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प्रोफेसर शंकू के कारनामे

सत्यजित राय

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :196
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3781
आईएसबीएन :81-7119-146-0

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‘प्रोफेसर शंकू के कारनामे’ सुविख्यात फिल्म निदेशक और बांग्ला कथाकार सत्यजित राय की रोमांचक कहानियों का बहुचर्चित संग्रह है।

Profesar Sanku Ke Karname

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘प्रोफेसर शंकू के कारनामे’ सुविख्यात फिल्म निदेशक और बांग्ला कथाकार सत्यजित राय की रोमांचक कहानियों का बहुचर्चित संग्रह है।
कथा-शिल्प के नाते डायरी शैली में लिखी गई ये कहानियाँ अपने आप में कोई न कोई रहस्य छुपाए हुए हैं, जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से समझाने का प्रयास किया गया है। यही कारण है कि वर्तमान में खड़े रखकर भी ये कहानियाँ एक ओर तो हमें प्रागैतिहासिक कालीन सच्चाइयों से जोड़ती हैं तो दूसरी ओर अछोर अंतरिक्ष के अद्भुत रहस्यों तक ले जाती हैं। इनके माध्यम से यदि हम अपने ही निर्माता को कैद कर लेनेवाले ईर्ष्यालु रोबेट से मिलते हैं, तो किसी और दुनिया से समुद्र में उतर आये अग्निवर्ण मछलीनुमा प्राणियों से भी भेंट करते हैं। इसी प्रकार यदि दक्षिणी अमरीका-स्थित कोचाबंबा की चित्रित गुफाओं के रहस्य में उतर जाते हैं, तो कांगों के जंगलों में उत्पाती गुरिल्लों के बीच जा पहुँचते हैं।
लेकिन इन कहानियों को पढ़ते हुए लेखक की इस टिप्पणी को भी निश्चय ही ध्यान में रखना होगा कि ‘‘ये कहानियाँ सच्ची हैं या झूठी, सम्भव हैं या असम्भव-इसका निर्णय पाठक स्वयं करे।’’


प्रोफेसर शंकू कौन हैं ? बस इतना ही पता चलता है कि वे एक वैज्ञानिक हैं, विश्वविख्यात वैज्ञानिक ! कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने शायद किसी भीषण प्रयोग में अपने प्राण गँवा दिये हैं। इधर यह भी सुनने में आया कि वे किसी अपरिचित अंचल में छुप कर अपने काम में लगे हुए हैं, समय आने पर प्रकट हो जायेंगे। प्रोफेसर शंकू की प्रत्येक डायरी में कुछ-न-कुछ विचित्र जानकारी का विवरण मिलता है। ये कहानियाँ सच्ची हैं या झूठी, संभव हैं या असंभव—इसका निर्णय पाठक स्वयं करें।

प्रोफेसर शंकू और रोबू


16 अप्रैल

अपनी चिट्ठी के जवाब में जर्मनी के मशहूर वैज्ञानिक प्रोफेसर पामर की चिट्ठी आज मिली। पामर ने लिखा है—
प्रिय प्रोफेसर शंकू,
     अपने बनाए रोबो (Robot) यानी मशीनरी आदमी के बारे में आपने जो लिखा है, उससे मुझे कितनी खुशी हुई, उससे कहीं ज़्यादा आश्चर्य हुआ। आपने लिखा है, रोबो के बारे में मेरा लिखा हुआ, खोज संबंधी लेख आपने पढ़ा और उससे आपको काफी जानकारी हासिल हुई है। लेकिन आपका बनाया हुआ रोबो अगर वास्तव में वैसा ही बन पड़ा है, जैसा कि आपने लिखा है, तो यह मानना ही पड़ेगा कि मेरी कीर्ति से आप बहुत आगे निकल गये हैं।
मेरी उम्र हो चुकी। मेरे लिए भारतवर्ष आ सकना संभव नहीं, इसीलिए यदि आप अपने बनाये आदमी को लेकर हमारे यहाँ आ सकें तो मुझे महज़ खुशी ही नहीं होगी, मेरा उपकार भी होगा। इसी हाइडेलबर्ग में ही मेरे जाने-पहचाने एक वैज्ञानिक और हैं—डॉक्टर वोर्गेल्ट। उन्होंने भी रोबो पर कुछ काम किया है। बन सका तो उनसे भी आपका परिचय करा दूँगा।
आपके जवाब के इन्तज़ार में रहूँगा। यदि आप आने को राज़ी हों तो एक ओर किराये का इन्तज़ाम मैं ज़रूर ही कर सकूंगा। कहना फिजूल होगा, आपके रहने की व्यवस्था मेरे ही यहाँ होगी।

