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बचुली चौकीदारिन की कढ़ी

मृणाल पाण्डे

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :218
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3794
आईएसबीएन :81-7119-729-9

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मृणाल पाण्डे द्वारा लिखी गई कहानियाँ

Bachuli Chaukidarin Ki Kadhi a hindi book by Mrinal Pandey - बचुली चौकीदारिन की कढ़ी - मृणाल पाण्डे

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुछ ही दिन पहले मेरी दो कहानियाँ पढ़कर दो पाठकों के क्रोध-भरे पत्र आए। एक ने लिखा था कि ‘अपने लेखों और अन्य कार्यक्रमों में मैं स्त्री-मुक्ति और आत्मनिर्भरता की बात करती हूँ, जबकि इस कहानी की नायिका की घुटनभरी-दब्बू जिंदगी हमें कोई ऐसा ‘संदेश’ नहीं देती।’ दूसरे पाठक ने भी घुमा-फिराकर यही पूछा था कि ठीक है, पात्रों की निजी दुनिया के दबावों और उनके सुख-दुख से कहानी हमारा साक्षात्कार तो कराती है, पर यह अन्त में आकर हमें ‘सिखाती’ क्या है ?’

मुझे लगता है कि एक बोझिल हितोपदेशी पाठ्यक्रम की किताबों से ‘साहित्य’ पढ़कर निकले ऐसे पाठक रचनात्मक साहित्य की आत्मा से अपरिचित ही रह आए हैं। मुझे खेद है, मेरी कहानियाँ इनकी थोथी उपदेश-तृष्णा नहीं बुझा सकतीं।
हर कहानी या उपन्यास घटनाओं-पात्रों के जरिए सत्य से एक आंशिक और कुतूहलभरा साक्षात्कार होता है। साहित्य हमें जीवन जीना सिखाने की बजाए टुकड़ा-टुकड़ा ‘दिखाता’ है, वे तमाम नर्क-स्वर्ग, वे राग-विराग वे सारे उदारता और संकीर्णता-भरे मोड़, जिनका सम्मिलित नाम मानव-जीवन है। जो साहित्य उघाड़ता है, वह अन्तिम सत्य या सार्वभौम आदर्श नहीं, बहुस्तरीय यथार्थ होता है। यदि जीवन में आदर्श या सत्य अनुपस्थित या अवहेलित हैं, तो उस विडंबना को भी वह जताता जाता है।

मेरी तहत साहित्य को रचना, परोक्ष रूप से सत्य से आंशिक साक्षात्कारों की ऐसी ही एक श्रृंखला पाठकों के लिए तैयार करना होता है, जिसके सहारे एक सहृदय व्यक्ति अपनी चेतना, अपनी संवेदना और अभिव्यक्ति-क्षमता का सहज ही कुछ और विस्तार होता पाए। चिंतनपरक लेख और रचनात्मक लेखन के बीच का फासला तर्कसंगत ज्ञान और संवेदनात्मक समझ के बीच का फासला है।

बिब्बो

फैशन के लिहाज से यह बूढ़ों का वर्ष था। खूब कसकर, तकरीबन माथे के ऊपर ही मरोड़कर बाँधे गये जूड़े, नोच-नोचकर बेहद पतली बना ली गयी बेचारी भौहों, और सुनहरी कमानी के गोल चश्मों का वर्ष। कपड़े भी बीहड़ हो चले थे। बेमेल हथकरघे की साड़ियाँ और छींटदार ढीले, ब्लाउज चाँदी के काले पड़े हुए मैले आभूषण या झब्बानुमा कुर्ते और तंग मोहरी के पजामे। आँखों में सुरमा फिर फैशन में आ गया था, या फिर काजल। पिछले सालों के नीले-बैंगनी लिपस्टिक और परोटों के ऊपर लगाये जानेवाली सुनहरी धानी शैडो, नकली पलकों समेत न जाने कब अपने आप गायब हो गये थे। यह फैशन का क्षेत्र भी एक बड़ा रहस्यमय इलाका है, जनाब ! यहाँ बिना हड़बोंग के अचानक रातों रात सब बदल जाता है ! ऐसे, कि पहले पहल तो आपको यकीन ही न हो, कि यह भी भला कोई फैशन है क्या ? पर धीरे-धीरे लगने लगता है कि भई वाह, असल फैशन तो यही है, बाकी हम सब तो क्या नाम झख मार रहे थे ! है कि नहीं ?
तो उस छोटे-से निदियाये शहर में भी, जहाँ हर चीज साल दर साल समुद्रतल की काई की तरह धीमे-धीमे लहराकर तिरती, झूमती, ऊँघती रहती थी, ऊँचा फैशन आ धँसा। एकाएक, यानी जिसे अंग्रेजी पत्रिकाओं की भाषा में कहते हैं ‘हाई फैशन।’

