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महाभारत

प्रियदर्शी प्रकाश

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3730
आईएसबीएन :81-288-0587-8

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प्रस्तुत है महाभारत की कथा...

mahabharat (daymond)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

द्वापर युग में कौरवों तथा पांडवों के बीच हुए संघर्ष की रोमांचक कहानी को बड़ी ही सरल भाषा में महाभारत में प्रस्तुत किया गया है, जो हर वर्ग के पाठक के लिए पठनीय है।
महाभारत कथा में सत्य की असत्य पर और न्याय की अन्याय पर विजय को इतनी सरल भाषा में वर्णन किया गया है कि हर छोटा-बड़ा पढ़कर समझ सकता है और अच्छाइयों को ग्रहण कर सकता है।

महाभारत


प्राचीन काल की बात है। द्वापर के अन्त में....
इस आर्यावर्त पर राजा शांतनु का राज था। वे परम- तेजस्वी वीर थे। उन्हें शिकार का बहुत शौक था। जब भी अवसर मिलता, वे आखेट कि लिए राजधानी हस्तिनापुर के जंगलों की तरफ निकल पड़ते।
एक बार की बात है।
राजा शांतनु शिकार खेलते हुए गंगा के किनारे जा पहुँचे, गंगा-किनारे ही उन्हें नजर आई—एक अत्यन्त रूपवती अत्यन्त सुन्दर युवती। उसे देखते ही राजा अपनी सुध-बुध खो बैठे। युवती उन्हें भा गयी अगले पल ही वे उसे प्यार करने लगे।
राजा शांतनु युवती के पास गये और परिचय देकर भाव-विह्वलता में बोले—‘‘हे परम-सुन्दरी ! क्या तुम मेरी पत्नी बनोगी ?’’

युवती खुद भी राजा शांतनु के भव्य-व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुकी थी। सो बोली—‘‘राजन मुझे स्वीकार है। किन्तु मेरा हाथ थामने से पहले मेरी कुछ शर्तें आपको माननी होंगी।’’
‘‘मुझे शीघ्र बताओ, तुम्हारी शर्तें क्या हैं ?’’ राजा शांतनु बोले—‘‘ तुम्हें पाने के लिए मुझे प्रत्येक शर्त स्वीकार है।’’
‘‘तो राजन ध्यान से मेरी बात सुनिये।’’ युवती बोली—‘‘विवाहोपरांत जब मैं आपकी पत्नी बन जाऊं, तब आप यह जानने की कभी कोशिश न करेंगे कि मैं कौन हूं ? मैं कुछ भी करने को पूरी तरह स्वतंत्र होऊं। मेरे किसी भी कार्य-कलाप में आप कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। यही मेरी शर्तें हैं। जब तक आप मेरी शर्तों पर कायम रहेंगे मैं पत्नी की हैसियत से आपके साथ रहूंगी, जैसे ही आपने मेरी राह में कोई बाधा उपस्थित की, मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी।’’

राजा शांतनु ने उसकी सारी शर्तें मान लीं। इस तरह दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया।
कुछ समय पश्चात राजा शांतनु की वह रानी गर्भवती हुई।
राजा खुश थे कि उनके घर में पहली सन्तान उत्पन्न होने जा रही है। पर उस समय राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब पत्नी ने पहली सन्तान उत्पन्न होते ही उसे नदी में विसर्जित कर दिया।
राजा बहुत मर्माहत हुए। उन्हें समझ में नहीं आया कि रानी ने ऐसा क्यों किया ? वे उससे कुछ पूछ नहीं सकते थे, क्योंकि उसे पहले ही वचन दे रक्खा था। उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया। सोचा, अगली सन्तान होने तक सब ठीक हो जायेगी।
लेकिन दूसरी सन्तान होने पर रानी ने उसे भी नदी में बहा दिया। शर्त ऐसी थी कि राजा विवश थे। उधर रानी एक के बाद एक दूसरी सन्तान को उत्पन्न होते ही नदी में प्रवाहित कर देती। ऐसा करते हुए पत्नी के चेहरे पर न दुःख होता, और न ही खेद, बल्कि हर सन्तान नदी में प्रवाहित कर देने के पश्चात उसके चेहरे पर संतोष की झलक मिलती और मुस्कराहट खिल जाती। इस प्रकार रानी ने अपने सात नवजात शिशुओं को नदी में बहा दिया। राजा शांतनु का दिल रोता था, लेकिन उन्हें डर था कि अगर रानी इस निर्दयता के बारे में  कुछ भी कहा, तो वह उन्हें छोड़ कर चली जायेगी।
समयानुसार रानी फिर गर्भवती हुई।

