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जीवनी/आत्मकथा >> स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द

भवान सिंह राणा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3714
आईएसबीएन :81-288-0667-x

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स्वामी विवेकानन्द के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Swami Vivekanand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


समय-समय पर भारत में अनेक ऐसे मनीषियों ने जन्म लिया जिन्होंने अपनी आस्था, निष्ठा और विद्वता से सारे संसार को चमत्कृत किया। स्वामी विवेकानंद वर्तमान युग में इस परम्परा के प्रतिनिधि थे।
वे ब्रह्मचर्य, दया, करुणा, मानव प्रेम आदि उदार मानवीय गुणों के मूर्त रूप थे। उनकी तर्क शक्ति अद्वितीय थी। शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्यक्तित्व से विश्व मुग्ध हो उठा। उसके बाद पश्चिमी जगत में उन्होंने अनेक स्थानों पर व्याख्यान दिए। स्वरूप विश्व के समक्ष आया और अनेक अमरीकी तथा यूरोपियन उनके शिष्य बन गए।

भारत में समय-समय पर जन्म लेकर मनीषियों ने सत्य अन्यवेषक वैदिक ऋषियों की परंपरा को निरन्तर बनाए रखा। स्वामी विवेकानन्द वर्तमान युग में इसी परंपरा के प्रतिनिधि थे। वह ब्रह्मचर्य, दया, करुणाआदि उदात्त मानवीय गुणों के मूर्त रूप थे। उनके लिए प्राणीमात्र परमात्मा का अंश था। उनकी तर्कशक्ति अद्वितीय थी। शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्यक्तित्व से विश्व मुग्ध हो उठा था। इसके बाद पश्चिमी जगत में उन्होंने अनेक स्थानों पर व्याख्यान दिए। इससे भारतीय वेदान्त का वास्तविक स्वरूप विश्व के समक्ष आया और अनेक अमरीकी तथा यूरोपीय उनके शिष्य बन गए। स्वामी विवेकानंद जहाँ एक ओर सर्व धर्म समभाव के प्रतीक थे, वहीं उन्हें अपने हिन्दू होने का गर्व भी था।

प्राक्कथन


भारत में समय-समय पर जन्म लेकर अनेक मनीषियों ने सत्यदृष्टा वैदिक ऋषियों की परंपरा को निरन्तर बनाए रखा। स्वामी विवेकानन्द वर्तमान युग में इसी परंपरा के प्रतिनिधि थे। यह ब्रह्मचर्य, दया, करुणा आदि उदात्त मानवीय गुणों के मूर्त रूप थे। उनके लिए प्राणीमात्र परमात्मा का अंश था। उनकी तर्कशक्ति अद्वितीय थी। शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में उनके व्यक्तित्व से विश्व मुग्ध हो उठा था। इसके बाद पश्चिमी जगत में उन्होंने अनेक स्थानों पर व्याख्यान दिए। इससे भारतीय वेदान्त का वास्तविक स्वरूप विश्व के समक्ष आया और अनेक अमरीकी तथा यूरोपीय उनके शिष्य बन गए। स्वामी विवेकानंद जहाँ एक ओर सर्व धर्म समभाव के प्रतीक थे, वहीं उन्हें अपने हिन्दू होने का गर्व भी था। यह हिन्दुत्व पर लज्जा की अनुभूति को विनाश का सूचक मानते थे।

केवल चालीसवें वर्ष में उनका तिरोभाव हो गया, फिर भी भारतीय वेदांत और संस्कृति के उदात्त स्वरूप से विश्व को अवगत कराने में उन्होंने जो सफलता प्राप्त की, वह अपने आप में इतिहास का एक प्रेरक अध्याय है। नि:संदेह वह भारतीय मनस्वियों में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

इस पुस्तक में अधिकतम् सामग्री के साथ स्वामी विवेकानंद के जीवन के चरित को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। पुस्तक की सामग्री के संकलन में श्री सत्येन्द्रनाथ मजूमदार कृत ‘विवेकानंद चरित’ स्वामी शारदानंद लिखिति ‘श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग’, पं. द्वारिकानाथ तिवारी की पुस्तक ‘श्रीरामकृष्ण लीलामृत’, स्वामी अपूनर्वानंद की रचना ‘श्रीरामकृष्ण और श्री मां’, श्री जयराम मिश्र की कृति ‘स्वामी रामतीर्थ : जीवन और दर्शन’ और श्री इंगरसोल के निबन्ध संग्रह के (भदन्त आनन्द कौसल्यायन कृत) हिन्दी अनुवाद ‘स्वतन्त्र चिन्तन’ से साभार सहायता ली गयी है।

