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सलाखों की परछाइयाँ

नारी भरूचा

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3666
आईएसबीएन :81-89182-59-5

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इसके माध्यम से भारतीय जेलों में माँ और उनके बच्चों पर प्रकाश डाला गया है....

Salakhon Ki Parchhahiyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘सलाखों की परछाइयाँ’ के माध्यम से भारतीय जेलों में रह रहे माँ और बच्चे पर भावात्मक रूप से प्रकाश डाला गया है। भारत के कई जेलों का दौरा करके लेखक ने वहाँ पर रह रही महिला कैदियों और उनके बच्चों से मुलाकात की है। इस मुलाकात के दौरान कैदियों की स्थिति, असुरक्षा, खुशी, उम्मीद और सपनों को उनके साथ बाँटा है।
कैदी, बच्चे, सामाजिक कार्यकर्ता, जेल अधिकारी, वकीलों से लिए गये साक्षात्कार पढ़ने में काफी रुचिकर हैं। यह पुस्तक आपको कहीं न कहीं उन समस्याओं के प्रति गम्भीर बनाएगी, जो मानवीय दृष्टि से क्रूर हैं।

रुज़बेह नारी भरुचा की ‘द लास्ट मैरेथॉन’ और ‘देवीज एमेरैल्ड’ नामक पुस्तक जिस प्रकार आत्मा को झकझोरती है,  उसी प्रकार उनकी यह पुस्तक ‘सलाखों की परछाइयाँ’ भी आपको झकझोरेगी। यह पुस्तक भारतीय जेलों में रह रहे मां और बच्चे पर आधारित है। भारत में पाँच वर्ष तक के बच्चे किस प्रकार अपनी माँ के साथ भारती जेलों में रहते हैं उसका विस्तृत वर्णन इस पुस्तक में है।

परम आदरणीय दलाई लामा

प्राक्कथन

शुरू से ही दुनिया भर में माँ और बच्चे दया, देखभाल और सुरक्षा के प्रतीक माने जाते हैं। यह पुस्तक बदनसीब माताओं के जीवन पर प्रकाश डालती है जो अपने आपको भारतीय जेलों में पाती हैं, उनमें से कई पर तो अपराध भी साबित नहीं हुआ है और वे केवल अभियोजन की प्रतीक्षा कर रही हैं। यद्यपि ये कैदी स्त्रिय़ाँ पाँच वर्ष से कम आयु के बच्चों को अपने पास रख सकती हैं, किंतु ये बच्चे बड़े बच्चों से अलग हो जाते हैं और स्वंय उस दया, देखभाल और सुरक्षा से वंचित हो जाते हैं जिसका साधारणतया वे अपने परिवार से उम्मीद करते हैं। सौभाग्यवश उनकी सहायता करने उन्हें सम्बल देने के लिए कुछ गैर सरकारी संगठन हैं जो मुझे विश्वास है, महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

इन्होंने जो कुछ किया हो, या उन पर करने का आरोप हो, ये स्त्रियाँ शेष हम सबकी भाँति मानव-प्राणी हैं, जो अपने परिवारों एवं बच्चों के लिए चिंतित हैं और स्वयं अपने लिए स्नेह एवं सात्वना खोज रही हैं। दया और करुणा जीवन के हर क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण है, चाहे वे कैदी हों, कारागार के प्रहरी या अपराध के शिकार हों। जबकि घृणा और दुर्भावना को प्रश्रय देना निरर्थक है, वही सहयोग, विश्वास एवं सबका ध्यान रखना कहीं अधिक रचनात्मक है। मेरे विश्वास का यही कारण कि वे लोग जो अपना समय और शक्ति दूसरों के सेवा में मानवीय रूप से लगाते है दैसे इन बन्दी महिलाओं की सेवा में, वे हमारे सहयोग एवं प्रशंसा के योग्य हैं। ऐसी उदारता किसी रूप में दान की उच्च श्रेणी में आती है, क्योंकि दान का सर्वाधिक करुणामय स्वरूप वह है जब यह पारितोशिक का विचार या अपेक्षा रखे बिना दिया जाता है, और इसका आधार दूसरों के प्रति सच्ची चिन्ता होती है।

बिल्कुल स्पष्ट है कि इण्डिया विज़न फाउण्डेशन जैसी संस्थाओं द्वारा भारत में जेल जीवन से जुड़ी वास्तविक समस्याओं के समाधान हेतु किया गया कार्य सभी सम्बद्ध लोगों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मुझे आशा है कि यह पुस्तक, सलाखों की परिछाइयाँ, परेशानी में में फँसे लोगों की, जो अब सहजतः अपनी सहायता नहीं कर सकते, सहायता करने के लिए अन्य व्यक्ति को प्रेरित करेगी।

