लोगों की राय

ओशो साहित्य >> एक ओंकार सतनाम

एक ओंकार सतनाम

ओशो

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :439
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3727
आईएसबीएन :81-7182-343-2

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

309 पाठक हैं

नानक-वाणी पर ओशो की प्रवचनमाला

Ek Onkar Satnam

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

एक ओंकार सतनाम, नानक-वाणी पर ओशो की यह प्रवचनमाला एक सर्वथा अनूठी पुस्तक है। ओशो ने गुरु नानकदेव जी की देशनाओं को, जो आज के उत्तप्त माहौल में बुरी तरह भुला दी गयी हैं, उन्हें पुनरुज्जीवित करके हमारे देश और समूची मानवता के सामने रखा है। ये केवल पूजा-पाठ तथा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के लिए नहीं हैं। ये तो अपने जीवन को रुपांतरित करके ध्यान; प्रेम, अहिंसा और अमन के पथ पर चलने के लिए हैं। लेकिन आज पंजाब, भारत और पूरा विश्व इन देशनाओं के विपरीत जा रहा है। इसलिए कुछ मित्रों को यह महसूस हुआ कि कम से कम पंजाब तो इन्हें सबसे पहले समझे, क्योंकि गुरु नानकदेव पंजाब के धर्म-प्राण हैं। कम से कम पंजाब के प्राण तो उनसे आंदोलित हों।

इस भाव से 11 जनवरी, 1991 को देश की राजधानी नयी दिल्ली में एक विशेष आयोजन हुआ: नानक-वाणी पर ओशो के बीस टेप-प्रवचनों का लोकार्पण समारोह। प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर ने अपने भावपूर्ण उद्गारों के साथ ओशो के इन प्रवचनों का लोकार्पण किया। इस अवसर पर साथ में उपस्थित थे : भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह, सुप्रसिद्ध समाजसेवी नेता नाना जी देशमुख, योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोहन धारिया तथा पंजाबी और हिंदी भाषा की संवेदनशील सुविख्यात कवयित्री एवं लेखिका अमृता प्रीतम। सी.बी.एस. ग्रामोफोन रिकार्डिंग कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री आर.वी. पंडित इस पूरे आयोजन के केंद्र थे। इन सबने यह महसूस किया कि अगर एक ओंकार सतनाम प्रवचनमाला के माध्यम से ओशो के विचार जन-जन तक पहुंचे तो पंजाब की समस्या का समाधान हो सकता है।
यहां इस भूमिका के माध्यम से प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर, पूर्व-राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह, अमृता प्रीतम तथा श्री मोहन धारिया के उद्गार सार-संक्षेप में प्रकाशित किये जा रहे हैं।

प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर के उद्गार-


‘जवाब बंदूक की गोली में नहीं, जवाब है प्यार की बोली में। यही नानक का संदेश था। और इसी संदेश को आज सदियों बाद रजनीश जी ने हमारे सामने एक दर्शन के रूप में रखा है।

‘रजनीश जी ने एक विचार रखा देश के सामने, दुनिया के सामने। नानक के जपुजी को एक नए परिवेश में उन्होंने दुनिया के सामने रखने की कोशिश की, एक ऐसी कोशिश जिस पर किसी भी कौम को फख्र हो सकता है। उनके बारे में मैं ज्यादा नहीं जानता। लेकिन एक दिन जब भाई आर.वी. पंडित ने आकर मुझे उस टेप की एक कड़ी सुनाई तो मुझे लगा जैसे एक बार नानक की वाणी को रजनीश जी ने फिर से सजीव किया है। रजनीश जी एक महान विद्वान, एक महान विचारक थे, इंसानियत के लिए जिनके दिल में मुहब्बत थी। वो मुहब्बत इज़हार करने का तरीका दूसरा हो सकता है। तरीके से लोगों को एतराज़ हो सकता है। लेकिन इंसानियत के लिए जो गहरा दर्द रजनीश जी के दिल में था, वही इज़हार होता है उनके इस प्रवचनों में। इसीलिए नानक की वाणी को इतना सजीव रूप रजनीश जी दे सके जिससे हमको और आपको सबको प्रेरणा मिलती है।
‘नानक और रजनीश जी के विचारों को लोगों के सामने रखने का जो प्रयास हो रहा है, उसमें हम आपके साथ हैं। आज इसी की आवश्यकता है, इसी की जरूरत है।
‘रजनीश जी ने हमें एक बड़ी शक्ति दी है। वह शक्ति देने के लिए मैं उनकी स्मृति को प्रणाम करता हूँ।’

