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चल ओशो के गाँव में

स्वामी ज्ञानभेद

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :342
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3674
आईएसबीएन :81-288-0611-4

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‘‘जहाँ ध्यान प्रेम की छांव है, वही ओशो का गांव है।’’

Chal Oso Ke ghav Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘जहाँ ध्यान प्रेम की छांव है, वही ओशो का गांव है।’’
ओशो परम दुर्लभ घटना है अस्तित्व की।
ओशो की आवाज जब बहती हुई पवन की तरह किसी के अंतर में सरसराती है, एक बादल की तरह बूँद-बूँद बरसती है और सूर्य की किरण होकर कहीं अंतर्मन में उतरती है तो चेतना का सुप्त बीज पनपने लगता है। फिर कितने ही रंगों का जो फूल खिलता है उसका नाम कुछ भी हो सकता है। बुद्धत्व की उपलब्धि में सदियों व जन्मों का तूफान शांत होता है। अस्तित्व का परम सौन्दर्य उसमें खिलता है। और अस्तित्वगत ऊँचाई का परम शिखर परम शून्यता में निर्मित हो उठता है। स्वामी ज्ञान भेद का यह ‘ओशो का गांव’ कहीं बाहर नहीं हमारे ही भीतर है। वो हमारे ह्रदय का उन्मुक्त आकाश है। इस कृति को पढ़ते हुए जब हम प्रकृति के रोमांच को अनुभव करते हैं तो हमें लगता है कि शायद हम सब उस गाँव को तलाश रहे हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में अध्याय दर अध्याय एक निर्बाध गति से बहती नदी का प्रवाह है। ‘चल ओशो के गांव’ का लेखक जीवन और जगत् के रहस्य से साक्षात्कार और आत्म अनुभव की अभीप्सा से व्याकुल ह्रदय है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रथम दो खण्ड ह्रदय के बंद द्वार खोलने का प्रयास है, तो तृतीय खंड अंतर्यात्रा के मूल्यवान का सूत्र अपने में संजोए हुए है।

भूमिका-एक निमंत्रण


मृदुल-मृदुल भावों के पंछी,
करते जहां बिहार हों,
मुक्त हृदय के गगन पै बैठा
कोई न पहरेदार हो,
चलो-चलें उस गांव रे
पथिक चलें उस गांव रे।

चारों तरफ आपा-धापी, भाग-दौड़ और शोर-शराबा। मन में चलता विचारों का अनवरत ट्रैफिक। बेलगाम होती महत्वाकांक्षाएं। घड़ी के कांटों में उलझी दिनचर्या। आशंकाओं से कम्पित हृदय। भीड़ ही भीड़। बाजार ही बाजार। मशीनों में तब्दील होता आदमी। गुलामी के चेहरे पर चढ़े, आजादी के रंगबिरंगे मुखौटे। ज़िन्दगी के कैनवास पर उभर रही इस तसवीर में जाने-अनजाने हमारे ही द्वारा फेंके गए रंग मौजूद हैं। इस कैनवास पर न पूर्णमासी का चांद है, न सितारों की झिलमिलाहट। न फूलों की मुस्कराहट है और न हवा के झोकों में डोलते दरख्तों का नृत्य।
स्वामी ज्ञानभेद की नवीनतम कृति ‘‘चल ओशो के गांव में’’ पढ़ते हुए जब हम प्रकृति के रोमांच को अनुभव करते हैं, तो हमें लगता है कि शायद हम सब उस गांव को तलाश रहे हैं जहां पहुंच कर हम इस आपा-धापी के बुखार से मुक्त होकर श्वांस ले सकें।

स्वामी ज्ञानभेद का यह ‘ओशो का गांव’ कहीं बाहर नहीं, हमारे ही भीतर है। वो हमारे हृदय का उन्मुक्त आकाश है जिस पर कोई पहरेदार नहीं है, हमारे सिवा।
पुस्तक की पांडुलिपि मुझे थमाते हुए स्वामी ज्ञानभेद का यह आदेश था कि मुझे इसकी भूमिका लिखनी है, मुझे कुछ असमंजस में डाल दिया।

