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स्त्री-पुरुष संबंध >> सुरंगमा

सुरंगमा

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :195
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3739
आईएसबीएन :81-8361-068-4

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पति से पीड़ित स्त्री पर आधारित उपन्यास...

Surangma

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘छोट्टो घर खानी
मौने की पौड़े सुरंगमा ?
मौने की पौड़े, मौने की पौड़े ?...


एक प्राणों से प्रिय व्यक्ति तीन-चार मधुर पंक्तियों से सुरंगमा के जीवन को झंझा के वेग से हिलाकर रख देता है। बार बार।
शराबी, उन्मादी पति से छूट भागी लक्ष्मी को जीवनदाता मिला अँधेरे भरे रेलवे स्टेशन में। रॉबर्ट और वैरोनिका के स्नेहसिक्त स्पर्श में पनपने लगी थी उसकी नवजात बेटी सुरंगमा, लेकिन तभी विधि के विधान ने दुर्भाग्य का भूकम्पी झटका दिया और उस मलबे से निकली सरल निर्दोष पाँच साल की सुरंगमा कुछ ही महीनों में संसारी पुरखिन बन गई थी फिर शिक्षिका सुरंगमा के जीवन में अंधड़ की तरह घुसता है एक राजनेता और सुरंगमा उसकी प्रतिरक्षिता बन बैठती है।
क्या वह इस मोहपाश को तोड़कर इस दोहरे जीवन से छूट पाएगी ?
मौने की पौड़े सुरंगमा ?
एक एकाकी युवती की आंतरिक और बाहरी संघर्षों की मार्मिक कथा।


सुरंगमा


प्रशस्त लॉन की हरीतिमा पर सतरंगी आभा बिखेरती धूप की बृहत रंगीन छतरी हवा में नाव के पाल-सी झूम रही थी, सामने धरी मेज़ पर दो-तीन फाइलों के पन्ने हवा में फड़फड़ा रहे थे। सुरंगमा कुछ हिचक से ही आगे बढ़ी थी। एक बार जी में आया, वहीं से लौट जाएं। अभी तो किसी ने उसे देखा भी नहीं था, फिर मीरा के शब्द उसके कानों में गूँज गए—‘डैडी ने सब बातें कर लीं हैं—तू नहीं मत करना सुरंगमा, तेरे भविष्य के लिए यही सामान्य ट्यूशन एक दिन असामान्य सिद्ध होगा। पांडेजी, इस समय मंत्रिमडल के सबसे दैदीप्यमान नक्षत्र हैं’ सुरंगमा फिर उसी मेज़ के पास खड़ी हाथ की घड़ी देखने लगी थी, मेज़ पर चश्मा औंधा पड़ा था।

फाइल के पन्ने अभी भी फड़फड़ा रहे थे, हाथ की घड़ी नौ बजा रही थी, पर जिसने उसे आठ बजे मिलने का समय दिया था, वह कहीं नहीं था। वह तो अच्छा था, वह आज ही शाम आठ बजे का खाना भी बना-बुनूकर ढाँप आई थी। ठीक साढ़े सात बजे बैंक पहुंचना था। कब तक ऐसे खड़ी रहेगी। उसने इधर-उधर दृष्टि फेरी। एक बेंच पर कई खद्दर की टोपियाँ एक साथ दिख गईं, लगता था कि सब मंत्रीजी के मिलने वाले थे। ओफ, इतनी भीड़ में क्या उसे देख पाएँगे मंत्रीजी ? अगर आ भी गए तो उस भीड़ के घेरे को चीर उन तक पहुंचने में ही उन्हें घंटाभर लग जाएगा। कैसी विचित्र भीड़ थी। कोई सुरती फाँक रहा था, कोई पनबट्टे से बीड़ा निकाल रहा था, तब ही एक मटमैली-सी रंग उड़ी शेरवानी पहने हृदय-पुष्ट सज्जन टोपी सम्भालते उसकी ओर बढ़ आए, ‘‘क्यों बहनजी, कै बजे मिलेंगे मंत्रीजी, कोई कह रहा है गवर्नमेंट हाउस चले गए हैं।’’

