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जीवनी/आत्मकथा >> सरदार पटेल

सरदार पटेल

मीना अग्रवाल

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3733
आईएसबीएन :81-288-0818-4

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सरदार पटेल के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Sardar Patel

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लौह पुरुष सरदार पटेल का नाम लेते है उनका एक विशेष बिम्ब अनायास ही मानस पटल पर उभरता है। वह सच्चे अर्थों में भारत राष्ट्र निर्माता थे। देश के लिए किए उनके कार्यों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है—स्वाधीनता प्राप्ति हेतु किया गया संघर्ष और स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात राष्ट्र के एकीकरण में उनकी भूमिका।
देश की स्वाधीनता के बाद रियासतों का भारत राष्ट्र में विलय करने में सरदार पटेल की भूमिका उनके जीवन का सर्वाधिक प्रशंसनीय अध्याय माना जाता है। उनकी अदम्य इच्छा शक्ति और कुशल राजनीति से ही भारत एक राष्ट्र बन सका। वस्तुतः वही आधुनिक भारत के निर्माता थे।
इस पुस्तक में राष्ट्र निर्माता सरदार पटेल को औपन्यासिक शैली में लिपिबद्ध करने का प्रयत्न किया गया है।

सरदार पटेल


उस समय आकाश में काले, लाल, पीले बादलों की झड़ी छाई हुई थी। कहीं-कहीं दूधिया सफेद बादल भी बीच में ऐसे दिखाई दे जाते थे, जैसे दुख से सराबोर आदमी के चेहरे पर मुस्कराहट चली आई हो। आकाश बादलों के परस्पर संघर्ष से गूंज जाता था और इसी तरह नीचे धरती पर बड़े-चौड़े रास्तों के बीच निकलती हुई पगडंडियां धीरे-धीरे चलते हुए आदमी की पदचापों से कांप रही थीं।— बीस वर्ष का एक युवक सामान्य से कुछ अधिक कर गुजरने की इच्छा से इन्हीं छोटी पगडंडियों पर चलता हुआ किसी बड़े रास्ते की खोज में निकल पड़ा था। पैर में हल्का-सा पत्थर अटका, उसे उठाने के लिए नवयुवक नीचे झुका और पत्थर उठाकर पीछे फेंकने लगा।

युवक को लगा कि उसका करमसद गांव बहुत पीछे छूट गया है...उसकी दस एकड़ जमीन की लंबाई-चौड़ाई जैसे इस छोटी-सी पगडंडी में आकर समा गई है। उसका तालुका बोरसद किनारे पर उगे पेड़ों के बीच कहीं खो गया है। बहुत पहले उसने अपने जनपद में आए किसी साधु से सुना था कि बड़ी जमीन पाने के लिए छोटी जमीन छोड़नी पड़ती है और यदि जीवन में कुछ करना हो, तो छोटी-छोटी बातों को भूलना होता है। युवक चलते-चलते अचानक रुक जाता है, क्योंकि उसे लगा कि घने पेड़-पौधों के बीच से कोई छाया सरकती हुई आ रही है। युवक चौकन्ना हो गया है। छाया धीरे-धीरे उसके करीब आ गई, उसने गौर से देखा चालीस-पैंतालीस वर्ष का एक आदमी बांए हाथ में लगी हुई चोट को दाएँ हाथ से दबाए उसके समाने आकर खड़ा हो गया।
आने वाले के चेहरे पर दर्द झलक रहा था। वह युवक के सामने था—‘‘तुम कौन हो भाई ? ’’
‘‘मैं...मैं भूषण राव और तुम !’’

‘‘मेरा नाम झवेर पटेल है और मैं गुजरात का रहने वाला हूं।’’
‘‘कैसा बढ़िया संयोग है भाई कि हम पड़ोसी प्रदेश के लोग यहां इस इलाके में ऐसे मिले !’’
‘‘सब संयोग की बात है। कब, कौन, कहाँ, किससे मिलता है और क्यों मिलता है।’’—झवेर तक देख चुका था कि भूषण के बाएं हाथ से रक्त की बूँद गिर रही है। उसने बहुत जल्दी अपने छोटे से गमछे को भूषण के हाथ में पट्टी की तरह बाँध दिया और फिर धीरे-धीरे वह पगडंडी पर चलने लगा।
‘‘कहाँ जा रहे हो !’’ भूषण ने पूछा।
‘‘रानी झाँसी की सेना में भरती होने।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘और तुम ? कहाँ से आ रहे हो ? यह खून कैसा ?’’
‘‘जहां तुम जा रहे हो, मैं वहीं से आ रहा हूँ।’’
‘‘क्या मतलब ?’’