क्या ऐसी पुस्तकों को भी किसी भूमिका या परिचय की जरूरत है ? लेकिन पूरी पांडुलिपि पढ़ने के बाद मुझे लगता है कि पुस्तक में उसकी भूमिका की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका है। ऐसी पुस्तकों के लिये तो और भी अधिक।
भूमिका लेखक और पाठक के बीच एक सेतु निर्मित करती है। जिस सेतु पर अपने-अपने सिरे से चलकर लेखक और पाठक, बहुत निकट आ सकते हैं। यह निकटता बहुत महत्वपूर्ण है। यह निकटता संवेदना और विचारों की है।
‘चल ओशो के गांव में’ जैसी पुस्तकें, भाव और विचार के बल पर पाठकों से कुछ अधिक ही निकटता और ग्राहकता की अपेक्षा रखती हैं। क्योंकि शब्दों से इतर, ऐसा बहुत कुछ वो संप्रेषित करती हैं, जिसको महसूसने और जिसका स्वाद लेने के लिए पाठक को भी तैयार होना होता है। हृदय को कुछ तभी छूता है जब हृदय उस छुअन के लिए तैयार हो। सुन्दर से सुन्दर रचना हृदय को तभी आंदोलित करती है जब हृदय की ओर से भी ग्राहकता और आमंत्रण हो।

जैसे-जैसे जीवन यंत्रवत होता जा रहा है, बुद्धि, तर्क और नफा-नुकसान ही जीवन में सर्वोपरि होते जा रहे हैं। अच्छे साहित्य, संगीत और कला को समझना और महसूसना कठिन होता जा रहा है। शायद आधुनिक जीवन शैली का यह सर्वोपरि घातक दुष्परिणाम है। कुछ थोड़े से ही लोग है, जो बाजार से घिरे होकर भी भावुकता, संवेदनशीलता और हृदय की विराटता को सहेजे हुए हैं। शायद उन्हीं के लिये, नफे-नुकसान के आंकड़ों को ठेंगा दिखाकर, कोई रचनाकार सृजन का आनन्द ले पा रहा है।

‘‘चल ओशो के गांव में’’ बाजार में उपलब्ध तमाम साहित्य के बीच अपनी पहचान बनाने में सक्षम है। ऐसा नहीं लगता है कि लेखक ने योजनाबद्ध होकर किसी विशेष उद्देश्य के तहत पुस्तक की संरचना की है। इस स्वस्फूर्त लेखन में उसने अपने तमाम जीवन के अनुभवों, चिंतन और मनोभावों को पाठकों के साथ बांटा है। वैसे ही जैसे मित्रों के साथ बैठ कर कोई गपशप करे या किसी लम्बी यात्रा से वापस आकर कोई अपने अनुभव को बयां करे।
स्वामी ज्ञानभेद ने काफी यात्राएं की है। जीवन अनुभव की अपार सम्पदा उनके पास है। अपने कालजयी ग्रंथ ‘एक फक्कड़ मसीहा-ओशो’ के लेखक के दौरान लेखक का अनेकानेक लोगों से मिलना हुआ। यात्राएं भी खूब हुयीं। एक लेखक जब इतने प्रगाढ़ अनुभवों को अपने भीतर संभाले हुए हो, तो उसको बाहर उलीचने की कसमसाहट को कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है। ‘चल ओशो के गांव में’ इसी कसमसाहट का परिणाम है। इसी कसमसाहट और इसी प्रसव-पीड़ा ने तमाम उत्कृष्ट साहित्य को जन्म दिया है।

‘चल ओशो के गांव में’ अध्याय दर अध्याय, एक निर्बाध गति से बहती नदी का प्रवाह है। पहाड़ों, मैदानों और जंगलों के बीच से बहती नदी के अलग-अलग ‘मूड’ हैं। कोई नियंत्रण नहीं है। कोई बांध नहीं है। जब प्रात: की उजास फैलती है तब नदी का रंग कुछ और, सांझ का कुछ और होता है। कभी नदी में अल्हड़ता दिखती है और कभी शालीनता। ‘चल ओशो के गांव में’ पढ़ते हुये ऐसा ही कुछ अनुभव किया जा सकता है। लेखक ने कहीं भी अपने को प्रतिबंधित करने की कोशिश नहीं की है।
पुस्तक को तीन खंडों में विभाजित किया गया है।
प्रथम खंड- तन बंजारा, मन बंजारा।
द्वितीय खंड- प्रकृति की गोद में।
तृतीय खंड-ओशो-शून्य की अनुगूंज।

प्रथम खंड, ‘तन बंजारा, मन बंजारा’

