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त्रिशंकु

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3764
आईएसबीएन :81-7119-728-0

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एक निश्चित कालखंड की कहानियों का प्रतिनिधित्व करतीं त्रिशंकु...

Trishanku

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आते-जाते यायावर

कभी सोचा भी नहीं था कि महज मज़ाक में कही हुई बात ऐसा मोड़ ले लेगी। मोड़ और इस शब्द पर मुझे खुद हँसी ही आने लगी। मेरी ज़िन्दगी में अब न कोई उतार-चढाव आएगा, न मोड़। वह ऐसे ही रहेगी !; सीधी, सहज और सपाट। हाँ, कभी-कभी उस सपाट ज़िंदगी में एक दरार डालकर उसके पार बसी दुनिया को देखने के लिए ललच उठता है, पर जब-जब ऐसा किया, मन का बोझ बढ़ा ही है। फिर भी कल जो कुछ हुआ उसमें जीना अच्छा लग रहा है। खासकर इस आश्वासन के साथ, नहीं आश्वासन नहीं, न जाने क्यों मुझे सही शब्द नहीं सूझ रहे हैं और मैं गलत शब्दों का ही प्रयोग करती जा रही हूँ—आमंत्रण या कहूँ कि साग्रह मनुहार के साथ कि मैं आज भी मिलूँ।

ख़याल आया रमला सुनेगी तो हँसती हुई कहेगी, ‘‘लगा लिया तुझे भी क्यू में ? भई, कमाल है ?’’
रात बारह बज गए थे, तो रमला ने पूछा नहीं था, एक तरह से आदेश-सा देते हुए ही कहा था, ‘‘नरेन, मिताली को छोड़ने का जिम्मा आपका। आप इसे छोड़ते हुए निकल जाइए।’’

उसने कुछ ऐसे सहर्ष भाव से स्वीकृति दी मानो वह इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। टैक्सी-स्टैंड पर कई टैक्सियाँ खड़ी थीं, पर वह उधर नहीं बढ़ा। इस आदमी से काफी दूरी रखनी है और इसकी हर बात को केवल ऊपर से निकाल देना है, इस बात के प्रति बेहद चौकस होने के बावजूद, आधी रात को उसके साथ पैदल चलने का ख़याल मुझे कहीं अच्छा लगा। चारों ओर निपट सन्नाटा था और सड़क के दोनों ओर दूर तक लैंप-पोस्ट बाँहें फैला-फैलाकर रोशनी उँडेल रहे थे।
‘‘यहाँ बारह बजे ही कैसा सन्नाटा हो जाता है ! विदेशों में तो बारह के बाद से ही असली ज़िंदगी शुरू होती है।’’ और मुझे लगा कि अब यह लगातार विदेश की बातों से बोर करेगा। इस देश की लड़कियों पर रौब डालने के लिए कितना अच्छा हथियार है यह !
पर ऐसा हुआ नहीं। वह फिर अपने बारे में बताने लगा। अपने शौक, अपनी महत्त्वाकांक्षाएं और खास कर अपनी यायावरी वृत्ति !

‘‘लगता है, मेरे भीतर एक जिप्सी बैठा है, जो मुझे घुमाता है। पिछले सात साल से मैं केवल घूम रहा हूँ, भटक रहा हूँ, नये-नये स्थान, नये-नये लोग ! मुझे पता नहीं कहाँ जाकर अंत होगा, कब अंत होगा !’’
वह जैसे बहकने लगा था। मुझे ख़याल आया, इसने बहुत पी रखी है, केवल नीट ! बल्कि जब रमला दरवाजे तक छोड़ने आई, तो कहा भी था, ‘‘आज आप बहुत पी गए है। ठीक से छोड़ तो देंगे न मिता को ?’’
वह हँसा था, ‘‘आप तो जानती ही हैं कि कितना भी पी लूँ, मुझ पर रंग नहीं चढ़ता।’’