परम आदरणी दलाई लामा

डॉ. किरण बेदी


तिहाड़ जेल के इन्स्पेक्टर जनरल, (कारागार), के रूप में मैंने देखा कि जेल में माताओं के साथ बच्चों का रहना, जहाँ स्वस्थ बचपन के लिए जरूरी प्रत्येक वस्तु का अभाव था। बच्चों को खेलने के लिए खुला वातावरण, उनके स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा, सफाई, आदि चीजों पर ध्यान देने वाला कोई नहीं था। बच्चों की देखभाल करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी।
दुर्भाग्वश, ऐसा नहीं है कि ऐसे हालात में केवल भारत में ही है। अपितु विश्व के सारे ही देशों में हालात एक से ही है। यदि एक बार पिता, और खासतौर से यदि माँ जेल में चली गयी, तो ऐसी कोई जगह या व्यक्ति नहीं है जहाँ बच्चे जा सकें। बच्चे तो बिल्कुल सड़क पर आ जाते है, और भाग्य और विपत्ति के हाथों में चले जाते हैं। यही कारण है कि इन बच्चों के जीवन पर बनी भारतीय फिल्में इतनी बढ़िया चल रही हैं।

थोड़े से ही ऐसे सौभाग्शाली होंगे जिन्हें परिवार का सहारा है। दुर्भाग्य से, सरकार द्वारा चलाए जा रहे गृहों/आश्रमों को छोड़कर ऐसे विश्वसनीय, औपचारिक संगठन नहीं हैं जो इन बच्चों की देखभाल कर सकें। किन्तु सरकार द्वारा चलाए जा रहे इन गृहों में क्षमता से अधिक बच्चे होते हैं, और वहाँ सुधार जैसा कोई काम नहीं होता, अपितु वे अपराध-प्रदूषण फैलाने वाली नर्सरी बन जाते हैं।

व्यक्तिगत रूप में, मुझे नहीं दिखता कि अभी तक यह समाज-शास्त्रियों या अपराध-विशेषज्ञों के सामने एक मु्द्दा बन पाया हो। कोई चर्चा नहीं है। सुर्खियों में आने वाले बड़े चिन्ताजनक विषय भी नहीं हैं। कोई राजनीतिक मुद्दे भी नहीं बने हैं। अतः व्यक्तिगत स्तर पर चिन्ता का मामला तो है, किन्तु पूरे समाज के लिए कोई बड़ा चिन्ता का विषय नहीं है। इन बच्चों की चीख सुनी नहीं जाती, और न ही यह इतनी जोरदार है कि किसी के हृदय को दृवित कर सके।

कुछ दक्षिण एशियायी देशों में, चार या पाँच साल तक के बच्चे, कुछ अति विशिष्ट मामलों में ही सुरक्षा कारणों से माताओं के साथ जेल में रहने दिए जाते हैं। किन्तु भारती जेलों में बच्चे पाँच साल की आयु होने तक जेल में अपनी माताओं के साथ रह सकते हैं। भारतीय जेलों में सैकड़ों बच्चे अपनी माताओं के साथ रह रहे हैं। जब तक ये बच्चे जेलों में है, उन्हें गिद्धों और बाजों से बचाया जा सकता है; किन्तु फिर भी उनकी स्थिति एक तरफ कुंआ और दूसरी तरफ खाई जैसी है। जेल की चारदीवारी में अपनी बन्दी माताओं के साथ रहने के अतिरिक्त इन बच्चों के पास करने के लिए कुछ भी नहीं है।

मुझे याद है 1993 में जब मैंने तिहाड़ जेल के अन्दर अपना काम शुरू किया तो इतने सारे बच्चों को देखकर मैं तो दंग रह गयी। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि यह सत्य है। जब मैंने पूछा कि बच्चे जेल में क्या कर रहे हैं, मुझे बताया गया कि बाहर जाने पर उनकी हालत और भी खराब होगी। कुछ बच्चे तो जेल में ही पैदा हुए थे। मैंने पूछा बच्चे दिन भर क्या करते हैं तो मुझे बतलाया गया कि वे मारने के लिए कीड़े ढूँढ़ते रहते हैं। वे आपस में अदालत में अगली तारीख की बात करते थे कि किसी को कैसे चाकू घोंपा जाता है।

वे विस्तृत विवरण के साथ उन अपराधों की भी कहानी कहते हैं जो उनके पिताओं ने उनकी माता या दूसरों पर किए हैं उन्हें वकीलों, जजों और अदालतों के नाम मालूम थे। उनके लिए बाहर जाने का मतलब होता था....अदालत तक की यात्रा। वे सभी अशिक्षित थे और यह नहीं जानते थे कि स्कूल क्या होता है।