‘‘मुझे पता नहीं, मैं स्वयं ही उनसे मिलने आई हूँ।’’
सुरंगमा का रूखा स्वर उन्हें और भी वाचाल बना गया।
‘‘आई सी, आई सी—आपका उनसे पुराना परिचय है शायद !’’
उनकी गिद्ध दृष्टि में कुतूहल की सहस्र किरणें एक साथ फूट उठीं। उस अभद्र प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही सुरंगमा फिर लॉन के सीमान्तर पर लगे एक पाम के वृक्ष की सुबृह्त छाया में खड़ी हो गई। वहीं पर अर्धवृत्ताकार घेरे में बैठी देहाती महिलाओं की कई जोड़ी आंखें उसे बड़े विस्मय से घूरने लगीं। उनमें से एक के हाथ में एक लम्बा-सा कागज़ था, लगता था वही उस दल का नेतृत्व कर रही है और अपनी कोई दरख्वास्त लेकर मंत्री जी से मिलने आई है। वह उस भीड़ से भी दूर छिटककर बरामदे की ओर बढ़ रही थी कि एक नाटा-सा व्यक्ति मिलनेवालों की भीड़ में ही उसे ढूँढ़ता उसकी ओर चला आ रहा था, ‘‘क्षमा कीजिएगा, आपको रुकना पड़ा। मैं मंत्रीजी का पी.ए. हूँ बड़ी देर से आपको ढूँढ़ रहा था, आप यहाँ क्यों खड़ी रह गईं। आइए, आइए, मन्त्रीजी आपसे अन्दर कमरे में मिलेंगे।’’

वह बिना कुछ कहे उनके साथ-साथ चलने लगी। एक बार फिर दौड़कर घर भाग जाने की तीव्र इच्छा उसके अन्तर्मन को झकझोर उठी। क्यों आ गयी थी वह यहाँ ? कैसी भीड़ थी, लग रहा था मिलनेवालों की भीड़ निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। देखे ही देखते कितनी ही रंग-बिरंगी कारें, वर्दीधारी पुलिस अफसर, महिलाएँ बरामदा घेरकर खड़ी हो गईं, कोई चादर ओढ़े निपट देहातिन, कोई मलिन बुर्काधारिणी, कोई ओंठों को रँगे बटुआ झुलाती अधैर्य से घड़ी देख रही थी, कोई झकाझक स्वच्छ बगुला के पंख-सी श्वेत साड़ी में समाज-सेवा की जीवन्त विज्ञापन बनी बड़ी अन्तरंगतापूर्ण अधिकार से पी.ए. से पूछ रही थी, ‘‘अरे भाई कब मिलेंगे दिनकर जी ? कल तो फोन पर सुबह ही चले आने को कहा था उन्होंने....’’
कितनी खद्दर की तिरछी टोपियाँ थीं—कितने खद्दर के कुर्ते, पान से रँगी कितनी कुटिल बत्तीसियाँ।

पी.ए. उसे एक सुदीर्घ, टेढ़ी-मेढ़ी सँकरी गैलरी से ले जाता अनर्गल बोलता चला जा रहा था, ‘‘असल में आज मन्त्री जी का एकदम ही पैक्ड प्रोग्राम है, दो-दो यूनिवर्सिटियों के अध्यापकों के दो डेप्यूटेशन आए हैं, उधर तीन बजे एक मीटिंग है, दस बजे एक अस्पताल का उद्घाटन करने सीतापुर जाना है। इसी से कहने लगे, यहीं बुला लो —शेव कर रहे हैं, खास मिलनेवालों को हमेशा वहीं बुलाते हैं। आप एक सेकेंड रुकें, मैं खबर कर आऊँ।’’
सुरंगमा थमकर बाहर ही खड़ी हो गई।
‘‘आएँ।’’ पी.ए. पर्दा उठाकर नम्र भृत्य की मुद्रा में खड़ा हो गया।
मोटे-मोटे भारी पर्दों से प्रशस्त कमरा भी उसे एकदम अँधेरा लगा। बड़ी कुर्सी में बैठे जिस महिमामय व्यक्ति के व्यस्त जीवन की विशद भूमिका वह मार्ग-भर सुनती आई थी, उसे देखते ही ठिठककर वह खड़ी हो गई।

