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ओशो साहित्य >> बूझे बिरला कोई

बूझे बिरला कोई

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3700
आईएसबीएन :81-7182-828-0

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इस पुस्तक का नाम ‘बूझे बिरला कोई’ कबीर के एक पद का सूत्र है।

Boojhe Birla Koi a hindi book by Osho - बूझे बिरला कोई - ओशो

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आकाश से तुमने मेघों को बरसते देखा लेकिन तुमने कभी मेघ आकाश पर बरसते देखे ? जब धरती का कोई बेटा, कोई बुद्ध, कोई कबीर खिलता है, हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिलता है जब उसके सहस्त्रार में और जब उसकी पूरी-प्राण ऊर्जा आकाश की तरफ प्रवाहित होती है, तब महादान घटित होता है। तब प्रकाश पर मेघ घिर जाते हैं बुद्धों के। बुद्ध ने तो जो शब्द प्रयोग किया है उस परम अवस्था के लिए, उसका नाम ही मेघ समाधि है। एक बादल की तरह आकाश पर बरस जाती है पृथ्वी।


जिन्होंने हो तुझे देखा, नयन वे और होते हैं
कि बनते वन्दना के छन्द, क्षण वे और होते हैं।
गहन वन, गर्त, खाई चलना है मुनासिब;
पर तुझे ही देखते, मगन वे और होते हैं।


ओशो के धरती पर स्वर्ग से झरे पारिजात के फूल शब्दों ने मुझे आनन्द विभोर कर दिया।


भूमिका


इस पुस्तक का नाम ‘बूझे बिरला कोई’ कबीर के एक पद का सूत्र है। रहस्यदर्शी कबीर स्वयं एक रहस्य हैं-एक ऐसा रहस्य जिसे कोई विरला व्यक्ति ही पूछ सकता है; विरला व्यक्ति, जो कबीर की ही अवस्था में पहुँच गया हो।
ओशो ऐसे ही अबूझ व्यक्ति हैं। अष्टावक्र, बुद्ध, महावीर, गोरख, नानक, कबीर, मीरा, रैदास, ये संबुद्ध रहस्यदर्शी पूरी मनुष्य-जाति के अबूझ लोग हैं, जो सनातन काल से हमें अपने अबूझ जगत की ओर आकर्षित करते रहे हैं तथा अपनी उपस्थिति से उसका स्वाद देते रहे हैं। लेकिन कुछ विरले ही लोग उनके साथ हो लिए और निकल पड़े उनके अंतस लोक के पथ पर।
अपने मीठे प्रवचनों के माध्यम से ओशो उस अबूझ जगत में हमारा आह्वान करते हैं, जिसकी अभिव्यक्ति कबीर ने उलटबाँसियों के माध्यम से की है-


अंबर बरसै धरती भीजै, यह जाने सब कोई
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझे बिरला कोई।

ओशो कहते हैं : आकाश से तुमने मेघों को बरसते देखा लेकिन तुमने कभी धरती के मेघ आकाश पर बरसते देखें ?
जब धरती का कोई बेटा, कोई बुद्ध, कोई कबीर खिलता है, हजार पंखुड़ियों वाला कमल खिलता है जब उसके सहस्रार में और जब उसकी पूरी प्राण-ऊर्जा आकाश की तरफ प्रवाहित होती है, तब महादान घटित होता है। तब आकाश पर मेघ घिर जाते हैं बुद्धों के। बुद्ध ने तो जो शब्द प्रयोग किया है उस परम अवस्था के लिए, उसका नाम ही मेघ-समाधि है। एक बादल की तरह आकाश पर बरस जाती है पृथ्वी।
‘कबीर कहते हैं :धरती बरसै अंबर भीजै।’... हमने उल्टा भी देखा है : धरती को बरसते और अंबर को भीजते भी देखा है। स्रष्टा ने तो स्रष्टि को भी स्रष्टा को लौटाते देखा है। परमात्मा ने तो सबको बनाया ही है, उसने तो सबको आपूर दिया है। लेकिन हमने एक और बात भी देखी है कि हमने परमात्मा की तरफ सृष्टि से जाते हुए मेघ भी देखे हैं और हमने पृथ्वी को ही नाचते नहीं देखा है मेघों में घिरे, हमने परमात्मा को भी नाचते देखा है।
‘जब बुद्ध का मेघ लौटता है परमात्मा की तरफ, तब परमात्मा भी नाचता है। वह नटराज है। उसकी प्रसन्नता का क्या कहना उन क्षणों में !’
कबीर का, ओशो का उस अबूझ लोक में निमंत्रण है, जहाँ हम अपने भीतर धन्यता को, अहोभाग्य को उपलब्ध होते हैं और अस्तित्व को अपने भीतर से उठी सुरभि से सुवासित करते हैं। वह सुरभि है ध्यान की, वह सुवास है संबोधि की। कबीर से प्रेम का, ओशो से प्रीति का एक ही अर्थ है कि हम अपने कदम उस दिशा की ओर बढ़ाएँ, जिस ओर से वे इशारा कर रहे हैं। फिर हम भी उन विरले लोगों में हो सकते हैं।