‘‘मतलब यह है, नौजवान कि मैं झांसी की सेना का एक सैनिक हूं। बड़ी लड़ाई की तैयारी करते-करते हमारी एक छोटी मुठभेड़ हो गई और उसी मुठभेड़ में मुझे एक तीर लगा।’’
‘‘तो अब कहाँ जा रहे हो ?’’
‘‘पास में ही जहां यह पगडंडी खत्म होती है, वहीं हमारे एक परिचित हकीम रहते हैं। उनके पास जा रहा हूँ, वह कुछ दवा लगा देंगे।’’
‘‘चलो अच्छा हुआ तुमसे मुलाकात हो गई। एक जैसे लोगों का साथ हो गया।’’
भूषण और झवेर थोड़ी देर तक धीरे-धीरे चलते रहे। इस बीच भूषण ने झवेर को रानी लक्ष्मीबाई की सेना और नाना साहेब के बारे में बहुत-सी बातें बताईं। उसने झवेर को यह भी बताया कि रानी एक बहुत बड़ी लड़ाई की तैयारी कर रही हैं और यह अंग्रेजों की गुलामी दूर करने के लिए हमारा पहला कदम होगा।

झवेर और भूषण काफी देर तक चलते रहे और इस बीच भूषण तरह-तरह की बातें बताता रहा।
भूषण की बातें सुन कर झवेर के मन में उगा हुआ देशभक्ति का छोटा-सा पौधा अचानक बड़ा होने लगा। उसने महसूस किया कि धीरे-धीरे चलते उसके पैरों में ताकत आ गई है। अब वे लंबे-लंबे डग भरने लगा। भूषण भी अपने दर्द को भूल कर उसका साथ देने लगा। जैसे दोनों बहुत जल्दी ही उस शिविर में पहुंचना चाहते हैं जहां नाना साहेब ने सैनिकों को भरती किए जाने का काम शुरू किया हुआ था।

इसी दौरान बातचीत में भूषण ने अनेक ऐसे सामंतों और छोटे-छोटे तालुकों के अधिकारियों का परिचय भी झवेर को दिया, जो अपने किन्हीं राजाओं से कुछ कम नहीं समझते थे। लेकिन वे सब अंग्रेजों के पिट्ठू थे—राष्ट्र, देश और आजादी से उन्हें कोई वास्ता नहीं था।

आखिर वह समय आया जब झवेर भरती-शिविर में पहुंच गए। भूषण ने ही झवेर का परिचय सदाशिव होल्कर से करवाया। होल्कर अपनी एक छोटी-सी क्रांतिकारी सैनिक टुकड़ी तैयार कर रहा था। उसने उस युवक झवेर में एक बहुत बड़ा राष्ट्रभक्त अनुभव किया।

सदाशिव की सेना तैयार हो गई और उसने अपनी तैयारी की सूचना नाना साहेब को भेज दी।
रानी लक्ष्मीबाई और नाना साहब स्वाधीनता संग्राम के लिए अपने आपको तैयार कर चुके थे। इसी बीच अंग्रेजों ने झांसी को और भी पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ना चाहा। लक्ष्मीबाई को अपनी धारणा को साकार रूप देने का एक मौका मिला और उसने अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई का ऐलान कर दिया।