पहले दो-तीन ट्रकों में अंबार लगा हुआ, सामान आया, फिर गल्ले आये, फूलों और विचित्र रंगों वाले पत्तों से चकाचक फिर कुत्ता, फिर काकातुआ, फिर वे दोनों और सबसे अंत में बिब्बो ! पति ऊँचे लंबे कद का हँसमुख दोस्तबाश इनसान लगता था। कीमती गर्म कपड़े की ढीला कुर्ता वह एक सामंती लापरवाही से धारण किये हुए। हाँ, हाँ, वे लोग कपड़े पहनते नहीं थे, वैसे जैसे कि बाबुओं, व्यापारियों के चुस्तकाट लड़के-लड़कियाँ पहने रहते हैं, अपने बदन के बेडौलपने और अपने संस्कारों के भींथरेपन को और ज्यादा उभारते हुए। वे लोग अपने वस्त्र धारण करते थे, जैसे कि पारंपरिक प्रस्तर-मूर्तियाँ मंदिरों में करती हैं।

पति के गले में उत्तरीय-भर नहीं था, पर तब भी कल्पना की जा सकती थी कि वह किस प्रकार उसकी तही को बायें हाथ पर झेले हुए विराट हस्तमुद्राओं से एक कलात्मक पौरुषमय अंतरिक्ष रचता यदि वैसे परिप्रेक्ष्य में उसकी कल्पना करो तो !
पत्नी मुनहने से जिस्म की सुंदर लड़की थी। लड़की कहना ही पड़ेगा, बावजूद उसके कसे जूड़े, नुची भवों और सुनहरी कमानी के गोल चश्मे के। उसका जबड़ा कुछ-कुछ चौकोर था, और एक खानदानी जिद से भरा हुआ भी, जो पीढ़ियों से अपना हुक्म बाअदब बजवाती रही हो। वैसे उसकी आवाज बेहद नरम और हलीम थी, और उसका उच्चारण गुनगुनी अंग्रेजी ध्वनियों से पगा था। आ की मात्रा को वह हलक में घुमाकर बोलती थी, और र को एक बेहद प्यारे पन से ड़ और र के बीच का हरुफ बनाकर कहती। एक हल्का पंजाबी कटाव उसकी अंग्रेजी के सारे परदेसीपने को फाड़कर उसे एक प्यारी-प्यारी संभ्रांत आंचलिकता के घेरे में ले आता था। वह कुछ-कुछ रुककर झटके से बोलती थी, जैसे कि सामगान किया जा रहा हो। उसके नन्हे-नन्हें गुड़िया हाथ, उस वक्त एक कमनीय अंतरिक्ष रचते होते, हालाँकि उसकी अँगुलियाँ लंबी, कलात्मक नहीं, बल्कि छोटी चौकोर, पुष्ट और दुनियादार थीं।