‘‘काला कंबल’’ रमला ने कहा था और हँस पड़ी थी। बातों ने नीचे छिपे अर्थ मैं समझ रही थी, फिर भी अनजान बनी खड़ी रही पर क्षण-भर के लिए तीव्र आकांक्षा का एक झोंका ऊपर से नीचे तक जैसे चीरता हुआ निकल आया—एक बार मैं भी रंग चढ़ाने की कोशिश करके देखूँ, और कुछ नहीं, केवल चैलेंज की तरह ! सचमुच अब बातें या तो चैलेंज के रूप में आती हैं या बदली लेने की क्रूर भावना के साथ। रमना, डूबना—ये सारे शब्द तो जैसे एक-एक करके निरर्थक होते चले गये।
‘‘जानती हैं, यूनिवर्सिटी की इन सड़कों पर मैं कितना घूमा हूँ ? ज़िन्दगी के कितने दिन इन पर गुज़ारे हैं ?’’ तो उसी के स्वर-में-स्वर मिलाकर बोली, ‘‘और जाने किन-किन के साथ ?’’

वह हँस पड़ा, ‘‘लगता है रमला ने मेरे बारे में बहुत कुछ उलटा-सीधा बता रखा है आपको।’’
मैं हल्के से मुस्कराई। सचमुच रमला ने इतना कुछ बता रखा था उसके बारे में कि बिना किसी विशेष परिचय के भी वह मुझे अपरिचित नहीं लग रहा था। धीरे से बोली, ‘‘कुछ ग़लत तो नहीं बताया न ?’’
वह फिर हँस पड़ा, ‘‘कभी-कभी सोचता हूँ, आदमी अपने भीतर कितना कुछ समेटे होता है, वह खुद नहीं जानता और एक बँधी-बँधाई लीक पर चलकर मर जाता है। बिना अपने को जाने, बिना अपने को समझे ! ह्वाट ए पीटी !’’
बिना उसकी और देखे ही मैंने जान लिया कि स्वर की तरह उसके चेहरे पर भी एक हिक़ारत-भरी दया फैल गई होगी।
पर मैं एकाएक कटु हो आई। मन हुआ कहँ, ‘लीक तोड़ना, ‘संस्कारों से मुक्त होना’—इन सारे मुहावरों का चारा डालने के लिए कैसी खूबसूरती से प्रयोग किया जाता है आजकल। पर कहा केवल एक निहायत ही पिटा-पिटाया वाक्य, ‘‘लीक तोड़कर ही आदमी क्या बहुत कुछ पा लेता है ?’’

मैं जानती थी, वह क्या उत्तर देगा। फिर भी उसके मुँह से सुनने का मोह हो आया।
‘‘अच्छा, आप ऐसा नहीं मानतीं कि हम जितनी तरह की ज़िंदगी जीते हैं, जितने सम्पर्क और सम्बन्ध बनाते हैं, उनसे हमारे व्यक्तित्व के उतने ही पहलू उभरकर आते हैं ? नई-नई जगह देखना, नये-नये लोगों से मिलना, उनके निकट होना, उनको अपने निकट लाना—और खुद-ब-खुद भीतर एक नयी दुनिया खुलती चलती है। तब एक मुग्ध विस्मय के हाथ हम देखते हैं—अरे, यह सब भी हमारे भीतर था !’’
मैं बड़े तटस्थ और कुछ ऐसे चौकन्ने भाव से उसकी बात सुनती रही मानो यह सब पहली बार सुन रही होऊँ। हालाँकि रमला यह सब मुझे बता चुकी थी।