आठवें बच्चे के पैदा होते ही उसे भी नदी में बहाने के लिए तैयार हो गयी। अब तो शांतनु के धैर्य का बांध टूट गया। वे सारी शर्तें भूल गये और रानी का रास्ता रोककर बोले—‘‘तुम कैसी मां हो अपने ही नवजात शिशुओं को नदी में बहा देती हो ? अब मुझसे सहन नहीं होता, तुम्हें अपनी यह आदत बदलनी पड़ेगी।’’

रानी ने आंखें उठाकर शांतनु की ओर देखा, फिर गंभीर स्वर में बोली—‘‘ठीक है, आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा,। इस आठवें बच्चे को मैं नदी में नहीं बहाऊंगी। पर अब मैं आपके साथ नहीं रह सकती, क्योंकि आपने वचन भंग किया है।’’
राजा शांतनु समझ गये कि रानी को वह अब रोक नहीं सकते, लेकिन वे सारा रहस्य जानना चाहते थे। सो बोले, ‘जाने से पहले यह तो बता दो कि तुम कौन हो और अपने नवजात शिशुओं को इस निर्ममता से नदी में क्यों बहा देती हो ?’’
रानी ने जवाब दिया—‘‘ हे राजन ! सच्चाई यह है कि मैं गंगा हूँ। महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार मैंने यह मानव-शरीर धारण किया है, क्योंकि मुझे आठ पुत्रों को जन्म देना था। जब तुमने मेरे सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। तो मैंने तत्काल स्वीकार कर लिया। मेरी निगाहों में तुम्हीं आठ पुत्रों को  जन्म देने योग्य थे। ये आठ शिशु कोई और नहीं आठ वशु हैं। उन्होंने पिछले जन्म में एक पाप किया था, सो उन्हें पृथ्वी पर मानव योनि में पैदा होने का शाप मिला था।

‘‘वे एक बार अपनी पत्नियों सहित महर्षि वशिष्ठ के आश्रम के आस-पास घूम रहे थे। तभी आठवें वसु की पत्नी की नजर महर्षि वशिष्ठ की कामधेनु गाय नन्दिनी की ओर चली गई। बस, उसने जिद पकड़ ली कि उसे यह गाय चाहिए। बहुत समझाने पर भी वह जब नहीं मानी, तो आठों वसुओं ने वह गाय चुरा ली। बाद में जब महर्षि वशिष्ठ को पता चला, तो वे बहुत क्रोधित हुए, उन्होंने आठों वसुओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दे दिया। अब वशु घबराए, उन्होंने अपनी करनी की क्षमा माँगी। महर्षि वशिष्ठ को उन पर दया आ गयी, सो उन्होंने कहा—‘‘अब मैं साप दे चुका हूँ उसे वापस नहीं ले सकता, हां शाप का प्रभाव जरूर कम कर सकता हूं।’’ यह कहकर उन्होंने सात वसुओं को तो पृथ्वी पर जन्म लेते ही अपना शरीर त्याग देने का वर दिया, पर आठवें वसु को, जिसने नन्दिनी चुराई थी, लम्बे अरसे तक पृथ्वी पर ही रहने का शाप पूर्ववत् रखा। किन्तु यह वर भी दिया कि उसका नाम रहती दुनिया तक अमर रहेगा। मेरे हाथ में जो जीवित पुत्र है, यह वही आठवां वसु है। महर्षि वशिष्ठ ने इस काम के लिए मुझसे अनुरोध किया था और मैंने उनकी बात मान ली थी।’’
शांतनु चकित हो गंगा की बात सुनते रहे। उनसे कुछ कहते नहीं बना।
गंगा ने कहा—‘‘अच्छा ! अब मैं जा रही हूं। अपने साथ आठवां पुत्र भी ले जा रही हूं। समय आने पर इसे आपको सौंप दूँगी।’’