बिब्बो की बात और थी। वह उस नन्हीं गुड़िया पत्नी की निजी नौकरानी के बतौर आयी या लायी गयी थी। और उसके नाम के अनुरूप ही उसका जिस्म और उसकी पूरी शख्सियत एक निहायत सुखद व मांसल किस्म से एक पंजाबी, कतई भौतिक चाक्षुष उपस्थिति थी। वह अपनी मालकिन की विगत फैशन वर्षों की वे उतरनें पहने रहती थी, जो लगभग कोरी ही होतीं, पर उनमें उसके अपने खास निजी स्पर्श थे। सब कुर्तों के गले उसने नीचे तक काट डाले थे और उसका विराट वक्ष उसके बीच सुगंधित जेली की तरह निरंतर काँपता रहता था। उसकी कमर चौड़ी, पर सुडौल कूल्हे भरे और तनिक उठे हुए थे। उसकी आँखें वीरान और चेहरा भावहीन होने के बावजूद उसकी चाल जवानी के खुमार से बोझल और लड़खड़ाती हुई थी-ऐसी, कि हर किसी को लगता था कि उसके सहारा दिये बगैर वह चल नहीं पायेगी। चूँकि घर के सारे बाथरूम संगमरमरी फर्श के थे, चुनाँचे वह कपड़े बाहर लान के नल पर धोती थी। दुपट्टा झाड़ी में टाँग अपनी शलवार टखनों तक चढ़ाये आस्तीन समेटे वह जब झपाक्-झपाक् की ध्वनि में मूँगेरी चलाती तब मुहल्ले के सारे नौकर घर के पतीले गैस पर जलते छोड़कर निकल आते थे। वह न उनमें से किसी से बोलती, न चालती। एक मस्तानी अदा से अंतिम कपड़े को पछोर, फींच और झटकाकर वह प्लास्टिक की बाल्टी में डालती और हाथ बढ़ाकर टुपट्टा उठा खरामा-खरामा घर के भीतर दाखिल हो जाती। मुहल्ले की फुर्सती दोपहर देर तक उसके नितंबों से सटी पेंडुलम सी डोलायमान होती रहती। हर रोज।

हर रोज, ठीक ग्यारह बजे पति अपनी गाड़ी में काम पर रवाना होता और पत्नी उसे दरवाजे तक छोड़ने आती। वे अंग्रेजों की तरह चुम्मी लेकर अलविदा कहते थे और फिर पत्नी अपनी अटकती सी जुबान में बिब्बो को पुकारती, आदेश देती, भीतर चली जाती- बड़ा बँधा-बँधाया दैनिक दस्तूर पर नमूँदार होती और अपनी लड़खड़ाती मदमस्त चाल में बाजार की ओर निकल जाती। नुक्कड़ पर कपड़ों पर प्रेस करता रामनरेश धोबी अपने विविध भारती कार्यक्रम का वाल्यूम ज्यों ही बढ़ाता तो पता चल जाता कि वह ढाल पर उतर रही है। फिर चौरसिया पान भंडार के ठहाके अचानक ऊँचे हो जाते, पाकेटो से कंघियाँ निकल आतीं, फुग्गे सँवरने लगते-यर्राज्जा।

धीरे-धीरे उन लोगों के मित्र भी बनने लगे थे। यह शहर का संभ्रांततम, पुराना इलाका था और यहाँ के सब बाशिंदे बड़े बापों की औलादें और बड़े दादाओं, पर-दादाओं के पोते-पोतियाँ थे, नौकरी करना जिनके लिए एक शुगल था। उनके पास इतना था कि बताना गैरलाजिमी हो चुका था। इन बगंलों की अपनी दुनिया थी, अपने जश्नों सैर सपाटे और अपने खफ़ीफ से मजाक या बदगुमानियाँ थीं। नयी या चकाचौंध करने वाली चीजों से उन्हें सख्त परहेज था। इन बंगलों के आरामगाहों में पुरानी धूसर मूर्तियाँ, नायाब ब्रोकेड के पुराने सोफे, शिपेनडेल का प्राचीन फर्नीचर और अलंकरण एक समझदार उकताहट से बिखरे रहते। उनके फ्रिज रसोईघरों में थे और बड़े नामीदामी स्टीरियो यूनिट भीतर की किसी कुठरिया में। वे सब धीमे बोलते, धीमे चलते और धीमे-धीमे खाते थे। उनका सब कुछ एक असल अनौत्सुक्य में भीगा-भीगा और एक बाल-सुलभ विश्वास में मढ़ा हुआ था। ऐसा बालसुलभ विश्वास, जो सिर्फ उन्हीं लोगों में होता है, जिनका बचपन सतरंगी परीकथाओं की झाग में से सीधा निकला हो-दूधिया, कच्चा पुरतासीर।

पत्नी अपनी भोली-भाली आवाज में मित्रों को प्रायः बताती थी कि बिब्बो घर के क्षेत्र में उनका एक प्रजातांत्रिक प्रयोग थी। अगर आप इनसानों की तरह उनसे पेश आयें तो कोई कारण नहीं कि नौकर हमदर्द मनुष्यों की तरह आपके घर में काम न करें, उनकी भी ‘वाइब्स’ हैं, उनकी भी ‘एम्बियाँसेज’ हैं, नहीं ?