हर बच्चे में मैंने अपने आपको देखा। हर एक में मैंने अपनी बेटी देखी। इन्होंने क्या गलती की है ? मैंने स्वयं से पूछा। किन्तु व्यवस्था या नियमों में इसका कोई उत्तर नहीं था। वे मौन थे। बच्चों के लिए विशेष प्रावधान नहीं थे, सिवाय थोड़े से अतिरिक्त दूध के (जिसे पाना माँ का अधिकार था), जिसको, यानी बच्चे के हिस्से के दूध को स्त्रियाँ दूसरी बंदी स्त्रियों को बेचकर कुछ पैसे बना लेती थीं और उससे साबुन-तेल खरीद लेती थीं। यहाँ भी बच्चा अपनी ही माँ के द्वारा किए गए काम से अतिरिक्त दूध के भाग से वंचित रहता था। कोई बाल-विशेषज्ञ (चिकित्सक) नहीं थे। ऐसा कोई रिकार्ड नहीं था जो बता सके कि बच्चे को टीका लगा है कि नहीं; उसका कोई कार्ड नहीं बनता था; उनके वजन का कभी कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता था। कुछ बच्चे अल्पविकसित थे। और क्या आशा की जा सकती थी ?

आश्चर्य की बात यह थी कि सरकारी अधिकारियों के दौरे और न्यायपालिका के जेल-परीक्षणों के बावजूद भी जेल में यह उदासीनता थी। घुटने टेकने के बजाय, हमने इसको वह सब करने के लिए, जो किया जाना चाहिए था, एक बहुत बढ़िया अवसर पाया। भूल जाइए कि हमारे पास बजट नहीं था। हमारे पास इच्छा थी और धड़कता हुआ हृदय। एक ऐसा हृदय जो जरूरत मंद के लिए धडकता था। हमने समाज से सहायता का आह्वान किया और सबके सब हमारे लिए चले आए। डॉक्टर, दवाएं, कपड़े, खिलौने, किताबें, झूले, रपटन पट्टियाँ, गोल-चक्कर, विटामिन, चित्र बनाने के लिए काग़ज, संगीत और शिल्पगृह चलाने के लिए मुफ्त स्वयंसेवक। बच्चों के लिए पिकनिक शुरू हुए। वे चिड़ियाघर गए। पहली बार उन्होंने बिल्ली और हाथी का अन्तर देखा। वे सड़क पर पाँव रखते डरते थे। यातायात से डरते थे। किन्तु उन्हें यह देखने समझने में देर नहीं लगी कि बाहर क्या है, चीजें कितनी बदली हुई हैं, और वहाँ खेल और आनन्द की अलग ही दुनिया है। वे भारत के राष्ट्रपति से मिलने गए....वे मुग़ल गार्डन्स में घूमे।

क्राइम होम चाइल्ड और जेल में शिशुगृह इस पृष्ठभूमि में उत्पन्न हुए। उसके बाद रेमन मैंगासे से पुरस्कार आया, मानो यह कह रहा हो आकाश में बैठे देवताओं ने इस कार्य को उचित माना है। यह भविष्य के रद्दोबदल पर नहीं छोड़ा जा सकता था। हमें बच्चों के लिए कार्य को आगे बढ़ाना था। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ा था कि मेरा स्थानान्तरण कहाँ हुआ है। कार्य को व्यवस्थित एवं संस्थागत स्वरूप दिया जाना था। यह करने के लिए इण्डिया विजन फाउण्डेशन (आई.वी.एफ.) की स्थापना हुई और इस प्रकार क्राइम होम चाइल्ड (सी.एच.सी.) और जेल में शिशुगृह कार्क्रम की शुरुआत हुई।

इसका मतलब था कि जो बच्चे जेल में अपनी माताओं के साथ थे उन्हें उसी दिन से स्कूल में होना था जिस दिन वे जा सकें। जेल में जब माँएं अपने व्यावसायिक प्रशिक्षण या अदालत में उपस्थित होने से व्यस्त होती हैं तो बच्चे शिशुगृह में जाते हैं और प्रशिक्षण की सभी आधार-भूत सुविधाएं उपलब्ध हैं, प्रशिक्षित अध्यापक हैं और बच्चे के लिए स्वच्छ वातावरण है और एक बार बच्चा पाँच साल की आयु पार कर गया और यदि माँ यह अनुभव करती है कि उसे बाहर परिवार में भेज देना सुरक्षित नहीं होगा तो बच्चे इण्डिया विज़न फाउण्डेशन को दे दिया जाता है जो उसे मुख्य धारा से जोड़ने के लिए रिहायशी स्कूल में प्रवेश दिला देती है।

जैसे प्रकृति की इच्छा, देहली में ऐसिसी कान्वेंट की सिस्टर्स ने एक भवन केवल ऐसे ही बच्चों के लिख रखा था। हमारे पास आई.वी.एफ. में बच्चे थे, और ऐसिसी कान्वेंट के पास भवन। ऐसा तभी होता है जब आप ईश्वर को कार्य करते देखते हैं।


 

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