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सांस्कृतिक >> हे दत्तात्रेय

हे दत्तात्रेय

शिवानी

प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3749
आईएसबीएन :81-216-0453-2

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इस लघु पुस्तिका में, मैं कुमाऊँ की संस्कृति के विराट वट वृक्ष की कुछ शाखाओं को छू पाई हूँ

He Dattatreya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संस्कृति लोक और वेद दोनों को लेकर चलती है: लोके वेद च। यही लोक-गाथाएं हमें नित्य नवीन प्रेरणा देती हैं।

कुमाऊं अंचल की सांस्कृतिक विविधता का समूचा दृश्य एक कलात्मक फिल्म की तरह उभर कर आया है इस सुन्दर कृति में। इसमें शिवानी ने कुमाऊँ के जीवन की धड़कनों, माटी की गंध, आपसी प्रेम, रिश्तों, रीति-रिवाजों, धर्म, व्रत-त्योहार, पूजा-अर्चना, साहित्य, इतिहास, और लोक-गाथाओं को एक ऐसी सुगंध-भरी माला में गूंथा है, जो रोचक कहानियों, सुन्दर कविताओं और सुरीले संगीत का आनन्द-भरा अहसास कराता है।

 

दो शब्द

 मेरा विनम्र निवेदन यही है कि इस प्रयास में मैं, कुमाऊँ के इतिहास या संस्कृति की विशेषज्ञ होने का दावा न कर केवल उस संस्कृति के प्रति अपने सहज भावुक प्रेम के पत्रपुष्प मात्र अर्पित कर रही हूँ।
 
मुझे सदा यही लगता है कि यहाँ के साहित्य भाषा और संस्कृति आदि से सम्बन्धित अनेक शोध-प्रबन्ध लिखे जाने पर भी, यहां के सांस्कृतिक वैविध्य में अभी भी बहुत कुछ ऐसा है। जिसे खोजकर प्रकाश में लाने के लिए उच्चतर भाव-बल एवं अटूट निष्ठा की आवश्यकता है।

यहां की प्राकृतिक छटा, ऐतिहासिक स्थानों और तीर्थों के सांस्कृतिक वैभव को लेखनी से उद्घाटित करना संभव नहीं। यह प्रदेश प्राकृतिक सौंदर्य की मंजूषा है, जिसमें जितनी ही बार हाथ डालो उतनी ही बार  नवीन रत्न हाथ लगते हैं। कुमाऊँ सर-सरिताओं, पशु-पक्षियों, पुष्पों, ऐतिहासिक देवालयों और हिमाच्छिदित श्रेणियों का प्रदेश है। बात-ही-बात, से मर मिटना सहज संतोष, यहां के निवासियों की चरित्रागत विशेषता रही। यही कारण है कि यहां संस्कृति और लोक साहित्य में सहज माटी की सौंधी सुगन्ध रिसी बसी है।

डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के कथनानुसार -‘‘लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है, उसमें भूत, भविष्य, वर्तमान सभी कुछ संचित रहता है।’’ इस लघु पुस्तिका में, मैं कुमाऊँ की संस्कृति के विराट वट वृक्ष की कुछ शाखाओं को छू पाई हूँ यहां के वीरो का शौर्य, धर्म गाथाएँ, लोकगाथाएं, देवालय, व्रत त्यौहार, लोकोक्ति एवं संस्कार। मुझे कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि हम कुमाऊँवासियों की पकड़ से हमारी संस्कृति धीरे-धीरे छूट रही है, भले ही उनका कारण हमारा प्रवासी जीवन हो या निरंतर बढ़ते जा रहे अंतर्प्रदेशीय विवाह आदि।

जिन संस्कारों का हमने पावन कर्तव्य मानकर पालन किया है, उसका निर्वाह अब हमारी नयी पीढ़ी के लिए उतना सहज नहीं रह गया है इसके दो कारण हैं, एक तो उस पीढ़ी का कार्य संकुल जीवन दूसरा उनकी अनभिज्ञता। मेरा लघु प्रयास यही है कि अपने अतीत से, अपने संस्कारों से, सर्वोपरि लोक की धात्री कुमाऊँ की पुण्य भूमि से उनका परिचय उनकी अनभिज्ञता कभी धूमिल न हो।

