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भारत का स्वाधीनता संग्राम

अवधेश कुमार चतुर्वेदी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3693
आईएसबीएन :81-288-0095-7

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1857 के स्वाधीनता संग्राम का वर्णन

Bharat Ka Swadhinta Sangram a hindi book by Avdhesh Kumar Chaturvedi -भारत का स्वाधीनता संग्राम - अवधेश कुमार चतुर्वेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वतंत्रता की चेतना मनुष्य में हमेशा मौजूद रहेगी। न वह कभी मरी है न मरेगी। स्वतंत्रता प्राप्त करने के ढंग से भले ही भिन्न हों, चाहे वह शसक्त क्रान्ति द्वारा हो या महात्मा गाँधी द्वारा अपनाए गए असहयोग आन्दोलन द्वारा, वह हमेशा जीवित रहेगी। भारत का स्वाधीनता संग्राम मनुष्य की इस स्वतंत्र चेतना का जीता जागता सबूत है। इस पुस्तक में प्रस्तुत है 1857 के प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर 1947 तक की स्वाधीनता और बटवारे के तूफान की रोमांचक गाथा।

भारत का स्वाधीनता संग्राम

जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया तो अंग्रेजों की जकड़ और भी मजबूत हो गयी और दिन प्रतिदिन उनके अत्याचार बढ़ने लगे।
तब देश में एक नयी जागृति आई और देश को स्वतंत्र करवाने के लिए देश का बच्चा-बच्चा स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ा। प्रस्तुत है उसी स्वतंत्रता संग्राम की रोमांचक गाथा।

राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की रोमांचक गाथा


भारत में बहुत से क्रांतिकारी इतिहास की किताबों में सिर्फ एक नाम बनकर रह गए हैं। मगर फांसी के सत्तर साल बाद भी भगत सिंह की याद राष्ट्र में ताजी है। शहीदे आजम भगत सिंह का जीवन इतिहास के सर्वश्रेष्ठ विपरीत लक्षणों में से एक है। वे उस समय में जिए जब आजादी की पुकार भारत को झकझोर रही थी। मुकद्दमें के दौरान भगत सिंह और उनके साथियों ने ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’, गीत गाया जिसने हर भारतीय के दिल में जलती हुई आजादी की चाह को एक आवाज दी।

भगत सिंह एक सच्चे क्रांतिकारी थे जिन्होंने सबसे पहले इन्कलाब जिन्दाबाद का नारा दिया, जो कि बाद में भारत की आजादी की लड़ाई में उद्घोष बन गया। क्रांति की वेदी पर उन्होंने अपनी जवानी को फूल की तरह चढ़ा दिया।
पुस्तक ‘भारत का स्वाधीनता संग्राम’ में लेखक अवधेश चतुर्वेदी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की रोमांचक गाथा और देश में उभरे तत्कालीन जागृति का सविस्तार उल्लेख प्रस्तुत किया है। यह पुस्तक प्रत्येक भारतीय को अपने देश के प्रति सच्ची जागरूकता के लिए प्रेरित करने में उपयोगी साबित होगी।

लेखक- अवधेश चतुर्वेदी

भारत का स्वाधीनता संग्राम
पृष्ठभूमि


भारत एशिया महाद्वीप के दक्षिण में हिन्द महासागर पर, अरब प्रायद्वीप (सऊदी अरेबिया) और हिन्द-चीन प्रायद्वीप के मध्य में बसा हुआ है। उत्तर में विशालकाय हिमालय पर्वत है और दक्षिण की तीनों दिशाओं में विशालकाय समुद्र है।
सन् 1498 में वास्को डी गामा नामक एक पुर्तगाली यात्री ने आशा अंतरीप का चक्कर लगाकर दक्षिणी-पश्चिमी तट के नगर ‘कालीकट’ के समुद्र तट पर पहुँच कर, इस सोने की चिड़िया के नाम से मशहूर हिन्दुस्तान में कदम रखा।
वाल्को डी गामा की इस यात्रा से विदेशियों के लिए भारत आने का एक नया मार्ग खुल गया था। तब तक हमारे देश हिन्दुस्तान का नाम, आर्यावर्त, था। यहाँ के नागरिकों को आर्य कहा जाता था।

