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ढोल और अपने पार

राजेन्द्र यादव

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3771
आईएसबीएन :8171196519

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स्वातंत्र्योत्तर भारत के मध्यवित्त समाज के भीतर संक्रमण से गुजर रहे नैतिक मूल्यों, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, सामाजिक परिस्थितियों तथा इन सबके बीच पैदा हो रही नई दृष्टि को रेखांकित करती कहानियाँ

Dhol Aur Apane Par

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राजेन्द्र यादव नई कहानी की जमीन को हमवार करनेवाले अगली पंक्ति के कथाकारों में एक रहे हैं। शहरी मध्यवर्गीय समाज की वर्गगत विद्रूपताओं, विडम्बनाओं और पीड़ाओं का अत्यंत प्रामाणिक विश्वसनीय लेखा-जोखा उनके यहाँ मिलता है।
जीवन के दैनिक प्रसंगों में निहित अन्तर्विरोध को उजागर करने के लिए कहानी के शिल्प में भी राजेन्द्र यादव ने अनेक प्रयोग किए हैं। मध्यवर्गीय मनोरचना की जटिल गुत्थियों को खोलने-समझने के लिए यह शायद जरूरी भी था।
इस संकलन की कहानियाँ भी स्वातंत्र्योत्तर भारत के मध्यवित्त समाज के भीतर संक्रमण से गुजर रहे नैतिक मूल्यों, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, सामाजिक परिस्थितियों तथा इन सबके बीच पैदा हो रही नई दृष्टि को रेखांकित करती हैं।

 

ढोल और अपने पार

पुस्तक, जाहिर है, दो संग्रहों को एक साथ प्रस्तुत करती है—बाक़ी संग्रहों को एकरूपता देने की योजना के तहत।
‘अपने पार’ की कहानियाँ 66-67 के दौरान की लिखी गईं। वे ज्यादा यथार्थवादी और कहीं-कहीं आत्मकथात्मक-सी हैं। ठीक इनके विपरीत हैं ‘ढोल’ संग्रह की कहानियाँ—स्वप्न-कथाओं, रूपकों और परी-कथाओं जैसी—मगर अपने तथ्य में उतनी ही वास्तविकता। पता नहीं, इन प्रयोगों  के पीछे—दिखाई देते यथार्थ को बेधकर पार जाने की आकांक्षा थी; सिर्फ़ शिल्प-प्रयोग का आग्रह था या आपने ‘अज्ञातवास’ में जाने की प्रक्रिया थी। बहरहाल, ये अपने रूपगत विलोम के कारण ही एक जगह हैं—शायद विविधता की दृष्टि से भी।
नया संग्रह ‘वहाँ तक पहुँचने की दौड़’ तैयारी में है—इसी वर्ष प्रकाशित होगा।

 

राजेन्द्र यादव

 

कहानियाँ, जो शायद मैं न लिखूँ

 

‘‘बिजॉन का सम्बन्ध अपनी चचेरी बहन से हो गया और दोनों भागकर एक छोटे-से कस्बे में चले गए। वहीं पति-पत्नी की तरह रहने लगे।’’ समरसोम ने अपनी रौ में कहानी जारी रखी—‘‘धीरे-धीरे लड़का बीमार रहने लगा। उसे शक हुआ कहीं टी.बी. तो नहीं हो रही है। इस बीमारी का शक उसे बहुत दिनों से था। वहाँ के डॉक्टर से जँचवाया, शहर जाकर अपनी परीक्षा कराई, एक्स-रे लिया। कहीं कुछ भी नहीं था; लेकिन लड़का सूखता जा रहा था और अक्सर बीमार रहता था। समझ में नहीं आता था कि उसे क्या हुआ है ? नाउ, कैन यू इमेजिन, उसे क्या बीमारी थी ?’’ समर ने सिगरेट का कश लगाकर आकर्षक विजय-मुसकान से मुझे देखा। मैंने इनकार में सिर हिला दिया तो कुछ देर रुककर एक गहरा कश लिया, एश-ट्रे में सिगरेट ठूँसी, कॉफ़ी का एक सिप लिया, बचा हुआ धुआँ निकाला और तृप्त भाव से कुछ देर का अन्तराल देकर रहस्य खोला—‘‘उसे कोई बीमारी नहीं था। बिजॉन को कुछ नहीं हुआ था। अपनी सगी चचेरी बहन से शरीर-सम्बन्ध रखने की पाप-भावना थी जो धीरे–धीरे उसे खा रही थी। बुद्धि से उसने मनौती को प्रेयसी और पत्नी और पत्नी स्वीकार कर लिया; लेकिन उसके भीतर का हिन्दू-संस्कार...मुसलमान होता तो कोई बात नहीं थी।’’