आपका
रूडोल्फ पामर

पामर की चिट्ठी का जवाब आज ही दे दिया। लिख दिया, अगले महीने के दूसरे हफ़्ते के आस-पास जाऊँगा। किराये के बारे में मैंने कोई ऐतराज़ नहीं किया, क्योंकि जर्मनी जाने-आने का ख़र्च कम नहीं है, हालाँकि उस देश को देखने की भी बड़ी ख्वाहिश है।

मेरा ‘रोबू’ भी मेरे साथ ज़रूर जाएगा, लेकिन अभी तक वह अंग्रेज़ी और बंगला के सिवा दूसरी भाषा नहीं बोल सकता। इस एक महीने के अरसे में उसे जर्मन सिखा लेने से वह पामर से मज़े में बात कर सकेगा; मुझे दुभाषिए का काम नहीं करना पड़ेगा।

रोबू को बनाने में मुझे डेढ़ साल लगा। मेरे नौकर प्रह्लाद ने हर समय मेरे पास रह कर यह-वह सामान हाथ के पास पहुँचा कर मेरी मदद की है, लेकिन असली काम सब मैंने खुद ही किया। और हैरत की सबसे बड़ी बात है, वह है रोबू को बनाने में खर्च की बात। कुल मिलाकर उस पर मेरी तीन सौ सैंतीस रुपये साढ़े सात आने की लागत लगी है। इस निहायत ही मामूली ख़र्च से बनी, वह भविष्य में मेरी लेबोरेटरी के सभी कामों में मेरी सहयोगी होगी—गर्ज़ की राइटहैंड-मैन। मामूली जोड़-घटा, गुणा-भाग के हिसाब में रोबू को एक सेकेंड से भी कम समय लगता है। ऐसा कठिन कोई हिसाब ही नहीं, जिसे हल करने में उसे दस सेकेंड से ज़्यादा समय लगे। इसी बात से समझ में आता है कि मैंने पानी के भाव कैसी एक गज़ब की चीज़ पा ली है ! ‘पा ली है’ इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि किसी भी वैज्ञानिक अविष्कार को मैं पूर्णतया आदमी की सृष्टि नहीं मानता। उसकी संभावना पहले से ही रही होती है, शायद हो कि सदा ही रही थी—आदमी को सिर्फ़ अपनी अक्ल पर ज़ोर से या किस्मत की ख़ूबी से उन संभावनाओं का पता पा कर उन्हें काम में लगा लेता है।

