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ओशो साहित्य >> कृष्ण साधना-रहित सिद्धि

कृष्ण साधना-रहित सिद्धि

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3707
आईएसबीएन :81-288-0492-8

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कृष्ण के व्यक्तित्व में साधना-जैसा कुछ भी नहीं है।...

Krishna Sadhna-Rahit Siddhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनुष्य की जो चरम संभावना है, वह ओशो में संभव हुई है। वे मनुष्य में बसी भगवत्ता के गौरीशंकर हैं। वे स्वयं भगवान हैं। ओशो श्री जगत और जीवन को उसकी परिपूर्णता में स्वीकारते हैं। वे पृथ्वी और स्वर्ग, चार्वाक और बुद्ध को जोड़ने वाले पहले सेतु हैं। उनके हाथों पहली बार अखंडित धर्म का, वैज्ञानिक धर्म का, जागतिक धर्म का प्रसार हो रहा है। यही कारण है कि जीवन-निषेध पर खड़े अतीत के सभी धर्म उनके विरोध में संयुक्त होकर खड़े हैं। ओशो श्री व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रथम मूल्य देते हैं। धर्म नहीं, धार्मिकता उनका मौलिक स्वर है।
उनके अब तक बोले बचनों की 500 पुस्तकें बन चुकी हैं और दुनिया की 35 से अधिक भाषाओं में अनुवादित-प्रकाशित हो रही हैं। सारी दुनिया में श्रेष्ठतम वैज्ञानिक, कलाकार और चैतन्य के खोजी ओशो द्वारा दिशा निर्देश ‘‘वर्ल्ड अकादमी ऑफ क्रिएटिव साइंस, आर्ट्स एंड कान्शसनेस’’ में सम्मिलित हो रहे हैं और अपनी सारी उर्जा को सृजनशील में नियोजित कर रहे हैं। हंसते-गाते, उत्सव मनाते ये सृजनशील व्यक्ति ‘‘क्षण-क्षण जीने की कला’’ सीख रहे हैं और इसी दुनिया को स्वर्ग में रूपांतरित कर देने के आधार बन रहे हैं।
मनुष्य की जो चरम संभावना है, वह ओशो में संभव हुई है। वे मनुष्य में बसी भगवत्ता के गौरीशंकर हैं। वे स्वयं भगवान हैं। ओशो श्री जगत और जीवन को उसकी परिपूर्णता में स्वीकारते हैं। वे पृथ्वी और स्वर्ग, चार्वाक और बुद्ध को जोड़ने वाले पहले सेतु हैं। उनके हाथों पहली बार अखंडित धर्म का, वैज्ञानिक धर्म का, जागतिक धर्म का प्रसार हो रहा है। यही कारण है कि जीवन-निषेध पर खड़े अतीत के सभी धर्म उनके विरोध में संयुक्त होकर खड़े हैं। ओशो श्री व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रथम मूल्य देते हैं। धर्म नहीं, धार्मिकता उनका मौलिक स्वर है।
उनके अब तक बोले बचनों की 500 पुस्तकें बन चुकी हैं और दुनिया की 35 से अधिक भाषाओं में अनुवादित-प्रकाशित हो रही हैं। सारी दुनिया में श्रेष्ठतम वैज्ञानिक, कलाकार और चैतन्य के खोजी ओशो द्वारा दिशा निर्देश ‘‘वर्ल्ड अकादमी ऑफ क्रिएटिव साइंस, आर्ट्स एंड कान्शसनेस’’ में सम्मिलित हो रहे हैं और अपनी सारी उर्जा को सृजनशील में नियोजित कर रहे हैं। हंसते-गाते, उत्सव मनाते ये सृजनशील व्यक्ति ‘‘क्षण-क्षण जीने की कला’’ सीख रहे हैं और इसी दुनिया को स्वर्ग में रूपांतरित कर देने के आधार बन रहे हैं।

