खेल ही खेल रहे हैं।

इसलिये मैं प्रारम्भ ही से इसकी जड़ें काट देना चाहता हूँ। इसके बारे में विनोदप्रिय या खेलपूर्ण बने रहो। यह एक गीत है जिसे गाना है। एक नृत्य है जिसे नाचना है। इसे एक मजाक की तरह लो। यदि तुम ध्यान के बारे में खेलपूर्ण हो सके तो तुम यह देखकर हैरान हो जाओगे कि ध्यान में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होगी। केवल तुम किसी लक्ष्य पाने के पीछे नहीं भाग रहे तुम केवल शांत बैठे हुए उसका उस क्षण आनंद ले रहे हो। शांत होकर बैठने का कृत्य ही उन क्षणों में आनंदित होना है। ऐसा नहीं, कि तुम किसी यौगिक शक्ति, सिद्धि या चमत्कार की चाह कर रहे हो। यह सभी बकवास है, यह सभी पुरानी व्यर्थ की बातें हैं। वही पुराना खेल, नये शब्दों और एक नये धरातल पर खेला जा रहा है...जीवन को अपने-आपमें एक गहरे मजाक की तरह लेना चाहिये-और तभी अचानक तुम तनावरहित हो जाओगे, क्योंकि यहाँ कुछ ऐसा ही नहीं, जिसके बारे में तनावपूर्ण हुआ जाये। और इसी विश्रामपूर्ण दशा में तुम्हारे अंदर कुछ परिवर्तन एक मौलिक परिवर्तन एक रूपातन्तरण होने लगता है। जीवन की छोटी-छोटी बातों के नये अर्थ तथा महत्त्व प्रकट होने शुरू हो जाते हैं। तब फिर कोई भी चीज छोटी नहीं लगती, हर चीज एक नई गंध और नई आभा लिये दिखना शुरू हो जाती है, तब हर कहीं एक दिव्यता का अहसास होने लगता है। फिर कोई न तो ईसाई, न हिन्दू और न मुसलमान बना रहता है। वह स्वाभाविक रूप से जीवन के प्रेमी बन जाता है। वह केवल एक ही चीज सीखता है कि जीवन में कैसे आनंदित हुआ जाये।

जीवन में आनंदित होना ही केवल परमात्मा की ओर जाने का मार्ग है। नृत्य ही तुम्हारा परमात्मा तक जाने का रास्ता है, तुम्हारा हँसना ही परमात्मा तक जाने का मार्ग है, तुम्हारा गीत गाना ही परमात्मा तक जाने का मार्ग है।


ध्यान है...सृजनात्मक होना



तुम अब तक जिस निश्चित तरीके से जीते रहे हो, क्या अब एक भिन्न तरीके से नहीं जीना चाहते ? तुम अब तक जिस पूरे विश्वास से सोचते रहे हो, क्या तुम अपने अस्तित्व में नई झलकें नहीं चाहते ?
तब सजग बनो और मन की मत सुनो। मन तुम्हारा बीता कल है, निरन्तर वह तुम्हारे वर्तमान और भविष्य को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है। वह तुम्हारा मुर्दा अतीत है, जो जीवित वर्तमान को नियंत्रित किये जा रहा है, केवल उसके प्रति सजग बनो।

लेकिन इसका मार्ग क्या है ? मन कैसे यह सब किये जा रहा है ? मन की तरकीब यही है, वह तुमसे कहता है, कि यदि मेरी बात नहीं सुनोगे तो उतने योग्य नहीं बन सकोगे, जितना योग्य मैं हूँ। यदि तुम पुरानी चीज ही करते रहे, तो अधिक योग्य बन सकते हो क्योंकि तुमने उसे पहले भी किया है। यदि तुम कोई नई चीज करते हो, तुम उतने योग्य नहीं बन सकते। मन एक अर्थशास्त्री या योग्य विशेषज्ञ की तरह समझाये चला जाता है। वह कहे चला जाता है कि ऐसा करना आसान है, फिर कठिन तरीके से क्यों कर रहे हो ? यह रास्ता कम व्यवधान का है।