पूर्व-राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के उद्गार-


‘मुझे इस बात के लिए बड़ी ही प्रसन्नता है कि हमारे भारत के एक महान फिलासफर और एक शक्तिमान विचारधारा से अपनी जिंदगी में जीत हासिल करने वाले ओशो रजनीश जी ने एक ओंकार और जपुजी साहब का भाष्य हमें दिया।
‘जो-साहित्यिक लोग हैं, वो ओशो को अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन उनकी बात और आगे पहुँचाई जानी चाहिए।
‘बहुत-से सिक्खों ने भी जपुजी साहिब के भाष्य किए, लेकिन सबसे आला दरजे का भाष्य रजनीश जी का माना जाता है, और सिक्ख मत के मानने वालों में भी माना जाता है।
‘यह बात और है कि अखबार वाले और तवारीख लिखने वाले लोग हुक्मरानों को ज्यादा जगह देते हैं, अच्छे लोगों को कम। ओशो रजनीश अगर कोई हुक्मरान होते तो फिर देखते कैसे चमकते थे वो।’

सुप्रसिद्ध कवयित्री-लेखिका अमृता प्रीतम के उद्गार-


‘पूरे चांद की रात जब सागर की छाती में उतर जाती है, तो अहसास की जाने कैसे इंतहा उसके पानी में लहर-लहर होने लगती है। कुछ उसी तरह की घटना होती है जब रजनीश जी की आवाज, सुनने वाले की रगों में उतरती है और अंतर्मन में जाने कितना कुछ भीगने और छलकने लगता है। एक सरसराहट पैदा होती है, जब बहती हुई पवन पेड़ के पत्तों में से गुजरती है। लेकिन वो सरसराहट एक टकराव से पैदा होती है। पवन के और पत्तों के टकराव से। एक नदी के पास बैठ जाएं तो कलकल का एक नाद सुनाई देता है। लेकिन वो ध्वनि पानी की और चट्टान की टक्कर से पैदा होती है। वीणा के तार छिड़ जाएं तो वो ध्वनि हाथ के और तार के टकराव से पैदा होती है। और इन सब ध्वनियों की ओर संकेत करते हुए रजनीश हमें वहाँ ले जाते हैं-नानक के एक ओंकार की ओर-जहां हर तरह का टकराव खो गया, द्वैत खो गया। जहां शक्ति कणों ने एक आकार ले लिया: एक ध्वनि का, ओंकार की ध्वनि का। इसी ध्वनि को गुरु नानक ने सत्तनाम कहा, एक संकेत दिया जहां दुनिया के दिए हुए सभी नाम खो जाते हैं। एक ही बचता है-इक ओंकार सतनाम। इक ओंकार सतनाम।

‘रजनीश जी की आवाज हमें सत्त और सत्य के अंतर में ले जाती है। जहां विज्ञान अकेले मस्तक के माध्यम से सत्य को खोजता है और कवि अकेले मन के माध्यम से सत्त को खोजता है। मन और मस्तक अकेले-अकेले पड़ जाते हैं। और रजनीश एक संकेत बन जाते हैं नानक के उस अंतर्अनुभव का, जहां दोनों का मिलन होता है। विज्ञान और कला का द्वंद्व खो जाता है और हम ओंकार में प्रवेश करते हैं। रजनीश जी की आवाज जब बहती हुई पवन की तरह किसी के अंतर में सरसराती है, एक बादल की तरह घिरती हुई बूंद-बूंद बरसती है, और सूरज की एक किरण होकर कहीं अंतर्मन में उतरती है तो कह सकती हूं वहां चेतना का सोया हुआ बीज पनपने लगता है। फिर कितने ही रंगों का जो फूल खिलता है उसका कोई भी नाम हो सकता है। वो बुद्ध होकर भी खिलता है, महावीर होकर भी खिलता है, कृष्ण होकर भी खिलता है, और नानक होकर भी खिलता है।