इस शीर्षक के अंतर्गत लेखक के यात्रा के अनुभव हैं। महज पैरों की भटकन न होकर, ये य़ात्राएं धरती पर बिखरे सौन्दर्य, रहस्य और विस्मय विमुग्ध कर देने वाले प्राकृतिक और पुरातात्विक धरोहरों की खोज खबर हैं। लेखक इन यात्राओं में बाहर के जगत् को देखते हुए, उसके प्रतिफलन को अपने अन्तस में महसूस करता चलता है। बाहरी यात्रा और अंतर्यात्रा का समानान्तर चलना ही इस खंड की विशिष्टता है। बाहर और भीतर के भेद टूटते दिखायी देते हैं। बाहर की नीरवता, भीतर के शून्याकाश का स्मरण दिलाती है। यही कारण है कि लेखक द्वारा प्रस्तुत वर्णन में, जाने-अनजाने में निर्गुण निराकार सत्ता का गुणगान होने लगता है। रहस्यमय सृष्टि का दर्शन करते हुये सृष्टा का ख्याल न आये, यह कैसे संभव है। चित्र को देखते हुए, चित्रकार का ख्याल आना स्वाभाविक ही है। बाहर के सौंदर्य और अपने विस्मय-भाव को व्यक्त करने के लिये लेखक ने काव्य को भी जगह-जगह पर माध्यम बनाया है। ये कविताएं बहुत प्रासंगिक हैं और लेखक के शब्दों को सुन्दर अलंकरण प्रदान करती हैं।

‘चल ओशो के गांव में’ का लेखक जीवन और जगत् के रहस्य से साक्षात्कार और आत्मानुभव की अभीप्सा से व्याकुल एक हृदय है। इसीलिए चाहे वो फूलों की घाटी हो या रानीखेत के चीड़ वन लेखक के शब्दों में सत्यम-शिवम्-सुन्दरम् की पार्श्व निरंतर सुनाई देती है।

पुस्तक का दूसरा खंड है ‘प्रकृति की गोद में।

जिस प्रकार एक बच्चा मां की गोद में आकर आह्वादित हो जाता है। वैसे ही लेखक प्रकृति की गोद में स्वयं को पाकर आनन्द विह्वल हो उठता है। यद्यपि पहले खंड में ही लेखक ने प्रकृति के साथ संवाद-स्थापित किया है। लेकिन दूसरे खंड में यह संवाद और गहन व अंतरंग हो जाते हैं। ये संवाद प्रकृति और मानव-चेतना के बीच गहरे संबंध को दर्शाते हैं।

लेखक समुद्र और नदी से संवाद करता है। यों गणित और तर्क की दृष्टि से यह बात बचकानी मालूम हो सकती है, लेकिन यह हो सकता है। अगर मूक जन्तुओं से हमारा संवाद हो पाता है, तो पेड़-पौधों, नदी झरनों और पर्वतों से क्यों नहीं ? अन्तत: तो एक ही चेतना सर्वत्र विद्यमान है। पेड़-पौधों की संवेदनशीलता के काफी प्रमाण विज्ञान के पास मौजूद हैं। मुख्य बात है संवेदनशील, जागरूकता या ध्यान। यदि संवेदनशीलता न हो, हृदय के द्वार दरवाजे बन्द हों, तो मनुष्य और मनुष्य के बीच भी कोई संवाद कहां हो पाता है ? यहां पर भी लेखक ने अपने भावों को संप्रेषित करने के लिये यदा-कदा काव्य को माध्यम बनाया है। कविता की उपस्थिति ने प्रकृति से इस सान्निध्य में अनूठा रस घोल दिया है। इस खंड को पढ़ते हुए यदि मस्तिष्क को एक किनारे रखकर हृदय के द्वार खोल दिये जाएं तो बहुत हद तक पाठक अपने को उसी जमीन पर खड़ा महसूस कर सकता है, जिस पर लेखक खड़ा है। नदी की कल-कल, समुद्र का गर्जन, पत्तों की खड़खड़ाहट, हवा की शीतलता, पक्षियों का कलरव, सब कुछ अभी और यहीं उपस्थित होने का आभास हो सकता है।

पुस्तक का तीसरा खंड है-‘ओशो-शून्य की अनुगूंज।


तीसरा खंड अंतर्यात्रा के मूल्यवान सूत्र अपने में संजोये है। ऐसा लगता है कि पहले दो खंड हृदय के बन्द द्वार खोलने का प्रयास है। चेतना को उन्मुक्त करने का प्रयास है या कहें संवेदनशीलता और ग्राहकता को उभारने का प्रयास है। ताकि तीसरे खंड में अध्यात्म और मनोविज्ञान के रहस्यमय जगत् का आमंत्रण सहज स्वीकृत हो सके।

ओशो के प्रेम में पगे लेखक के लिये वह बिल्कुल सहज स्वाभाविक है कि प्रकृति की सुन्दरता का रसपान करते हुए, उसे ओशो का संस्पर्श महसूस हो। यह मुमकिन ही नहीं कि जंगल और पहाड़ों के सन्नाटे को सुनते हुए उसे ओशो की शांत और थिर छवि का स्मरण न आए। रात्रि की नीवरता, नदियों का बहाव, फूलों का हवा के साथ झूमना, पक्षियों का मधुर संगीत और निस्तब्ध खड़ी पहाड़िया। इन सब से मिलकर निर्मित कोलाज ही तो बुद्ध-चेतना का चित्रांकन है।