स्वामी चैतन्य कीर्ति


अवधू जोगी जग थैं न्यारा।
मुद्रा निरति सुरति कर सींगी, नाद न खंडै धारा।
बसै गगन मे दुनि न दैखे, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि आकाश आसण नहिं छाड़ै, पीवे महारस मीठा।
परगट कंथा माहै जोगी, दिल में दरपन जोवै।
सहंस इकीस छह सै धागा, निश्चल नाकै पोवै।
ब्रह्म-अगनि में काया जारै, त्रिकुटि संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेस्वर, सहज, सुंनि लौ लागै।


जीवन मिट्टी का दीया है; लेकिन ज्योति उसमें मृण्मय की नहीं, चिन्मय की है। दीया पृथ्वी का, ज्योति आकाश की; दीया पदार्थ का, ज्योति परमात्मा की। दीया एक अपूर्व संगम है।
इसे ठीक से समझ लेना, क्योंकि तुम भी मिट्टी के दीये हो। लेकिन वही तुम्हारी परिसमाप्ति नहीं है। और अगर ऐसा तुमने जाना कि तुम बस मिट्टी के ही दीये हो तो तुम जीवन की सार्थकता और सत्य से वंचित रह जाओगे।
दीया जरूरी है, लेकिन ज्योति के होने के लिए जरुरी है; ज्योति के बिना दीये का क्या अर्थ ? ज्योति खो जाए, दीये का क्या मूल्य ? ज्योति न हो तो दीये का क्या करोगे।
ज्योति की स्मृति बनी रहे, ज्योति निरन्तर आकाश की तरफ उठती रहे तो दीये सीढ़ी है और तब तुम दीये को धन्यवाद दे सकोगे। जिन्होंने भी आत्मा को जाना, वे शरीर को धन्यवाद देने में समर्थ हो सके। जिन्होनें आत्मा को नहीं जाना, वे या तो शरीर को मानकर चलते रहे, ज्योति दीये का अनुसरण करती रही और निरंतर गहन-से-गहन अचेतना या मूर्छा में गिरते गए या जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना, उन्होंनो व्यर्थ ही शरीर से, दीये से संघर्ष मोल ले लिया। जो साथी हो सकता था, उसे शत्रु बना लिया।

जिन्हें तुम संसारी कहते हो, वे पहले तरह के लोग हैं—जिनके भीतर का परमात्मा जिनके बाहर के खोल का अनुसरण कर रहा है; जिन्होंने गाड़ी के पीछे बैल जोत दिये हैं और बैल, गाड़ी के साथ घिसट रहे हैं। जिन्होंने क्षुद्र को आगे कर लिया है और विराट को पीछे, उनके जीवन में अगर दुख-ही-दुख हो तो आश्चर्य नहीं।