रोबू की शक्ल खासी खूबसूरत बन पड़ी है, ऐसा नहीं कह सकता। खास करके उसकी दोनों आँखें दो तरह की हो जाने से वह ऐंचाताना-सा लगता है। उस खामी को भरने के लिए मैंने रोबू के मुँह में एक हँसी भर दी है। वह कितना ही कड़ा सवाल क्यों न हल करता हो, वह हँसी उसके होंठों पर लगी ही रहती है। मुँह की जगह एक छेद कर दिया है, बातचीत उसी छेद से निकलती है। होंठ हिलाने लायक़ बनाने में नाहक ही समय और ख़र्च ज़्यादा लगता, लिहाज़ा मैंने उसकी कोशिश ही नहीं की। आदमी के जहाँ दिमाग होता है, रोबू के वहां पर ढेरों बिजली के तार हैं, बैटरी, बल्ब आदि हैं। इसलिए दिमाग़ जो काम करता है, उनमें से बहुत सारा काम रोबू नहीं कर सकता। मसलन, सुख-दुख का अनुभव करना, या किसी पर गुस्सा ईर्ष्या करना-यह सब रोबू जानता ही नहीं। वह केवल काम करता है सवाल का जवाब देता है। हिसाब सब तरह का लगा लेता है, लेकिन सिखाए हुए काम के अलावा काम नहीं करता और सिखाए हुए प्रश्नों को छोड़कर दूसरे प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता। मैंने उसे अंग्रेज़ी और बँगला के पचास हज़ार प्रश्नों के उत्तर सिखाए हैं—किसी भी रोज़ उसने गलती नहीं की। अब उसे दसेक हज़ार ज़र्मन प्रश्नों के उत्तर सिखा दूँ, तो मैं ज़र्मनी जाने के लिए तैयार हो जाऊँगा।
इतने अभावों के होते रोबू जो करता है, उतना दुनिया के और मशीनी आदमी ने किया है, ऐसा नहीं लगता। ऐसी एक चीज़ बनाने के बाद उसे गिरिडिह जैसे शहर में कैद रखने का भी कोई मतलब होता है ? बंगाल में थोड़ी-सी रसद पर बंगाली वैज्ञानिक क्या कर सकते हैं, इसे क्या बहारी दुनिया को जानना नहीं चाहिए ? इसमें अपने प्रचार से देश का प्रचार ज़्यादा है। कम-से-कम मेरा उद्देश्य वही है।

18 अप्रैल

अब, इतने दिनों के बाद अविनाश बाबू ने मेरी वैज्ञानिक प्रतिभा को क़बूल किया। मेरे ये पड़ोसी सज्जन यद्यपि आदमी अच्छे हैं, पर मेरे कामों के लिए उनका मज़ाक उड़ाना कभी-कभी बरदास्त से बाहर हो जाता है।
वह अक्सर मुझसे गप्पें लड़ाने के लिए आया करते हैं—लेकिन पिछले तीन महीनों में जितनी बार भी आए, मैंने प्रह्लाद से कहला दिया—मैं बहुत ही व्यस्त हूँ, मुलाक़ात नहीं हो सकती।
आज रोबू को जर्मन सिखा कर अपने लेबोरेटरी की कुर्सी पर बैठकर एक विज्ञान-पत्रिका के पन्ने उलट रहा था कि वह आ धमके। मेरी भी इच्छा थी कि वह एक बार रोबू को देखें, इसीलिए उस भलेमानस को बैठक में न बिठाकर सीधे अपनी लेबोरेटरी में बुला लिया।

कमरे के अन्दर क़दम रखते ही भले आदमी ने नाक सिकोड़ कर कहा, ‘‘आप ने हींग का कारोबार शुरू कर दिया है क्या ?’’ कि रोबू पर नज़र पड़ते ही अपनी आँखें गोल-गोल करके वह बोले, ‘‘अरे बाप रे, वह क्या है ? रेडियो ? कि ‘कल का गाना’ या क्या है ?’’
अविनाश बाबू ग्रामोफ़ोन को अभी भी ‘कल का गाना’ कहते हैं, सिनेमा को कहते हैं बायस्कोप, एरोप्लेन को कहते हैं उड़न-जहाज़।
जवाब में मैंने कहा, ‘‘उसी से पूछ देखिए न, वह क्या है। उसका नाम है रोबू।’’
‘रोबूस्कोप ?’’
‘‘रोबूस्कोप क्यों होने लगा ? कहा तो, उसका नाम है रोबू। उसका नाम लेकर आप उससे पूछिए वह क्या है, वह ठीक जवाब देगा।’’
‘‘क्या जाने बाबा, यह आपका कौन-सा तमाशा है’’—यह कहकर अविनाश बाबू ने उस यंत्र के सामने खड़े होकर पूछा, ‘‘तुम क्या हो जी, रोबू ?’’