याद रखो, जब कभी तुम्हारे सामने दो चीजें हों, दो विकल्प हों, तो नये का चुनाव करो। कठिन को चुनो। उसे चुनो, जिसमें अधिक सजगता की आवश्यकता हो। योग्यता की कीमत पर हमेशा चेतनता, होश को चुनो। और तभी तुम ऐसी स्थिति का सृजन कर सकोगे जिसमें ध्यान करना सम्भव होगा। यह सभी वह स्थितियाँ हैं, जिनमें घटेगा। मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि महज इन्हें करने से ही तुम ध्यान को प्राप्त कर लोगे, लेकिन वे ध्यान में तुम्हारी सहायता करेंगी। वे तुम्हारे अंदर उस आवश्यक स्थिति का सृजन करेंगी, जिसके बिना ध्यान नहीं घट सकता। कुछ कम योग्य बनो लेकिन अधिक सृजनात्मक होओ। यही उद्देश्य बना लो। उपयोगी लक्ष्यों की अधिक चिंता मत करो, इसकी बजाय याद रखो कि तुम यहाँ जीवन को एक वस्तु बनाने के लिये नहीं हो। तुम यहाँ एक उपयोगिता बनने नहीं आये हो, यह तुम्हारी गरिमा के विरुद्ध है। तुम केवल अधिक-से-अधिक योग्य व जीवंत बनने, यहाँ आये हो। अधिक- से-अधिक होशियार बनने तुम यहाँ आये हो। अधिक- से-अधिक प्रसन्न बनने के लिये, आनंदपूर्ण होने के लिये आये हो। लेकिन यह सब मन के तरीकों से बिलकुल भिन्न है।


ध्यान है...सजग होना



जो कुछ भी करो, उसे गहरी सजगता के साथ करो। केवल छोटी-छोटी चीजें ही पावन बन जाती हैं। तब भोजन बनाना और सफाई करना भी पवित्र कृत्य और पूजा बन जाते हैं। सवाल यह नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो, सवाल यह है कि तुम उसे कैसे कर रहो हो ?

तुम एक रोबोट की तरह फर्श साफ कर सकते हो, वह एक यांत्रिक क्रिया होगी; तुम्हें उसे साफ करना है, इसलिये उसे साफ कर रहे हो। तब तुम किसी सुंदर चीज से चूक जाओगे, तब तुम उन क्षणों को केवल फर्श की सफाई करने में बरबाद कर दोगे। फर्श साफ करना एक महान अवसर बन सकता था, तुम उससे चूक गये। फर्श तो साफ हो गया, लेकिन कोई चीज, जो तुम्हारे अंदर घट सकती थी, वह नहीं घटी। यदि तुम सजग रहते, तो न केवल फर्श साफ होता बल्कि तुमने भी गहने में साफ होने का अनुभव किया होता। पूरे होश से भरकर स्पष्ट सजगता के साथ ही फर्श साफ करो।
काम करो, या बैठो या चलो, लेकिन एक चीज निरन्तर एक धागे सी बनी रहे, कि अपने जीवन के अधिक-से-अधिक क्षणों को तुम्हें सजगता से प्रकाशित करना है, प्रत्येक क्षण, प्रत्येक कृत्य में तुम्हारे होश की दीपशिखा जलती ही रहे। जो सबका सामूहिक प्रभाव होगा, वह बुद्धित्व है। सभी क्षणों का एक साथ सामूहिक प्रभाव होगा, सभी छोटी-छोटी दीपशिखाएँ साथ-साथ जल उठेंगी, तो वह महान प्रकाश का एक स्रोत बन जायेगा।


