लोगों की राय

स्त्री-पुरुष संबंध >> अठारह वर्ष की लड़की

अठारह वर्ष की लड़की

निमाई भट्टाचार्य

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3717
आईएसबीएन :81-284-0079-7

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

303 पाठक हैं

मनुष्य कितने तरह-तरह के सपने सँजोता है और उसके सपने क्षण में टूट जाते हैं....

Atharah Varsh Ki Ladki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शादी के बाद हम लोग सात दिन शिमला में थे। हंसी-मजाक, प्यार भरी बातें, दुनिया जहान की गप्पें और गाना-वह सात दिन बड़े आनंद से बीत गये। मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा थी कि कोई इंसान शादी के बाद इतना खुश हो सकता है।
दिल्ली वापस आने के तीन दिन बाद ही रात को सोते समय मैंने देखा, दुर्बा का बदन गर्म है। अगले दिन सुबह देखा 101 डिग्री बुखार...दवाई से भी बुखार नहीं उतरा। खून की जाँच हुई। प्रोफेसर रंगराजन रिपोर्ट लेने गये थे..क्या पता चला ? एक्यूट ल्यूकोमिया !.. मेरी सब हँसी, सुख, शांति, आनन्द...मेरे सभी सपने, आज रात को आठ बजे निगमबोध घाट पर जलकर राख हो गये।

कॉलेज सर्विस कमीशन का रजिस्ट्री पत्र देखते ही सार्थक का मन खुशी से झूम उठा। लिफाफे के अन्दर से पत्र निकाल कर वह खुशी से चीख पड़ा-‘दीदी भाई ! मुझे लेक्चरार की नौकरी मिल गयी है।’
उसकी चीख सुनकर, उसकी बड़ी बहन तृणा दौड़कर आयी और सार्थक को अपने सीने लगाकर बोली-‘भाईमणी ! मुझे पता था कि तुझे नौकरी जरूर मिलेगी।’

आज शनिवार है !
पवित्र भी घर पर ही है ! अपने छोटे भाई को पत्र लिखना बन्द करके पवित्र अपने दोनों हाथों से सार्थक का चेहरा थाम कर बोला-‘आखिर तुमने अपनी मां के सपने को सच करके दिखा ही दिया। जाओ, अपने माता-पिता की तस्वीर को प्रणाम करो।’
सार्थक ने तृणा और पवित्र के पैर छुए फिर मुस्कुरा कर बोला-‘अचानक मैं थोड़ा उत्तेजित हो उठा था, इसलिये आप दोनों के चरण स्पर्श करना ही भूल गया था।’

सार्थक ने एक पल भी नहीं गंवाया वह फौरन अपनी दीदी भाई के कमरे में गया और अपने स्वर्गीय माता-पिता की तस्वीर के सामने श्रद्धापूर्वक खड़ा होकर उन्हें एकटक देखता रहा। कुछ पलों पश्चात् वह मन ही मन बोला-‘मां तुमने मुझे एक बार कहा था कि अभाव के कारण तेरे पिता पढ़ाई में अव्वल होने के बावजूद भी एम.ए. करना ही होगा। मां तुमने यह बात मुझे एक बार नहीं सौ बार कही थी। मां, मैंने आज ना सिर्फ एम.ए. पास कर लिया बल्कि मुझे कॉलेज में लेक्चरार की नौकरी भी मिल गयी है।’