रोबू के मुँह के उस छेद सेसाफ जवाब निकला, ‘‘मैं मशीनी आदमी हूँ। प्रोफेसर शंकू का सहकारी।’’
भले आदमी को तो मूर्च्छा आने की नौबत ! रोबू क्या-क्या कर सकता है, यह सुनकर और कुछ-कुछ नमूना देखकर अविनाश बाबू अपना मुँह फीका-सा करके मेरे दोनों हाथ पकड़ के झकझोरते हुए चले गये। मैंने समझा, अब वह वास्तव में प्रभावित हुए हैं।’’
आज एक पुरानी ज़र्मन विज्ञान-पत्रिका में रोबो पर प्रोफेसर वोर्गेल्ट के लिखे एक लेख पर अचानक नज़र पड़ गयी। उन्होंने खासे नाज़ से ही लिखा है—मशीनी आदमी बनाने में जर्मनों ने जो कृतित्व दिखाया है, वैसा और किसी भी देश के किसी व्यक्ति ने नहीं दिखाया। उन्होंने यह भी लिखा है कि मशीनी आदमी से नौकर-चाकर जैसा काम तो कराया जा सकता है, मगर उससे काम जैसा काम या बुद्धि का कोई काम कभी भी नहीं कराया जा सकेगा।
लेख के साथ प्रोफेसर वोर्गेल्ट की एक तश्वीर भी छपी है। चौड़ा कपाल, दोनों भौहें कुछ अजीब किस्म की घनी, आँखें गढ़ों में धँसी हुई, और ठोढ़ी पर कोई दो इंच लंबी और लगभग उतनी ही चौड़ी-चौकोर दाढ़ी चिपकी हुई-सी।
भले आदमी का वह लेख पढ़कर और उसकी तस्वीर देखकर उनसे भेंट करने की ललक और भी बढ़ गयी।

23 मई

आज सबेरे हाइडलेबर्ग पहुँचा। चित्र लिखा-सा खूबसूरत शहर। यूरोप का सबसे पुराना विश्वविद्यालय यहाँ होने के नाते मशहूर। शहर के बीच से नेकर नदी बह रही है, पीछे पहरेदार की तरह खड़ा है हरे-भरे जंगल से ढँका पहाड़। इसी पहाड़ पर हाइडलेबर्ग का ऐतिहासिक क़िला  है।
शहर से पाँच मील के फाँसले पर मनोरम प्राकृतिक परिवेश में प्रोफेसर पामर का निवास है। सत्तर साल के उस बूढ़े वैज्ञानिक ने मेरी जैसी ख़ातिर की, वह कह कर नहीं बताई जा सकती। बोले, ‘‘शायद आपको मालूम हो, भारतवर्ष के प्रति जर्मनी का एक स्वाभाविक खिंचाव है। मैंने आपके यहाँ के प्राचीन दर्शन और साहित्य की बहुत-सी किताबें पढ़ी हैं। मैक्समूलर ने उन किताबों का बहुत सुंदर अनुवाद किया है। उनके प्रति हम सब बहुत ऋणी हैं। आपने भारतीय वैज्ञानिक के नाते आज जो काम किया है, उससे हमारे देश का गौरव बढ़ा।’’

रोबू को मैं उसी के आकार के एक पैकिंग बक्से में पुआल, रुई, बुरादे आदि में बड़े एहतियात के साथ लिटा कर ले आया था। पामर को उसे देखने का बड़ा कौतूहल हो रहा है, यह जानकर मैंने दोपहर को ही उसे बक्से से निकाल कर झाड़-पोंछ कर पामर की प्रयोगशाला में खड़ा कर दिया। पामर ने रोबो के बारे में इतनी छान-बीन की, इतना लिखा-पढ़ी की, पर उन्होंने खुद कभी कोई रोबो बनाया नहीं।
रोबू की शक्ल देखकर उनकी आँखें कपाल पर चढ़ गयीं। बोले, ‘‘अरे, तुमने तो गोंद, कांटियाँ और स्टिकिंग प्लास्टर से ही जोड़ने का काम कर दिया है और कहते हो कि यह रोबो बातें करता है !’’
पामर के गले में अविश्वास का सुर साफ झलक रहा था।