डॉ. भवानसिंह राणा

स्वामी विवेकानंद
प्रारम्भिक जीवन

वंश परिचय


भारत में समय-समय पर अनेक महापुरुषों का जन्म हुआ है, जिन्होंने अपनी यशा सुरभि से मातृभूमि के गौरव को बढ़ाया। ऐसे ही मनीषियों के कारण भारत को आध्यात्मिक क्षेत्र में विश्वगुरु कहा जाता रहा है। प्राचीन मंत्रदृष्टा वैदिक ऋषियों से वर्तमान युग में स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविन्द घोष आदि महापुरुष इसी परम्परा के प्रतिनिधि रहे हैं।

बंगाल की भूमि बहुरस रुचिरा रही है। इससे जहाँ एक ओर मातृभूमि की स्वाधीनता के उपासक अनेक क्रान्तिकारियों ने जन्म लिया, वहीं दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी इस भूमि ने अनेक मेधावी पुत्रों को जन्म दिया है। चाहे समाज सुधार का क्षेत्र रहा हो या साहित्य का अथवा विज्ञान का रहा हो या अध्यात्म का, बंगभूमि के सपूत सभी क्षेत्रों में अग्रणी रहे हैं। वर्तमान युग के महान चिन्तक स्वामी विवेकानंद का जन्म भी इसी भूमि में हुआ था।

कलकत्ता (कोलकाता) महानगरी इस शताब्दी के आरम्भिक वर्षों तक भारत की राजधानी रही है। इसी नगरी के सिमुलिया नामक मोहल्ले में एक मार्ग का नाम ‘गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट’ है। यहीं दत्त परिवार का पारम्परिक निवास स्थान माना जाता था। कलकत्ता उच्चतम न्यायालय के प्रख्यात वकील राममोहन दत्त के समय में सिमुलिया के दत्त समाज में अपना विशेष प्रभाव रखते थे। राममोहन दत्त एक सफल एवं प्रसिद्ध वकील थे। वह धर्नाजन और उसका खुले हाथों से व्यय करते थे। उनका जीवन एक ऐश्वर्यपूर्ण जीवन था।

राममोहन दत्त के पुत्र का नाम दुर्गाचरण दत्त था। उस समय की परम्परा के अनुसार दुर्गाचरण को संस्कृत तथा फारसी की शिक्षा दी गयी। इसके साथ ही उन्होने अंग्रेजी का ज्ञान भी प्राप्त किया और वकालत आरम्भ कर दी, किन्तु पिता और पुत्र के प्रभाव में एक भारी अन्तर था। जहां पिता में धनोपार्जन और ऐश्वर्य की जन्मजात प्रवृत्ति थी, वहीं पुत्र इससे सर्वथा विरक्त थे। प्राय: धनी घरों के पुत्र सुख-सुविधा पाकर भटक जाते हैं, किन्तु दुर्गाचरण को धन ऐश्वर्य से कोई मोह नहीं था। वह वेदांती साधुओं से अधिक प्रभावित थे। उन्हीं के प्रभाव में आकर दुर्गाचरण ने केवल पच्चीस वर्ष की अवस्था में ही समस्त ऐश्वर्यों का परित्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया। उस समय केवल उनकी पत्नी एक ही पुत्र की माँ थीं, जिसका नाम विश्वनाथ था। विश्वनाथ की अवस्था उस समय एक दो वर्ष की रही होगी।

दुर्गाचरण को संन्यास ले लेने के बाद बालक विश्वनाथ का पालन-पोषण भी राममोहन दत्त ने किया। कहा जाता है कि एक बार दुर्गाचरण की पत्नी वाराणसी गयी थीं। वहां विश्वनाथ मन्दिर में उन्हें अपने पति के दर्शन हुए थे। इसके बाद संन्यास धर्म की परम्परा के अनुसार संन्यास के बारह वर्ष पूर्ण होने पर दुर्गाचरण एक बार अपने घर आये और पुत्र विश्वनाथ को आशीर्वाद देकर चले गये। इसके बाद उन्हें किसी ने नहीं देखा। उनके इस बार घर आने से एक वर्ष पूर्व ही उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो चुका था।