‘अलौकिक सच्चाइयां जो दुनियावालों की पकड़ में नहीं आतीं, उन्हें कहने के लिए कुछ प्रतीक चुन लिए जाते हैं। कुछ गाथाएं जोड़ ली जाती हैं, जो सच्चाइयों की ओर एक संकेत बनकर सदियों के संग-संग चलती हैं। ये गाथाएं लोगों के अंतर में सोई हुई संभावनाओं को जगाने के लिए होती हैं। लेकिन जब संप्रदाय बनते हैं, नजर और नजरिया छोटी-छोटी इकाइयों में सीमित होता चला जाता है, तो प्रतीक रह जाते हैं, अर्थ खो जाते हैं। और लोग खाली-खाली निगाहों से हर प्रतीक को नमस्कार करते हैं लेकिन उसी तरह उदासीन बने रहते हैं।

‘रजनीश जी ने जो दुनिया को दिया है, सादा से लफ्ज़ों में कह सकती हूं कि चेतना की क्रांति है, जो ऐसी हर गाथा के प्रतीक को अपने पोरों से खोलती है। इक ओंकार की ओर नानक की बात करते हुए वो ऐसी कितनी ही गाथाओं की बात करते हैं-वो एक नदी में तीन दिन के लिए उतर जाने की बात हो या लालू की रोटी से दूध की धारा बहने की बात हो या किसी नवाब के कहने पर नमाज पढ़ने की बात हो या मक्का में हर ओर काबा के दिख जाने की बात हो-रजनीश हर गाथा से गुजरते हुए अपनी आवाज से एक दिशा देते चले जाते हैं, जो लोगों के भीतर में उतरती है, उनकी चेतना की सोई हुई संभावनाओं को जगाने के लिए। कोई नाम, कोई सत्य अपना नहीं होता जब तक वह अपने अनुभव में नहीं उतरता। इसी अपने अनुभव की बात करते हुए मैं कह सकती हूं कि मैं जब भी नानक को समझना चाहती हूं तो देखती हूं कि रजनीश वहां खड़े हैं। मुझे संकेत से वहां ले जाते हैं जहां नानक के दीदार की झलक मिलती है। मैं कृष्ण को समझना चाहती हूं तो पाती हूं कि सामने रजनीश हैं और फिर वो मुस्कराते से कृष्ण की ओट में हो जाते हैं। वो बुद्ध के मौन में भी छिपते हैं और मीरा की पायल में भी बोलते हैं। जपुजी की आत्मा में उतरना हो तो मैं समझती हूं कि इस काल में हमें रजनीश जी की आवाज एक वरदान की तरह मिली है जिससे हमारी चेतना का बीज इस तरह पनप सकता है कि हमारे भीतर नानक खिल जाएंगे, इक ओंकार खिल जाएगा।’

योजना आयोग के उपाध्यक्ष श्री मोहन धारिया के उद्गार-


‘अमृता जी जब इतनी सुंदर काव्यात्मक भाषा में गुरु नानक और ओशो रजनीश पर बोल रही थीं तो मुझे चंद लाइनें याद आईं :
जो किनारों से टकराता है, उसको तूफान कहते हैं
पर जो तूफानों से टकराता है, उसे इंसान कहते हैं
‘इस तरह की इंसानियत जिनमें थी, ऐसे थे हमारे नानक साहब, और ऐसे ही थे हमारे ओशो रजनीश।
‘जब मैं रजनीश जी के चिंतन और नानक साहब द्वारा दी गई प्रेरणा के बारे में सोचता हूं, तो मुझे मानवीयता और धार्मिकता का खयाल हो आता है।
‘यह चिंतन कहता है, इस बात से फर्क नहीं पड़ सकता कि हम कौन-से-धर्म में कौन-से परिवार में पैदा हुए हैं। हम मनुष्य हैं। और हमें पूरे गर्व और गौरव के साथ इस संसार में रहने का अधिकार है। ऐसा विशाल है यह चिंतन।’