प्रवेश से पूर्व

कृष्ण के व्यक्तित्व में साधना-जैसा कुछ भी नहीं है। हो नहीं सकता। साधना में जो मौलिक तत्व हैं, वह प्रयास है, एफर्ट है। बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती। दूसरा जो अनिवार्य तत्व है, वह अस्मिता है, अहंकार है। बिना मैं के साधना नहीं हो सकती, करेगा कौन ! कर्ता के बिना साधना कैसे होगी ? कोई करेगा तभी होगी।

कृष्ण क्षणवादी हैं। समस्त आनंद की यात्रा क्षण की यात्रा है। कहना चाहिए यात्रा ही नहीं है, क्योंकि क्षण में यात्रा कैसे हो सकती है; क्षण में सिर्फ़ डूबना होता है। समय में यात्रा होती है। क्षण में आप लंबे नहीं जा सकते; गहरे जा सकते हैं। क्षण में आप डुबकी ले सकते हैं। क्षण में कोई लंबाई नहीं है, सिर्फ़ गहराई है। समय में लंबाई है, गहराई कोई भी नहीं है। इसलिए जो क्षण में डूबता है, वह समय के पार हो जाता है। जो क्षण में डूबता है वह इटरनिटी को, शाश्वत को उपलब्ध हो जाता है। कृष्ण क्षण में हैं और साथ ही शाश्वत में हैं। जो क्षण में है, वह शाश्वत में है।


स्वस्थ राजनीति के प्रतीक-पुरुष कृष्ण



‘भगवान् ! श्रीकृष्ण आध्यात्मिक पुरुष थे। साथ-ही-साथ उन्होंने राजनीति में भी भाग लिया। और राजनीतिज्ञ के रूप में जो उन्होंने महाभारत के युद्ध में किया वह यह, भीष्म के आगे शिखंडी को खड़ा करके उन्हें धोखे से मरवाया। द्रोण को, ‘अश्वत्थामा मारा गया’ ऐसा झूठ बुलवाकर मरवाया। कर्ण को, जब रथ का पहिया फँस गया, तब उस निहत्थे को मरवाया। दुर्योधन को उसकी जंघा पर गदा-प्रहार करवाकर मरवाया। तो क्या धार्मिक व्यक्ति राजनीति में आएगा ?

 और अगर आएगा, तो राजनीति में यह चाल और यह छल-कपट खेलेगा ? और क्या इसके जीवन से हम भी यही सीखें कि अपनी विजय के लिए इस प्रकार के कार्य, जो धोखे से भरे हुए हों, करें ? महात्मा गांधी ने जो साध्य की शुद्धता के साथ-साथ साधना की शुद्धता पर भी बल दिया, वह निरर्थक था ? क्या राजनीति में इसकी कोई आवश्यकता नहीं ?’

धर्म और अध्यात्म का थोड़ा-सा भेद सबसे पहले समझना चाहिए। धर्म और अध्यात्म एक ही बात नहीं। धर्म जीवन की एक दिशा है। जैसे राजनीति एक दिशा है, कला एक दिशा है, विज्ञान एक दिशा है, ऐसे धर्म जीवन की एक दिशा है। अध्यात्म पूरा जीवन है। अध्यात्म जीवन की दिशा नहीं है, समग्र जीवन अध्यात्म है।

तो हो सकता है कि धार्मिक व्यक्ति राजनीति में जाने से डरे, आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं डरेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए राजनीति कठिन पड़े। क्योंकि धार्मिक व्यक्ति ने कुछ धारणाएँ ग्रहण की हैं, जोकि राजनीति में विपरीत हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति किसी तरह की धारणाएँ ग्रहण नहीं करता, समग्र जीवन को स्वीकार करता है, जैसा है।

कृष्ण धार्मिक व्यक्ति नहीं, आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। महावीर धार्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में, बुद्ध धार्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में कि उन्होंने जीवन की एक दिशा को चुना है। उस दिशा के लिए उन्होंने जीवन की अन्य सारी दिशाओं को कुर्बान कर दिया है। उन सबको उन्होंने काटकर अलग कर दिया है। कृष्ण आध्यात्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में कि उन्होंने पूरे जीवन को चुना है। इसलिए कृष्ण को राजनीति डरा नहीं सकती।