ये संसारी लोग हैं, जिन्हें तुम भोगी कहते हो। फिर इनके ठीक विपरीत खड़े तथाकथित योगी हैं, धार्मिक लोग हैं। स्मरण रखें, मैं उन्हें तथाकथित कहता हूँ, क्योंकि वे नाम मात्र के योगी हैं। उन्होंने गाड़ी और बैल के बीच संघर्ष कर रखा है, उन्होंने दिये और ज्योति के बीच शत्रुता बाँध रखी है; उन्होंने आत्मा और शरीर के बीच एक कलह निर्मित कर रखी है, एक संघर्ष रच रखा है। भोगी तो भ्रांत है ही; तुम्हारा तथाकथित योगी भी भोगी से भिन्न नहीं है। वास्तविक योगी कौन है ?
वास्तविक योगी वही है, जिसने दीये के सहयोग का उपयोग कर लिया ज्योति को प्रज्वलित करने में; दीये से शत्रुता न बाँधी और न ही दीये का अनुसरण किया; न ही बैल, गाड़ी के पीछे बाँधे और न ही गाड़ी और बैल की बीच किसी तरह की कलह पैदा की; वरन सामंजस्य साधा, एक सहयोग निर्मित किया।
निश्चय ही सहयोग अति कठिन है, क्योंकि ज्योति जाती है आकाश की तरफ। वह आकाश की है, आकाश की तरफ जाती है। दीया मिट्टी का है, मिट्टी में ही पड़ा रह जाता है। दोनों के आयाम बड़े भिन्न हैं, यात्रा बड़ी अलग है। फिर भी दीये और ज्योति में एक संगम है। वैसा ही संगम साध लेना योग है; शरीर और स्वयं में, मृण्मय और चिन्मय में।
कीचड़ में कमल पैदा होता है। तुम्हारे शरीर की कीचड़ से तुम्हारी आत्मा का कमल पैदा होगा। कीचड़ से दुश्मनी मत करना, अन्यथा कमल पैदा ही न होगा। कीचड़ और कमल में कितना ही विरोध दिखाई पड़े, भीतर गहरा सहयोग है। कीचड़ कितनी ही कीचड़ लगे; कहाँ, संबंध भी तो मालूम नहीं पड़ता। कमल-सुंदर, अपूर्व सुंदर, अद्वितीय रेशम-सा कोमल ! कहाँ कीचड़ गंदी दुर्गंध भरी। कहाँ कमल की सुवास ! दोनों में कोई तो नाता दिखाई नहीं पड़ता।
और अगर तुम जानते न होओ और कोई कीचड़ का ढेर लगा दे और कमल के फूलों का ढेर, और तुमसे कहे कि इन दोनों में कोई संबंध दिखाई पड़ता है ? तो तुम भी कहोगे कि इन दोनों में कैसा संबंध ! कहाँ कीचड़, कहाँ कमल ! लेकिन तुम जानते हो, कीचड़ से कमल पैदा होता है। मृण्मय में चिन्मय का जागरण होता है।
कीचड़ से कमल पैदा होता है, इसका अर्थ ही यह हुआ कि कीचड़ ऊपर-ऊपर से गंदी दिखाई पड़ती है, भीतर तो कमल जैसी ही होगी। इसका अर्थ हुआ कि दुर्गंध ऊपर का परिचय है; सुगंध भीतर का परिचय है। शरीर को ही तुमने अगर देखा हो तो तुम कीचड़ पर रुक गए और कमल से अपरिचित रह गए। अगर तुमने शरीर से शत्रुता की और शरीर को दबाने और गलाने में लग गए, तो भी तुम वंचित रह जाओगो, क्योंकि उस संघर्ष से कमल पैदा न होगा। कमल तो पैदा होता है कीचड़ के सहयोग से।
इस सहयोग का नाम ही योग की कला है। योग अस्तित्व की दुई के बीच एक को खोज लेने की कला है। जहाँ दो दिखाई पड़ें—अत्यंत विपरीत, वहाँ भी एक के ही सेतु को देख लेना, एक के ही जोड़ को देख लेना; वही योग की परम दृष्टि है।
इस लिए मैं निरंतर कहता हूँ, तुम्हारे भीतर छुपा हुआ काम ही तुम्हारे भीतर का छुपा हुआ राम बन जाएगा। तुम्हारे भीतर संभोग की वासना ही तुम्हारे आत्यंतिक खिलावट के क्षण में तुम्हारी समाधि बन जाएगी। तुम्हारी कीचड़ तुम्हारा कमल होने को है।