बिब्बो वही खाती थी जो वे खाते थे-यानी मक्खन, अंडा, फल, फूल, पनीर सब। वह हर महीने अच्छे कपड़ों से लैस करायी जाती, उसे हर पखवारे अच्छा साबुन ! शैंपू और टैलकम-पाउडर लेकर दिया जाता।’’ ‘‘उनसे वह जो करे उसका अपना सिरदर्द है, हम उससे एक इनसानी धरातल पर पेश आना चाहते हैं, मालिक नौकर के स्तर पर नहीं, बराबरी के स्तर पर।’’ फिर मालकिन अपनी मृदु आवाज और भी मृदुल संगीतमय बनाकर कहती, ‘‘बिब्बो-दो निंबू, पानी और प्लीऽऽज।’’ बिब्बो रानी एक सेक्सी रोबोट की तरह हिलती-डुलती निर्विकार चेहरा लिये कुछ देर बाद नमूँदार होती, हाथ में एक खाली चाँदी की पुश्तैनी ट्रे हिलाती हुई-‘‘निम्मक वाल्ला के, चीन्नी वाल्ला !’ उसका स्वर उसके चेहरे की तरह भावहीन होने पर भी, उसके जिस्म की तरह कुछ फटा-फटा पर एक हर्राफा दृष्टिकोण से आकर्षक था। पत्नी तुरंत विनयविगलित हो मेहमानों से क्षमा माँगकर पूछती कि वे नमक वाला लेंगे या चीनी वाला ! वह तो नमक लेती है, पर जैसा वे चाहें। फिर आर्डर दे दिया जाता और हिलती-डोलती बिब्बो पर्दे पर खुँसी चाँदी की पुरानी घंटियाँ झंकारकर भीतर चली जाती।
तभी–पत्नी ने लोगों को यह भी बताया था कि उन्होंने पिछले शहर में बिब्बो को एक ब्यूटीशियन से ट्रेनिंग भी दिलवायी थी, ताकि उसे एक और हुनर आ जाये। पढ़ने या टाइपिंग सीखने में उसकी रुचि नहीं थी, सो-‘‘अब वह ऐसा फेशियल देती है कि त्वचा का पोर-पोर जाग उठे। मेरे बाँहों के बालों की थेडिंग भी वही करती है’’-पत्नी अपनी रोमहीन सुडौल गोरी भुजा फैलाती।

‘‘क्या सिर्फ स्त्रियों को ही देती है फेशियल ?’’
‘‘नहीं, नहीं।’’
‘‘क्या सुंदरता औरतों का ही हक है ?’’
‘‘आप चाहें तो-’’
हा हा हा मजाक छिड़ गये-पहले तुम, पहले तुम। फिर एक जना मजाकों से बिंधा आधा मगन, आधा छगन होता बिब्बो के साथ भीतर की कुठरिया में चला गया और आधे-पौने घंटे बाद चमकता चेहरा लिये नमूँदार हुआ-‘‘मानना पड़ेगा है तुम्हारी मुटल्ली के हाथ में जादू !’’