मैंने मुस्कराकर कहा, ‘‘जी, आप उसे जाँच-परख कर देख लें न। पूछिए न उससे कोई सवाल।’’
रोबू की तरफ मुड़कर पामर ने जर्मन भाषा में पूछा, ‘‘तुम क्या काम करते हो ?’’
रोबू ने भी जर्मन भाषा में ही साफ स्वर और स्पष्ट उच्चारण करके कहा, ‘‘मैं अपने मालिक की मदद करता हूँ और अंक की समस्या हल कर सकता हूँ।
पामर रोबू की ओर हैरानी की निगाह से देख कर कुछ देर तक सिर हिलाते रहे। उसके बाद एक लंबा निश्वास छोड़ते हुए बोले, ‘‘शंकू, आपने जो किया है, विज्ञान के इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं। वोर्गेल्ट को ईर्ष्या होगी।’’
इसके पहले वोर्गेल्ट के बारे में हम दोनों में कोई बात नहीं हुई। पामर के मुँह से एकाएक उसका नाम सुनकर मैं चौंक ही उठा। वोर्गेल्ट ने भी क्या कोई रोबो बनाया है ?
मेरे कुछ पूछने से पहले ही पामर ने कहा, ‘‘वोर्गेल्ट हाइडेलबर्ग में ही है—मेरे ही जैसे एकांत परिवेश में, लेकिन नदी के उस पार। हम दोनों बर्लिन में एक ही स्कूल में पढ़े हैं, मगर मैं उससे तीन साल आगे था। उसके बाद मैंने यहाँ हाइडेलबर्ग में आकर डिग्री ली। वह बर्लिन में ही रह गया। दसेक साल हुए, वह यहाँ अपने मौरूसी घर में आकर रह रहा है।’’
‘‘उन्होंने कोई रोबों बनाया है क्या ?’’

‘‘सो तो मैं नहीं कह सकता। उसके पीछे वह लगा बहुत दिन से है, लेकिन शायद कामयाब नहीं हुआ है। बीच में तो सुना था, उसका दिमाग़ ही कुछ ख़राब हो गया है। पिछले छह महीने से वह घर से निकला ही नहीं। मैंने कई बार उससे टेलीफोन पर बात करने की कोशिश की। हर बार उसके नौकर ने बताया, वह बीमार हैं। इधर मैंने फोन-वोन नहीं किया।’’
‘‘मैं यहाँ हूँ, यह बात उन्हें मालूम है ?’’
‘‘पता नहीं। आपके आने का ज़िक्र मैंने यहाँ के कई वैज्ञानिकों से किया है। उन सबसे आपकी मुलाकात होगी ही। कुछ अख़बार वालों को भी जानकारी हो सकती है। मैंने अलग से वोर्गेल्ट को यह बताने की ज़रूरत नहीं समझी।’’
मैं चुप रह गया। दीवार पर लगी क्लाक में क्क्-क्क् करके चार बजे। खुली खिड़की से बाहर बाग दिखायी दे रहा था, उसके भी पीछे पहाड़। दो-एक चिड़ियों की चहक के सिवाय और कोई आवाज़ नहीं।
पामर ने कहा, ‘‘रूस के स्ट्रागोनाफ़, अमरीका के प्रोफेसर स्टाइनवे, इंगलैंड के डॉक्टर मैनिंग्स—इन सबने रोबो बनाया। जर्मनी में भी तीन-चार रोबो हैं। मैंने उन सभी को देखा है। लेकिन उनमें से एक भी इस आसानी से नहीं बना है और इस सफाई के साथ बोल नहीं सकता।’’
मैंने कहा, ‘‘लेकिन यह हिसाब भी कर सकता है। आप कोई भी सवाल देकर जाँच सकते हैं।’’
पामर ने आवाक होकर कहा, ‘‘अच्छा ! वह आवेरवाख का इक्वेशन जानता है ?’’
‘‘पूछ देखिए।’’