ध्यान है...तुम्हारा स्वाभाव



क्या यह एक विधि है, जिसका अभ्यास किया जा सकता है ? क्या यह कोई ऐसी चीज है जिसे मन या बुद्धि के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ? यह ऐसा नहीं है। वह सब कुछ जो बुद्धि कर सकती है, वह ध्यान नहीं हो सकता है। यह कोई चीज ऐसी है जो बुद्धि के पार है, और मन यहाँ पूरी तरह असहाय है। बुद्धि या मन का ध्यान में प्रवेश नहीं हो सकता। जहाँ मन मिटता है, वहीं से ध्यान शुरू होता है। यह याद रखने की जरूरत है, क्योंकि अपने जीवन में हम जो कुछ भी करते हैं-वह मन के द्वारा ही करते है; जो कुछ हम प्राप्त करते हैं, वह मन के द्वारा ही प्राप्त करते हैं। और तब, जब हम अंदर की ओर जाते हैं, हम फिर विधियों, तरीकों और कुछ करने के संबंध में सोचना शुरू कर देते हैं, क्योंकि जीवन भर का अनुभव यह बताता है कि प्रत्येक चीज बुद्धि के द्वारा ही की जा सकती है।

जी हां ! सिवाय ध्यान के प्रत्येक चीज बुद्धि के द्वारा ही की जा सकती है। प्रत्येक चीज, मन के द्वारा ही की जाती है, सिवाय ध्यान के। क्योंकि ध्यान कोई उपलब्धि नहीं है, वह तो पहले से ही एक स्थिति है, वह तुम्हारा स्वभाव है। उसे प्राप्त नहीं करना है, उसे केवल पहचानना है, उसे केवल याद करना है। वह वहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। अभी जरा-सा घूमो, और वह मौजूद है। तुम उसे हमेशा-हमेशा से साथ लेकर चल रहे हो।
ध्यान तुम्हारा आंतरिक स्वभाव है-वह तुम ही हो। वह तुम्हारा ही अस्तित्व है, उसका तुम्हारे कुछ करने से कोई लेना-देना नहीं है। तुम उसे अपने वश में नहीं कर सकते, उसे अपने अधिकार में नहीं रख सकते। वह कोई चीज नहीं है, जिसे मालकियत में रखा जा सके। वह तुम ही हो। वह तुम्हारा ही होना है।


ध्यान है....कुछ न करना



मेरे पास लोग आते हैं और पूछते हैं, ध्यान कैसे किया जाये ? मैं उनसे कहता हूँ, यह पूछने की जरूरत ही नहीं है कि ध्यान कैसे किया जाये। यह पूछो कि कैसे खाली हुआ जाये। ध्यान अविरल रूप से घटता है। यह पूछना उचित है कि कैसे बिना कुछ किये रहा जाये, क्योंकि यही सब कुछ है। यही ध्यान की पूरी तरकीब है कैसे बिना कुछ किये रहा जाये, खाली हुआ जाये। जब तुम कुछ भी नहीं करते, तभी ध्यान का पुष्प खिलता है। जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे हो, तभी ऊर्जा केन्द्र की ओर गतिशील होती है। यह केन्द्र की ओर प्रवाहित होना शुरू हो जाती है। जब तुम कोई काम करते हो, तो ऊर्जा बाहर की ओर गति करती है।

कुछ करना, बाहर की ओर जाने का रास्ता है और कुछ न करना अंदर की ओर जाने का मार्ग है व्यस्त बने रहना एक पलायन है। तुम बाइबिल का पढ़ना भी व्यस्तता या धंधा बना लेते हो। धार्मिक और अधार्मिक धंधे में कोई भी फर्क नहीं है। सभी धंधे आखिर धंधे हैं, और वे तुम्हें, तुम्हारे अस्तित्व को बाहर से संबंधित होने में सहायक होते हैं। ये बाहर बने रहने के बहाने हैं।