सन् 1526 में मुगलों ने हिन्दुस्तान पर हमला किया तब के आर्यावर्त के अन्दर छोटी बड़ी सैकड़ों रियासतें थी। इन पर हमला करके बाबर ने मुगलों की सलतनत कायम कर ली। हुमायूं और अकबर ने हिन्दुस्तान में मुगल सल्तनत की स्थापना में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण योगदान किया। अकबर ने दीन-ए-इलाही नाम का नया धर्म चलाया। जिसकी वजह से सारे भारत को एकता की डोर में बांधने का प्रयास किया गया था पर अकबर के बाद जहांगीर व शाहजहाँ अमोद-प्रमोद में मग्न रहने लगे। औरंगजेब मुगलकाल का सबसे निरंकुश शासक था। जिसने मुगल साम्राज्य को और मजबूत किया। और इस्लाम धर्म को अधिक विस्तार से फैलाया।

सन् 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गयी। उसके बाद उसके उत्तराधिकारी ज्यादा वीर नहीं थे। इसी दौरान नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली ने हिन्दुस्तान पर हमला कर दिया। इन लोगों ने लाखों रुपयों की सम्पत्ति लूट ली और हजारों आदमियों को मार डाला।

इसी समय यूरोप से भी कुछ लोग भारत में आये। ये लोग यहाँ पर व्यापार करने के नाम पर आये थे। इनमें पुर्तगाल, हालैंड, फ्रांस और इंगलैंड के लोग थे। इन विदेशी व्यापारियों में जोर-शोर से लड़ाईयां होने लगीं।

सन् 1600 में इंगलैंड में ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना हुई। इसका उद्देश्य भारत में व्यापार करना था। इंग्लैंड की ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1756 में कलकत्ता में नील की कोठियां प्रारंभ कर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापार की नींव रखी।
ईस्ट इंडिया कंपनी के संस्थापकों ने धीरे-धीरे यह महसूस किया कि भारत की रियासतें बहुत कमजोर थीं। इसलिए अनेक शासकों से बड़ी ही आसानी से सत्ता हथियाई जा सकती है। इसी योजना के तहत धीरे-धीरे ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शासन के पंजे फैलाने शुरू किये। उन्होंने हिन्दुस्तानी राजाओं को हटाकर अपना शासन स्थापित करना शुरू कर दिया। जिसका विरोध सबसे पहले बंगाल के नवाब सिराजुदौल्ला ने किया। जिसके कारण अंग्रेजों और सिराजुदौल्ला के बीच बहुत ही भयंकर युद्ध हुआ। नवाब सिराजुदौल्ला इस युद्ध में बुरी तरह से हार गया।


इसके बाद अंग्रेज भारत की रियासतों में खुले आम अपना हस्तक्षेप करने लगे। सिराजुदौल्ला के बाद मीर कासिम ने बंगाल में अंग्रेजों से लोहा लिया और हार गया। इसी तरह दक्षिण भारत के मैसूर के राजा हैदरअली और उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों से टक्कर ली और बुरी तरह हारे।

हैदराबाद के नवाब, मुगल सम्राट, अवध के नवाब, इन सभी ने अलग-अलग अंग्रेजों से टक्कर ली। परन्तु कोई भी उनसे जीत न सका। मराठा और सिखों ने भी अंग्रेजों से टक्कर ली और बुरी तरह मुंह खाई।

अंग्रेज सैनिक संख्या में तो कम थे, पर बहुत चतुर और वीर थे। उनके पास आधुनिक हथियार थे। जबकि देशी राजा एक तो अलग-अलग रियासतों में बंटे हुए थे, इसके अलावा उनके पास न तो पर्याप्त सेनायें थीं न हथियार ही थे।
शाह आलम मुगल बादशाह था। एक दिन लार्ड डलहौजी ने उसको यह सलाह दी कि शाह आलम अपनी फौज सहित शाही दरबार को लेकर मुंगेर के किले में जाकर रहने लगे तो अच्छा रहेगा पर शाह आलम ने इन सलाहों को पूरी सख्ती से ठुकरा दिया। लार्ड हेस्टिग्ज ने देशी रियासतों के साथ थोड़ी नरमी का रुख अपनाया।

पर उसके बाद जो गर्वनर आया उसका नाम लार्ड डलहौजी था। जिसने सबसे पहले कम्पनी द्वारा स्थापित शासन के लिए कई नये कानून बनाये। जिसमें सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कानून था-राजाओं के उत्तराधिकार कानून में महत्वपूर्ण परिवर्तन। अब तक जिन राजाओं के कोई संतान नहीं होती थी वह अपने राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में किसी बच्चे को गोद ले लेते थे।