कृष्ण को राजनीति में खड़े होने में ज़रा भी संकोच नहीं है। कोई कारण नहीं है। राजनीति भी जीवन का हिस्सा है। और समझना जरूरी है कि जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति को छोड़कर हट गए हैं उन्होंने राजनीति को ज़्यादा अधार्मिक बनाने में सहायता दी है, राजनीति को धार्मिक बनाने में सहायता नहीं दी।

इसलिए पहली बात तो यह समझनी है कि कृष्ण के लिए जीवन के सब फूल और सब काँटे एक-साथ स्वीकृत हैं। जीवन में उनका कोई चुनाव नहीं है, ‘च्वॉइसलेस’ जीवन को उन्होंने बिना चुनाव के स्वीकार कर लिया है, जीवन जैसा है। फूल को वह नहीं चुनते हैं, काँटे को भी मान लेते हैं वह भी वहाँ है। और बड़े मज़े की बात यह है कि आम तौर से हम समझते हैं कि गुलाब का यह जो फूल है, काँटा इसका दुश्मन है। दुश्मन नहीं है। गुलाब के फूल की रक्षा के लिए ही काँटा है। दोनों गहरे में जुड़े हैं। दोनों एक ही से संयुक्त हैं। दोनों की एक ही जड़ है और दोनों का एक ही प्रयोजन है। काँटे को काटकर गुलाब को बचा लेने की बहुत लोगों की इच्छा होगी, लेकिन काँटा गुलाब का हिस्सा है, यह उन्हें समझना होगा। तब फिर काँटा और गुलाब, दोनों को साथ ही बचाना है।

तो कृष्ण राजनीति को सहज ही स्वीकार करते हैं। वे उसमें खड़े हो जाते हैं, उसकी उन्हें कोई कठिनाई नहीं है।
दूसरा जो सवाल उठाया है, वह और भी सोचने जैसा है। वह सोचने जैसा है कि कृष्ण ऐसे साधनों का उपयोग करते हैं, जोकि उचित नहीं कहे जा सकते; ऐसे साधनों का उपयोग करते हैं, जिनका औचित्य कोई भी सिद्ध नहीं कर सकेगा। झूठ का, छल का, कपट का उपयोग करते हैं। लेकिन एक बात इसमें समझेंगे तो बहुत आसानी हो जाएगी। जिंदगी में शुभ और अशुभ के बीच कभी भी चुनाव नहीं है, सिवाय सिद्धांतों को छोड़कर।

ज़िंदगी में ‘गुड’ और ‘बैड’ के बीच कोई चुनाव नहीं है, सिवाय सिद्धांतों को छोड़कर। ज़िंदगी में सब चुनाव कम बुराई के बीच है। जिंदगी के सब चुनाव ‘रिलेटिव’ हैं। सवाल यह नहीं है, कि कृष्ण ने जो किया वह बुरा था, सवाल यह है कि अगर वह न करते तो क्या उससे भला घटित होता कि और भी बुरा घटित होता ? चुनाव अच्छे और बुरे के बीच होते तब तो मामला बहुत आसान था। चुनाव अच्छे और बुरे के बीच नहीं है। चुनाव सदा ‘लेसर इविल’ और ‘ग्रेटर इविल’ के बीच है। पूरी ज़िंदगी ऐसी है।