एक कहानी...मेरे भीतर के रडार पर जैसे एक बिन्दू चमक उठा...कोई बाहरी ज़हाज अपनी रेंज में आ गया है। मैं मन-ही-मन बेचैन हो उठा, यह तो बहुत ही खूबसूरत और शक्तिशाली कहानी है। अनायास ही पूछ लिया, ‘‘कौन लिख रहा है इस कहानी को ?’’
‘‘कोई नहीं। मुझे मिहिर आचार्य ने एक घटना बताई थी और मैं इस पर एक कहानी सोच रहा हूँ।’’ प्रकट निर्लिप्तता से समर ने जवाब दिया। आँख मेरे ऊपर पड़ते प्रभाव पर थी। लेकिन मेरे सामने समर नहीं थे।
समर को बातें करने की आदत है। अक्सर लगातार बोलते हैं, कभी-कभी शायद उन्हें खुद नहीं पता होता कि क्या बोलते हैं। अपना सारा पढ़ा, देखा, सुना-सोचा बोलते रहते हैं। सम्पादकों के पास क़िस्सों की क्या कमी ! अगर कोई काम सिर पर न हो तो मुझे उनकी बातों से अधिक हर पल यह सोचते रहना अच्छा लगता है कि आगे क्या बताएँगे ? जैसे ही एक क़िस्सा अन्त की ओर आने लगता है कि मेरी उत्सुकता बढ़ जाती है, यह बात तो खत्म हो रही है, अगली अब क्या होगी ? आसाम के जंगलों में अपने छिपकर भागने से लेकर, हैमिंग्वे के नायकों की तरह इलाहाबाद से विन्ध्याचल तक बरसते पानी में शराब पीते हुए कार-यात्रा के अनेक किस्से हैं। लेकिन उस दिन की उनकी इस कहानी से मैं अजब-सी बेचैनी महसूस करता रहा...

फिर जब ठंडे दिमाग से सोचा तो पाया कि कहानी ‘आइडियावादी’ है—कम-से-कम मुझ तक जो छनकर आया है वह आइडिया ही है। अगर इसी तरह का मेरा भी कोई ‘अपना अनुभव’ हो तो थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ मैं इसे अपना बना सकता हूँ, तब शायद यह आइडिया स्वयं ही मेरी अनुभूति में ढलकर अपने को कहानी के रूप में विकसित कर सकता है, लेकिन इस समय तो इसका एक प्रारम्भ और बाक़ायदा एक परिणति है जो एक निश्चित निष्कर्ष की ओर संकेत करती है। आइडिया—यानी प्रारम्भ, परिणति और निष्कर्ष वाली इन कहानियों ने जिन्दगी को इतना सिम्प्लीफाई-सपाट-कर दिया है कि उनमें विकास के अनगढ़ रेशे और ख़म खत्म ही हो गए हैं। सारी चीज़ इतनी जनरलाइज़्ड होकर घिस गई है कि इनमें व्यक्तिगत अनुभव की ग़रम ताज़गी और प्रामाणिकता का वातावरण देने के नाम पर कुछ घिसे-पिटे मुहावरे और वर्णन दिए जा सकते हैं। धूप और परछाइयों के वास्तविक और सच्चे’ विवरण यहाँ-वहाँ बैठाकर सारी चीज़ को ‘असली’ बनाया जा सकता है; लेकिन दुनिया-भर के कहानीकारों ने जो ज़िन्दगी की हर स्थिति को कुछ विचित्र षड़्यंत्र के साथ आइडियाओं में निचोड़ लिया है, उस सबसे कैसे बचा जा सकता है ? पर ‘आइडिया’ पर कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई कहानी लिख चुका है। हो सकता है कि समर ने कहीं कहानी पढ़ ली हो, या जिसने सुनी हो उसे खुद ही याद न हो कि इसका स्रोत कहाँ है ? इस तरह के सुने-सुनाए आइडिया पर मैं अगर कहानी लिखने की कोशिश भी करूँ तो समरसैट मॉम के ‘बुक-बैग’ जैसी घटनाओं-दुर्घटनाओं-भरी बाजीगरी ही तैयार होगी...