‘‘और यदि यह सम्बन्ध ऑपोजिट-सेक्स के साथ हो, तब तो व्यक्तित्व के रगोरेशे तक उभरकर आ जाते हैं।
और उसने एक निःसंकोच, सीधी नज़र मेरे चिहरे पर टिका दी, जिस पर अपनी बात का समर्थन करवाने का साग्रह अनुरोध हुआ था।
हूँ, तो ये अब मुझ पर ही चालू हुए। पर लगा, आदमी दिलचस्प भी है, और औरों से भिन्न भी सब लोग ऐसे मौकों पर बात करते हैं ‘तुम’ से। जैसे जो हो, बस तुम ही हो, बाकी दुनिया बेकार। इसने बात दुनिया से शुरू की है, अब शायद ‘तुम’ पर आएगा—धीरे-धीरे सीढ़ी-दर-सीढ़ी। नवीनता का भी तो अपना एक आकर्षण होता है। सचमुच आदमी तेज़ है और किसी को भी फँसाने के सारे हथकंडों से लैस।
फिर भी बात करने का नाटकीय अंदाज़ मन को भाया। रह-रहकर कंधों का उचकना, हथेलियों का हवा में फैलना-सुकुड़ना और पल-पल चेहरे की बदलती मुद्राएँ।

‘अमेरिकी लटका !’ एकाएक ही मन में उभरा। ये अदाएँ ही तो हैं सम्पर्क-सम्बन्ध बनाने का सबसे सशक्त साधन होती होंगी।
भीतर-ही-भीतर कहीं हँसी उमड़ने लगी। रमला ने इस नाटकीय अंदाज़ की हू-ब-हू नक़ल करते हुए ये ही सब बातें बताई थीं और फिर हँसते हुए कहा था, ‘‘बोलो, मिला दें तुम्हें नरेन से ? तुम भी उसके व्यक्तित्व का एक पहलू उजागर कर दो, या अपना करवा लो।’’
भीतर-ही-भीतर मन में कुछ कुलबुलाने लगा। मैंने बड़ी ही तौलती –सी नज़र से एक बार उसे देखा।
सारी बात रमला को सुनाने के लिए एक मज़ाक बनकर रह जाती, यदि फाटक पर विदा लेते समय वह यह नहीं कहता, ‘‘कल शाम को आप क्या कर रही हैं ? खाली हों तो मिलें ?’’
एक क्षण को हाँ-ना किए बिना मैं असमंजस में खड़ी रही। तभी सुना, वह हँसते हुए कह रहा था, ‘‘आप बहुत गालियाँ दे रही होंगी मुझे। आज आपको भी थोड़ी-सी पिला देने का पाप कहिए या पुण्य, मुझसे हो ही गया। हमेशा याद रखिएगा कि आपके कुछ दायरों में से एक दायरा मैंने भी तोड़ा।’’
अंतिम बात ने एकाएक हीं जैसे मुझे कहीं बहुत भीतर, गहरे में धकेल दिया। मैं सुन्न हो गई। ख़याल ही नहीं रहा कि उसे कुछ जवाब देना है पर वह खुद ही बोला, ‘‘कल फ़ोन करके मैं खुद तय कर लूँगा।’’ और हाथ हिलाकर मुड़ गया, मैं जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गई।