मनुष्य नासमझ और अंधा है, और वह नासमझ तथा अंधा ही बने रहना चाहता है, क्योंकि अंदर जाना उसे घोर अव्यवस्था या गड़बड़ी में प्रवेश करने जैसा लगता है। और यह ऐसा है भी। अपने अंदर तुमने ही यह सारी अव्यवस्था सृजित की है। तुम्हें उसमें से गुजर कर उससे संघर्ष करना है। जरूरत है साहस की-अपने आपको साहसी बनाना होगा और अंदर जाने का साहस करना ही पड़ेगा। मैं अभी तक इससे बड़े किसी साहस को नहीं जानता-जो साहस ध्यान करने के लिये होना चाहिये।

लेकिन वह लोग, जो बाहर अपने को व्यस्त रखे हुये हैं, सांसारिक या संसार के बाहर की वस्तुओं के साथ रहते हुये वे विचार करते हैं...और उन्हीं लोगों ने यह अफवाह फैला रखी है। उनके अपनी रुचि के दर्शनशास्त्री हैं, जो कहते हैं कि तुम यदि अंतमुर्खी हो, तो इसका अर्थ है-तुम्हारा स्वभाव ही बीमार बने रहने का है, तुम्हारे साथ कुछ-न-कुछ गलत जरूर है। और ऐसे लोगों का बहुमत है। यदि तुम ध्यान करते हो, यदि तुम शांत होकर बैठते हो, तो वह तुम्हारा मजाक उड़ायेंगे कहेंगे-यह कर क्या रहे हो ? अपनी नाभि को देख रहे हो ? यह क्या कर रहो हो, क्या अपना तीसरा नेत्र खोल रहे हो ? आखिर कहाँ जा रहे हो ? क्या कुछ तबियत खराब है ?...क्योंकि अंदर जाकर करोगे क्या ? अंदर कुछ भी तो नहीं है।
अधिकतर लोगों के लिये अंदर का अस्तित्व है ही नहीं जो कुछ है वह सब केवल बाहर है। और मामला ठीक इसका उलटा है-केवल अंदर ही असली है, वास्तविक है। बाहर तो कुछ भी नहीं है। जो कुछ है, वह सपना है। लेकिन वे सभी अंतर्मुखी तोगों को बीमार कहते हैं। वह ध्यान करने वालों को रोगी मानते हैं। पश्चिम में वे सोचते हैं कि पूरब थोड़ा सा अस्वस्थ है, रोगी है। आखिर अकेले बैठे हुए अंदर देखने जाने की क्या तुक है ? वहाँ जाकर तुम्हें मिलेगा क्या ? वहाँ कुछ भी तो नहीं है।

ब्रिटेन के महान दार्शनिक डेविड ह्यूम ने एक बार कोशिश की...क्योंकि वह उपनिषदों का अध्ययन कर रहा था, और वह कहे जाते हैं-अंदर जाओ, अंदर जाओ, अंदर जाओ, एक यही उनका संदेश है। इसलिये उसने कोशिश की। एक दिन उसने अपनी आँखें बंद कीं-वह पूरा-का-पूरा अधार्मिक व्यक्ति था, बहुत तर्कयुक्त गहरा निरीक्षण करने वाला-लेकिन ध्यानपूर्ण जरा भी न था।

उसने अपनी आँखें बंद कीं और कहा-यह कितना उबा देने वाला काम है। अंदर देखने से ही ऊबाहट होने लगती है। अंदर तो विचार चल रहे हैं, कभी-कभी कुछ भाव भी। और अंदर तो इन्हीं की घुड़दौड़ हो रही है-और तुम उनको देखे जा रहे हो-आखिर उन्हें देखते रहने की क्या तुक है ? यह सब तो व्यर्थ हैं, इसका कोई उपयोग नहीं। और यही समझ काफी लोगों की है। जो ह्यूम का दृष्टिकोण है, वही अधिकतर लोगों का भी है। अंदर जाकर तुम्हें मिलेगा क्या ? वहाँ तो अंधकार है, विचार इधर से उधर बह रहे हैं। तुम उनका करोगे क्या ? उससे नतीजा क्या निकलेगा ?