मैंने तय कर लिया है कि मैं इस कहानी को नहीं लिखूँगा।
यही नहीं, कमल की उस कहानी को भी नहीं लिखूँगा जो उसने बहुत विश्वास में लेकर मुझे बताई थी...कि कैसे जब वह उन्नीस साल की थी तो उसका एक पड़ोसी लड़के से प्यार हो गया था, कैसे वे लोग किताबों में चिट्ठियाँ दिया-लिया करते थे, किस प्रकार पहली बार छत पर मिले थे और जब दूसरी-तीसरी बार में ही पकड़ लिये गए, मार पड़ी और प्रतिबन्ध लगे तो कैसे कमल काँटेदार तार फलाँगकर उसके कमरे की खिड़की के नीचे पहुँच जाती थी, फिर दोनों लॉन की अँधेरी बेंच पर बैठे-बैठे भविष्य की योजनाएँ बनाया करते थे। आज वह पच्चीस की है और बाक़ायदा नौकरी करती है; लेकिन उस प्यार को मन से निकाल नहीं पाती। उसे आज भी विश्वास है कि किसी दिन ‘वह’ ज़रूर आएगा। कमल ने लगातार पत्रों में अपने इस प्यार के महीन, नाजुक और ख़ूबसूरत डिटेल्स भेजे थे और उन सारी भावनाओं को कन्फ़्रैंस किया था जो किसी भी लड़की की अपनी व्यक्तिगत और गोपनीय भावनाएँ हो सकती हैं। कमल का आग्रह था कि मैं इस पर कोई बहुत ही ट्रैजिक-सी कहानी लिखूँ; लिख सकता हूँ, लेकिन चाहूँ तो शहर और मुहल्ला, या मिलने की जगहें ज्यों-की-त्यों रख सकता हूँ...हो सकता है कि कभी ‘वह’ पढ़ ले और उसे खयाल हो आए कि कहीं कोई है जो उसके प्यार को छाती से लगाए अब भी उसकी राह देख रही है....

परोपकार...कहानी की सारी भावुकता के बावजूद मोह हुआ था....इस कहानी पर कोशिश कर देखने में क्या हर्ज है ? हो सकता है, प्रयत्न सफल ही हो जाए। मुझे एक कहानी मिले और कमल की खोई हुई ज़िन्दगी....कला का इससे बड़ा सामाजिक लक्ष्य और क्या होगा कि माँ को अपना बिछुड़ा हुआ बेटा मिल जाए, प्रेमी को प्रेमिका....? लेकिन फिर सवाल उठने लगे कि जिस लड़की का चेहरा मैंने नहीं देखा, जिस प्रेमी की परिस्थिति-प्रकृति का मुझे अन्दाज़ा नहीं है, उस पर कहानी कैसे लिखूँगा ? जगहें तो खुद जाकर देख सकता हूँ।

 कमल से मिल भी लूँ, लेकिन उस छह साल पहले वाली कमल से कहाँ मिलूँगा ? हो सकता है, वह रूप और मन से सुन्दरता-असुन्दरता की ओर बहुत ही बदल गई हो और उसके भीतर से उन्नीस साल की किशोरी को खोज निकालना आसान न हो...फिर कहानी लिखते समय, सोचते समय, किस लड़की और लड़के की तस्वीर मेरे मन में आएगी ? जो भी कुछ कल्पना में आएगा वह ‘एक लड़की और एक लड़का’ आएँगे, कमल और उसका प्रेमी उसमें कहाँ होंगे ? या तो वे मेरे प्रतिरूप होंगे या फिर ‘वे उस उम्र के सारे प्रेमी-प्रेमिका होंगे, सोचकर मैं कला की सार्वभौमिकता के तर्क से अपने को बहका लूँगा। अपने प्रतिरूप वाले लड़के-लड़की को लेकर, मेरे मन में और भी कोई ज़्यादा सशक्त कहानी हो सकती है ! उसे यहाँ क्यों जाया किया जाए ? उधर वह ‘अनदेखी’, ‘अनभोगी’ सार्वभौमिकता क्या हवाईपने का दूसरा नाम नहीं हो जाएगी ? जब कोई शैडो-प्ले लिखूँगा तो इस कहानी का भी ख़याल कर लूँगा। चाँद के धब्बों या सँझाते आसमान में बादलों के टुकड़ों को हर कोई अपने मन की आकृति में छाँट लेता है, वह उनकी सार्वभौमिकता है ? अगर है, तो कोरा कागज़ सबसे अधिक सार्वभौमिक है, जो मन हो सो लिख-पढ़ लो....