सी.बी.एस. के मैनेजिंग डायरेक्टर श्री आर.वी.पंडित के उद्गार-


‘यह शायद पहला अवसर है जब इतने सारे वरिष्ठ लोग सार्वजनिक रूप से ओशो के विषय में विचार करने के लिए इकट्ठे हुए हैं। यह बहुत जरूरी था, क्योंकि ओशो ने हम सबसे संबंधित विषयों के बारे में इतने प्रेम और इतनी प्रखर मेधा से बोला है।
‘हमें ओशो रजनीश को उपेक्षित नहीं करना चाहिए। सरकारी मीडिया ने अब तक ओशो को बहुत उपेक्षित किया है। शायद यह पहली बार है जब सरकारी मीडिया इस तरह के कार्यक्रम को कवर करने के लिए आया है।
‘ओशो रजनीश ने हमारी हर समस्या पर बोला है। हमारे देश की एक-एक ज्वलंत समस्या के उन्होंने ऐसे समाधान दिए हैं जैसे कोई राजनेता भी नहीं दे पाया।

‘कुछ कारणों को लेकर ओशो बड़े विवादास्पद रहे। सरकारी मीडिया ने उन्हें पूरी तरह उपेक्षित किया। इस तरह हमने एक प्रतिभाशाली विद्वान को उपेक्षित किया।
‘मैं सोचता हूं आने वाली पीढ़ी वर्तमान प्रधानमंत्री की आभारी रहेगी, जो ओशो को अतीत में मिली निंदाओं से बाहर निकालकर ला रहे हैं।’

एक ओंकार सतनाम पुस्तक का यह विशेष राजसंस्करण आपके हाथ में है। इसका पंजाबी अनुवाद भी उपलब्ध है तथा अंग्रेजी का प्रकाशन-कार्य होने को है। इन प्रवचनों के टेप उपलब्ध हैं जो आज पूरे देश में तथा देश के बाहर भी सुने जा रहे हैं। आप भी इन अमृत प्रवचनों को सुनने-पढ़ने समझने और रुपांतरित होने के लिए आमंत्रित हैं। गुरु नानकदेव जी ने कहा है: सुणिऐ लागै सहज धिआनु। सुणिऐ अठसठि का इस्नानु। ठीक से सुनना, सम्यक श्रवण पर्याप्त है। सुनने भर से सहज ही ध्यान घटित होगा और सभी तीर्थों का स्नान स्वतः हो जाएगा। ओशो के इन प्रवचनों को पढ़ते-पढ़ते आप सद्यःस्नात अनुभव करेंगे।
स्वामी चैतन्य कीर्ति
संपादक: ओशो टाइम्स इंटरनेशनल


1
आदि सचु जुगादि सचु


एक अंधेरी रात। भादों की अमावस। बादलों की गड़बड़ाहट। बीच में बिजली का चमकना। वर्षा के झोंके। गांव पूरा सोया हुआ। बस, नानक के गीत की गूंज।
रात देर तक वे गाते रहे। नानक की मां डरी। आधी रात से ज्यादा बीत गई। कोई तीन बजने को हुए। नानक के कमरे का दीया जलता है। बीच-बीच में गीत की आवाज आती है। नानक के द्वार पर नानक की मां ने दस्तक दी और कहा, बेटे ! अब सो भी जाओ। रात करीब-करीब जाने को हो गई।
नानक चुप हुए। और तभी रात के अंधेरे में एक पपीहे ने जोर से कहा, पियू-पियू।
नानक ने कहा, सुनो मां ! अभी पपीहा भी चुप नहीं हुआ। अपने प्यारे की पुकार कर रहा है, तो मैं कैसे चुप हो जाऊं ? इस पपीहे से मेरी होड़ लगी है। जब तक गाता रहेगा, पुकारता रहेगा, मैं भी पुकारता रहूंगा। और इसका प्यारा तो बहुत पास है, मेरा प्यारा बहुत दूर है-जन्मों-जन्मों गाता रहूं तो ही उस तक पहुंच सकूंगा। रात और दिन का हिसाब नहीं रखा जा सकता है। नानक ने फिर गाना शुरू कर दिया।