लड़ो मत; सम्हालो। अन्यथा तुम काटने-पीटने में लग जाओगो। काटना-पीटना एक तरह की हिंसा है। और काटना-पीटना एक तरह का गहन अज्ञान है। क्योंकि अस्तित्व व्यर्थ को पैदा ही नहीं करता। कितना ही तुम्हें व्यर्थ मालूम पड़ती हो कोई चीज; अस्तित्व ने व्यर्थ को पैदा करना जाना ही नहीं है। इस लिए तो हम अस्तित्व को परमात्मा कहते हैं। क्योंकि अस्तित्व कोई अंधा संयोग नहीं है; एक सुनियोजित यात्रा है। अस्तित्व कोई अंधी दौड़ नहीं; एक नियति है। एक परम ऋत, परम नियम काम कर रहा है। यहाँ कुछ भी व्यर्थ नहीं है।
तुम्हारा काम, तुम्हारी काम-वासना व्यर्थ नहीं है। जिन्होंने तुमसे कहा है, वे नासमझ हैं। तुम्हारी काम-वासना ही तुम्हारा परम जीवन भी है; उस पर ही रुके तो भी मर जाओगे; उससे लड़े तो भी मिट जाओगे। उससे ऊपर जाना है, और उसको ही सीढ़ी बनाकर जाना है, उससे ऊपर जाना है। उसका ही सहयोग लेना है। उसके ही कंधे पर हाथ रखना है। निश्चित ऊपर जाना है, पार जाना है, अतिक्रमण करना है; लेकिन संघर्ष से नहीं, अत्यंत प्रेमपूर्ण, अत्यंत कलात्मक विधियों से।
लेकिन तुम्हारी समझ में बहुत बार ऐसा लगेगा : क्रोध का क्या उपयोग है इसे काट डालो।
अगर तुम शरीर शास्त्रियों से पूछो तो वे भी कहते हैं कि शरीर में बहुत-सी चीजें हैं, जिनका कोई उपयोग नहीं। उन्हें भी पता नहीं है। डाक्टर कितनी सरलता से अपेंडिक्स का आपरेशन करता है। टांसिल तो यूँ निकाल देता है जैसे कि उनकी जरुरत ही नहीं और चिकित्साशास्त्र अभी तक भी खोज नहीं पाया कि इनकी जरुरत क्या हैं। लेकिन वे हैं तो उनकी जरूरत तो होनी ही चाहिए अन्यथा अस्तित्व एक दुर्घटना-मात्र हो जाएगा। और डाक्टर काटते रहते हैं टांसिल, जिसके टांसिल काट दिए, उसके बेटे को फिर टांसिल परमात्मा पैदा कर देता है। डाक्टर काटते रहते हैं अपेंडिक्स, लेकिन फिर उसके बेटे को अपेंडिक्स आ जाती है।
इतनी व्यर्थ चीज पुनरुक्त हो नहीं सकती थी। जरुर कोई रहस्य होगा, जो हमें दिखाई नहीं पड़ रहा है। जहाँ तक हमारी समझ है वहाँ तक व्यर्थ ही मालूम पड़ता है। डाक्टर के पास जाओ, वह पहले यही देखता है कि अपेंडिक्स निकाल दें कि टांसिल निकाल दें, कि दाँत निकाल दें-कुछ-न-कुछ निकालने पर लगा है।