अपने माता-पिता की तस्वीर को प्रणाम करके सार्थक मन ही मन बोला-‘आप लोग मुझे आशीर्वाद दीजिये ताकि मैं अपने स्टूडेण्टस को अच्छी तरह से पढ़ा पाऊं एवं मैं उनसे आदर एवं प्यार प्राप्त कर सकूं।’
सार्थक ने जैसे ही अपनी बात पूरी की, तभी तृणा उसके हाथ पर मिठाई रख कर बोली-‘ले मुंह मीठा कर ले।’
पवित्र आगे बढ़े और सार्थक से पूछा-‘भाईमणी ! यह बताओ कि तुम्हें नौकरी कौन से कॉलेज में मिलीं हैं ?’
‘सांईथियां कालेज में !’
‘सांईथियां ?’
‘हां !’
‘सार्थक, तुम तो स्वभाव से ही वैनव हो, इतने बड़े हो गये, मगर अभी तक किसी लड़की से चक्कर चलाना तो दूर रहा किसी को अपनी गर्ल फ्रेंड तक नहीं बना सके और अब तुम चल दिये शाक्त-तीर्थ वीरभूम ? मैं नान्दीकेस्वरी की सांईथियां ?’ पवित्र ने सार्थक से मजाक किया ?
पवित्र की बात सुनकर तृणा और सार्थक खिलखिला कर हंस पड़े !
‘नहीं नहीं, साले बाबू ! यह हंसी की बात नहीं है। वहां बिना भैरवी के कोई भी काम सफल नहीं होता....लेकिन तुम जैसे विशुद्ध शाकाहारी लेक्चरार के लिये क्या यह संभव होगा ?’
तृणा भी मुस्कुरा कर बोली-‘फिलहाल भाईमणी को भैरवी पकड़ने की कोई जरूरत नहीं, हां तुम देख लेना इस बार भाईमणी को एक सुंदर सी दुल्हन जरूर मिल जायेगी।’
फिर तृणा ने अपने भाई की तरफ देखकर पूछा-‘भाईमणी, तु वहां रहेगा कहां ?’
पवित्र मुस्कुराकर बोला-‘तृणा, तुम्हारा लाड़ला भाईमणी अब काफी बड़ा हो गया है। अब उसे अपने बारे में स्वयं कुछ सोचने का मौका तो दो।’
‘तुम चुप रहो जी ! मेरा भाई वहां कहां रहेगा, उसके खाने-पीने का प्रबन्ध कैसे होगा उसके बारे में मैं नहीं सोचूंगी तो कौन सोचेगा ?’
सार्थक बोला ‘उदय, शांतिनिकेतन में रहते हैं। उनसे पूछ कर देखूंगा।’
‘हां यह बात ठीक है ! उदय विश्वभारती में नौकरी करते हैं, इस बात को मैं...!’
तृणा की बात पूरी होने से पहले ही पवित्र बोल उठे-‘ सार्थक ! तुम एक काम करो...कल-परसो तुम एक बार शांतिनिकेलन चले जाओ ! वहां उदय से बात करके देखो, वह क्या कहता है ?’
तृणा ने पूछा-‘शांतिनिकेतन से सांईथियां कितनी दूर है ?’
पवित्र बोले-‘ज्यादा दूर नहीं है। ट्रेन से घंटे भर का सफर है।’

सार्थक बोला-‘हां दीदीभाई ! जीजा जी सही कह रहे हैं। कुछ साल पहले दोस्तों के साथ हम तारापीठ जा रहे थे। तब ट्रेन बोलपुर के बाद सांईथियां स्टेशन पर ही रुकी थी। मुझे जितना याद आ रहा है, घण्टे भर के अंदर ही सांईथियां...।’
‘अच्छा साले बाबू यह तो बताओ कि उदय जिस लड़की को बीच-बीच में यहां लाते थे-क्या उस लड़की से उदय की शादी हो गयी है ?
तृणा ने जवाब दिया-‘ हां उन दोनों की शादी तो छः महीने ही हो चुकी है। उस समय तुम टूर पर थे।’
सार्थक बोला-‘जानती हो दीदीभाई...चन्द्रीमा को भी पाठभवन में नौकरी मिल गयी है।’
‘सच...?’
‘हां ! मैं तुम्हें बताना भूल गया था।’
इसके दो दिन बाद ही सार्थक शांतिनिकेतन के लिये रवाना हो गया। दो दिन पश्चात् जब वह वहां से लौटकर आया तो तृणा से बोला-‘जानती हो दीदी भाई, उदय और चन्द्रीमा, दोनों ही जिद्द कर रहे हैं कि मैं उनके साथ ही रह कर नौकरी करूं।’
‘लेकिन वहां से कॉलेज आने जाने में तुझे दिक्कत नहीं होगी ?’
‘ट्रेन की टाईमिंग देखकर ऐसा तो नहीं लगता कि कोई खास दिक्कत होगी।’
‘तो ठीक है, तू उन दोनों के पास ही रहकर कॉलेज जाना ! चन्द्रीमा भी तुझे बहुत प्यार करती है ! उनके वहां तुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।’
‘तू ऐसा कर रुपये उन्हें ना देकर बीच-बीच में तू कुछ आवश्यक सामान खरीद कर उन्हें देते रहना।’
‘हां...ऐसा हो सकता है।’