‘‘यही तो मुझे भी अचरज होता है’’, पत्नी चहकी-‘‘घर के काम में तो ऐसी बेशऊर है कि यदि कुक न होता तो हमें शायद समय से खाना भी नहीं मिलता, इतने ग्लास और प्याले तोड़ती है कि भगवान बचाये, पर इस काम में हुनर हासिल है !’’
‘‘अपने-अपने हुनर हैं-हा हा हा हा !’’ फिर अचानक उनके घर लोगों की आवत-जावत बढ़ने लगी। इस मोहल्ले के पुरुष के पुरुष यूँ भी नौ से पाँच दफ्तर जाने वालों में नहीं थे। दफ्तर तो उनके अपने थे ही। जिन बिल्डिगों में दफ्तर थे, वे बिल्डिंगें भी उनकी ही थीं। अब अक्सर पति लंच-टाइम पर आता तो पत्नी भुन्नाती रहती-‘‘लंच अधूरा बना पड़ा है और बिब्बो फिर किसी को फेशियल दे रही है, पड़ोस का मामला था-अपने आजाद खयालों और वक्तव्यों से भरे इतने जमावड़ों के बाद गली कूचें की औरतों की तरह टोकाटाकी करना भी उनके लिए संभव न था ! भलमंसी की मार ! वे लोग बड़े पशोपेश में थे। उधर बिब्बो की भूख का मानो अंत ही न था। सुबह वह छह टोस्ट और दो तले अंडे डकार जाती साथ में एक गिलास दूध। जबकि देह की तराश को लेकर सजग पति-पत्नी कुढ़ते हुए सिर्फ काली कॉफी और टोस्ट भर लेते और जब वह आकर लचककर कहती-‘‘जी, कल का सालन पड़ा है, मैं ले रही हूँ टोस्ट दे नाल, अच्छा ?’’ तो वे बगले झाँकने लगते। दूध भी वह दिन-भर पीती रहती।

पत्नी को लगने लगा था कि वह फ्रिज में ताला लगा दे, तो ठीक रहे। गुच्छा भर पुष्ट केला चाँदी के ‘फ्रूटबोल’ में सुबह रखा होता शाम तक एक काला सा सुकड़ा केला उसमें पड़ा रह जाता। अचार की शीशियाँ की शीशियाँ साफ हो जातीं। जैम के भी वही हाल ! पत्नी के मायके से मेवे के थैले आते, उनका माल भी देखते—देखते आधा रह जाता। फिर खरबूजे की भूख भी चमक उठी थी। जितनी देर पत्नी कुठरिया में शास्त्रीय संगीत के ‘स्टीरियो रेकार्ड’ लगाकर पड़ी-पड़ी अंग्रेजी किताबें पढ़ती, उसके विदेश से आयातित ट्रांजिस्टर में तेज फिल्मी गाने लगाकर वे दोनों रसोई में ठिलठिलाते रहते। ‘‘आंदिम भावनाएँ हैं, लव हा हा हा। ’’ पति ने मित्रों के बीच पत्नी को फिर समझाया-‘‘वे लोग अपने को नहीं रोक सकते। कुत्तों-बिल्लियों की तरह उन्हें मजा करने दो, शाम को खाना और उम्दा मिलेगा-हा-हा-हा !’’

‘‘उम्दा तो क्या चार गिलास और दोनों तोड़ डालेंगे’’, पत्नी ने झमककर कहा। उसका धैर्य कोनों से फटने लगा था-‘‘उसे मालूम है कि सुबह ठीक आठ बजे मुझे पलंग में कॉफी चाहिए। उसके बिना मेरा जहन काम नहीं करता। आज नौ बजे तक नहीं आयी। देखने गयी तो खानसामा कहता है-वह अभी सो रही है। खानसामा, आफ आल द पीपुल। मुझसे ! वह भी उसको लेकर !’’

‘‘तो तुमने क्या किया ?’’ यह शायद उस दिलजली ने पूछा, जिसका पति उस वक्त बिब्बो से मालिश करवा रहा था। ‘‘मैंने वही खड़े-खड़े लताड़ा उसे कि ऐसे बात करते हैं क्या ? तभी देखती हूँ कि मल्काजी आँखें मलती आ रही हैं-क्या बजा है बीजी ?’’ आय टैल यू-मैं तो गुस्से के मारे उल्टे पाँव लौट आयी।’’
‘‘मेरी मानो तो इसे चलता करो।’’ किसी ने सलाह दी।
‘‘वही सोचती हूँ, पर आजकल फिर नौकर मिलते कहाँ हैं ! उनके बिना भी तो....’’
‘‘यह तो है !’’