तीसरा खंड, पहले दो खंडों से कुछ असम्बद्ध-सा लग सकता है, पर है नहीं। पहले दो खंड मंदिर के बाहर की परिक्रमा हैं और तीसरा मंदिर में प्रवेश। इस खंड में ‘संभोग से समाधि’ की साधना में ‘बाउल’ अवधारणा को समाहित करने की चेष्टा बहुत मौलिक और अनूठी है। ओशो की दृष्टि को सुस्पष्ट करने के साथ ही डॉ. सुजूकी और ‘जेन’ के विषय में लेखक ने बहुत ही सारगर्भित सामग्री प्रस्तुत की है। यह प्रस्तुतिकरण बहुत सरल होने के कारण पाठकों के लिए सहज ही बोधगम्य है।
धर्म, सम्प्रदाय और धर्म निरपेक्षता जैसे विषयों को उठाकर बुद्ध और महावीर के दर्शन का सन्दर्भ लेते हुए लेखक ने सुन्दर विवेचना प्रस्तुत की है। इस विषयों पर ओशो की अनूठी जीवन दृष्टि का परिचय भी लेखक ने बहुत सहजता से प्रस्तुत किया है।

‘चल ओशो के गांव में’ पुस्तक में लेखक पाठकों को हौले-हौले, बहलाते-फुसलाते हुये ज्ञात से अज्ञात की ओर ले जाने का प्रयास करता है। ऐसी चेष्टा बहुत शुभ और मंगलकारी है और इसके लिये स्वामी ज्ञानभेद को बहुत बधाइयां।
प्रबुद्ध पाठकों को इस पु्स्तक का पठन-पाठन करने के लिए आमंत्रित करते हुए अब मैं बिदा लेता हूं।

प्रेम निशीथ के प्रणाम
258 जे. आदर्श नगर,
(निकट जे.के. कालोनी),
कानपुर-208010,
उत्तर प्रदेश,
फोन:2460028

नम्र निवेदन


-जहां ध्यान प्रेम की छांव है, वही ओशो का गांव है।
-जहां सहजता, सरलता, संवेदनशीलता और प्रेम है, वहां रहने वाले प्रेमी-मित्रों का हृदय ही ओशो का गांव है।
-किसी अन्य व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा बने बिना, जहां व्यक्ति भीड़ में भी अकेला और स्वतंत्र है, वही ओशो का गांव है।
-जहां प्रति पल उत्सव आनन्द है, जहां रोज दिन में होली और रात दीवाली मनाई जाती हो, वही ओशो का गांव है।
-पूरे अस्तित्व में व्याप्त प्राकृतिक-सौंदर्य ही ओशो का गांव है। नीरज के शब्दों में-

‘‘यहां बहे रस की गंगा वो, ताप मिटे त्रय तापों का।
आता यहां उतर जाता है, जहर विषैले सांपों का।
चार धाम का पुण्य मिले, इस दर पर शीश झुकाने में।
मज़ा कहां वो जीने में, जो मज़ा यहां मर जाने में।
ऐसा बरसे रंग यहां पर, जनम-जनम तक मन भींजै।
फागुन बिना चुनरिया भींगे, सावन बिना भवन भींगे।
यहां दुई की सुई ना चुभती, घुले बताशा पानी में।
पहिने ताज फकीर घूमते, मौला की राजधानी में।

ओशो का गांव तो पूरा एक मयकदा है, जहां रात-दिन ध्यान प्रेम की शराब छलक रही है। तभी स्वामी प्रेम निशीथ गुनगुनाते हैं-

‘‘यहां से काम क्या भला, नीति और विधान को।
यहां न पूछता कोई, वेद और पुराण को।
शर्त प्यास की यहां, प्यार ही विधान है।
मस्तियां हैं प्रार्थना, दीवानगी कुरान है।
बेखुदी है बंट रही, प्रसाद की तरह यहां।
चिराग आरती का है, जो जल उठी शमां यहां।’’

ओशो जैसे सद्गुरु जो शराब ढाल रहे हैं, उसकी तासीर, खुमारी और मस्ती होश खोती नहीं, होश की लौ को और प्रदीप्त करती है।

