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नारी विमर्श >> कृष्णकली

कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 379
आईएसबीएन :81-263-0975-x

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हिन्दी साहित्य जगत् की सशक्त एवं लोकप्रिय कथाकार शिवानी का अद्वितीय उपन्यास


वही विस्तृत मधुर गूँज, उनके नवीन व्यक्तित्व के साथ, 'कृष्णकली' में उतर आयी। आज से वर्षों पूर्व, जब 'कृष्णकली' धारावाहिक किश्तों में 'धर्मयुग' में प्रकाशित हो रही थी, तो ठीक अन्तिम किश्त छपने से पूर्व, टाइम्स ऑफ इण्डिया प्रेस में हड़ताल हो गयी थी। पाठकों को उसी अन्तिम किश्त की प्रतीक्षा थी जिसमें कली के प्राण कच्ची डोर से बंधे लटके थे।
क्या वह बचेगी या मर जाएगी?
उन्हीं दिनों मेरे पास एक पाठक का पत्र आया था, साथ में 5००/- रुपये का एक चेक संलग्न था-
''शिवानी जी, अन्तिम किश्त न जाने कब छपे-मैं बेचैन हूँ, सारी रात सो नहीं पाता। कृपया लौटती डाक से बताएँ कृष्णकली-बची या नहीं। चैक संलग्न है।''
चैक लौटाकर मैंने अपने उस बेचैन पाठक से अपनी विवशता 'मानस' की इन पंक्तियों के माध्यम से व्यक्त की थी-

'होई है सोई जो राम रचि राखा
को करि तर्क बढावइ साखा'

ऐसे ही, लखनऊ मेडिकल कॉलेज के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. चरन ने मुझे एक रोचक घटना सुनाई थी। एम.बी.बी.एस. की फायनल परीक्षा चल रही थी। कुछ लड़के परीक्षा देकर बाहर निकल आये थे। थोड़ी ही देर में परीक्षा देकर लड़कियों का एक झुण्ड निकला। लड़कों ने आगे बढ़कर सूचना दी : 'कृष्णकली मर गयी।'

'हाय' का समवेत दीर्घ वेदना-तप्त निःश्वास सुन डॉ चरन चकित हो गये। आखिर कौन है ऐसी मरीज, जिसके लिए छात्र-छात्राओं की ऐसी संवेदना है? निश्चय ही मेडिकल कॉलेज में एडमिटेड होगी। बाद में पता चला, वह कौन है।
आज इतने वर्षों में भी कली अपने मोहक व्यक्तित्व से यदि पाठकों को उसी मोहपाश से बाँध सकी है तो श्रेय मेरी लेखनी को नहीं, स्वयं उसके व्यक्तित्व के मसिपात्र को है जिसमें मैंने लेखनी डुबोई मात्र थी। अन्त में, मुनीरजान को मैं अपनी कृतज्ञ श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ। जहाँ वह हैं वहाँ तक शायद मेरी कृतज्ञता न पहुँचे, किन्तु इतना बार-बार दुहराना चाहूँगी कि यदि मुनीरजान न होती तो शायद पन्ना भी न होती और यदि पन्ना न होती तो कृष्णकली भी न होती।
-शिवानी

गुलिस्ताँ, लखनऊ 

14 जुलाई, 1982

कृष्णकली आमी तारेई बोली
आर जा वेले बलूक अन्य लोके
देखेछिलेम मयनापाड़ार हाटे
कालो मेयेर कालो हरिण चोख
माथार परे देय नो तूले वास
लज्जा पावार पायनी अवकाश
कालो? ता शे जतई कालो होक
देखेछी तार कालो हरिण चोख

-रवीन्द्रनाथ

लोग उसे किसी नाम से क्यों न पुकारें
मैं उसे कृष्णकली ही कहता हूँ।
मैंने उसे मयनापाड़ा के मैदान में खड़ी देखा था,
हरिणी के-से काले आयत नयन
और साँवला सलोना रंग।
उघड़े माथे पर आँचल नहीं था।
लज्जा का, उसे अवकाश ही कहां था?
काली? कितनी ही क्यों न हो
मैंने तो उस मृगनयनी के काले नयन देख लिये हैं।

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