नानक ने परमात्मा को गा-गा कर पाया। गीतों से पटा है मार्ग नानक का। इसलिए नानक की खोज बड़ी भिन्न है। पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि नानक ने योग नहीं किया, तप नहीं किया, ध्यान नहीं किया। नानक ने सिर्फ गाया। और गा कर ही पा लिया। लेकिन गाया उन्होंने इतने पूरे प्राण से कि गीत ही ध्यान हो गया, गीत ही योग बन गया, गीत ही तप हो गया।
जब भी कोई समग्र प्राण से किसी भी कृत्य को करता है, वही कृत्य मार्ग बन जाता है। तुम ध्यान भी करो अधूरा-अधूरा, तो भी न पहुंच पाओगे। तुम पूरा-पूरा, पूरे हृदय से, तुम्हारी सारी समग्रता से, एक गीत भी गा दो, एक नृत्य भी कर लो, तो भी तुम पहुंच जाओगे। क्या तुम करते हो, यह सवाल नहीं, पूरी समग्रता से करते हो या अधूरे-अधूरे, यही सवाल है।
परमात्मा के रास्ते पर नानक के लिए गीत और फूल ही बिछे हैं। इसलिए उन्होंने जो भी कहा है, गा कर कहा है। बहुत मधुर है उनका मार्ग; रससिक्त ! कल हम कबीर की बात कर रहे थे:
सुरत कलारी भई मतवारी, मधवा पी गई बिन तौले।

नानक वही हैं, जो मधवा को बिना तौले पी गए हैं। फिर जीवन भर गाते रहे। ये गीत साधारण गायक के नहीं हैं। ये गीत उसके हैं जिसने जाना है। इन गीतों में सत्य की भनक, इन गीतों में परमात्मा का प्रतिबिंब है।
दूसरी बात, जपुजी के जन्म के संबंध में। जिस भादों की रात की मैंने बात कही-तब नानक की उम्र रही होगी कोई सोलह-सत्रह। जपुजी का जन्म हुआ तब उनकी उम्र थी, छत्तीस वर्ष, छह माह, पंद्रह दिन। जिस घटना का मैंने उल्लेख किया, उस भादों की रात वे साधक थे और तलाश में थे। प्यारे की पुकार चल रही थी, पियू-पियू। अभी पपीहा रट लगा रहा था। अभी मिलन न हुआ था।
जपुजी का जब जन्म हुआ-यह मिलन के बाद उनका पहला उदघोष है। पपीहा ने पा लिया अपने प्यारे को। पियू-पियू की रटन पूरी हुई। मिलन हो गया। उस मिलन से जो पहला उदघोष हुआ है, वह जपुजी है। इसलिए नानक की वाणी में जो मूल्य जपुजी का है वह किसी और बात का नहीं। जपुजी ताजी से ताजी खबर है उस लोक की। वहां से लौट कर उन्होंने जो पहली बात कही, वह यही है। उस जगत से इस जगत में आ कर, जो पहले शब्द निर्मित हुए वही जपुजी है। उस घटना को भी समझ लेना है।

नदी के किनारे रात के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ वे नदी तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिए। बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं ? रात ठंडी है। अंधेरी है ! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो क्षण में बाहर आ जाएंगे। फिर वे बाहर नहीं आए।
दस-पांच मिनट तो मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लग गया कि वे कहां खो गए। फिर वह चिल्लाने लगा। फिर वह किनारे-किनारे दौड़ने लगा कि कहां हो ? बोलो, आवाज दो ! ऐसा उसे लगा कि उसे नदी की लहर-लहर से एक आवाज आने लगी, धीरज रखो, धीरज रखो। पर नानक की कोई खबर नहीं। वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई।

नानक को सभी लोग प्यार करते थे। सभी को नानक में दिखाई पड़ती थी कुछ होने की संभावना। नानक की मौजूदगी में सभी को सुंगध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है। सारा गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। इस कोने से उस कोने लोग भागने-दौड़ने लगे। लेकिन कोई पता न चला।
तीन दिन बीत गए। लोगों ने मान ही लिया कि नानक को कोई जानवर खा गया। डूब गए, बह गए, किसी खाई-खड्डु में उलझ गए। मान ही लिया कि मर गए। रोना-पीटना हो गया। घर के लोगों ने भी समझ लिया कि अब लौटने का कोई उपाय न रहा।
और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गए। जब वे नदी से प्रकट हुए तो जपुजी उनका पहला वचन है। यह घोषणा उन्होंने की।
कहानी ऐसी है-कहता हूं, कहानी। कहानी का मतलब होता है, जो सच भी है, और सच नहीं भी। सच इसलिए है कि वह खबर देती है सचाई की; और सच इसलिए नहीं है कि वह कहानी है और प्रतीकों में खबर देती है। और जितनी गहरी बात कहनी हो, उतनी ही प्रतीकों की खोज करनी पड़ती है।