मान लिया, कि अमृता प्रीतम और शिवानी ही इस कमल का उद्धार कर सकती हैं, मेरे वश का नहीं है। इतने आँसू और दर्द मैं कहाँ से लाऊँगा ? भीतर कहीं भय भी लगा है अपने आप से : क्या हर कहानीकार के भीतर कोई शेर जैसा हिंस्त्र भी है जो सिर्फ़ अपना मारा हुआ शिकार ही खाता है ? या कम-से-कम विश्वास कर लेना चाहता है कि शिकार उसी ने मारा है ? दूसरों का मारा, या स्वयं मरा उसके लिए बेकार है ? लेखक की मानवीय संवेदना...आँसू और दर्द.....?
‘‘मेरे आँसू और दर्द तुम्हारे लिए सिर्फ एक कहानी हैं न ?’ किसी ने कभी मुझे लिखा था—‘मेरे दुर्भाग्य और यातना के स्तर तुम्हें केवल कहानी के लिए मसाला-भर देते हैं न ? मेरे चारों ओर छाई अन्धकार, निराशा और अवसाद की मेरी नियति सिर्फ़ किसी कथानक का सजीव वातावरण बनाते हैं ? तुम्हें छूता कहीं कुछ भी नहीं है ? नहीं....नहीं, मैं तुम्हारी और अपनी जिन्दगी में केवल एक कहानी देने नहीं आई। मैं तुम्हारे उन पाठक-पाठिकाओं की सूची का एक नाम नहीं बनना चाहती जो चित्रकार को एक अमर चित्र, कवि को एक कविता या तुम्हें एक कहानी देकर अपने अस्तित्व को सार्थक मान लें। बस, एक प्रार्थना है, मेरे ऊपर कभी कुछ लिखकर मुझे अपने और दूसरों के सामने हल्का, व्यर्थ और अन-हुआ मत बनाना....’

और ईमानदार दर्द से भरी यह आवाज मेरी कोंचती आत्मा का प्रतीक बन गई थी, आत्मभर्त्सना का वह टीसता अहसास बनकर मुझे उद्वेलित रखने लगी थी....जो इतना पवित्र, निष्ठावान है, इतना आत्मीय और निकट व्यक्तिगत है उसके साथ ‘छल’ नहीं करूँगा। दर्ज़ी अच्छे-से-अच्छे और क़ीमती-से-क़ीमती कपड़े को जिस निस्संगता के साथ अपनी ज़रूरत के मुताबिक काट लेता है वही कुछ लेखक को भी करना पड़ता है....वरना कपड़ा और तैयार वस्त्र, दोनों बेकार हो जाएँगे, मगर जो कपड़े की जगह अपनी खाल ही दे गया है उस पर कैंची चलाते हुए मेरा हाथ काँपता है। जो सिर्फ़ मेरा अपना है, उसे सबका बनाते हुए अपना ओछापन लगता है; मन होता है, इस कपड़े को तो केवल गैरिक-अंशुक में लपेटकर किसी निहायत अपने कोने में अगरबत्तियों और धूप की गन्ध के नीचे ही रखा जा सकता है....नहीं, सबको वहाँ जूते पहनकर आने की इजाज़त नहीं है, वह मेरी अन्तर्यात्रा का एक गुमनाम-सा सम्बल है...जब कभी....