मैंने सुनी है एक घटना। एक चर्च का पादरी एक रास्ते से गुज़र रहा है। ज़ोर से आवाज़ आती है कि बचाओ, बचाओ, मैं मर जाऊँगा। अँधेरा है, गलियारा है। वह पादरी भागता हुआ भीतर पहुँचता है। देखता है वहाँ कि एक बहुत कमज़ोर आदमी के ऊपर एक बहुत मजबूत आदमी छाती पर चढ़ा बैठा है। वह उसको चिल्लाकर कहता है कि हट, उस ग़रीब आदमी को क्यों दबा रहा है ? लेकिन वह हटता नहीं, तो वह उस पर टूट पड़ता है पादरी, और उस मजबूत आदमी को नीचे गिरा देता है। वह जो नीचे आदमी है, वह ऊपर निकल आता है। भाग खड़ा होता है। तब वह ताक़तवर आदमी उससे कहता है कि तुम आदमी कैसे हो ? उस आदमी ने मेरा जेब काट लिया था और वह जेब काटकर भाग गया।

वह पादरी कहता है, तूने यह पहले क्यों न कहा, मैं तो यह समझा कि तू ताक़तवर है और कमज़ोर को दबाए हुए है, मैं समझा कि तू उसको मार रहा है ! यह तो भूल हो गई। यह तो शुभ करते अशुभ हो गया। लेकिन वह आदमी तो उसकी जेब लेकर नदारद ही हो चुका है।

ज़िंदगी में जब हम शुभ करने जाते हैं, तब भी देखना ज़रूरी है कि अशुभ तो न हो जाएगा ? इससे उल्टा भी देखना ज़रूरी है कि कुछ अशुभ से शुभ तो नहीं हो जाएगा ? कृष्ण के सामने जो चुनाव है, वह बुरे और अच्छे के बीच नहीं है। कृष्ण के सामने जो चुनाव है वह कम बुरे और ज़्यादा बुरे के बीच है। और कृष्ण ने जिन-जिन छल-कपट का उपयोग किया, उनसे बहुत ज़्यादा छल-कपट का उपयोग सामने का पक्ष कर रहा था और कर सकता था। और उस सामने के पक्ष से लड़ने के लिए गांधी जी काम न पड़ते। वह सामने का पक्ष गांधी जी को मिट्टी में मिला देता।

सामने का पक्ष साधारण बुरा नहीं था, असाधारण रूप से बुरा था। उस असाधारण रूप से बुरे के सामने भले ही कोई जीत की संभावना न थी। गांधी जी को भी अगर हिंदुस्तान में हुकूमत हिटलर की मिलती तो पता चलता ! हिंदुस्तान में हुकूमत हिटलर की नहीं थी, एक बहुत उदार कौम की थी। और उस कौम में भी अगर चर्चिल हुकूमत में रहता तो आज़ादी मिलनी बहुत मुश्किल बात थी। उसमें भी एटली का हुकूमत में आना बुनियादी फ़र्क़ पड़ गया।

गांधी जी जिस साधन-शुद्धि की बात करते हैं, वह थोड़ी समझने जैसी है। उचित ही है बात कि शुद्ध साधन के बिना शुद्ध साध्य कैसे पाया जा सकता है। लेकिन इस जगत् में न तो कोई शुद्ध साध्य होता है, और न कोई शुद्ध साधन होते हैं। यहाँ कम, अशुद्ध, ज्यादा अशुद्ध ऐसी ही स्थितियाँ हैं। यहाँ पूर्ण स्वस्थ और पूर्ण बीमार आदमी नहीं होते, कम बीमार और ज़्यादा बीमार आदमी होते हैं। ज़िंदगी में सफेद और काला, ऐसा नहीं है, ’ग्रे कलर’ है ज़िंदगी का। उसमें सफेद और काला सब मिश्रित है। इसलिए गांधी जैसे लोग कई अर्थों में ‘उटोपियन’ हैं। कृष्ण बहुत ही जीवन के सीधे-साफ़ निकट हैं।

 ‘उटोपिया’ कृष्ण के मन में नहीं है। ज़िंदगी जैसी है उसको वैसा स्वीकार करके काम करने की बात है। और फिर, जिन्हें गांधी जी शुद्ध साधन कहते हैं, वे भी शुद्ध कहाँ हैं ? हो नहीं सकते। इस जगत् में हाँ, मोक्ष में कहीं हो सकते होंगे शुद्ध साधन और शुद्ध साध्य-इस जगत् में सभी कुछ मिट्टी से मिला-जुला है। इस जगत् में सोना भी है तो मिट्टी मिली हुई है। इस जगत् में हीरा भी है तो वह पत्थर का ही हिस्सा है। गांधी जी जिसे शुद्ध साधन समझते हैं वह भी शुद्ध है नहीं।