नानक जब तीन दिन के लिए खो गए नदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे, जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने कहा, अब तू जा। और जो मैंने तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है परमात्मा से लौट कर।
यह कहानी है। इसके प्रतीकों को समझ लें। एक, कि जब तक तुम न खो जाओ, जब तक तुम न मर जाओ तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। नदी में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम नहीं बचने चाहिए। तुम्हारा खो जाना ही उसका होना है। तुम जब तक हो तभी तक वह न हो पाएगा। तुम ही अड़चन हो। तुम ही दीवाल हो। यह जो नदी में खो जाने की कहानी है...।

तुम्हें भी खो जाना पड़ेगा। तुम्हें भी डूब जाना पड़ेगा। तीन दिन लगते हैं। इसलिए तो हम, जब आदमी मर जाता है, तो तीसरा मनाते हैं, तीसरा हम इसलिए मनाते हैं कि मरने की घटना पूरी होने में तीन दिन लग जाते हैं। उतना समय जरूरी है। अहंकार मरता है, एकदम से नहीं। कम से कम समय तीन दिन लेता है। इसलिए कहानी में तीन दिन हैं, कि नानक तीन दिन नदी में खोए रहे। अहंकार पूरा गल गया, मर गया। और पास-पड़ोस, मित्रों, प्रियजनों, परिवार के लोगों को तो अहंकार ही दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आत्मा तो दिखाई पड़ती नहीं, इसलिए उन्होंने तो समझा कि नानक मर गए।
जब भी कोई संन्यासी होता है, घर के लोग समझ लेते हैं, मर गया। जब भी कोई उसकी खोज में जाता है, घर के लोग मान लेते हैं, खत्म हुआ। क्योंकि अब यह वही तो न रहा। टूट गई पुरानी श्रृंखला। अतीत मिटा, अब नया हुआ। बीच में तीन दिन की खाई है। इसलिए तीन दिन का प्रतीक है। तीन दिन बाद नानक लौट आए।
जो भी खोता है वह लौट आता है, लेकिन नया हो कर लौटता है। जो भी जाता है उस मार्ग पर, वापस आता है। लेकिन जा रहा था तब प्यासा था, आता है तब दानी हो कर आता है। जाता था तब भिखारी था, आता है तब सम्राट हो कर आता है। जो भी परमात्मा में लीन होता है, जाते समय भिक्षापात्र होता है, लौटते समय अपरंपार संपदा होती है बांटने को।
जपुजी पहली भेंट है।

परमात्मा के सामने प्रकट होना, प्यारे को पा लेना, इन्हें तुम बिलकुल प्रतीक को, भाषागत रूप से सच मत समझ लेना। क्योंकि कहीं कोई परमात्मा बैठा हुआ नहीं है, जिसके सामने तुम प्रकट हो जाओगे। लेकिन कहना हो बात, तो और कुछ कहने का उपाय भी नहीं है। जब तुम मिटते हो तो जो आंख के सामने होता है वही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है; परमात्मा निराकार शक्ति है।
तुम उसके सामने कैसे हो सकोगे ? जहां तुम देखोगे, वहीं वह है। जो तुम देखोगे, वही वह है। जिस दिन आंख खुलेगी, सभी वह है। बस तुम मिट जाओ, आंख खुल जाए।
अहंकार तुम्हारी आंख में पडी हुई कंकड़ी है। उसके हटते ही परमात्मा प्रकट हो जाता है। परमात्मा प्रकट ही था, तुम मौजूद न थे। नानक मिटे, परमात्मा प्रकट हो गया। जैसे ही परमात्मा प्रकट हो जाता है, तुम भी परमात्मा हो गए। क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
नानक लौटे; परमात्मा हो कर लौटे। फिर उन्होंने जो भी कहा है, एक-एक शब्द बहुमूल्य है। फिर उस एक-एक शब्द को हम कोई भी कीमत दें तो भी कीमत छोटी पड़ेगी। फिर एक-एक शब्द वेद वचन हैं।