जो डाक्टर की मनोदशा है वही तुम्हारे धर्मगुरु की मनोदशा है। तुम जाओ उसके पास, वह फौरन बताने को तैयार है कि क्रोध को अलग करो, काम-वासना का त्याग करो, लोभ छोड़ो, हिंसा छोड़ो-वह भी काटने को लगा है। सर्जरी शरीर पर भी चल रही है आत्मा पर भी चल रही है। लेकिन जिन्होंने गहरे जाना है, वे इसके विरोध में हैं, क्योंकि इस्लाम में एक बड़ी महत्त्वपूर्ण धारणा है—
वह योग की भी धारणा है, शायद इस्लाम तक योग से पहुँची होगी, क्योंकि इस्लाम तो नया है, योग अति प्राचीन है।
इस्लाम की धारणा है परमात्मा के पास जब तुम जाओगे तो वह तुमसे पूछेगा कि तुम पूरे वापस लौटे हो ? अगर तुम अधूरे वापस लौटे हो तो दंण्डित किए जाओगे। परमात्मा ने जितना तुम्हें दिया था, कम-से-कम उतने तो वापस लौटना; ज्यादा न कर सको तो क्षमा माँग सकते हो, लेकिन कम होकर तो मत लौटना।
इसके अनेक आयाम हैं, इस बात के। निश्चित ही परमात्मा ने जितना तुम्हें दिया है, उतना तो कम-से-कम लौटा ले जाना। उसको काट मत लेना। उससे बढ़ा सको तो ठीक। बीज दिया था, अगर फूल हो सके तो ठीक; लेकिन कम-से-कम बीज तो लौटा देना।
जीसस की बड़ी प्राचीन कथा है। जीसस निरंतर उसे दोहराते थे कि एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था, लेकिन निश्चय न कर पाता था कि कौन योग्य और कौन सुपात्र है। तीनों ही जुड़वाँ पैदा हुए थे, इसलिए उम्र से तय न किया जा सकता था। तीनों एक से एक बुद्धिमान थे। तो उसने एक फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक गुर बताया।
उसने बेटों से कहा कि मैं तीर्थ-यात्रा पर जा रहा हूँ। और बेटों को उसने कुछ बीज दिए-फूलों के बीज-और कहा कि सम्हाल कर रखना; जब मैं लौट आऊँ, तब मैं तुमसे वापस माँगूँगा।
पहले बेटे ने सोचा कि इन बीजों को कोई बच्चे उठा लिए, कोई जानवर चर गया-तिजोड़ी में बन्द कर दें। तिजोड़ी में बंद करके रख दिए। निश्चिंत हो गया। लोहे की तिजोड़ी ! चोरों का भी क्या डर ! और कौन चोर लोहे की तिजोड़ी तोड़कर बीज चुराने आएगा ! वह निश्चिंत रहा। बाप आएगा लौटा देंगे। दूसरे ने सोचा कि तिजोड़ी में रखूँ, बीज सड़ सकते हैं; और बाप ने ताजा जीवित बीज दिए और मैं सड़े लौटाऊँ-यह तो लौटाना न हुआ। क्या करूं ? बीज कैसे जीवित रहें ? उसने सोचा बाजार में बेंच दूँ, तिजोड़ी में रुपए रख दूँ। बाप जब वापस आएगा, बाजार से बीज खरीदकर लौटा देंगे।
तीसरे ने सोचा बीज का अर्थ ही होता है होने की संभावना। बीज का अर्थ ही होता है जो होने को तत्पर है, जिसके भीतर कुछ होने को मचल रहा है। तो बाप ने बीज दिए हैं, मतलब साफ है कि इन्हें इतना ही जिसने रखा, वह नासमझ है। ये तो बढ़ने को राजी थे, ये तो फूल बनने को राजी थे और एक बीज से करोड़ बीज बनने को राजी थे। पता नहीं, बाप कब लौटे, तीर्थ लम्बा है, यात्रा वर्षों लेगी-उसने बीज बो दिए।
