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कविता संग्रह >> हम जो देखते हैं

हम जो देखते हैं

मंगलेश डबराल

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3778
आईएसबीएन :9788171193349

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मंगलेश डबराल की कविताएँ

Ham Jo Dekhte Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘पहाड़ पर लालटेन’ और ‘घर का रास्ता’ के बाद मंगलेश डबराल के तीसरे कविता-संग्रह हम जो देखते हैं का पहला संस्करण 1995 में प्रकाशित हुआ था। दो वर्ष के अन्तराल में इसके दूसरे संस्करण का प्रकाशित होना इस बात का साक्षी है कि बाजार और उपभोगवाद की बजबजाती दुनिया के बावजूद समाज में कविता के व्यापक और संवेदनशील कोने बचे हुए हैं और उसके सच्चे पाठक भी। यह संग्रह इस कठिन समय में भी ऐसी कविता को संभव करता है जो विभिन्न ताकतों के जरिये भ्रष्ट होती जा रही संवेदना और निरर्थक बनती भाषा में एक मानवीय हस्तक्षेप कर सके। ये कविताएँ उन अनेक चीजों की आहटों से भरी हैं जो हमारी क्रूर व्यवस्था में या तो खो गयी हैं या लगातार क्षरित और नष्ट हो रही हैं। वे उन खोयी हुई चीजों को ‘देख’ लेती हैं, उनके संसार तक पहुँच जाती हैं और इस तरह एक साथ हमारे बचे-खुचे वर्तमान जीवन के अभावों और उन अभावों को पैदा करनेवाले तंत्र की भी पहचान करती हैं। अपने समय, समाज, परिवार और खुद अपने आपसे एक नैतिक साक्षात्कार इन कविताओं का एक मुख्य वक्तव्य है।

हम जो देखते हैं में कई ऐसी कविताएँ भी हैं जो चीजों, स्थितियों और कहीं-कहीं अमूर्तनों के वर्णन की तरह दिखती हैं और जिनकी संरचना गद्यात्मक है। किसी नये प्रयोग का दावा किये बगैर ये कविताएँ अनुभव की एक नयी प्रक्रिया और बुनावट को प्रकट करती हैं जहाँ अनेक बार वर्णन ही एक सार्थक वक्तव्य में बदल जाता है। पर गद्य का सहारा लेती ये कविताएँ ‘गद्य कविताएँ’ नहीं हैं।

इस संग्रह की ज्यादातर कविताएँ एक गहरी चिंता और यहाँ तक कि नाउम्मीदी भी जताती लगती हैं, पर शायद यह जरूरी चिंता है जो हमारे वक्त में विवेक और उम्मीद तक पहुँचने का एक मात्र जरिया रह गया है। इनकी रचना-सामग्री हमारी साधारण, तत्कालिक, दैनंदिन और परिचित दुनिया से ली गयी है, पर कविता में वह अपनी बुनियादी शक्ल को बनाये रखकर कई असाधारण और अपरिचित अर्थों की ओर चली जाती है। विडंबना, करुणा और विनम्र शिल्प मंगलेश की कविता की परिचित विशेषताएँ रही हैं और इस संग्रह में वे अधिक परिपक्व होकर अभिव्यक्त हुई हैं। यह ऐसी विनम्रता है, जो गहरे नैतिक आशयों से उपजी है और जिसमें आक्रामकता के मुकाबले कहीं अधिक बेचैन करने की क्षमता है।  
 हम जो देखते हैं

 

घर शांत है

 

धूप दीवारों को धीरे-धीरे गर्म कर रही है
आसपास एक धीमी आँच है
बिस्तर पर एक गेंद पड़ी है
किताबें चुपचाप हैं
हालाँकि उनमें कई तरह की विपदाएँ बंद हैं

मैं अधजगा हूँ और अधसोया हूँ
अधसोया हूँ और अधजगा हूँ
बाहर से आती आवाज़ों में
किसी के रोने की आवाज़ नहीं है
किसी के धमकाने या डरने की आवाज़ नहीं है
न कोई प्रार्थना कर रहा है
न कोई भीख माँग रहा है

और मेरे भीतर ज़रा भी मैल नहीं है
बल्कि एक ख़ाली जगह है
जहाँ कोई रह सकता है
और मैं लाचार नहीं हूँ इस समय
बल्कि भरा हुआ हूँ एक ज़रूरी वेदना से
और मुझे याद आ रहा है बचपन का घर
जिसके आँगन में औंधा पड़ा मैं
पीठ पर धूप सेंकता था

मैं दुनिया से कुछ नहीं माँग रहा हूँ
मैं जी सकता हूँ गिलहरी गेंद
या घास जैसा कोई जीवन
मुझे चिंता नहीं
कब कोई झटका हिलाकर ढहा देगा
इस शांत घर को


1990


कुछ देर के लिए

 


कुछ देर के लिए मैं कवि था
फटी-पुरानी कविताओं की मरम्मत करता हुआ
सोचता हुआ कविता की जरूरत किसे है
कुछ देर पिता था
अपने बच्चों के लिए
ज्यादा सरल शब्दों की खोज करता हुआ
कभी अपने पिता की नक़ल था
कभी सिर्फ़ अपने पुरखों की परछाईं
कुछ देर नौकर था सतर्क सहमा हुआ
बची रहे रोज़ी- रोटी कहता हुआ

कुछ देर मैं अन्याय का विरोध किया
फिर उसे सहने की ताकत जुटाता रहा
मैंने सोचा मैं इन शब्दों को नहीं लिखूँगा
जिनमें मेरी आत्मा नहीं है जो आततायियों के हैं
और जिनसे खून जैसा टपकता है
कुछ देर मैं एक छोटे से गड्ढे में गिरा रहा
यही मेरा मानवीय पतन था
मैंने देखा मैं बचा हुआ हूँ और साँस
ले रहा हूँ और मैं क्रूरता नहीं करता
बल्कि जो निर्भय होकर क्रूरता किये जाते हैं
उनके विरुद्ध मेरी घृणा बची हुई है यह काफ़ी है

बचे-खुचे समय के बारे में मेरा खयाल था
मनुष्य को छह या सात घंटे सोना चाहिए
सुबह मैं जागा तो यह
एक जानी-पहचानी भयानक दुनिया में
फिर से जन्म लेना था यह सोचा मैंने कुछ देर तक

 

1992


अभिनय

 


एक गहन आत्मविश्वास से भरकर
सुबह निकल पड़ता हूँ घर से
ताकि सारा दिन आश्वस्त रह सकूँ
एक आदमी से मिलते हुए मुस्कराता हूँ
वह एकाएक देख लेता है मेरी उदासी
एक से तपाक से हाथ मिलाता हूँ
वह जान जाता है मैं भीतर से हूँ अशांत
एक दोस्त के सामने खामोश बैठ जाता हूं
वह रहता है तुम दुबले बीमार क्यों दिखते हो
जिन्होंने मुझे कभी घर में नहीं देखा
वे कहते हैं अरे आप टीवी पर दिखे थे एक दिन

बाज़ारों में घूमता हूँ निश्शब्द
डिब्बों में बंद हो रहा है पूरा देश
पूरा जीवन बिक्री के लिए
एक नयी रंगीन किताब है जो मेरी कविता के
विरोध में आयी है
जिसमें छपे सुंदर चेहरों को कोई कष्ट नहीं
जगह-जगह नृत्य की मुद्राएँ हैं विचार के बदले
जनाब एक पूरी फिल्म है लंबी

आप खरीद लें और भरपूर आनंद उठायें


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