ऑफिस से आकर पवित्र ने सारी बात सुनी फिर विचार कर बोले-‘भाईमणी ! तुम ऐसा करो, कुछ दिन शांतिनिकेतन में उदय के पास रहो। उसके बाद सांईथियां में जब रहने के लिए अच्छा-सा प्रबन्ध हो जाये, और कोई खाना बनाने वाला मिल जाये, तब तुम वहां चले जाना।’
‘हां जीजाजी मैंने भी यही सोच रखा है।’
‘हां...एक बात, तुम्हें ज्वाइन कब करना होगा ?’
‘पन्द्रह जुलाई।’
‘इसका मतलब तुम्हें दस दिन के अंदर ही वहां जाना होगा।’
सार्थक बोला-‘उदय बोल रहा था कि बारह तारीख तक मुझे वहां पहुंच जाना चाहिए और सांईथियां में प्रिंसिंपल से अवश्य मिल लेना चाहिये।’
‘हां उसने ठीक ही कहा है ! एकदम पन्द्रह तारीख को जाना ठीक नहीं।’
तृणा अपने पति से बोली-‘सुनो जी...भाई मणी के जाने से पहले तुम एक दिन उसे किसी अच्छे होटल में खाना खिलाओगे ना...?’
‘वाह...नौकरी मिली तुम्हारे भाई को, और पार्टी देनी पड़ेगी मुझे ?’
‘अरे तुमने यह बात कितनी आसानी से कह दी।’
सार्थक मुस्कराकर बोला-‘दीदीभाई दरअसल जीजाजी मुझे चिढ़ाने के लिये ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने पहले ही मुझसे वादा कर रखा है कि, वह हम दोनों को चाईना टाऊन में बढ़िया खाना खिलायेंगे।’
तृणा ने कहा-‘भाईमणी जाने से पहले तुझे कुछ आवश्यक सामान भी तो खरीदने होंगे ऐसा करते हैं कल तेरे जीजा जी के ऑफिस जाने के पश्चात् हम खरीदारी के लिये निकल पड़ेंगे।’
‘हां दीदीभाई ! मैं भी यही सोच रहा था।’

देखते ही देखते सार्थक के रवाना होने का दिन आ गया। बारह तारीख को पवित्र और तृणा सार्थक को शांतिनिकेतन एक्सप्रेस में बैठाने आये। ट्रेन में बैठने से पहले सार्थक ने उन दोनों के जैसे ही पैर छुए तृणा रो पड़ी। सार्थक की आंखों से भी आंसू छलक पड़े।
‘साले साहब ! अपनी दीदी की हालत तो तुम देख ही रहे हो। इसलिये समय-समय पर फोन करते रहना।’
सार्थक ने सिर हिलाया।
तृणा ने किसी तरह अपने आप को संभाला, फिर बोली-‘भाईमणी ! जरा संभल कर रहना ! अपना ख्याल रखना, खाना-पीना सही समय पर लेते रहना !’
सार्थक ने फिर सिर हिलाया !

‘दो दिन की भी छुट्टी मिलते ही सीधा हमारे पास चले आना।’
पवित्र ने मुस्कराकर अपनी पत्नी से कहा-‘तुम्हारे भाई को यह सब बताने की जरूरत नहीं है।’
नौ बज कर पचपन मिनट। शांतिनिकेतन एक्सप्रेस चल पड़ी। दरवाजे पर खड़ा सार्थक भावपूर्ण मुद्रा में हाथ हिलाता रहा ! ट्रेन नजरों से ओझल होते ही तृणा गहरी सांस छोड़कर बोली-‘मेरा छोटा-सा भाई मणी आज कॉलेज का लेक्चरार बन गया मुझे तो जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा है।’
पवित्र मुस्कराकर बोला-तृणा समय कभी नहीं रुकता बड़ी ही तेज गति से आगे बढ़ता जाता है। कभी-कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे कुछ ही दिन पहले हम दोनों की शादी हुई है। लेकिन बूबून को देखकर भी जैसे यकीन नहीं आता कि वह इतना बड़ा हो गया है।’
‘ठीक ही कहा है तुमने ! तृणा बोली।

शांतिनिकेतन पहुंचकर सार्थक ट्रेन से उतरा और दोनों हाथों में दो सूटकेस थामे वह कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि, अचानक उदय और चन्द्रीमा को अपने सामने देखकर सार्थक चौंक पड़ा। वह बोला-‘तुम लोग यहां क्यों आ गये ? मैं ही रिक्शा लेकर...?’
उदय ने सार्थक के हाथ से एक सूटकेस ले लिया, और चन्द्रीमा बोली-‘तुम यहां नये हो, नौकरी ज्वायन करने आ रहे हो, तो भला हम क्यों ना आयें तुम्हें लेने के लिये ?’
‘वह सब तो ठीक है...लेकिन तुम दोनों में से किसी की भी तो छुट्टी का दिन नहीं है आज।’
रिक्शे की तरफ जाते-जाते उदय मुस्कराकर बोला-‘सुन! कविगुरु के कारखाने में क्लास ना लेने से ही स्टूडेन्टस ज्यादा खुश होते हैं।’
उदय की बात सुनकर सार्थक हंस पड़ा।
‘तू हंस रहा है ? तुझे याद होगा कि कभी प्रैसिडेन्सी कॉलेज में प्रोफेसर के कम क्लास लेने से स्टूडेन्टस धरने पर बैठ जाते हैं।’
‘तुम लोग मजे में हो।’
‘हां....कोई शक नहीं।’