गर्मियाँ बीतीं, जाड़े आये पर बिब्बो के मारक जिस्म ने शालें नहीं ओढ़ीं। हालाँकि उसकी मालकिन छह हजार रुपये का पुराना पश्मीना ओढ़े हीटर के पास बैठी-हू हू’ करती रहती। मक्खन मेवे घी की लुनाई से चिकना अपना उबले अंडे सा भावहीन चेहरा लिये बिब्बो उसके गुड़िया हाथों-पैरों, चेहरे की उबटनों से मालिश करती, कील मुँहासे निकालती भँवें सँवारती और टाँगों-पैरों को रोमहीन बनाती रही। जाड़े, गर्मी बरसात किसी मौसम का उस पर कोई असर नहीं था। उसका खमदार बदन जैसा ही मस्त रहा आया और रंगीन पटियालवी फूँदने से सजी उसकी लंबी गुत्त उसके विराट् कूल्हों पर डोलती एक बड़े समुदाय का तन-मन डोलाती रही।
‘‘आजकल मैं कोशिश कर रही हूँ कि वह कुछ बुनाई-कढ़ाई सीख जाये, पढ़ाई-लिखाई न सही !’’ अपनी रौथमैंस सिगरेट का कश लेकर पत्नी ने कहा। वह एक ढीला कढ़ा हुआ झब्बा पहने हुए थी, जो उसकी किसी पूर्वजा के किसी नायाब कश्मीरी शाल को काटकर सिला गया था।

‘‘सिखायेगा कौन ?’’ किसी ने जिज्ञासा व्यक्त की। उन लोगों को इस तरह की चीजें आती ही कहाँ थीं ? काढ़ना-बुनना, पकाना-पर जरूरत थी भी नहीं। उनके लिए ही तो यह काम किये जाते थे, सारी दुनिया में। अगर वे लोग भी अपने कपड़े खुद सीने-काढ़ने लगते तो उन भव्य सिलाई की दुकानों का क्या होता ? पत्नी ने उसी किस्म की एक दुकान का नाम लिया, जहाँ शाम को मध्यवित्त गृहिणियों और उनकी विवाहयोग्या लड़कियों के लिए सिलाई-कढ़ाई की क्लासें होती थीं। ड्राइवर शाम को अपने घर जाता हुआ उसे छोड़ आयेगा और वापसी में वह बस ले लेगी। बस, इतनी ही सी तो बात थीं ! पति-पत्नी अपने औदार्य और अपनी स्कीम के चौकसपने पर बड़े खुश थे। ‘‘उसकी साइकी (अंतरात्मा) को कुछ तो रचनात्मक संतोष मिलना चाहिए’’, पत्नी ने अपना गुड़िया हाथ लहराकर कहा, ‘‘वर्ना औसत हिंदोस्तानी लिबिडो (अस्मिता) छोटे शहर में ऐसी कुचली रहती है कि सिवा सेक्स के दिमाग में कुछ आता नहीं।’’ फिर कुछ देर वे सब बेहद सुथरी और विद्वत्तापूर्ण अंग्रेजी में आम भारतीय और सेक्स पर खुली बातचीत करते रहे। वे लोग खुली बातचीतों और खुली बहसों के आदी थे, इतने कि वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि बिब्बो को उस दब्बूपने और संकीर्णता में बाँधकर रखेंगे, जिसमें आम भारतीय औरत खासकर नौकरानी को रहना पड़ता है।

पर इस सब सौहार्द्रपूर्ण खुली बातचीत के बाद जब बिब्बो को इसकी सूचना दी गयी तो उसने अपने नितांत भावहीन तरीके से साफ मना कर लिया-‘‘नहीं ज्जी, क्याऽ करना !’’
‘‘पर तब तुम कपड़े सिल सकोगी ?’’ उन्होंने सुझाया।
‘‘बहोत है जी, फिर दर्जी तो है ही-’’
‘‘घर में हमारा थोड़ा मरम्मत रफू करल काम कर लेना।’’
‘‘सो आप दर्जी से करा लो, बेहतर करेगा !’’ इतना कहकर वह कुछ हँसी सी।
‘‘तुझे मशीन ले देंगे-कौन-सी है डार्लिंग, वो हिंदोस्तानी वाली जो मिडल ईष्ट को भी एक्सपोर्ट होती है ?’’
‘‘हाँ,हाँ, निशा वाली, फिर तू कपड़े सीना मजे में !’’
‘‘क्या ऽऽ करना जी,’’ बिब्बो ने बातचीत को पक्का पूर्ण विराम देते हुए कहा और नल के नीचे सलाद धोने लगी। उनकी पूरी योजना गड़बड़ा गयी थी।