जब कभी भी मैं कुछ लिखने बैठता हूँ, मेरे सामने कलकत्ता के शुरू के दिनों की एक नौकरानी आ जाती है। उसका पति आइसक्रीम बेचता था और वह सारे दिन बिल्डिंग में काम करती थी। बीच में सिन्धी थे, सबसे ऊपर मकान-मालिक और हम। सबसे नीचे एक पंजाबी परिवार। ’54-’55 की बात है। उस पूरी बिल्डिंग और विशेष रूप से उस नौकरानी को लेकर पूरी एक कहानी मेरे सामने साफ़ है और मेरे सामने यह भी साफ़ है कि मैं उस कहानी को ज़रूर लिखूँगा। अनेक बार कोशिश भी की है, हर बार आठ-दस पन्ने से आगे नहीं चली, लगा कि वे सारे अनुभव एक उपन्यास के विस्तार माँगते हैं। उपन्यास भी तीस-पैंतीस पन्ने चला और रुक गया....आज भी मैं नहीं चाहता कि उसे यों ही छोड़ दूँ। अकसर दो साल पहले तक ऐसा मेरे साथ कम ही हुआ है कि कोई चीज़ अधूरी लिखकर छोड़ दी हो...या तो प्रारंभ ही नहीं किया कुछ, और एक बार जब कागज़ पर अपने को कमिट कर लिया है तो प्रायः वह चीज़ पूरी हो गई है। (वही लेखन का अन्तिम रूप भी होता है। बाद में तो प्रतिलिपियाँ निकाली जाती हैं।) इसलिए हर नई या पुरानी चीज़ लिखते या पढ़ते समय आज तक ध्यान आता है कि वह कहानी अधूरी है, उसे पूरा करना है, और इस समानान्तर चिन्ता के साथ-साथ कहानी-दर-कहानी पूरी होती जाती रही है।

एक बार भैरवजी और एक बार पित्तीजी को बाक़ायदा सूचना भेज चुका हूँ कि विशेषांक के लिए आने वाली कहानी का शीर्षक—‘नौकरानी’। मगर वह न भेजकर दूसरी चीज़ भेज दी है। लगता है, उसमें मन को अटकाए रखकर दूसरा सब-कुछ लिखते चले जाना मेरा मानसिक अभ्यास बन गया है, कि हर चीज़ के साथ उस पर भी सोचना मेरी एक लेखन-प्रक्रिया का ऐसा अंग है कि बिना उसके मेरी कोई नई रचना पूरी ही नहीं होती। कभी-कभी इन दिनों तो डर भी लगने लगा है कि मान लो किसी उत्साह या दबाव में मैं उस कहानी को पूरा कर डालूँ तो फिर कलम उठाते समय किस पर सोचूँगा ? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि फिर कोई नई चीज़ लिखने के लिए ‘आधार’ ही न मिले। ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’ से लेकर आज तक जो बराबर मेरे मन को अटकाए रहा है, वही अब लिखने की शर्त न बन गया हो.....बहुत लोगों के लिए कोई खिड़की, कुछ फूल, कोई विशेष स्थान, मुद्रा, लेखन की शर्त बन जाते हैं....मेरे लिए वही कहानी ऐसा कुछ रूप तो नहीं रखती....

लेकिन उस तरह की शर्त में यही अकेली कहानी नहीं है, और भी बहुत कुछ है, और भी बहुत लोग हैं, ‘खेल-खिलौने’ से लेकर आज तक, बहुत-सी जगहें, बहुत से अनुभव जो या तो इस तरह आकर गुज़र गए हैं कि मुझे उनकी याद ही नहीं है, या इस तरह याद आते रहते हैं और इतने अपने हैं कि उनसे मिलते डर लगता है, किसी रचना को पूरा कर लेने के बाद की निरर्थकता उस अनुभव से टूटकर अलग और उदासीन हो जाने की आशंकित-अनुभूति जैसा त्रास...नहीं, उन कहानियों को पूरा करके उनसे मुक्त हो जाने, उनसे अपरिचित हो जाने की स्थिति को मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगा....मुझे और मेरे अस्तित्व को उन अधूरी कहानियों का साथ चाहिए...वे किसी निश्चित परिणति तक न पहुँचे, अन्तिम साँसों तक साथ रहें, केवल मेरी ही धरोहर बनकर...और उनके होने की स्मृति मुझे लगातार कोंचती आगे ले जाती रहे...

यही अभ्यास मुझे कभी दीदी के पत्रों को लेकर हो गया था। पत्रों में ऐसा विशेष कुछ भी नहीं होता था; लेकिन किसी ने मुझे इतना विश्वास दिया है और मेरे लिए इतना कहीं इतना कनसर्न हैं यह भ्रम अस्तित्व के सन्तोष के लिए पर्याप्त था...
मगर सन्तोष ही काश, पर्याप्त होता...जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान...