फारेस्ट बंगले के नजदीक जिस सुन्दर से मकान में उदय और चन्द्रीमा रहते हैं वह एक दोमंजिला मकान है। मकान मालिक कलकत्ता में रहते हैं वह बड़े ही हंसमुख और मिलनसार स्वभाव के हैं। मकान की ऊपरी मंजिल अपने लिये रखकर उन्होंने नीचे का हिस्सा किराये पर दे रखा है। निचले हिस्से में दो बैडरूम और एक ड्राईंग कम डायनिंग रूम है। तीनों कमरों के साथ एक-एक बरामदा है, उसके अलावा मकान के तीनों तरफ फलों का बगीचा है, पिछली तरफ गैराज और चौकीदार कम केयर टेकर के रहने के लिये एक कमरा बना हुआ है।

मकान में प्रवेश करते ही सार्थक बोल उठा-‘उदय ! एक बात तो पक्की है कि अगर चन्द्रीमा इन्टीरियर डेकोरेटर का काम करना शुरू कर दे तो हम दोनों को नौकरी करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हम दोनों आराम से जिंदगी बिता सकते हैं।
चन्द्रीमा अपनी हंसी रोक कर बोली-‘सार्थक भईया ! मैंने मकान को सजाने में ऐसा क्या विशेष कर दिया, जो तुमने मुझे इन्टीरियर डेकोरेटर ही बना दिया ? हमारे घर में तो एक भी अच्छा फर्नीचर नहीं है।’
‘देखो चन्द्रीमा, तुम्हारे घर में अनपढ़ ठेकेदार या सेठ लोगों के घरों की तरह भारी और महंगे फर्नीचर नहीं हैं। यह बात तो सही है और शायद इसीलिये ही तुम्हारा घर इतना सुंदर लगता है।’
उदय हंसकर बोला-‘खाने की टेबल पर तुझे यह भी पता चल जायेगा कि मेरी बीवी में और भी कई गुण हैं। वह खाना भी बहुत अच्छा पकाती है।’

चन्द्रीमा सार्थक की तरह देखते हुए बोली-‘जानते हो सार्थक भईया ! तुम्हारे दोस्त को मछली के बिना खाना अच्छा नहीं लगता। इसलिये मेरी सासू मां ने मछली बनाने की विधि मुझे विशेष रूप से सिखायी है। इसके अलावा मैं और कुछ ज्यादा अच्छा नहीं बना पाती।’
सार्थक हंसकर उदय से बोला-‘बहुत ही नसीबवाला है। तुझे देखकर मुझे जलन हो रही है। मेरे नसीब में कैसी बीवी लिखी है, भगवान ही जाने।’
‘तू फिक्र मत कर ! तू अपनी बीवी को चन्द्रमी की इस रेसिडेन्सियल कुकिंग क्लास में एडमिशन दिला देना। देखना तेरी बीवी खाना बनाने के मामले में द्रोपदी बन जायेगी।’

पूरा दिन मजे में बीत गया। अगले दिन सुबह सार्थक वर्धमान-रामपुरहाट पैसन्जर ट्रेन से सांईथिया घूम आया। वहां से लौटने के बाद सार्थक का फूला हुआ मुंह देखकर उदय ने पूछा-‘क्या हुआ ? तेरी मुंह फूला हुआ क्यों हैं ? क्या तुझे कॉलेज पसंद नहीं आया ?’
‘नहीं-नहीं ! वो बात नहीं, कॉलेज बहुत पसंद आया ! काफी बड़ा कॉलेज है। कम से कम हजार-बारह सौ स्ट्रडेन्ट्स पढ़ते हैं उस कॉलेज में।’
‘तो क्या प्रिंसिपल पसंद नहीं आया ?’
‘नहीं-नहीं ! वह भी बहुत ही अच्छे हैं।’
‘तो फिर हुआ क्या ?’

इस बार सार्थक फीकी मुस्कान के साथ बोला-‘दरअसल बात यह है कि मुझे पास कोर्स की एक क्लास लेने के बाद फिर उच्च माध्यमिक के स्टूडेन्ट्स पढ़ाने होंगे।
सार्थक ने बिना रुके अपनी बात जारी रखी-‘कॉलेज में भी मुझे स्कूल मास्टरी करनी पड़ेगी....इसी बात को लेकर मेरा मूड खराब है।’
‘यार तू भी अजीब इंसान है, अगर वह लोग तुझे आर्नस क्लास पढ़ाने को देते तो तू बहुत खुश होता...है ना ?’
सार्थक ने कोई जवाब नहीं दिया।
‘देख सार्थक ! यह मत भूल कि तुझे जिन्दगी में पहली बार पढ़ाने का मौका मिल रहा है। उच्च माध्यमिक के स्टूडेन्ट्स पढ़ाकर तू अपने आप को एक परिपक्व शिक्षक के रूप में तैयार कर सकता है।’
थोड़ी देर रुकने के बाद उदय ने सार्थक को समझाते हुए कहा-‘ एक बात ध्यान रखना...वहां पर तुझसे भी ज्यादा अनुभवी शिक्षक होंगे। उन लोगों को उच्च माध्यमिक के स्टूडेन्ट्स को पढ़ाने के लिये कहकर तुझे आर्नस क्लास दे दी जाये। यह कैसे संभव है ?’