रोबू का इम्तहान लेकर पामर ने कहा, ‘‘गज़ब है। आपकी प्रतिभा  को शाबाश !’’ उसके बाद क्षण-भर चुप रह कर बोले, ‘‘आपका रोबू आदमी की तरह अनुभव कर सकता है ?’’
मैंने कहा, ‘‘जी नहीं, यह वह नहीं कर सकता।’’
पामर ने कहा, ‘‘और चाहे कुछ न हो, आपने दिमाग़ से अगर उसका कोई लगाव रहता है, तो बड़ा अच्छा होता तो आपके बड़े काम आता। वैसे भी वह वास्तव में आपका एक भरोसा करने लायक़ साथी हो सकता ।’’
पामर मानो कुछ अनमने से हो गये। फिर बोले, ‘‘मैंने उस विषय पर बहुत सोचा है—किसी मशीनी आदमी को लहू-माँस के किसी आदमी के मन की बात समझाई जाय। इस ओर मैं काफी दूर तक आगे भी बढ़ चुका था, दिल की बीमारी ने लाचार कर दिया। और, जिस रोबो पर यह सब परीक्षण चलता, उसे बनाने की सामर्थ्य ही नहीं रह गयी।’’
मैंने कहा, ‘‘मैं रोबू के काम से संतुष्ट हूँ। वह जितना कर लेता है, मेरे लिए वही बहुत है। पामर ने कुछ कहा नहीं। मैंने देखा, वह एकटक रोबू को देख रहे हैं। रोबू के चेहरे पर वही हँसी। कमरे की खिड़की से झुकते दिन की रोशनी आकर उसकी बायीं आँख पर पड़ रही थी। धूप की चमक से बिजली के लहू की आँख भी हँसती-सी लग रही थीं।


24 मई


मैं बैठा अपनी डायरी लिख रहा थ।। कल आधी रात से लेकर आज दिन-भर में बहुत-सी घटनाएँ घटीं, उन सबको करीने से लिख लेने की कोशिश कर रहा था। कहाँ तक बन पाएगा, नहीं जानता। क्योंकि मेरा मन ठीक नहीं था। जीवन में आज पहली बार मेरे मन में संदेह जागा कि अपने को मैंने जितना बड़ा वैज्ञानिक समझा था, वास्तव में मैं उतना बड़ा हूँ या नहीं। यदि वही होता तो इस क़दर अपदस्थ मैं क्यों हुआ ?

कल रात की घटना ही पहले बताऊँ। यह खास वैसी कुछ नहीं, फिर भी लिख रखना अच्छा है।
पामर और मैं रात का भोजन करके नौ बजे उठे। उसके बाद बैठक में काफ़ी पीते हुए हम दोनों ने काफी बातें कीं। मैंने उस समय भी पामर को बीच-बीच में अन्यमनस्क होते देखा। क्या सोच रहा था, क्या जानें। हो सकता है, रोबू को देखने के बाद से उसे बार-बार असमर्थता याद आ जाती है। और ठीक भी है, वह जैसा बूढ़ा हो गया है कि रोबो पर नई कोई गवेषणा कर सकना उसके लिए मुमकिन नहीं लगता।

मैं सोने के लिए दस बजे के कुछ बाद ही गया। जाने से पहले रोबू को देख कर गया। लगा कि पामर की लेबोरेटरी में वह बड़े आराम से ही है। जर्मनी की आब-हवा, यहाँ की सर्दी और प्राकृतिक सौन्दर्य—इन सबकी उसे कोई परवाह नहीं। वह गोया महज़ मेरे हुक्म के इन्तज़ार में है। सोने को जाने से पहले हम दो वैज्ञानिक ने जर्मन भाषा में उससे विदाई ली। रोबू ने भी साफ शब्दों में कहा, ‘‘गुटे नाख्ट, हेर प्रोफेसर शंकू, गुटे नाख्ट हेर प्रोफेसर पामर !


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