यदि ह्यूम ने थोड़ी देर तक और प्रतीक्षा की होती-हालाँकि ऐसे व्यक्ति के लिये यह करना मुश्किल था-यदि उसने थोड़ा धैर्य रखा होता, तो धीमे-धीमे विचार और भाव गायब हो जाते। लेकिन यदि उसके साथ ऐसा होता तो वह कहता, ‘‘यह तो और भी खराब है, क्योंकि अब तो सब खाली-खाली है। कम-से-कम पहले विचार तो थे। देखने, विचार करने और व्यस्त बने रहने के लिये कुछ तो साथ था। अब तो विचार भी गायब हो गये, केवल खालीपन या शून्यता रह गई....इस खालीपन का किया क्या जाये ? यह तो पूरी तौर से अनुपयोगी है।

लेकिन यदि उसने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की होती, तो अंधकार भी मिट जाता। यह ठीक इसी तरह है जैसे तुम चिलचिलाती धूप से घर के अंदर प्रवेश करो तो हर जगह अंधेरा ही लगता है, क्योंकि तुम्हारी आँखों को कम रोशनी से तालमेल बिठाने के लिये कुछ समय चाहिये। वे बाहर की धूप पर स्थिर हो गई थीं, और उसके मुकाबले में तुम्हारा घर अंधेरा लगता है। तुम देख ही नहीं सकते, तुम्हें ऐसा लगता है जैसे रात हो। केवल तुम प्रतीक्षा करो, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ और कुछ सेकंड बाद ही आँखें तालमेल बिठा लेंगी। अब इतना अंधेरा नहीं लग रहा, थोड़ी-सी अधिक रोशनी है...तुम एक घंटे आराम कर लो, और हर चीज रौशन हो जायेगी। फिर वहाँ अंधेरा रह ही नहीं जायेगा। यदि ह्यूम ने थोड़ी देर और प्रतीक्षा की होती तो अंधेरा भी गायब हो जाता। क्योंकि तुम बाहर सूरज की गर्म रोशनी में कई जन्मों से रह रहे हो, तुम्हारी आँखें तेज रोशनी की अभ्यस्त हो गई हैं। उन्होंने लचीलापन खो दिया है। उन्हें लयबद्ध होने की जरूरत है। जब कोई घर के अंदर आता है तो थोड़ा समय लगता है। थोड़ा सा समय, थोड़ा सा धीरज चाहिये। जल्दबाज मत बनो।
जल्दबाजी में कोई भी अपने आपको नहीं जान सकता। यह गहरे में बहुत-बहुत प्रतीक्षा करने वाली बात है। अनंत धैर्य की आवश्यकता है धीमे-धीमे मिटेगा। फिर बिना स्रोत का प्रकाश प्रकट होगा। उसमें कोई लौ या ज्योति नहीं है, न तो कोई दिया जल रहा है, वहाँ और न वहाँ सूरज है। भोज जैसी हलकी रोशनी है, रात जा चुकी है और सूरज अभी निकला नहीं है...या संध्या समय गोधूलि की बेला हो जैसे, जब सूरज अस्त हो चुका है और रात अभी आई नहीं है। इसीलिये हिन्दू अपनी प्रार्थना के समय को संध्या कहते हैं। संध्या का अर्थ होता है सूर्योदय से पूर्व तथा सूर्यास्त के उपरान्ता धीमा प्रकाश स्रोत रहित प्रकाश।

जब तुम अंदर जाते हो, तो तुम्हें बिना स्रोत का प्रकाश मिलता है। पहली बार तुम अपने-आपको समझने की शुरूआत करते हो-कि तुम कौन हो, क्योंकि तुम वही प्रकाश हो। तुम वही सूर्योदय से पूर्व तथा सूर्यास्त के उपरान्त होने वाला मद्धिम प्रकाश हो। तुम वही संध्या हो। वही शुद्ध पारदर्शिता हो। तुम वही बोध ज्ञान हो। वही ज्ञान हो, जहाँ द्रष्टा और दृश्य मिट जाते हैं, और केवल प्रकाश रह जाता है।

   
 

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