शांतनु होश में आ गये। पूछा—‘‘पर कब ? कहां ?’’
लेकिन गंगा ने कोई उत्तर नहीं दिया। अगले पल वही पुत्र सहित नदी में अन्तर्धान हो गयीं
राजा शांतनु हाथ मलकर रह गये।

धीरे-धीरे समय बीतने लगा।
एक बार शांतनु शिकार खेलते हुए फिर नदी-किनारे उसी जगह पहुंच गये, जहां उसे पत्नी के रूप में गंगा मिली थी। तभी उन्होंने देखा कि एक युवक धनुष की डोर तानकर वाणों से निशाना साध रहा है। सारे वाण समसनाते हुए गंगा की धार पर लग रहे थे, जिससे नदी की लहरों का मार्ग अवरुद्ध हो रहा था। शांतनु सोच रहे थे, ‘‘कौन है, यह युवक ? किसी राज कुल का तो नहीं।’’
तभी उनके सामने गंगा प्रगट हो गयीं। बोलीं—‘‘राजन जिसे देखकर आप हैरान हो रहे हैं, वह आपका ही पुत्र है। मैंने बड़े यत्न से पाल-पोस कर इसे बड़ा किया है। इसे महर्षि वशिष्ट ने पूर्ण वेदों की शिक्षा दी है, इसकी तीरंदाजी का जवाब नहीं, अस्त्र संचालन में यह पटु है। इसके अलावा इसकी बौद्धिक और आत्मिक शक्ति असीम है। इसका नाम देवव्रत है। आप इसे ले जा सकते हैं। इतना कह कर गंगा फिर अन्तर्धान हो गयीं।


लगभग चार वर्षों के बाद।
राजा शांतनु पुनः शिकार के लिए निकले।
वन में उन्हें एक हिरण नजर आया। वे उसका पीछा करते हुए काफी दूर तक निकल गये।
सामने यमुना नदी बह रही थी। चारों ओर मनोरम जंगल फैला हुआ था। वहीं उन्हें एक परम सुन्दर युवती नजर आयी। उसके शरीर से बड़ी मन भावनी सुगन्ध निकल रही थी, जिससे वातावरण में भीनी-भीनी खुशबू फैल गयी थी, शांतनु उसकी सुंदरता देखकर मुग्ध हो गये।
उन्होंने पास आकर युवती से पूछा—‘‘हे सुन्दरी ! तुम कौन हो ? यहां क्या कर रही हो ।’’
सुन्दरी ने जवाब दिया, ‘‘मैं केवट की पुत्री हूँ। यात्रियों को नदी पार करवाने में पिताजी की मदद करती हूं।’’
राजा शांतनु बोले, ‘मैं यहां का राजा हूं। क्या तुम मेरी रानी बनना स्वीकार करोगी ?’’
केवट-पत्री लजा कर बोली, ‘आप जैसा पति पाना तो सौभाग्य की बात है, पर इसके लिए तो आपको मेरे पिता जी से अनुमति लेनी पड़ेगी।’’