सेना तैयार हो गई लेकिन अवसर से पहले ही विस्फोट होने के कारण पूरी देशभक्ति और शक्ति के बावजूद महारानी को असफलता का मुंह देखना पड़ा। झांसी से ग्वालियर तक वीर घायलों की कतार छोड़ कर रानी वीरगति को प्राप्त हुईं।
रानी लक्ष्मीबाई को वीरगति प्राप्ति हुई है—यह सुनते ही बाकी की सेना तितर-बितर हो गई। झवेर ने अपना सिर उठाया तो देखा कि वह भी उन बंदियों में है, जिन्हें मल्हार राव होल्कर ने अंग्रेज-परस्ती के कारण बंदी बनाया था।
युवक झवेर कभी अपने लोगों से सुनता कि यह 1857 की रानी की पहली लड़ाई है और कभी वह सुनता कि यह अंग्रेजों के खिलाफ असफल विद्रोह है। वह ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि ‘लड़ाई और विद्रोह’ में क्या अंतर होता है। देशभक्त जिसे स्वतंत्रता संग्राम कहते हैं उसे दूसरे लोग विद्रोह का नाम देते हैं। वंदीगृह में ही एक सूरज की पहली किरण के साथ उसने देखा कि उसे मल्हारराव होल्कर ने बुला भेजा है। एक तरफ उसे आवाज लग रही थी और दूसरी तरफ वह अपने आगे आने वाले जीवन की सुबह और शाम के बारे में सोच रहा था कि ‘यह चाहे स्वतंत्रता संग्राम हो या विद्रोह हो अब रुकेगा नहीं, हमें सफलता नहीं मिली तो क्या हुआ ! हमारे आगे आने वाली पीढ़ी हमारे अधूरे काम को पूरा करेगी।’
युवक झवेर के समाने जैसे शतरंज की एक पूरी की पूरी बिसात बिछ गई—इस बार हार रानी की हुई। चालाक अंग्रेज ने जैसे रानी के ही घोड़ों से रानी को मात दे दी।

झवेर सोच रही था और अपनी बंदी हालत में आगे आने वाली घटनाओं के बारे मे विचार कर रहा था। सोचते-सोचते उसे अपने साथी बंदी की तरफ आँख उठाई—
‘‘कहो, कैसा लग रहा है ?’’
‘‘लगना क्या था, हार गए। मात हो गई।’’
‘‘शह और मात तो शतरंज में होती है भाई।’’
‘‘यह शतरंज ही तो थी, अंग्रेज जीत गए। हम हार गए।’’
‘‘लगता है तुम शतरंज के बहुत अच्छे खिलाड़ी हो।’’

‘‘हां, सिर्फ शतरंज का। लड़ाई का होता तो जीत जाता। झवेर शतरंज का खिलाड़ी है। एक शतरंज का खिलाड़ी बंदी बना लिया गया है।’’...झवेर बुदबुदाता रहा और चलता रहा।
झवेर की आँखें जो देख रही थीं उन पर उसे विश्वास नहीं हो रहा था और जो कान सुन रहे थे वह भी विश्वास करने योग्य बात नहीं थी। फिर भी बात तो थी। हाथ-पैर बंधे हुए झवेर को मल्हार राव होल्कर ने शतरंज खेलने के लिए बुला भेजा था।

कुछ दिनों के बाद झवेर ने होल्कर को अपनी चालों से इतना प्रभावित किया कि होल्कर ने झवेर को बंदी के रूप में मुक्त कर दिया और इंदौर में ही रहने की अनुमति दे दी। ‘‘अब तो मुक्त हो गए हो। क्या करने का इरादा है ?’’—भूषण अकस्मात झवेर के सामने आकर खड़ा हो गया। झवेर को बहुत आश्चर्य हुआ।
‘‘तुम कहां थे अब तक भाई।’’
‘‘मैं और मेरे कुछ साथी अंग्रेजों को चकमा देकर कुछ दिन झांसी रहे और फिर यहां आ गए।’’
‘‘अब यहीं रहोगे क्या ?’’ झवेर ने पूछा।
‘‘नहीं, अपने गांव चला जाऊंगा। और तुम ?’’
‘‘मैं भी वापस जाने की ही सोच रहा हूं। घरवालों को तो यह मालूम ही नहीं कि मैं कहां हूँ ? अब घर जाऊँगा तब उन्हें सब कुछ बताऊँगा।’’

‘‘शादी-ब्याह ?’’
‘‘हां, यह तो होना ही होता है और मेरे दिमाग में अब भी यह बात घूम रही है कि जो काम हम पूरा नहीं कर पाए वह हमारे बाद की पीढ़ी पूरा करेगी। मेरी तो इच्छा ही है। मेरे घर में, घर में नहीं तो मेरे गांव में कोई एक ऐसा जन्म ले जो बड़ा होकर भारतमाता की जंजीरें तोड़ सके।’’
31 अक्टूबर, 1875 में झवेर भाई का आंगन फिर गीतों से गूंज उठा और जिस बालक के जन्म के कारण में आंगन में गीत गूंजे बयार आई फूल खिले वही आगे चलकर सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम से प्रसिद्ध हुए।