अब हम जपुजी को समझने की कोशिश करें।
इक ओंकार सतिनाम
करता पुरखु निरभउ निरवैर।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।
‘वह एक है, ओंकार स्वरूप है, सत नाम है, कर्ता पुरुष है, भय से रहित है, वैरे से रहित है, कालातीत-मूर्ति है, अयोनि है, स्वयंभू है, गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।’
एक है-इक ओंकार सतिनाम।
जो भी हमें दिखाई पड़ता है वह अनेक है। जहां भी तुम देखते हो, भेद दिखाई पड़ता है। जहां तुम्हारी आंख पड़ती है, अनेक दिखाई पड़ता है। सागर के किनारे जाते हो, लहरें दिखाई पड़ती हैं। सागर दिखाई नहीं पड़ता। हालांकि सागर ही है। लहरें तो ऊपर-ऊपर हैं।

पर जो ऊपर-ऊपर है वही दिखाई पड़ता है, क्योंकि ऊपर की ही आंख हमारे पास है। भीतर को देखने के लिए तो भीतर की आंख चाहिए। जैसी होगी आंख, वैसा ही होगा दर्शन। आंख से गहरा तो दर्शन नहीं हो सकता। तुम्हारे पास आंख ही ऊपर की है। तो लहरों को देख कर लौट आओगे। और लोगों से कहोगे कि सागर हो आया। सागर में जाने का यह ढंग नहीं है। किनारे से तो दिखाई पड़ेंगी लहरें। सागर में हो तो डूबना ही पड़े। इसलिए तो कहानी है कि नानक नदी में डूब गए। लहरों में नहीं है वह, नदी में है। लहरों में नहीं है, सागर में है। ऊपर-ऊपर तो लहरें होंगी। तट से तुम देख कर लौट आओगे, तो तुम जो खबर दोगे वह गलत होगी। तुम कहोगे कि सागर हो आया। सागर तक तुम गए नहीं। तट पर तो सागर नहीं है, वहां से तो लहरें दिखाई पड़ सकती हैं। लहरों का जोड़ भी सागर नहीं है। जोड़ से भी ज्यादा है सागर। और जो मौलिक भेद है वह यह है कि लहर अभी है, क्षण भर बाद नहीं होगी, क्षण भर पहले नहीं थी।
एक सूफी फकीर हुआ जुन्नैद। बहुत प्रेम करता था अपने बेटे को। फिर बेटा अचानक मर गया किसी दुर्घटना में, तो दफना आया। पत्नी थोड़ी हैरान हुई। पत्नी सोचती थी कि बेटा मरेगा तो जुन्नैद पागल हो जाएगा; इतना प्रेम करता था बेटे को। लेकिन जैसे जुन्नैद को कुछ हुआ ही नहीं। जैसे बेटा मरा ही नहीं। जैसे कोई बात ही नहीं हुई, जुन्नैद वैसा ही रहा। आखिर सांझ होते-होते जब लोग विदा हो गए सहानुभूति प्रगट करके, तो पत्नी ने पूछा कि कुछ दुख नहीं हुआ तुम्हें ? मैं तो सोचती थी तुम टूट जाओगे। इस बेटे से तुम्हें इतना प्रेम था।

जुन्नैद ने कहा कि एक क्षण को धक्का लगा था, फिर मुझे याद आया, जब यह बेटा नहीं था तब भी मैं था और खुश था। अब यह बेटा नहीं है तो दुख होने का क्या कारण ? फिर वैसे ही हो गया, जैसे पहले था। बेटा बीच में आया और गया। न पहले दुखी था तो अब दुखी होने का क्या कारण ? बिना बेटे के मजे में था। अब फिर बिना बेटे के हूं। फर्क क्या है ? बीच का एक सपना टूट गया।
जो बनता है और मिट जाता है, वह सपना है। जो आता है और चला जाता है, वह सपना है। लहरें सपना हैं, सागर सच है। अनेक लहरें हैं, एक सागर है। हमें अनेक दिखाई पड़ता है। और जब तक एक न दिखाई पड़ जाए, तब तक हम भटकते रहेंगे। क्योंकि एक ही सच है।
इक ओंकार सतिनाम।
और नानक कहते हैं कि उस एक का जो नाम है, वही ओंकार है। और सब नाम तो आदमी के दिए हैं। राम कहो, कृष्ण कहो, अल्लाह कहो, ये नाम आदमी के दिए हैं। ये हमने बनाए हैं। सांकेतिक हैं। लेकिन एक उसका नाम है जो हमने नहीं दिया; वह ओंकार है। वह ॐ है।