 राजा शांतनु केवटराज से मिले और उससे कहा, ‘मैं आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हूं। कृपया अनुमति देकर कृतार्थ कीजिए।’’
भला केवट को क्या आपत्ति हो सकती थी ! किन्तु उसने दुनिया देख रखी थी, सो बोला, ‘‘अपनी बेटी सत्यवती का हाथ तुम्हें सौंपकर मुझे खुशी होगी, लेकिन...।’’
‘‘लेकिन क्या...?’’ राजा ने उत्सुकता से पूछा।
‘‘अगर सत्यवती से पैदा होने वाला पुत्र ही राज्य का उत्तराधाकारी बने, तो आप मेरी बेटी से विवाह कर सकते हैं’’ केवट ने कहा, ‘‘यही मेरी शर्त है। राजन  स्वीकार है...?’’
भला यह शर्त राजा कैसे स्वीकार कर सकते थे ! देवव्रत उनका सबसे बड़ा पुत्र था, और हर तरह से योग्य था। परम्परा से उनके बाद देवव्रत को ही राज्य का उत्तराधाकिरी बनना था। अतः उन्होंने जवाब दिया, ‘‘केवटराज, यह शर्त तो अन्यायपूर्ण है। देवव्रत को अधिकार से च्युत करना उचित नहीं।’’
....तो राजन मैं विवश हूं।’’
केवटराज का ऐसा उत्तर सुन राजा शांतनु निराश होकर वापस लौट गये।
लेकिन मन-प्राण में सत्यवती की सुन्दरता तथा सुगन्धि हमेशा के लिए बस गयी थी। उसे भुला न सके। इसका नतीजा यह हुआ कि उनका राज्य-कार्य में दिल लगता था और न ही खाने-पीने में। रात-दिन बस सत्यवती की सलोनी सूरत उनकी आंखों के आगे छायी रहती।

देवव्रत से पिता की उदासी और पीड़ा छिपी न रह सकी। उसने एक दिन पति से पूछा, ‘‘राजन, आपको क्या कष्ट है। इन दिनों आपकी उदासी बढ़ती ही जा रही है।’’
राजा शांतनु भला क्या उत्तर देते ? कैसे कहते कि वे सत्यवती के विरह की आग में जल रहे हैं। सत्यवती के बिना वे जी नहीं सकते।

कुछ सोचकर राजा शांतनु पुत्र से बोले, ‘‘बेटे तुम मेरी एक मात्र सन्तान हो मैं तो भविष्य के बारे में सोच-सोच कर चिंतित हूं कि हमारे राज्य का क्या होगा ? अगर तुम्हें कुछ हो गया तो हमारे वंश का क्या होगा ? तुम योद्धा हो, हमेशा अस्त्र-शस्त्रों से खेलते रहते हो। युद्ध का मैदान ही तुम्हारा जीवन है। ऐसी हालत में राज्य के प्रति चिन्तित होना स्वाभाविक ही है। विद्वानों ने सच ही कहा है कि पुत्र होना न होना, दोनों बराबर है। काश ! मेरी और भी सन्तान होती !’
देवव्रत सुनकर हैरान रह गये। पिता के कथन से उन्हें शक हुआ तो उन्होंने सच्चाई जानने का प्रयास किया। वे मंत्रियों से मिले, और राजा की चिन्ता का वास्तविक कारण जानना चाहिए। एक मन्त्री ने बताया, ‘‘युवराज, राजा एक केवटराज की पुत्री से विवाह करना चाहते हैं। किन्तु केवट राज की शर्त है कि उनकी पुत्री की सन्तान ही राज्य की उत्तराधिकारी बने, जो राजा को स्वीकार्य नहीं।’’

देवव्रत पिता जी को उदास नहीं देखना चाहते थे। वे सीधे केवटराज के यहां पहुंचे और बोले, ‘‘मैं राजा शांतनु का पुत्र हूं। मैं राज्य के उत्तराधिकार से स्वयं को वंचित करता हूं। अब आप अपनी पुत्री का विवाह राजा से करा दें।’’
किन्तु केवटराज ने भी दूर की सोची बोला, ‘‘आपकी बात ठीक है। पर आपकी सन्तान अगर राज्य पर अपना अधिकार जताना चाहे, तो मेरी पुत्री की सन्तान का क्या होगा  ?’’
‘‘आपका भय उचित ही है।’’ देवव्रत ने मुस्कराकर कहा, ‘‘इसका एक ही उपाय है कि मैं विवाह नहीं करूं।



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