जैसे गांधी जी कहते हैं कि अनशन। उसे वह शुद्ध साधन कहते हैं। मैं नहीं कह सकता। कृष्ण भी नहीं कहेंगे। क्योंकि दूसरे आदमी को मारने की धमकी देना अशुद्ध है, तो स्वयं के मर जाने की धमकी देना शुद्ध कैसे हो सकता है ? मैं आपकी छाती पर छुरा रख दूँ और कहूँ कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मार डालूँगा, यह अशुद्ध है। और मैं अपनी छाती पर छुरा रख लूँ और कहूँ कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं मर जाऊँगा, यह शुद्ध हो जाएगा ? छुरे की सिर्फ़ दिशा बदलने से शुद्धि हो जाती है ?

यह भी उतना ही अशुद्ध है और एक अर्थ में पहले वाले मामले में यह ज़्यादा नाजुक रूप से अशुद्ध है। क्योंकि पहली बात में आदमी कह सकता है कि ठीक है, मार डालो, नहीं मानेंगे। उसको एक मौका है। एक ‘मॉरल एपर्चूनिटी’ है। वह मर तो सकता है न लेकिन ! दूसरे मौके में आप उसे बहुत कमजोर कर जाते हैं। आपको मारने की जिम्मेदारी शायद वह न भी लेना चाहे।

अंबेडकर के ख़िल़ाफ गांधी जी ने अनशन किया। अंबेडकर झुके बाद में। इसलिए नहीं कि गांधी जी की बात सही थी, बल्कि इसलिए कि गांधी जी को मारना उतनी-सी बात के लिए उचित न था। इतनी हिंसा अंबेडकर लेने को राज़ी न हुआ। बाद में अंबेडकर ने कहा कि गांधी जी अगर समझते हों कि मेरा हृदय-परिवर्तन हो गया तो ग़लत समझते हैं, मेरी  बात तो ठीक और गांधी जी की बात ग़लत है। और अब भी मैं अपनी बात पर टिका हूँ। लेकिन इतनी-सी जिद्द के पीछे गांधी जी को मारने की हिंसा मैं अपने ऊपर न लेना चाहूँगा। अब सोचना ज़रूरी है कि शुद्ध साधन अंबेडकर का हुआ कि गांधी का हुआ ! इसमें अहिंसक कौन है ? मैं मानता हूँ, अंबेडकर ने ज़्यादा अहिंसा दिखलाई। गांधी जी ने पूरी हिंसा की।

वह आखिरी दम तक लगे रहे कि जब तक अंबेडकर राज़ी नहीं होते, तब तक तो मैं मरने की तैयारी रखूँगा।
इस पृथ्वी पर या तो दूसरे को मारने की धमकी दो, या खुद को मारने की धमकी दो। जब हम दूसरे को धमकी देते हैं, तब हम कम-से-कम उसे एक मौक़ा तो देते हैं कि वह शान के साथ मर जाए और कह दे तुम ग़लत हो और मैं मरने को राज़ी हूँ। लेकिन अगर हम खुद को मारने की धमकी देते हैं, तब हम उसे शान से मरने का मौक़ा नहीं देते। वह दोनों हालत में दिक्कत में पड़ जाता है। या तो वह कहे कि ग़लत है और झुके, या वह कहे कि वह सही है और आपकी हत्या का बोझ ले। हम उसे हर हालत में अपराधी करार देते हैं। गांधी जी के साधन शुद्ध नहीं है। दिखाई शुद्ध पड़ते हैं। और मैं कहता हूँ कि कृष्ण ने जो भी किया वह शुद्ध है। तुलनात्मक अर्थों में, ‘रिलेटिव’ अर्थों में, सापेक्ष अर्थों में, जिनसे वे लड़ रहे थे उनके सामने जो कृष्ण ने किया, उसके अतिरिक्त और कुछ करने का उपाय न था।