क्यों ओंकार उसका नाम है ? क्योंकि जब सब शब्द खो जाते हैं और चित्त शून्य हो जाता है और जब लहरें पीछे छूट जाती हैं और सागर में आदमी लीन हो जाता है तब भी ओंकार की धुन सुनाई पड़ती रहती है। वह हमारी की हुई धुन नहीं है। वह अस्तित्व की धुन है। वह अस्तित्व की ही लय है। अस्तित्व के होने का ढंग ओंकार है। वह किसी आदमी का दिया हुआ नाम नहीं है। इसलिए ॐ का कोई भी अर्थ नहीं होता ॐ कोई शब्द नहीं है। ॐ ध्वनि है और ध्वनि भी अनूठी है। कोई उसका स्रोत नहीं हैं। कोई उसे पैदा नहीं करता। अस्तित्व के होने में ही छिपी है। अस्तित्व के होने की ध्वनि है।
जैसे कि जलप्रपात है; तुम उसके पास बैठो तो प्रपात की एक ध्वनि है। लेकिन वह ध्वनि पानी और चट्टान की टक्कर से पैदा होती है। नदी के पास बैठो, कल-कल का नाद होता है। लेकिन वह कल-कल का नाद नदी और तट की टक्कर से होता है। हवा का झोंका निकलता है, वृक्ष से सरसराहट होती है। लेकिन वह सरसराहट हवा और वृक्ष की टक्कर से होती है। हम बोलते हैं, संगीतज्ञ गीत गाता है, वीणा का कोई तार छेड़ता है, लेकिन सभी चीज संघर्ष से पैदा होती है। संघर्ष के लिए दो जरूरी हैं। तार चाहिए वीणा का, हाथ चाहिए छेड़नेवाला। जितनी ध्वनियां द्वैत से पैदा होती हैं, वे उसके नाम नहीं हैं। उसका नाम तो वही है, जब सब द्वैत खो जाता है, फिर भी एक ध्वनि गूंजती रहती है।

इस संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी है। विज्ञान कहता है कि सारे अस्तित्व को अगर हम तोड़ते चले जाएं, और गहराई में विश्लेषण करें, तो अंत में हमें विद्युत-ऊर्जा, इलेक्ट्रीसिटी मिलती है। इसलिए जो आखिरी खोज है विज्ञान की, वह इलेक्ट्रान है, विद्युतकण। सारा अस्तित्व विद्युत से बना है। अगर हम विज्ञान से पूछें कि ध्वनि किससे बनी है ? तो विज्ञान कहता है, वह भी विद्युत से बनी है। ध्वनि भी विद्युत का एक आकार है एक रूप है। लेकिन मूल विद्युत है।
इस संबंध में समस्त ज्ञानियों की विज्ञान से सहमति है, थोड़े से भेद के साथ। वह भेद बड़ा नहीं, वह भेद भाषा का है। समस्त ज्ञानियों ने पाया कि अस्तित्व बना है ध्वनि से और ध्वनि का ही एक रूप विद्युत है। विज्ञान कहता है, विद्युत का एक रूप ध्वनि है; और धर्म कहता है कि विद्युत ध्वनि का एक रूप है। इतना ही फासला है। मगर यह फासला ऐसा ही दिखाई पड़ता है जैसे ग्लास आधा भरा हो; कोई कहे आधा भरा है, कोई कहे आधा खाली है।

विज्ञान की पहुंच का द्वार अलग है। विज्ञान ने पदार्थ को तोड़-तोड़ कर विद्युत को खोजा है। ज्ञानियों की पहुंच का मार्ग अलग है। उन्होंने अपने को जोड़-जोड़ कर-तोड़ कर नहीं; अपने को जोड़-जोड़ कर अखंड को पाया है और इस अखंड में एक ध्वनि पाई है। जब कोई व्यक्ति समाधिस्थ हो जाता है तो ओंकार की ध्वनि गूंजती है। वह अपने भीतर उसे गूंजते पाता है। अपने बाहर गूंजते पाता है। सब, सारे लोक उससे व्याप्त मालूम होते हैं।




प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book