ये शराब, वो नहीं, जिसे सभी ने पी लिया।
दो घड़ी के वास्ते, पी के होश खो दिया।
कीमत न इस शराब की, कोई दे सका कभी।
और मुफ्त भी इसे, न कोई पी सका कभी।
शब्द-शब्द को यहां, तलाश है नि:शब्द की।
नज़र-नज़र को खोज है, रूप में अरूप की।

ओशो की शराब पीकर मेरी ऐसी दीवानगी बढ़ी, कि मुझे लगा जैसे पूरा अस्तित्व ही एक मयखाना है। वृक्ष शराब पी नशे में झूम रहे हैं, नदियां झरने भी उसी महहोशी में उफन रहे हैं। चांदनी की शराब पीकर सागर में ज्वार उठ रहे हैं। उसी की खुमारी में कोयल और बुलबुल मीठे नगमे गुनगुना रहे हैं। मोर इन्द्रधनुषी पंख फैलाकर मस्ती से नृत्य कर रहे हैं। इस अस्तित्वगत शराब पीने का शऊर तो ओशो से ही मिला है। छककर पीने के बाद ही ढेर सारी बची शराब को ही इस पुस्तक रूप में ढाल कर आपको दे रहा हूं।

इसमें उन क्षणों की झलकियां हैं जब मुझे हंसती इठलाती नदियों में, गीत गाते प्रपातों में, पावन शुभ्रता और पवित्रता बांटते हिममण्डित पर्वत शिखरों में, हंसते मुस्कराते सुवास बिखेरते विविध रंगों के सुंदर पुष्पों में, मस्ती छलकाते हवा में झूमते वृक्षों में और गहन रहस्य की अनुभूति कराते चीड़ देवदारू और शाल वनों में अस्तित्व के ही दर्शन हुए।
अस्तित्व के साथ लयबद्ध होने पर जब कवि या रचनाकार पिघल कर अस्तित्व की एक झलक पाता है तो शब्द के उद्गम का रहस्य अनावृत्त करते हुए वह गुनगुनाता है-

मेरे शब्द वहीं से आते हैं-
जहां से यह नैनसुख आसमान नीला है
जहां से फिरकनी हवाएं बेफिक्र चलती हैं
जहां से चुपचाप चन्द्रमा निकलता है।
अनाहत जंगल की सुनसान स्याही में
सितारे बड़े-बड़े हाथ टंके लगते हैं
मिट्टी जहां से तमाम खिड़कियां खोलकर बाहर झांकती है
और सुन्दर लुभावन फूल खिलते हैं
जहां से पौधे अपनी अलग गंध लेते हैं
मेरे शब्द वहीं से आते हैं।

जब ओशो की करुणा और अनुकम्पा से ध्यान और प्रेम के दो पंखों द्वारा उड़ने, पिघलने, मिटने और अस्तित्व के साथ एकाएक होने की अनुभूति भी होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ हो, तब इन शब्दों का स्रोत कहां से हुआ, इन्हें स्वयं बताने की आवश्यकता ही नहीं। इसका अहसास आपको स्वयं इनमें डूबने पर भली-भांति हो जाएगा।
मेरे इन शब्दों को नि:शब्द की तलाश है। प्रकृति में चारों ओर बिखरे सौंदर्य और रूप में, मैं उसी अरूप को खोज रहा हूं।
पाठकों से निवेदन है कि इस पुस्तक को मस्तिष्क से न पढ़कर हृदय से पढ़े। प्रेम और संवेदनशीलता से पढ़े। निष्क्रिय सजगता से पढ़े। यह स्वस्फूर्त लेखन यदि आपके जीवन में ध्यान और प्रेम के फूल खिला सके, यदि आप मस्ती और आनन्द के अनुभव से गुजर सकें, तो यही इस पुस्तक की सार्थकता होगी।

आपको अपनी मस्ती और आनन्द का सहभागी बनाने के लिए ही मैं आपको सप्रेम आमंत्रित कर रहा हूं।
यह न निबंध है, न लेख और न कहानी या कविता। ये तो मस्ती में महकते जाम हैं। इन्हें मैंने लिखा नहीं, यह कहीं अज्ञात से उतरे हैं।
यह ध्यान, प्रेम और ओशो की देशना में पगे आखर हैं। ओशो कहा करते थे-मेरा हर संन्यासी मेरा राजदूत है। विशेष रूप से वह लेखकों और कवियों से कहते थे-‘‘जन-जन तक मेरा संदेश पहुँचाओ, ठीक उसी तरह जैसे कोयल, बुलबुल व पपीहा गाकर, मोर नाचते हुए और गगन में अपनी लम्बी बाहें पसारे मस्ती में वृक्ष झूमकर परमात्मा का संदेश निरन्तर प्रसारित कर रहे हैं।


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