तीन बरस बाद वापस लौटा पिता। पहले बेटे को उसने कहा, उसने तिजोड़ी की चाबी दे दी। खोली गयी तिजोड़ी, करीब-करीब सभी बीज सड़ चुके थे। न हवा लगी, न सूरज की रोशनी लगी और किसी ने उन पर ध्यान ही नहीं दिया तीन वर्ष तक तिजोड़ी में लोहे की।
बीज कोई लोहे की तिजोड़ियों में बंद करने को थोड़े ही हैं। उन्हें खुला आकाश चाहिए, हवा की पुलक चाहिए, रोशनी चाहिए तो वे जिंदा रह सकते हैं। वे सब सड़ गए थे। और जिन बीजों से फूलों की अपूर्व सुवास पैदा हो सकती थी, उनकी जगह उस तिजोड़ी से सिर्फ दुर्गंध निकली—सड़े हुए बीजों की दुर्गन्ध।
बाप ने कहा : तुमने सम्हाला तो, लेकिन सम्हाल न पाए। तुम मेरी संपत्ति के अधिकारी नहीं हो सकोगे। जितना मैं तुम्हें दे गया था, उतने भी तुम वापस न कर पाए। ये बीज तो समाप्त हो गए। इनमें अब एक भी जीवित नहीं है। अब उनको बोओगे तो कुछ भी पैदा नहीं होगा। यह तो राख है और मैं तुम्हें बीज दे गया था। बीज थे जीवंत उनमें संभावना थी बहुत होने की। इनकी सारी संभावना खो गई है, सिर्फ राख है, इनमें कुछ भी नहीं हो सकता। ये कब्रें हैं।
दूसरे बेटे से कहा। दूसरा बेटा भागा बाजार रुपए लेकर, बीज खरीदकर ले आया ठीक उतने ही जितने बाप दे गया था। बाप ने कहा कि तुम थोड़े कुशल हो, लेकिन तुम भी काफी नहीं; क्योंकि जितना दिया था उतना ही लौटाना भी कोई लौटाना है ! यह तो जड़ बुद्धि भी कर लेता। इसमें तुमने कुछ बुद्धिमत्ता न दिखाई और बीज का तुम राज न समझे। बीज का मतलब ही यह है कि जो ज्यादा हो सकता था। उसे तुमने रोका ज्यादा न होने दिया। तुम पहले से योग्य हो लेकिन पर्याप्त नहीं।
तीसरे बेटे से पूछा कि बीज कहाँ हैं ? तीसरा बेटा बाप को भवन के पीछे ले गया, जहाँ सारा बागीचा फूलों और बीजों से भरा था। उसके बेटे ने कहा, ‘ये रहे बीज ! आप दे गए थे; मैंने कहा इन्हें बचाकर रखने में मौत हो सकती है। इन्हें बाजार में बेचना उचित न मालूम पड़ा, क्योंकि आप सुरक्षित रखने को कह गए थे और फिर आपने चाहा था कि यही बीज वापस लौटाए जाएँ। बाजार से तो दूसरे बीज वापस लौटेंगे, वे वही न होंगे। फिर वे उतने ही होंगे, जितने आप दे गए थे। तो मैंने बीज बो दिए थे। अब ये वृक्ष हो गए है। इनमें बहुत से बीज लग गए हैं, बहुत फूल लग गए हैं। हजार गुने करके वापस लौटाता हूँ।
स्वभावतः तीसरा बेटा बाप की संपत्ति का मालिक हो गया।
इस्लाम कहता है : परमात्मा ने तुम्हें जितना दिया है कम-से-कम उतना तो लौटाना। अगर बढ़ा न सको....बढ़ा सको तब तो बहुत...। और इस आधार पर सर्जरी पसंद नहीं करता।
एक बड़ी अनूठी कहानी मैंने सुनी है; सच न भी हो, फिर भी बड़ी गहराई से सच्चाई को छूती है। ब्रिटिश राज्य के जमाने में लाहौर में एक बहुत बड़ा सर्जन था-अंग्रेज। और पठान तो आपरेशन के बिलकुल खिलाफ है तो अंगुली भी कट जाए तो वे संभालकर रखते हैं उसे। जब आदमी मर जाता है, उसकी अंगुली को उसकी अंगुली में जोड़कर लाश में रखते हैं, क्योंकि परमात्मा कहेगा : पूरा ! अंगुली कटी है, अंगुली कहाँ गई ?





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