‘घोड़ा घास-दाने से यारी करेगा तो खाएगा क्या ?’ इस ग्रामीण कहावत से बल लेकर जब मैं...परिवार को देखता हूँ, उनके सम्पर्कों को तोलता हूँ तो कोई मेरा हाथ पकड़ लेता है—एक ऐसा मेघावी व्यक्ति, जिसने बहुत बड़े सपनों, महात्वाकांक्षाओं और शायद सामर्थ्य के साथ जिन्दगी शुरू की थी, क्रमशः घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों के प्रति ईमानदारी में एक पुर्जा-भर रह गया है, अभी भी दुनिया भर की गलत-सही योजनाओं, नौकरी छोड़ने की-समय-समय-आकांक्षाओं में ही उस एनर्जी को सही साबित कर लेता है। लेकिन बढ़ती उम्र, थकान और कर्तव्यनिष्ठा के आगे बढ़ते आयामों में वह यह भी जानता है कि कुछ भी होना सम्भव नहीं है, कुछ भी नहीं होगा। शायद अपने में यह एक अच्छा कथानक है, उस पर मुझे ज़रूर कुछ लिखना चाहिए—इस प्रेरणा से जब-जब मैंने कलम उठाई है, कोई मेरा हाथ पकड़ लेता है। नहीं, जो आज तक किसी का व्यक्तिगत दुःख नहीं है, उसे अपने भीतर की गहराइयों में दफ़नाकर वह भूल जाना चाहता है, उसे भरे बाज़ार में सबके साथ खोलना, उसका मज़ाक उड़ाना है, भीड़ में खड़ा करके अपराधी सिद्ध करना है और वह मैं नहीं करूँगा। कम-से-कम अपनी मैंत्री और उस परिवार से मिली सद्भावना के कारण नहीं कर पाऊँगा। उस व्यक्ति की इस चेतावनी के बावजूद कि ‘कमबख्त, एक घर तो डाकिन भी छोड़ती है...’ मैं शायद उस घर को भी नहीं छोड़ता; लेकिन लेखक को का़ज़ी का पद देकर फ़तवे बुलवाना मुझे अपनी स्थिति का दुरुपयोग लगता है। लिखना सबकुछ हो सकता है, लेकिन आत्मीयों को शत्रुओं में बदलने का सचेत तरीका नहीं ...‘एक इंच मुस्कान’ में तो ऐसा कुछ भी नहीं था, फिर भी..

मगर जिन्होंने मन-ही-मन अपना व्यक्तिगत शत्रु माना है, उन्होंने मेरे सामने एक और संकट उपस्थित कर दिया है...वह स्वनामधन्य जिन्होंने आज से पन्द्रह साल पहले मुझे एक ढाई सौ की नौकरी में उपयुक्त नहीं समझा था, वे सज्जन को बाक़ायदा सदल-बल मारने आए थे, वह अशिक्षित व्यक्ति जिसे मैंने लेखक मानने से इंकार कर दिया था और बाद में जिसने अपनी जिन्दगी का लक्ष्य ही मेरे विषय में अश्लीलतम और वीभत्स बातें लिखना बना लिया था, वह ‘मेधावी’ जो देशी-विदेशी लेखकों से चुराई चीज़ों के द्वारा ही हिन्दीवालों पर अपनी प्रतिभा का सिक्का ज़माने में ख़ून-पसीना एक किए हए था, लेकिन हर चोरी की चीज़ का रंग-रोगन छुड़ाकर अपना मार्का देते हुए जिसे न जाने मेरा ख्याल आ जाता है, क्योंकि उसकी किसी ब्लैक-मेलिंग के सामने मैं नहीं झुका...