‘‘आइए, आइए मिश जोशी, बैठिए,’’ हाथ जोड़कर वह स्वयं जिस नम्रता में दुहरा हो गया, उसके लिए सुरंगमा प्रस्तुत नहीं थी। मूर्ख-सी वह बिना प्रत्युत्तर दिए ही खड़ी रह गई।
‘‘बैठिए ना !’’
हड़बड़ाकर उसने हाथ जोड़े और बैठ गई। श्यामवर्णी चेहरे को सद्यः फेरी गई ब्लेड के स्पर्श ने और भी चिकना बना दिया था। चौड़ा माथा, तीखी मुड़ी नासिका, पृथुल अधर और मूँछों की पतली रेखा चेहरे के साँवले रंग से घुल-मिल गई थीं। मेदहीन छँटे-छरहरे शरीर को देखकर लगता था पच्चीस-छब्बीस वर्ष का कोई तरुण सामने बैठा है। किन्तु लाल डोरीदार आँखों में गहन क्लान्ति की अवसन्न छाया थी।

वह हँसा, और साँवले रंग में उसके मोती के-से दाँतों की उजली झलक ने उसकी वयस की मरीचिका में सुरंगमा को एक बार फिर भटका दिया।

क्या इसी व्यक्ति कि किशोरी पुत्री को पढ़ाने उसे बुलाया गया था ? क्या उसकी इतनी बड़ी पुत्री हो सकती थी ?

‘‘नाम तो आपका बड़ा सुन्दर है मिस जोशी, ऐसे नाम तो पहाड़ियों में कम होते हैं। मैं भी पहाड़ी हूँ, शायद आप जानती होंगी ! क्यों ?’’ वह फिर हँसा, उसकी हँसी प्रत्येक बार उसके ग्लान चेहरे पर सौ पावर का बल्ब-सा जला जाती थी। किन्तु पहली हँसी से कितनी भिन्न थी यह दूसरी हँसी ! लाल क्लान्त आँखों का घेरा भी उस हँसी ने ऐसे संकुचित कर दिया कि एक पल को सुरंगमा को लगा, उसकी आँख भी हँसी से सवेरे प्रश्न के साथ-साथ कुटिल भंगिमा में मुँद गई है ! उसका कलेजा काँप उठा, यह तेज नरपुंगव का था या नरभक्षी का !

‘‘जी, मेरे पिता पहाड़ी हैं, माँ बंगाली थीं,’’ कहने के साथ ही उसकी हथेलियाँ पसीने से तर हो गईं। एक माह पूर्व यह प्रश्न पूछा जाता तो उत्तर यह नहीं होता माँ के लिए तब वह क्या भूतकाल का प्रयोग करती ? किन्तु माँ होती तो वह इस अवांछित इंटरव्यू के लिए यहाँ आती ही क्यों ?

‘‘ओह तब ही, यही मैं सोच रहा था, मैं बंगाल में बहुत रहा हूँ, मिस जोशी ! यह नाम और कोई रख ही नहीं सकता। कभी बुद्धदेव बसु मेरे भी प्रिय कवि थे। इस कविता की पँक्तियाँ मुझे भी बहुत प्रिय थीं :


छोट्टो घर खानी
मने की पड़े सुरंगमा ?
मने की पड़े, मने की पड़े
जानालाय नील आकाश झरे
सारा दिन रात हावाय झडे
सागर दोला....

(उस छोटे से कमरे की याद है सुरंगमा ?
बोलो, क्या अब कभी उस कमरे की याद आती है ?
जहाँ कि खिड़की से नीलाकाश
बरसता कमरे में रेंग आता था
सारे दिन-रात तूफान
समुद्र झकझोर जाता था)

वही गुनगुनाहट फिर एक बार उसकी बहुरूपिया हँसी में खो गई ! कैसे स्निग्ध स्नेही स्मित का आह्वान था इस बार ! सुरंगमा का सारा भय दूर हो गया, उस भोले निष्कपट शिशु की-सी हँसी ने उसकी सारी घबराहट दूर कर दी।
‘‘आप जा सकती हैं मिस जोशी, आपका नाम ही आपका परिचय दे गया। आप निश्चय ही मेरी पुत्री की योग्य शिक्षिका सिद्ध होंगी। मैं बहुत व्यस्त हूँ। आपने तो देख ही लिया होगा। बाहर कैसी भीड़ लगी है। नित्य यही मेला लगा रहता है, यही भीड़। मेरे शुष्क जीवन को साहित्य बहुत पहले ही छोड़ चुका है। आप जाएँ मिस जोशी, मेरे पी.ए. आपको मेरी पुत्री से मिला देंगे। समय भी आप उससे मिल कर स्वयं ही ठीक कर लें। धन्यवाद !’’