हालांकि सार्थक खामोश रहा मगर सिर हिलाकर उसने उदय की बात से सहमती जतायी।
ठीक उसी वक्त चन्द्रीमा कमरे में आकर बोली-‘सार्थक भईया मैंने तुम्हारा टाईप राईटर, और किताबें बैग से निकालकर टेबल पर सजा कर रख दिया है। जरा चलकर देख तो लो, पसंद है या नहीं ?’
‘तुमने जब रखी है....तो पसंद ना होने का सवाल ही नहीं उठता।’
‘फिर भी एक बार चलकर तुम देख लो कि, तुम्हें काम करने में कोई दिक्कत तो नहीं होगी ?’
सार्थक मुस्कुरा कर बोला-‘अरे लड़की ! मैं क्या हर रोज टाईप राईटर खट-खटाकर आर्टिकल लिखता हूं...?’
सार्थक की बात पूरी होने से पहले ही चन्द्रीमा बोल उठी-‘ तुम्हारे दोस्त तो पूरी जिन्दगी में एक भी आर्टिकल नहीं लिख पाये। और दूसरी तरफ तुम्हारे आर्टिकल हर दो तीन महीने में निकलते ही रहते हैं।’
‘अरे ! तुम्हारी जैसी बीवी पाने के बाद कौन बेवकूफ आर्टिकल लिखकर अपना समय बर्बाद करेगा ?’
‘ऐसी बात मत कहो, सार्थक भईया।’

चन्द्रीमा ने कहा-‘तुम्हारे दोस्त भी तुम्हारे जैसे ही पढ़ाई में अव्वल थे। अगर कोशिश करते तो बहुत कुछ हासिल कर सकते थे। लेकिन, नौकरी मिलने के बाद पता नहीं क्यों ये असली हो गये हैं। मुझे नहीं लगता कि इनमें कोई और उच्चाकांक्षा है।’
सार्थक ने चन्द्रीमा का हाथ पकड़ा और अपने पास बिठा कर बोला-‘अब हम दोनों मिलकर इनसे कोई बड़ा काम जरूर करवा लेंगे, ठीक है ना ?’
फिर सार्थक मुस्कुरा कर बोला-‘अगर उदय हमारी बात नहीं मानेगा तो हम उसे चैन से रहने नहीं देंगे।’
चन्द्रीमा भी मुस्कुरा कर बोली-‘ठीक है।’
उदय ने हंस कर पूछा-‘ अच्छा सार्थक, एक बात बता। तू हमेशा चन्द्रीमा का ही क्यों समर्थन करता है ?’
इससे पहले की सार्थक कुछ कहता, चन्द्रीमा बोल उठी-‘क्योंकि सार्थक भईया बड़े भईया मेरे बड़े भाई है। प्रैसिडेन्सि कॉलेज में दाखिला लेने के पश्चात जब से मैंने तुमसे प्यार करना शुरु किया, तभी से मैंने सार्थक भईया को अपना बड़ा भाई मानना शुरू कर दिया था। अब समझो, क्यों सार्थक भईया हमेशा मेरा समर्थन करते हैं ?’
उसी दिन सार्थक ने रात को अपनी दीदी भाई और जीजाजी को फोन किया-‘मैं कल से कॉलेज ज्वाइन कर रहा हूं। आप लोग मुझे आशीर्वाद दीजिये कि।’
तृणा बोली-‘मेरा आशीर्वाद तो हमेशा तेरे साथ है। तू फिक्र मत कर! जो भी होगा, तेरे लिये अच्छा ही होगा।’
पवित्र बोले-‘सार्थक, तुम वैसे ही अच्छे स्टूडेन्टस हो, और बातें भी बहुत अच्छी कर लेते हो। मुझे पूरा विश्वास है, तुम लेक्चरार के तौर पर जरूर सफल होगे। आल द बेस्ट।’