लार्ड डलहौजी ने इस उत्तराधिकार कानून में सबसे बड़ा परिवर्तन यह किया कि राजाओं के निसंतान रहने की अवस्था में उनके द्वारा गोद ली गयी संतान राजा के उत्तराधिकारी का दर्जा प्राप्त नहीं कर सकेगी। ऐसे राज्य को अंग्रेजी शासन में शामिल कर लिया जायेगा।

लार्ड डलहौजी ने इस कानून के अलावा कई राजाओं की पदवी छीन ली, उनकी पेंशन बंद कर दी। कई जमीदारों की जमीदारियां छीन ली गयीं। मुगल बादशाहों की तस्वीरों वाले सिक्के समाप्त कर अंग्रेजों की तस्वीर वाले नये सिक्के प्रचलन में लाये गये। सेना में बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज अफसरों की नियुक्ति रियासतों को जबरदस्ती करनी पड़ी। अंग्रेज अधिकारियों को अधिक वेतन देना पड़ता। भारतीयों की अंग्रेजों के सामने कोई इज्जत नहीं रही।

इसके बाद अंग्रेजों ने भारतीय जनता के सामाजिक और धार्मिक कार्यों में भी पूरी तरह से हस्तक्षेप करना आरम्भ कर दिया। अंग्रेजी शिक्षा, ईसाई धर्म का प्रचार होने लगा। लार्ड डलहौजी ने हिन्दुस्तान में रेल सेवा आरंभ की। उस समय हिन्दू समुद्र के पार जाना अच्छा नहीं समझते थे इसके बावजूद देशी रियासतों के हिन्दू और मुसलमान सैनिकों को हिन्दुस्तान से बाहर लड़ने को भेजा गया।

अंग्रेजों ने भारत की खनिज संपत्ति को भी बाहर भेजने प्रारंभ किया। इसके अलावा खेती के क्षेत्रो की अपेक्षा करके नये उद्योग-धंधों की स्थापना होने लगी। भारत में चल रहे देशी प्राचीन देशी उद्योगों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया। यहाँ की वस्तुओं को कम कीमत में खरीदा जाता और भारत के कच्चे माल से बनी वस्तुओं को अधिक दाम में बेचा जाता।

जैसे हमारे देश की कपास कम दामों में खरीद कर इंगलैंड भेजी जाती जहाँ उसी कपास से मिलों में कपड़ा तैयार होता जो भारत के बाजारों में महंगे दामों पर बेचा जाता। इस तरह भारत की गरीबी इतनी बढ़ गयी कि वह पूरी तरह से कंगाल हो गया। यहाँ के लोग धीरे-धीरे बेकार होने लगे। तभी पड़े अकाल ने और रही सही कसर पूरी कर दी। हमारे देश के लोग भूखे मर रहे थे और अंग्रेज मजे उड़ा रहे थे।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार कर अपनी तिजोरियां पूरी तरह से भर ली थी। व्यापार की बजाय उन्होंने हिन्दुस्तान में अपना राज्य ही कायम कर लिया था। पर अन्याय का यह सिलसिला ज्यादा समय नहीं चलने वाला था। जनता के मन में इस अनाचार के खिलाफ चेतना जाग रही थी। अत्याचार के सामने तो पशु भी मौन नहीं रहते फिर हम तो इंसान थे। भले ही नासमझ थे, पर अपनी आजादी का मूल्य हम सब जानते थे।

इस कारण अंग्रेजी शासन का पूरी तरह से प्रतिरोध होने लगा। सन् 1857 के प्रमुख विद्रोह होने के पूर्व से ही हर साल कोई न कोई विद्रोह होने लगा। इन विद्रोहों को मुख्यत: तीन भागों में बाँटा जा सकता है, नागरिक के विद्रोह, आदिवासियों के उपद्रव और किसान आंदोलन व विद्रोह।

नागरिक विद्रोह


भारत में ब्रिटिश शासन की जड़े जमने के साथ-साथ ही भारतीय जनता में गंभीर असंतोष और आक्रोश की क्रिया जन्म ले रही थी। इसका प्रभाव फिरंगी सेना में मौजूद भारतीय सिपाहियों पर भी पड़ा। यह असंतोष बेदखल किये सरदारों, उनके उत्तराधिकारियों व उनके संबंधियों, जमीदारों, भूतपूर्व सैनिकों, अहलकारों व भारतीय रियासतों की कृपा पर पलने वाले किसानों, कारीगरों द्वारा इन विद्रोहों में हिस्सा लेने से उत्पन्न हुआ। ये ही इस असंतोष के आधार थे।

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