वे शस्त्रों से नहीं मार सकते थे उन्हें, स्वयं ?
शस्त्रों से ही मार रहे हैं। लेकिन युद्ध में छल और कपट शस्त्र है। और जब सामनेवाला दुश्मन उनका पूरा उपयोग करने की तैयारी रखता हो, तो अपने को कटवा देना सिवाय नासमझी के और कुछ भी नहीं है। कृष्ण किसी महात्मा को धोखा नहीं दे रहे हैं। और जिनका गैर-महात्मापन हजार तरह से जाँचा जा चुका है, उनके साथ ही वह यह व्यवहार कर रहे हैं। और कृष्ण ने सारे उपाय कर लिए थे युद्ध के पहले कि ये लोग राज़ी हो जाएँ, यह युद्ध न हो। इस सब उपाय के बावजूद, कोई मार्ग न छूटने पर यह युद्ध हुआ है। और जिन्होंने सब तरह की बेईमानियाँ की हों, जिनकी पूरी-की-पूरी कथा बेईमानियों और धोखे और चालबाज़ी की हों, उनके साथ कृष्ण अगर भलेपन का उपयोग करें, तो मैं मानता हूँ कि महाभारत के परिणाम दूसरे हुए होते। उसमें कौरव जीते होते और पांडव हारे होते।

और मजे़ की तो बात यह है सबसे बड़ी, कि हम कहते तो यही हैं कि ‘सत्यमेव जयते’, सत्य जीतता है, लेकिन इतिहास कुछ और कहता है। इसलिए तो जो जीत जाता है, उसी को सत्य कहने लगता है। अगर कौरव जीत गए होते, तो पंडित कौरवों की कथा लिखने के लिए राजी हो गए होते, और हमें पता भी नहीं चलता कि कभी पांडव भी थे और कभी कृष्ण भी थे। कथा बिल्कुल और होती।

कृष्ण ने जो किया, वह मैं मानता हूँ कि सामने जो था उसको देखते हुए जो किया जा सकता था, ‘एक्चुअलिटी’ के भीतर, वास्तविकता के भीतर जो किया जा सकता था, वही किया। साधन-शुद्धि की सारी बातें आकाश में संभव है। पृथ्वी पर कैसे भी साधन का उपयोग किया जाए, वह थोड़ा न बहुत अशुद्ध होगा। अगर साधन पूरा शुद्ध हो जाए, तो साध्य बन जाएगा। साध्य तक जाने की ज़रूरत न रह जाएगी। अगर साधन पूरा शुद्ध है तो साध्य और साधन में फ़र्क़ ही नहीं रह जाएगा, वह एक ही हो जाएँगे। साधन और साध्य में फ़र्क़ ही इसलिए है कि साधन अशुद्ध है और साध्य शुद्ध है।

और इसलिए अशुद्ध साधन से कभी शुद्ध साध्य पूरी तरह मिलता नहीं, यह भी सच है। साध्य मिलते ही कब हैं पृथ्वी पर ! सिर्फ आकांक्षा होती है पाने की, मिलते तो कभी नहीं हैं। गांधी जी भी यह कहकर नहीं मर सकते हैं कि मैं पूरा अहिंसक होकर मर रहा हूँ और गांधी जी यह भी नहीं कहकर मर सकते हैं कि मैं पूरे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होकर मर रहा हूँ। और गांधी जी यह भी नहीं कहकर मर सकते हैं कि मैंने सत्य को पा लिया है और मर रहा हूँ। सत्य के प्रयोग करते ही मरते हैं।
शुद्ध अगर साधन थे तो साध्य मिल क्यों नहीं गया ? बाधा क्या रह गयी है ?