इस पुस्तक को लिखने में, मुझें पं० राहुल सांकृत्यायन, डॉ. त्रिलोचन पांडेय, ई. टी. एटेकिन्सन एच. जी. वाल्टन, चार्ल्स ए शेरिंग, एन. आर. नेविल की पुस्तकों से अत्यंत सहायता मिली। मैं कृतज्ञतापूर्वक उनका आभार प्रदर्शन करती हूँ। साथ ही समस्त कुमाऊंवासियों की ओर से उन विदेशी विद्वानों का विशेष रूप से स्मरण करती हूं जिन्होंने कुमाऊं के सांस्कृतिक इतिहास को विदेशी होने पर भी पूर्ण निष्ठा से, सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया।

भारतीय संस्कृतिक लोक और वेद दोनों ही को लेकर चलती है ‘लोके वेदे च’ यही लोक गाथाएं हमें नित्य नवीन प्रेरणा देती हैं। ‘रवा’ के शब्दों में—


किस्स-ए अज़मते1 माज़ी2 को ना मुहमिल3 समझो,
कौमें जाग उठती हैं अकसर इन्हीं अफ़सानों से।


शिवानी

 

 महत्त्व कुमाऊं


हिमालय की गोद में बसा कूर्मांचल अन्नतकाल से प्रकृति का मुंहलगा शिशु रहा है। हिमालय केवल पुण्यतोया नदियों का स्रोत ही नहीं रहा इसी पावन भूमि में हमारे प्राचीतम ग्रन्थ बने, वेद, पुराण, उपनिषद् की अद्भुत देववाणी भी मुखारित हुई, यही नहीं अनेक संस्कृतियों के मिलन से सम्पूर्ण भारत के संस्कृति का एक दुर्लभ समन्वित रूप, हमें यहीं मिलता है, अन्यत्र नहीं मध्य युगों में, कभी आजीविका की खोज में विविश होकर कभी अपना संस्कृति कि सुरक्षा की भावना से प्रेरित होकर, बंगाल के पाल, सिंध के अमीर, सौराष्ट्र के गुर्जर, कन्नौज के ब्राह्मण यहां आकर बस गये। पार्वत्य प्रदेश को इन हरी-भरी सुरम्य घाटियों के सौंदर्य ने फिर इन्हें यहीं का बना दिया।

कूर्माचल के सांस्कृतिक इतिहास की यही विशेषता है, यहां विभिन्न संस्कृतियों का वैविध्य एकता के सूत्र में बंध गया। लगता है, तत्कालीन ब्राह्मण समाज आज के ब्राह्मण समाज से कहीं अधिक उदार था। आज भी जब कुमाऊँ के ब्राह्मण कुछ बातों में अपनी कट्टरता नहीं छोड़ पाये हैं जैसे आज भी वहां सरयूपारीण या मिथिला महाराष्ट्र के ब्राह्मणों में अन्तर्प्रान्तीय विवाह नहीं होते, भले ही समय-समय पर स्वयं युवा- पीढ़ी ने प्रेम-विवाह कर यह परम्परा भंग की है किन्तु जहां तक स्वयं माता-पिता का प्रश्न है, आज भी शायद कुमाऊँ के माता-पिता यही चाहते हैं कि कुमाऊँ की पुत्री कुमाऊं में ही ब्याही जाये। यद्यपि, चंद राजाओं के समय में ऐसे अनेक विवाह हुए हैं, -सम्राट हर्षवर्धन का भी एक पर्वतीय राजकन्या से विवाह करने का हमें उल्लेख मिलता है। उदार समन्वय के ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। धीरे-धीरे बाहर से आईं ये जातियाँ कुमाऊं में ऐसी घुलमिल गईं कि पता लगाना भी कठिन हो गया कि कौन-किस जाति का है। वैदिक काल में यहाँ हुए अनेक सम्मेलनों का भी हमें उल्लेख मिलता है। यहाँ के अनेक विद्वत्जनों ने राजगुरु के रूप में, ज्योतिषी के रूप में, चिकित्सक के रूप में कई राजदरबारों में, सम्मान एवं ख्याति प्राप्त की।


कुमाऊँ की व्युत्पत्ति


कुमाऊँ की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में अनेक मत हैं। एक स्थानीय मतानुसार भगवान विष्णु कूर्मरूप में, चम्पावती नदी के पूर्व में स्थित कूर्मपर्वत पर तीन वर्ष तक खड़े रहे। कहा जाता है कि उनके चरण चिन्ह एक शिला पर भी अंकित हैं। तब इस पर्वत का नाम कूर्मांचल पड़ गया। दूसरी जनश्रुति के अनुसार चम्पावत नरेश कालू तड़ागी के नाम पर यह नाम पड़ा तीसरा मत यह है कि यहां के लोग धन अर्जित करने में निपुण माने गये हैं इसी से ‘कुमाऊँ’ और कालान्तर यह भूमि ‘कुमाऊं’ कहलाई।

 

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