ये, और भी न जाने कितने ऐसे हैं जो मेरे लिखने के लिए कठिनतम परीक्षा के क्षण रहे हैं, बार-बार उन्हें ‘खींचने’ की दर्दमनीय प्रतिहिंसा मन में जागी है, बार-बार मन में आया है कि ज़रा और भी तो देखें कि ये वस्तुतः हैं क्या...पर तभी एक अंकुश आ गया है, हो सकता है वे ऐसे न हों और व्यक्तिगत सन्दर्भ में ही मैंने उन्हें ऐसा पाया हो लिखना क्या अपना निजी बदला लेने और देने का हथियार है ? दोस्त अगर मुझे शराब पीने को पैसे नहीं देता तो दाँत पीसकर मन-ही-मन कहना—‘साले आज ही कहानी में तेरा पर्दाफाश करूँगा..वो जूते लगाऊँगा कि नानी याद आ जाएगी...’ आपका प्रस्ताव तो लड़की ठुकरा दे तो उसे चरित्रहीन और बाज़ारू कहते फिरना अपनी ही पुरुषत्वहीन कुंठा का ढिंढोरा पीटना नहीं है ? या जो कुछ साक्षात नहीं कर पाया उसका काल्पनिक मुर्दा जलाकर भीतर के अन्धविश्वास को सहलाना ही तो यह नहीं है कि ‘उसे तो मैंने मार दिया...’ लेखन को व्यक्तिगत कमजोरियों के हवाले कर देने के सिवाय और क्या है यह ? या कला की गरिमा को ब्लैक-मेलिंग के कोठे पर बैठा देना ..प्राकृत जन के गुणगान करने जैसी कोई भ्रान्ति न भी हो, तो भी व्यक्ति पर तभी शायद लिख सकूँगा जब अपने से हटकर यह मान लूँ कि वह किसी ‘प्रवृत्ति की अभिव्यक्ति’ है—एक ऐसी बात है जो मेरी ही नहीं सभी की है। अपनी व्यक्तिगत सीमाओं और कमजोरियों से हट पाने के लिए मैंने लेखन को लिया है, उसे अपना शौचालय बना डालने के लिए नहीं...मन्दिर भी नहीं, बस, कहीं इन दोनों के बीच की जगह...ऐसा न होता तो अब तक ‘ग्लैडियेटर्स’ वाली कहानी लिख डालता...

यों मुहावरों में ही बोलूँ तो किसका गरेबान नहीं फट...किसकी अलमारी में कंकाल नहीं रखे...और किस पुरुष में हर ख़ूबसूरत लड़की के साथ सोने वाला गुहा-मानव नहीं बैठा ? लेकिन वह सब कहीं लिखा जाता है ? अपने गन्दे लिनिन चौराहे पर धोने में क्या लाभ ?..आख़िर लेखक की एक सामाजिक प्रतिष्ठा है, उसके नाते-रिश्तेदार हैं, हर नायिका के चित्रण पर आँखें तरेरती पत्नी है....सभी कुछ लिखेगा  लोग क्या कहेंगे ? बेटी-बेटे किसके आगे मुँह दिखाएँगे ? कौन उसे अपने घर बुलाकर चाय पिलाएगा ? हम मध्यवर्गीय संस्कारों और सामन्ती नैतिकता के शिकार, रूसो की आत्म-कृतियों जैसा हस कहाँ से लाएँगे ? और जो आज ऐसा कर रहे हैं, उनकी मिर्गी के दौरे जैसी चेहरे की विकृति को कौन अपना कहना चाहेगा ?
और इस तरह के लेख भी शायद अब न लिखूँ जिनमें वह सबकुछ कारण-सहित बताया जाता हो, जो नहीं लिखना है...इस अच्छा क्या ख़ुद उन पर लिख डालना नहीं है ?
लेकिन यह सब कोई सामाजिक प्रतिज्ञा नहीं, केवल एक सवाक्-चिन्तन है। सचमुच मैं अपने आपको और किसी को भी यह आसश्वासन नहीं दे सकता हूँ कि इनमें से किसी का लेखन में उपयोग नहीं होगा। आखिर आल्डलस हक्सले नामके उस लेखक ने बहुत सोच-समझ कर ही तो ‘गॉडैस एंड द जीनियस’ उपन्यास में लिखा है कि ‘मैं विश्वास करके अपनी बेटी को किसी कैसेनोवा के हाथों सौंप सकता हूँ, मगर अपने भेद किसी उपन्यासकार के हाथों नहीं पड़ने दूँगा...’
मैं, जो हर पल अपने भेद अपने लेखक के हाथों सौंपता रहा हूँ, कैसे निश्चिंत होकर सो सकता हूँ ?

 

-राजेन्द्र यादव

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