‘‘पर तू दिन भर तो खाली रहती है, फिर क्या करेगी ?’’
‘‘सोऊँगी जी,’’ उसने उसी ऐतिहासिक भोलेपन से कहा जैसे कभी नूरजहाँ ने कबूतर उड़ाये थे, और खानसामा को देखकर हँस पड़ी।
बिब्बो एक सरदर्द होती जा रही थी। वह देर-देर तक सोती, ढेरों-ढेर खाना खाती वक्त बेवक्त चीजों की फंकियाँ मारती रहती। दो एक बार मालकिन ने अपना शैंपू और टैलकम चुराते रँगे हाथों पकड़ भी। खानसामा भी उसकी सोहबत में ढीला और ढीठ होता जा रहा था, वह तो थी ही। उधर से इधर और भाव बताने लगी थी। जब उनका कोई मित्र आकर ‘फेशियल’ को कहता तो उसे बुलाये जाने पर वह एक ढीठपने से उसे ऊपर से नीचे तक घूरकर सिर को भीतरी कमरे की तरफ झटका देती-‘‘चलिए’’ और कूल्हे मटकाती आत्मविश्वास के साथ बगैर पीछे देखे भीतर चल देती कि वह आ भी रहा है या नहीं ! यह बात और थी कि वह अवश्य आता ! ‘‘ले देकर एक शाम का समय होता है, उस वक्त ये लोग आ जाते हैं-’’ होंठ चबाती पत्नी कहती। उस वक्त उसका जबड़ा कुछ चौकोर और चेहरा तना-तना हो जाता।

फिर एक दिन बिब्बो के घर से खत आया, जो किसी गाँव के पढ़े-लिखे ने बिब्बो के बाप की तरफ से लिखा था, कि बिब्बो के लिए उन्हें एक लड़का मिल गया है जो फौज में है और शक्लों-सूरत का भी ठीक-ठाक है। बिब्बो की छोटी बहन कुक्कू सेवा में आने को तैयार है, उसकी तो जिंदगी बन जायेगी वगैरह, वगैरह।
‘‘न कुक्कू, न पुक्कू, बस इसी को भेज दो वापस। अच्छा बहाना भी है इस वक्त।’’ पत्नी ने संतरा चूसते हुए कहा। बिब्बो उस समय बाहर कपड़े धो रही थी और पत्तियों की मेंड़ के आसपास दर्जनों नौकर पतंगों की तरह मँडरा रहे थे।
‘‘पर फिर तुम्हारा काम कौन करेगा ?’’ पति ने एक खैरख्वाह मित्र की नरमाहट भरी दृष्टि से पत्नी का नाजुक जिस्म निहारा। ‘‘कोई यहीं की बूढ़ी बाई मिल जायेगी ज्यादा पैसा देकर ! तुम चिंता न करो। सिर्फ इसे भर पैक ऑफ कर दो, वर्ना खानसामा इसे लेकर किसी भी दिन छोड़कर चल देगा, फिर क्या होगा ?’’

‘‘सो तो है,’’ पति ने सोचते हुए कहा।
तो एक दिन बिब्बो का बिस्तरा बँध गया। उसके दो टीन के ट्रंक कार में रख दिये गये, दरी में बँधा एक अदद बिस्तरा भी। पत्नी ने उसे एक घंटा जीवन, आदर्श विवाह की जरूरत और नारी स्वतंत्रता के बारे में समझाया, जिसके दौरान वह सिर्फ ‘हंजी’, ‘हंजी’, करती या उबासियाँ लेती रही। उसे और उसके फौजी को इस सबसे करना भी क्या था ? न एक बार उसने पति-पत्नी को धन्यवाद दिया, न ही हर्ष या शोक जैसा कुछ व्यक्त किया। कुछ लोगों का कहना है कि टैक्सी के चलते-चलते उसने पूरे पड़ोस की खिड़कियों को हाथ हिलाया और कुछ मुसकरायी सी थी-पर हो सकता है कि उनकी कल्पना भर हो।
कुछ दिन वे लोग बिब्बो को याद कर परस्पर हँसी-मजाक करते रहे-फिर उसे भूल सा गये।