अगर साधन शुद्ध है तो साध्य मिल ही जाना चाहिए, बाधा क्या है ? नहीं, साधन शुद्ध हो नहीं सकते। स्थितियाँ करीब-करीब ऐसी हैं जैसे हम पानी में लकड़ी को डालें तो वह तिरछी हो जाए। अब पानी में लकड़ी को सीधा ही बनाए रखने का कोई उपाय नहीं है। लकड़ी तिरछी होती नहीं दिखाई तिरछी पड़ने लगती है। वह पानी का जो ‘मीडियम’ है, वह लकड़ी को तिरछा कर जाता है। पानी के बाहर ही लकड़ी सीधी हो पाती है, पानी के भीतर डाली कि तिरछी हो जाती है।
इस विराट् सापेक्ष के जगत् में ‘इन दिस रिलेटिव वर्ल्ड’, जहाँ सब चीज़ें तुलना में हैं, जहाँ सब चीज़ें तिरछी हो जाती हैं।

इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सीधे हों, सवाल यह है कि हम कम-से-कम तिरछे हों। और कृष्ण मुझे मालूम पड़ता है, कम-से-कम तिरछे आदमी हैं। और यह बड़े मज़े की बात है कि ऊपर से देखने पर हमें कुछ और दिखायी पड़ेगा। हमें गांधी जी बहुत सीधे आदमी दिखायी पड़ेंगे, गांधी जी मेरे हिसाब से बहुत तिरछे आदमी हैं। वे कई बार कान को बिल्कुल सिर घुमाकर पकड़ते हैं, दूसरी तरफ़ से पकड़ते हैं, कृष्ण सीधा पकड़ लेते हैं। गांधी जी वही काम करेंगे दूसरे को दबाने का, अपने को दबाकर करेंगे। बड़ी लंबी यात्रा लेंगे।

दबाएँगे दूसरे को ही, ‘कोयेरशन’ जारी रहेगा, लेकिन प्रयोग जो वे करेंगे, वह अपने को दबाकर उसको दबाएँगे। कृष्ण उसको सीधा दबा देंगे। ऐसे गांधी सीधे-साफ़ मालूम पड़ेंगे। मैं मानता हूँ बहुत तिरछा व्यक्तित्व है। बहुत जटिल, बहुत ‘कांप्लक्स’ व्यक्तित्व है। लेकिन हमें आमतौर से ख़याल में नहीं आता, क्योंकि चीज़ें हम जैसी पकड़ लेते हैं, वैसे माने चले जाते हैं।

‘भगवानश्री, कृष्ण के जमाने में एक पौंड्रक
नामक राजा था, जो साक्षात् कृष्ण को नकली
कृष्ण ज़ाहिर कर अपने को असली कृष्ण मानता
था और बताता था। बुद्ध, महावीर आदि अवतारों
के जीवन में, क्राइस्ट के चरित्र में ऐसी साम्य रखने
वाली कुछ घटनाएँ घटी हैं ?’

हाँ, घटी हैं। महावीर के समय गोशालक नाम के व्यक्ति ने घोषणा की कि असली तीर्थंकर मैं हूँ। महावीर असली तीर्थंकर नहीं है।
और क्राइस्ट के समय में भी घटी, क्योंकि यहूदियों ने सूली ही इसलिए दी कि यह बढ़ई का लड़का नाहक अपने को क्राइस्ट कह रहा है, यह असली क्राइस्ट नहीं है। अभी असली क्राइस्ट पैदा होने वाला है। यहूदी-परंपरा में ऐसा ख़याल था कि क्राइस्ट नाम का एक पैगंबर पैदा होने वाला है। बहुत ‘प्रॉफेट्स’ ने उसकी घोषणा की थी। एजेकियल ने घोषणा की थी, ईसिया ने घोषणा की थी, उन सब पुराने पैगंबरों ने घोषणा की थी कि क्राइस्ट नाम का एक पैगंबर आनेवाला है।