रात को खाने की टेबल पर चन्द्रीमा पर चन्द्रीमा ने पूछा-‘सार्थक भईया ! कल तुम क्या पहन कर कॉलेज जाएगे ?’
‘पन्ट-शर्ट पहन कर ही जाऊंगा।’
‘धोती-कुर्ता नहीं पहनेगे ?’
‘नहीं ! मौसम का कोई भरोसा नहीं। कब बारिश आ जाये, कोई रह नहीं सकता। बारिश के मौसम में मैं धोती-कुर्ता नहीं पहनूंगा।’
‘हां ! बारिश में धोती-कुर्ता ना पहनो तो ही अच्छा है। लेकिन तुम, धोती-कुर्ता में ही अच्छे लगते हो।’
सार्थक थोड़ा मुस्कराकर बोला-‘धोती-कुर्ते में, मैं कैसा लगता हूं, यह तो मैं कह नहीं सकता, लेकिन, यह बात सच है कि, धोती-कुर्ता पहनना मुझे अच्छा लगता है।’
उदय ने कहा-‘विश्वभारती के ज्यादातर प्रोफेसर धोती-कुर्ता ही पहनते हैं इसलिये मैं भी धोती-कुर्ता पहन कर ही जाता हूं।’
‘लेकिन मुझे तो हर रोज ट्रेन से सफर करना होगा...इसलिये मैं धोती-कुर्ता नहीं पहनूंगा।’
उदय ने कहा-‘अच्छी बात है।’

15 जुलाई।
गर्मी की छुट्टियों के बाद कॉलेज खुला। सांईथियां स्टेशन से रिक्शा पर कॉलेज जाते हुये सार्थक ने देखा, कुछ लड़के-लड़कियों साइकिल से, और कुछ पैदल ही कॉलेज जा रहे हैं। कॉलेज पहुंचने पर सार्थक को ऐसा लगा, जैसे यहां कोई उत्सव होने जा रहा है।
कॉलेज के लड़के-लड़कियां सार्थक को पहचान नहीं पाये। सार्थक धीरे-धीरे चलता हुआ, लड़के-लड़कियों को देखता रहा। उन लोगों की बातचीत एवं आपस मे हो रहे हंसी मजाक पर मन ही मन मुस्करा रहा था। माहौल ऐसा था जैसे नव बसंत के स्वागत में उत्सव का आयोजन किया जा रहा हो।

सार्थक प्रिसिंपिल के कमरे तक पहुंचा और बोला-‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं सर....?’
प्रिंसिपल साहब ने सिर उठाया और सार्थक को देखकर बोले-‘आओ-आओ...अंदर आ जाओ। मेरे कमरे में आने के लिये तुम्हें मेरी इजाजत लेने की कोई जरूरत नहीं है।’
सार्थक ने ज्यों ही कमरे में प्रवेश किया, प्रिंसिपल साहब वहां पहले से ही बैठे हुए एक प्रौढ़ व्यक्ति की ओर देखते हुए बोले-‘अविनाश बाबू। यह हैं आपके तरूण सहकर्मी सार्थक बैनर्जी।’
अविनाश बाबू ने सार्थक को एक नजर देखा फिर बोले-‘तुम खड़े क्यों हो ? बैठो-बैठो।

प्रिंसिपल साहब बोले-‘अविनाश बाबू ! सार्थक ना सिर्फ प्रैसिडेन्सी कॉलेज के अच्छे छात्र थे, बल्कि इन्होंने नई दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रैजुऐट कोर्स करने के बाद वहां से ही डी.फिल भी किया है और इन्होंने रिसर्च का काम भी शुरू कर दिया है।’
सार्थक विनम्रता से सिर झुकाये प्रिंसिपल साहब की बातें सुनता रहा।
प्रिंसिपल साहब ने आगे कहा-‘सार्थक जैसे प्रतिभावान छात्र कलकत्ता जैसे शहर में भी बमुश्किल ही नौकरी करते हैं...और हमारे गांव जैसे पिछड़े क्षेत्रों में तो आते ही नहीं, और शायद ही आयें। इस मामले में हम लोग सचमुच भाग्यवान हैं।’
अविनाश बाबू हैरत भरी दृष्टि से सार्थक की तरह देखकर बोले-‘सार्थक ! तुम यहां आने के लिये राजी कैसे हो गये ?’
‘सर ! मैं किसी कॉलेज में पढ़ाना चाहता था, यहां आकर मेरी इच्छापूर्ण हो गयी। यह भी एक कॉलेज ही है। और मुझे नहीं लगता कि यहां पर न पढ़ाने की कोई खास वजह भी हो सकती है।’
‘लेकिन...।’
‘नहीं सर ! कोई लेकिन नहीं। मुझे पूरा विश्वास है कि मैं यहां ठीक रहूंगा।’
हम लोग भी यही चाहेंगे की, तुम यहां खुश रहो। लेकिन तुम तो जानते ही हो कि, ऐसे कॉलेजों में सुविधाओं का अभाव होता ही है।’

सार्थक ने मुस्कुराकर जवाब दिया-‘सर ! आप लोग हैं, स्टूडेन्टस हैं, बस मुझे और कुछ नहीं चाहिये।
प्रिंसिपल साहब भी हंस कर बोले-‘अविनाश बाबू ! कल सार्थक यहां आये थे मुझसे मिलने। मैंने भी इनसे यह सब बातें कही थीं, लेकिन अंत में मुझे हार माननी पड़ी पता है क्यों ?’
अविनाश बाबू ने प्रश्नवाचक दृष्टि से प्रिंसिपल साहब की तरफ देखा।
‘सार्थक ने मुझे कहा था कि वह एम्विशस जरूर है, लेकिन ओवर एम्विशस नहीं ! प्रिंसिपल साहब की बात सुनकर अविनाश बाबू मुस्कुरा पड़े।