पितृदाय



दो हफ्तों से लगातार अस्पताल के जीने चढ़ते-उतरते, नर्सों-डॉक्टरों के पीछे लपकते, दवाइयों की दुकान के चक्कर लगाते, उमेश अब कतई पस्त हो गया था। यूँ पस्त तो आदमी दिन भर कॉलेज में पढ़कर भी हो ही जाता है, पर यह पस्ती उस पस्ती जैसी न थी। लाख उबाल हो या खीज उठे, फिर भी उसमें कुछ देर के लिए एक ऐंची-तानी खुशी तो मिल ही जाती है, जब कभी पानवाला प्रोफेसर साब कहकर कम-से-कम एक पान खाते जाने का अनुरोध करता है, या कि बहन की चिट्ठी आती है, जिसमें कहा गया होता है कि जहनी काम हर किसी के बूते का नहीं और इसे करनेवाले को अच्छी गिजा लेनी ही चाहिए। इस पस्ती का तो ओर छोर ही नहीं था। सत्तर को पार की हुई बाबू की उम्र पंद्रह साल पुराना ब्लडप्रेशर, मधुमेह और अब कालिज का यह जोरदार हमला। किसी भी डॉक्टर ने उनके ठीक होने की पक्की आशा नहीं बँधायी थी। उसने भी नहीं, जो बहन का मेडिकल कॉलेज में सहपाठी रह चुका था और इस नाते हर राउंड पर एक बार झाँक जाया करता था। सिर्फ दूर के रिश्ते की एक बुआ ने, जो शुरू में खबर पाकर भरी दुपहरी में बस से अस्पताल आयी थीं, कहा था कि कहीं से शेर की चर्बी....मिल जाये, तो सुनते हैं सुन्न अंगों में उसकी मालिश से शर्तिया लाभ....

बहन को उसने चिट्ठी में सब हाल लिख दिया था। छुपाने जैसा उनके बीच कुछ था भी नहीं और उसके पत्र पाकर बहन के तड़प उठने या कलपने जैसा भी कुछ रह कहाँ गया था ! कम-से-कम अब इस वक्त जबकि वह अपने पेचीदा तलाक के मसले से उलझती, दूर फिलाडेल्फिया की परदेसी कचहरियाँ खटखटा रही थी। उसका नीग्रो पति, जो सिर्फ बेकारी का सरकारी मेहनताना खा रहा था, अपनी डाक्टर पत्नी से तलाक के अवज में भरपूर हरजाना ऐंठने पर उतारू था और बहन कुछ अपने चुप्पेपन और कुछ पति के काँइयाँ पेंचों के मारे जरूरी हमदर्दी का वातावरण नहीं बना पा रही थी। वैसे लिखा था बिचारी ने कि कुछ खर्चा भेजेगी, पर उसे खास उम्मीद न थी।

‘क्या हाल हैं अब ?’’ कॉलेज में उसे देखते ही सब हमदर्दी से पूछते तो वह सुकड़ता हुआ बुदबुदा देता कि वैसे ही हैं। इतनी नर्म, दयालु हमदर्दी और कुतूहल अभी तक उसने अपने ऊपर कभी नहीं झेले थे। ऐसे क्षणों में उसे अपना दो कमरे का घर बहुत याद आया करता। घर, जैसाकि वह माँ के जाने और बाबू के वापस आने का दरम्यान था। अपने सारे पपड़ियाये रोगन और मकड़ी के जालों के बावजूद। चुप्पा, प्रश्नहीन, आकांक्षाहीन, अपेक्षाहीन अपने नंबर ग्यारह के चश्मे और पीठ के हल्के कूबड़ को लिये दिये जिसकी ठंडी चूनेदार गहराइयों के गुड़प होने को वह कतई आजाद था। आह ! कब जा पायेगा वह वापस रहने को उस घर में ? रात को वह करवट लेता तो अस्पताल की चारपाई पसलियों की तरह चुभती थी। और सुबह ठीक साढ़े-पाँच बजे जमादार जगा जाता था-‘‘टट्टी-पेशाब का बर्तन निकालना सा’ब !’’


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