पिता के संन्यासी हो जाने और मां के स्वर्गवास के बाद विश्वनाथ का बाल्यकाल पिता राममोहन दत्त की छत्रछाया में ही व्यतीत हुआ। पितामाह का अनुसरण करते हुए वह भी वकालत करने लगे। वकील होने के साथ ही वह विद्याप्रेमी भी थे। उन्होंने फारसी, अंग्रेजी, इतिहास आदि का गहन अध्ययन किया। इनके परिणाम उनमें धर्मिक कट्टरता नहीं रही। उन्होंने बाइबिल का अध्ययन भी किया। इससे वह ईसाई धर्म के प्रशंसक बन गये। दिल्ली, लाहौर, लखनऊ, इलाहाबाद आदि के कई सम्भ्रान्त मुसलमान उनके मित्र थे। वह सभी धर्मों का आदर करते थे।
विश्वनाथ दत्त एक सफल वकील थे। वह बड़े ठाट-बाट से रहना पसन्द करते थे। मित्रों की सहायता करना, मुक्तहस्त से व्यय करना, दावतें देना उनका विशेष स्वभाव था। उनकी पत्नी भुवनेश्वरी देवी एक परम्परागत धर्मप्रेमी हिन्दू महिला थीं। वह केवल बंगला ही लिखना-पढ़ना जानती थीं।
वह अत्यन्त मधुर स्वभाव की थीं। रामायण, महाभारत, भागवत् आदि का नियमित पाठ करना, भगवान शिव की पूजा आदि करना उनकी दिनचर्या के अभिन्न अंग थे। वह एक गंभीर स्वभावशील सम्पन्न आदर्श गृहिणी थीं। कहा जाता है कि पास-पड़ोस की कोई भी महिला उनके सामने अधिक बोलने का साहस नहीं कर पाती थी।


जन्म


सभी प्रकार की सुख-सम्पन्नता होते हुए भी भुवनेश्वरी देवी को एक दु:ख सालता रहता था कि उनका कोई पुत्र नहीं था। पुत्र प्राप्ति की इच्छा अन्य स्त्रियों के समान ही बहुधा उन्हें भी व्याकुल कर देती थी। वह नित्य-प्रति कातर स्वर में भगवान से पुत्रवती होने की प्रार्थना करती रहती थीं। इसके लिए उन्होंने अनेक प्रकार के व्रत-उपवास, अनुष्ठान आदि किये, किन्तु सफलता नहीं मिली। दत्त परिवार की कोई महिला वाराणसी में रहती थीं। भुवनेश्वरी देवी ने उन्हें पत्र लिखा कि उनकी ओर से विश्वनाथ में नित्यप्रति पूजा-अर्चना की व्यवस्था की जाए। इसके कुछ दिन बाद वह स्वयं वाराणसी गयीं। वहां उनकी ओर से पूजा -अर्चना समुचित रूप में की जा रही थी। पुत्र कामना से भुवनेश्वरी देवी घर जाना ही भूल गयीं और वहीं बाबा विश्वनाथ की अर्चना में खो गयीं।

कहा जाता है कि एक दिन भुवनेश्वरी देवी भगवान श्री विश्वनाथ के मन्दिर में पूजा करने के बाद ध्यानमग्न हो गयीं। वह प्रात: पूजा में बैठी थीं; दिन ढल गया और सन्ध्या होने लगी, किन्तु उनका ध्यान भंग नहीं हुआ। उनका बाह्यज्ञान मानो लुप्त हो गया था। उनके मुखमण्डल पर अलौकिक तेज चमक रहा था। रात्रि में उसी अवस्था में उन्हें नींद आ गयी। स्वप्न में उन्होंने देखा कि कर्पूर के समान गौरवर्ण भगवान शिव उनके सम्मुख खड़े हैं। इसके बाद उन्होंने एक शिशु का रूप धारण किया और भुवनेश्वरी देवी की गोद में जा बैठे। इसके साथ ही भुवनेश्वरी देवी की नींद खुल गयी।
उस दिव्य आनन्द का अनुभव करने के बाद जब भुवनेश्वरी देवी की नींद खुली, तो वह पुलकित हो उठीं। उसी समय सूर्योदय हो चुका था। वह आनन्दातिरेक में ‘हे शिव ! हे शंकर ! हे करुणामय !’ कहती हुई बार-बार भगवान शिव को साष्टांग प्रणाम करने लगीं।


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