माध्यिक कक्षाओं के परीक्षाफल घोषित किये जा चुके थे, लेकिन अभी भी एड़मिशन हो रहा था। इसलिये ग्यारहवीं कक्षा अभी शुरू नहीं हो पायी थी। उच्च माध्यमिक परीक्षाफल आठ-दस दिनों पश्चात आने वाले थे। इस कारण फर्स्ट ईयर की क्लास भी अभी शुरू नहीं हो पायी थी। अविनाश बाबू सार्थक को बारहवीं कक्षा के सैक्शन में ले गये।
उन दोनों ने जैसे ही कक्षा में प्रवेश किया सभी स्टूडेन्टस उनके सम्मान में खड़े हो गये अविनाश बाबू ने हाथ से संकेत कर स्टूडेन्टस को बैठने को कहा।’
वह चारों तरफ नजरें घुमा कर देखने के बाद बोले-‘मैं तुम सब से तुम्हारेनये टीचर का परिचय करवाने आया हूं। इनका नाम है-सार्थक बैनर्जी ! नाम के अनुरूप ही तुम लोगों के नये सर जीवन में भी सचमुच सार्थक हैं।’
सार्थक विनम्रता से सिर झुकाये अविनाश बाबू बगल में खड़े थे...पूरी क्लास के स्टूडेन्टस सार्थक बाबू को ही निहार रहे थे।
‘सार्थक ना सिर्फ प्रैसीडेन्सी कॉलेज के ब्रिलियन्ट छात्र थे...बल्कि इन्होंने दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से बहुत ही अच्छे मार्क्स के साथ एम.ए. पास की, और वहीं से इन्होंने डी. फिल भी किया है। अभी सार्थक जे.एन.यू.सेपी.एच.डी. की तैयारी कर रहे हैं।’

पूरी क्लास के छात्र अपने नये लेक्चरार का परिचय पाकर भाव-विभोर हो उठे।
अविनाश बाबू गहरा श्वास खींचकर बोले-मेरे प्यारे छात्र एवं छात्राओं ! तुम लोग सचमुच भाग्यशाली हो। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप अपने नये टीचर को पूरा सहयोग प्रदान करोगे, और मुझे पूरी आशा है कि सार्थक बाबू बहुत जल्दी ही कॉलेज में आपके सबसे प्रिय लेक्चरार बन जायेंगे।’

वह सार्थक की तरफ देख कर बोले-‘सार्थक। अब तुम अपनी क्लास लो ! मैं चलता हूं।’
पूरी क्लास के छात्र-छात्राओं ने खड़े होकर अविनाश बाबू को विदा किया ! अविनाश बाबू के चले जाने के बाद सार्थक छात्र-छात्राओं को देखकर थोड़ा मुस्कुराया और मन ही मन कुछ सोचता रहा। कुछ देर पश्चात् सार्थक बोला-’मैं हर रोज रोल-कॉल नहीं करूंगा। इससे समय व्यर्थ होता है। मैं कभी-कभार ही रोल-कॉल करूंगा। जिसको अच्छा लगेगा वही क्लास में रहेगा और जिसको अच्छा न लगे, वह खुशी से क्लास के बाहर जा सकेंगे। मुझे उनकी अनुपस्थिति पर कोई एतराज नहीं होगा।’

सार्थक की बात सुनकर कक्षा के सभी छात्र छात्राएं हैरान हो उठे। इससे पहले किसी भी लेक्चरार ने ऐसा नहीं कहा था।
‘मैं क्लास में रूटीन के अनुसार लेक्चर और नौटस् भी नहीं दूंगा और सुनो....मैं तुम लोगों के साथ गप्प मारूंगा। हम लोग बातें करेंगे समाज, संसार, राष्ट्र के बारे में हम लोग तरह-तरह के मतवाद के उत्थान और पतन के बारे में बातें करेंगे। इसके अलावा मैं यह भी चाहता हूं कि, तुम लोग विभिन्न देशों के बारे में जानों, विभिन्न देशों के बीत अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के विषय में भी जानो !’
सार्थक एक पल के लिये रूका, फिर उसने अपनी बात आगे बढ़ाई लेकिन मैं सिलेबस को भी कभी अनदेखा नहीं करूंगा और मेरी कोशिश रहेगी कि तुम सब परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर सको। मैं किसी भी स्थिति में वास्तविकता की उपेक्षा नहीं कर सकता।’