झवेर भाई का आंगन जितना बड़ा था, उससे बड़ा आसमान उनकी भक्ति का था और इसीलिए आसमान से बूदें तो बरसतीं, लेकिन उनकी तुलना में खेतो की फसलें कम ही रह जातीं। परिवार बड़ा था, जिम्मेदारियां बढ़ रही थीं इसीलिए भाई चाहते थे कि उनकी संतानें पढ़ें और नौकरी करें। लेकिन वल्लभ बचपन से किशोर होते-होते न जाने कितनी बार अपने पिता के साथ खेतों में जाते, रास्ते में पहाड़े रटते और खेतों के किनारे जाकर हल चलाते, बीज बोते फसल काटते—इस तरह न जाने कब तक खेत के बजाय वल्लभ पेटलाद की पाठशाला  के सामने खड़े हुए हाथ में किताब लिए दूर खेतों को देखने लगे।

वल्लभ की शिक्षा का यह पहला चरण था और उन्होंने बड़े उत्साह और निर्भीकता से यह चरण पूरा किया। पेटलाद पाठशाला से प्रारंभ की हुई यात्रा का एक पड़ाव नाडियाद में हुआ। वल्लभ के अध्यापक ने ही झवेर भाई को प्रेरित किया था कि वे खेती के लालच में वल्लभ की पढ़ाई न रोकें। नाडियाद वल्लभ की पढ़ाई का दूसरा चरण-माध्यमिक शिक्षा और यहीं से किशोर वल्लभ धीरे-धीरे निर्भीकता और सच्चाई का वह पाठ भी सीखने लगे जहां न्याय का विरोध ही धर्म हो जाता है। नाडियाद के अध्यापक, अध्यापक कम व्यापारी अधिक थे। अध्यापन के अतिरिक्त पुस्तकें बेचना उन्होंने अपना धर्म समझ रखा था लेकिन जब धर्म-अधर्म के रास्ते से आता है तो वह धर्म होता नहीं, आचरण करने वाले का भ्रम होता है और कहना न होगा कि अध्यापकों के इस काम ने वल्लभ के जीवन में गलत के प्रति विद्रोह की वह भावना पैदा की जिससे अध्यापक परास्त हुए और किशोर वल्लभ के व्यक्तित्व में नेतृत्व की चासनी शुरु हो गई।
हुआ यह कि वल्लभ को अध्यापकों के व्यवहार के विरोध में छात्रों का नेतृत्व करना पड़ा और अपनी बात मनवाने के लिए हड़ताल का भी सहारा लिया गया।

पाँच-छह दिन विद्यालय बंद रहा। गुरुओं को शिष्यों से हार माननी पड़ी
‘‘आखिर तुम जीत गए।’’
‘‘नहीं गुरूजी, जीत-हार का सवाल नहीं। कुछ लोग मिलकर अपना मतलब साध रहे थे। उसका विरोध किया है। हमने आपके खिलाफ क्यों कुछ नहीं बोला ?’’
‘‘मैं इन लोगों में हूं ही कहां ! मैं तो खुद कहता था कि किताबें बेचने का काम ठीक नहीं। अध्यापक ही अगर व्वसायी बन जाए तो फिर शिक्षा की पवित्रता कहां रहेगी ?’’
‘‘‘हमें अपने अध्यापकों के विरोध में बोलना पड़ा। इसलिए हम माफी मांगते हैं।’’
‘‘माफी की कोई बात नहीं, फिर भी हमें आप माफ कर दें, वल्लभ के साथ खड़े दूसरे विद्यार्थियों ने भी हाथ जोड़ कर माफी मांगी।’’

बात यहीं समाप्त हुई। विद्यालय फिर अपनी राह पर चलने लगा।
वल्लभ की राह अभी बीच में ही थी। माध्यमिक स्कूल की पढ़ाई एक पड़ाव थी जिसके आगे फिर वल्लभ को जाना था। लेकिन इस स्थान पर इस पड़ाव के आगे कोई राह नहीं थी।


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