पल-भर पूर्व, विस्मृत कविता के छन्दों में स्वयं ही पेंगे लेकर झूलता मन्त्री सहसा उदास हो गया था। भावभीनी आँखों की तरल दृष्टि ने गिरगिट का-सा रंग बदल लिया। लग रहा था, वह उसे अपने अधीर आदेश का धक्का-सा दे रहा है। वह बाहर आई तो फिर उनका कठोर स्वर गरजा, ‘‘दीक्षित, इन्हें मिनी से मिला दो, और जिस समय भी यह पढ़ाने आएँ, इन्हें लाने और छोड़ने स्टॉफ-कार का प्रबन्ध कर दिया जाए।’’
‘‘जी, ठीक है।’’

और फिर पी.ए. उसे यन्त्रचालित पुतली-सी साथ-साथ लिए दूसरे कमरे में मिनी को बुलाने चला गया। मिनी का कमरा उसी गोल कमरे से संलग्न था, इसी से उसका असन्तुष्ट, सिरचढ़ा नींद में डूबा स्वर बाहर तक आ गया :
‘‘क्या है ? क्यों उठूँ ?’’
तो क्या वह दस बजे सोकर उठती थी !
‘‘आपकी ट्यूटर आई हैं बेबी, पापा ने कहा है आप उनसे मिल लें, बाहर बैठी हैं।’’ पी.ए. का स्वर अत्यन्त नम्र हो उठा था।
बड़ी देर बाद पी.ए. उसे लेकर आया तो सुरंगमा से ‘हाय’ कह नाइटी के ऊपर लिपटे शॉल में हाथ छुपाए ही मुँह फुलाकर वह बैठ गई।

स्पष्ट था कि उसे ऐसे नींद में उठाए जाने का अभ्यास नहीं था। एक प्रकार से लड़ने की-सी ही अचल मुद्रा में वह तनी बैठी रही। बीच-बीच में एक-आध बार कनखियों से अपनी नई अध्यापिका को देखने का लोभ वह संवरण नहीं कर पा रही थी, यह सुरंगमा ने देख लिया था। स्पष्ट था कि उस गम्भीर सुन्दरी नवीन शिक्षिका में लड़की को प्रभावित कर दिया था। उसकी अहंकारी, किसी को कुछ न समझनेवाली मुखमुद्रा में स्वयं ही नरमी आ गई।

‘‘मैं कल रात सेकेंड शो देखने चली गई थी, इसी से अभी भी नींद आ रही है।’’ वह क्षमा माँगने के-से स्वर में हँसने लगी। उसकी उस पिता की-सी आकर्षक उज्ज्वल सी हँसी से वातावरण का तनाव स्वयं छँट गया।
‘‘तुम क्या इस वर्ष ही एस.सी. दे रही हो ?’’ सुरंगमा के चेहरे से जैसे लड़की की आँखें नहीं हट पा रही थीं।
‘‘जी हाँ !’’
‘‘कौन-कौन से विषय पढ़ना चाहोगी मुझसे ?’’ सुरंगमा की बुद्धिदीप्त प्रखर दुष्टि में तैर रहा गहन आत्मविश्वास सामने बैठी उसकी भावी शिष्या को सतर बना गया। भावी कठोर अनुशासन के चाबुक की झलक जैसी उसने हवा में लहराती देख ली थी।

‘फिज़िक्स, केमिस्ट्री ऐंड मैथ्स।’’
‘‘ठीक है, मैं परसों से तुम्हें पढ़ाने आऊँगी, शाम को 6 बजे। इज़ दैट ऑल राइट ?’’




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