फिर क्राइस्ट के ठीक जन्म लेने के पहले बपतिस्मा वाले जॉन ने गाँव-गाँव घूमकर घोषणा की थी, क्राइस्ट आनेवाला है। क्राइस्ट का मतलब, मसीहा। मसीहा आनेवाला है, जो सबका उद्धार करेगा। और फिर एक दिन जीसस नाम के इस जवान ने घोषणा कर दी कि मैं वह मसीहा हूँ। यहूदियों ने मानने से इनकार कर दिया कि यह आदमी वह मसीहा नहीं है। इसीलिए सूली दी गई। सूली दी गई कि तुम झूठी घोषणा कर रहे हो। तुम मसीहा नहीं हो।

दूसरे व्यक्ति ने ठीक जीसस के सामने दावा नहीं किया। लेकिन बहुत लोगों ने यह दावा किया कि तुम मसीहा नहीं हो, तुम क्राइस्ट नहीं हो। हम तुम्हें क्राइस्ट मानने से इनकार करते हैं। क्यों इनकार किया ? क्योंकि वे कहते थे, कुछ लक्षण हैं, जोकि तुम पूरे करो। कुछ चमत्कार हैं, जो तुम दिखाओ। उनमें एक चमत्कार यह भी था कि जब हम तुम्हें सूली लगाएँ, तो तुम जिंदा सूली से उतर आओ। तो जीसस के जो भक्त थे, वे मानते थे कि सूली लग जाने के बाद जीसस उतर आएँगे जीवित और चमत्कार घटित हो जाएगा, और फिर लोग मान लेंगे। अब बड़ी मुश्किल है तय करना यह बात, क्योंकि जीसस के भक्त अब भी कहते हैं कि तीन दिन बाद वे देखे गये।

लेकिन जिन्होंने देखा, वे दो औरतें थीं, दो स्त्रियाँ थीं, जो जीसस को बहुत प्रेम करती थीं, उन्होंने उन्हें देखा। विरोधी उनके वक्ततव्य को मानने को तैयार नहीं हैं। विरोधियों का ख़याल है कि वे इतनी प्रेम से भरी थीं कि जीसस उन्हें दिखायी पड़ सकते हैं, और जीसस न हों। लेकिन कोई यहूदी वक्तव्य ऐसा नहीं है कि जीसस उतर आए सूली से और प्रमाण उन्होंने दे दिया, वह प्रमाण नहीं दिया जा सकता। इसलिए उस क्राइस्ट की प्रतीक्षा तो यहूदी अभी भी करते हैं, जिसकी घोषणा पैगंबरों ने की है।

लेकिन महावीर के वक़्त में तो बहुत ही स्पष्ट गोशालक ने घोषणा की कि मैं असली तीर्थंकर हूँ, महावीर असली तीर्थंकर नहीं हैं। गोशालक को भी माननेवाले लोग थे। थोड़ी संख्या न थी, काफ़ी संख्या थी। और यह विवाद लंबा चला कि कौन असली तीर्थंकर है। क्योंकि जैन-परंपरा में घोषणा थी कि चौबीसवाँ तीर्थंकर आनेवाला है। वह अंतिम तीर्थंकर होने को था, तेईस हो चुके थे, और अब एक ही आदमी तीर्थंकर हो सकता था। और न केवल गोशालक ने घोषणा की कि वह चौबीसवाँ तीर्थंकर हैं, एक बड़ा वर्ग था, जो उसे चौबीसवाँ तीर्थंकर मानता था।

यह तो था ही, और भी पाँच-छ: लोग थे, जिनको कुछ लोग मानते थे, वह असली तीर्थंकर हैं, हालाँकि उन्होंने कभी घोषणा नहीं की। मक्खली गोशालक तो स्वयं घोषणा करता था कि वह तीर्थंकर है। लेकिन संजय विलट्ठीपुत्त, अजित केसकंबल, इनके भी भक्त थे, जो मानते थे कि ये असली तीर्थंकर हैं। ऐसा बुद्ध को जो मानते थे उनका भी ख़याल था कि असली तीर्थंकर बुद्ध है। और बुद्ध के माननेवालों ने महावीर का बहुत मज़ाक़ उड़ाया।

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