सार्थक की बातों ने छात्र-छात्राओं को काफी प्रभावित किया।
‘यह मत भूलो कि तुम सब पॉलिटिकल साईंस के स्टूडेन्टस हो, पॉलिटिकल थ्योंरी के नहीं। यह विज्ञान हर पल बदलता रहता है।’
कुछ पल रुकने के बाद सार्थक ने अपनी बात आगे बढ़ाई-‘मुझे पूरा विश्वास है कि यह विषय आपको रुचिकर लगेगा। इसके अध्ययन से तुम सब इस संसार को और भी अच्छी तरह से पहचान पाओगे, जान पाओगे, और इस संसार से प्यार कर सकोगे।’
सभी स्टूडेन्टस आश्चर्यचकित हो सार्थक का मुंह ताकते रहे।

‘अंत में मैं यही कहूंगा कि स्टूडेन्टस के साथ टीचर के संबंध जितने प्रगाढ़ होंगे उतना ही अच्छा होगा। तुम लोग एक दोस्त की तरह मुझसे मिल सकते हो और विश्वास करो मैं भी तुम लोगों को एक दोस्त की नजर से ही देखूंगा।’
‘पढ़ाई के मामले में तुम्हें जब भी मेरी मदद की जरूरत महसूस हो तो बेहिचक मेरे पास आ जाना। तुम लोगों को पढ़ाने के लिये ही मुझे वेतन मिलेगा। तुम लोगों को संतुष्ट किये बिना वेतन लेने का मुझे कोई हक नहीं है।’
सार्थक थोड़ा मुस्कुराकर बोला-‘मेरे ख्याल से अब मुझे अपना लेक्चर बन्द करना चाहिये। अब तुम में से किसी को भी कुछ पूछना है तो पूछ सकते हो।’
सभी स्टूडेन्टस अपनी-अपनी जगह पर चुपचाप बैठे रहे।
‘क्या हुआ ? क्या किसी को भी कुछ नहीं पूछना ?’
फिर भी किसी ने कुछ नहीं पूछा। सभी स्टूडेन्टस पूर्ववत् चुपचाप बैठे रहो। इसी तरह कुछ समय बीत जाने के पश्चात् अचानक एक लड़का खड़ा होकर बोला ‘सर ! आप बिल्कुल अलग किस्म के हैं। ऐसी बातें हमने पहले कभी नहीं सुनी।’
‘सभी इंसान अलग-अलग किस्म के होते हैं। कभी भी कोई दो इंसान एक जैसे नहीं होते। जो भी हो, तुम्हारा नाम क्या है ?’
‘प्रदीप सरकार।’
‘वाह...बहुत ही सुन्दर नाम। तुम क्या सांईथिया में ही रहते हो ?’
‘हां सर !’
‘अच्छा..प्रदीप, यह बताओ’ इस क्लास में कोई अच्छा फुटबॉलर है क्या ?’
प्रदीप पीछे मुड़कर पिछली पंक्ति में बैठे हुये एक लड़के की और इशारा करके बोला-‘सर ! वह है विपल्व ! बहुत ही अच्छा फुटबॉलर है यह’ इसके जैसा फुटबॉलर इस शहर में और कोई नहीं है।

सार्थक ने कहा-विपल्व ! जिस दिन तुम्हारा मैच होगा, मुझे जरूर बताना। अगर संभव होगा तो देखने जरूर आऊंगा।’
विपल्व बोला-‘सर कल ही सिऊडी कॉलेज के साथ हमारे कॉलेज का मैच है।’
‘मैच कितने बजे शुरू होगा ?’
‘तीन बजे सर।’
‘जिस दिन मैच होता है, तो क्या उस दिन कॉलेज की जल्दी छुट्टी हो जाती है ?’
इस बार बहुत सारे स्टूडेन्टस एक साथ बोल उठे-‘सर ! कल दोपहर ढाई बजे कॉलेज की छुट्टी हो जायेगी।’
‘गुड ! तो मैच देखने के बाद ही लौटूंगा।’
‘अचानक एक लड़के ने पूछा’ सर ! आप कहां लौट जायेंगे ?’
‘शांति-निकेतन।’
सार्थक कुछ पल रुकने के पश्चात् बोला-‘मैं वहां अपने एक दोस्त के पास ठहरा हूं।’ फिलहाल वहीं से कॉलेज आया करूंगा।’
प्रदीप ने पूछा-‘सर ! आप यहां क्यों नहीं रहते ?’
सार्थक ने थोड़ा मुस्कुराकर जवाब दिया-‘मैं इस शहर में बिल्कुल नया हूं। इस जगह से बिल्कुल अनजान हूं। लेकिन हां, कुछ दिन पश्चात यहां रहने के लिये जरूर आ जाऊंगा।’
इस तरह सार्थक के अध्यापन का पहला दिन एक तरह से अच्छा ही बीता।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book