मन की न जाने कौन-सी अदृश्य परतों के नीचे दबा एक वाक्य पूरे दृश्य को साथ उभर आया—अपने शरीर से अलग करते हुए उसने कहा था, ‘‘आज तुम्हें एक अँधेरे कुएँ से निकालकर खुली-फैली दुनिया में ले आया हूँ। अब जानोगी कि जीना क्या होता है !’’
तब वह पुलकित होने के साथ-साथ भीतर तक कृतज्ञा भी हो आई थी।
और बहुत दिनों बाद कहा था, ‘‘खींचकर लाना मेरा काम था, अब इस खुली दुनिया में चलना और अपना रास्ता तलाश करना तुम्हारा काम हैं।’’ क्योंकि अपने साथ चलने के लिए उसने एक लिपी-पुती, बड़ी-सी बिंदी लगाने-वाली गुड़िया जैसी लड़की चुन ली थी। एक बार परिचय भी करवाया था, ‘‘ये है मिताली ठाकुर, हमारे साथ पढ़ती थीं, बहुत ही होशियार और गज़ब की बोल्ड।’’ ‘बोल्ड’ शब्द कहते समय हल्की-सी भर्त्सना का पुट आ मिला था उसके स्वर में। पत्नी के सामने शायद मित्र कहने का तो वह साहस तक न जुटा पाया था।
तब एक बार बड़ी ज़ोर से इच्छा हुई थी कि वह मुझे अँधेरे कुएँ से खींचकर लाया था, तो मैं भी इसकी शराफ़त का यह खोल खींचकर उतार दूँ, जिसे यह बडी मासूमियत के साथ अपनी पत्नी के सामने ओढ़े बैठा है।
पर मैं कुछ नहीं कर पायी थी। बस, भीतर-ही-भीतर उफनते ज़हर को चुपचाप पीती रही थी और आँखों से उमड़ते आँसुओं को जबरन पीछे ठेलती रही थी।

तब मुझे मालूम हुआ था कि संस्कार तोड़ने के बहाने कितनी ख़ूबसूरती से वह मुझे ही तोड़ गया है।
अब एक ये आए हैं दायरे तोड़ने। ठीक है, कल ये भी आएँ। अब मैं भी पहले की तरह मूर्ख नहीं रह गई हूँ। और भीतर-ही-भीतर एक बड़ी ही क्रूर-सी इच्छा कुलबुलाने लगी।
अब तक की सारी मिठास एक कड़वाहट में बदल गई।
लेटी तो नींद नहीं आ रही थी। व्यक्ति अब अलग-अलग याद नहीं रहते शायद सभी कहते हैं, ‘मिता बहुत रिजर्व्ड है, मिता इनिशिएटिव नहीं लेती, मिता अपने को कहीं भी प्रोजेक्ट नहीं करती।’
तो भीतर-ही-भीतर सबको धोखा देने का, छलने का एक क्रूर संतोष मन में जगाता है। तुम कभी जान नहीं सकते कि मिता भीतर से क्या है ? मिता ने तो सब कुछ किया है, आज भी कर सकती है, पर बर्दाश्त होगा तुमसे ? तब तुम्हीं सबसे पहले थू-थी करते हुए हिकारत-भरे प्रहार करोगे और अपने-अपने दड़बों में लौट जाओगे।

 नहीं, मैंने तो बहुत पहले ही तय कर लिया था कि अब मैं कुछ नहीं करूँगी। अपने को वापस दायरे में समेट लूँगी। इस निर्णय के साथ ही मैंने वह शहर ही नहीं छोड़ा था, अपना अतीत भी छोड़ दिया था। एक बार बाहर आकर भीतर की ओर लौटने की यातना, भीतर से बाहर की ओर आने की यातना से कितनी ज़्यादा है, यह भी मैंने तभी जाना था। बाहर आने में कितनी उमंग, कितना उत्साह था और भीतर लौटने में कितनी निराशा, कितनी टूटन !

फिर भी एक अदृश्य संकल्प मेरे मन में धीरे-धीरे आकर लेने लगा।
ठीक समय पर वह आ गया। कमरा वैसा ही पड़ा है। एक बार भी मैंने उसे सजाने-संवारने का प्रयत्न नहीं किया। मैं अपनी हर बात उसे दिखा देना चाहती हूँ कि मैं उसे ज़रा भी महत्त्व नहीं दे रही हूँ। न उसके इस प्रकार चले आने को कुछ विशेष समझ रही हूँ। मैंने मन हगी मन तय कर लिए है कि मैं निहायत ही देशी ढंग से व्यवहार करूँगी और अंग्ररेजी का एक शब्द लोटते हुए उसे कैसी तिलमिलाहट होगी, यही तो इनकी सबसे बड़ी तुरुप होती है।

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